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| == Ayurvedic Perspectives == | | == Ayurvedic Perspectives == |
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− | It has long been recognized by our ancient seers that the role of woman in bearing the future generation is very important. Indian Ayurvedic texts provide detailed information about the prenatal samskaras.
| + | Garbhadhana is the process of containing a new life's seed by mother in her womb. This is the first step in producing a new life and it can also be called as the process of conception. Entire wellbeing of the new life in womb depends on this first step. Thus Ayurveda acharyas have given considerable attention to this. As a first step, they have defined the age at which a man and a woman should unite in order to produce a new life which would be of good qualities. They are set up the minimum age for conception for woman at 16 the yrs of age and 25yrs of age for a man. It is believed that, generally at this age a man and a woman have developed fully and can give birth a new life without much complications. <blockquote>पञ्चविंशे ततो वर्षे पुमान् नारी तु षोडशे | समत्वागतवीर्यौ तौ जानीयात् कुशलो भिषक् ||१३|| (Sush. Samh. 35.13)<ref>Sushruta Samhita (Sutrasthanam Adhyaya 35 Sutra 13)</ref> </blockquote>Along with the age there are few criteria set by the scholars which are believed to be essential for development of a healthy new life. Those are as follows,<ref>Charaka Samhita (Sharirasthanam Adhyaya 2 Sutra 3)</ref> |
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− | Age for Impregnation
| + | * अतुल्यगोत्रस्य : The man and woman should not be from the same [[Gotra and Pravara (गोत्रप्रवरश्च)|Gotra]] (clan). |
| + | * तत्रात्यशिता क्षुधिता पिपासिता भीता विमनाः शोकार्ता क्रुद्धाऽन्यं च पुमांसमिच्छन्ती मैथुने चातिकामा वा न गर्भं धत्ते, विगुणां वा प्रजां जनयति| अतिबालामतिवृद्धां दीर्घरोगिणीमन्येन वा विकारेणोपसृष्टां वर्जयेत्| पुरुषेऽप्येत एव दोषाः| अतः सर्वदोषवर्जितौ स्त्रीपुरुषौ संसृज्येयाताम्||६|| Cha sha 8.6 |
| + | * रजःक्षयान्ते : Menstruation of the woman should have stopped i.e. after 3 to 4 days of her menstruation only they should unite not during menstruation. |
| + | * रहोविसृष्टं मिथुनीकृतस्य: They should unite in a private place |
| + | * तस्मादुत्ताना बीजं गृह्णीयात्; तथाहि यथास्थानमवतिष्ठन्ते दोषाः| |
| + | * पर्याप्ते चैनां शीतोदकेन परिषिञ्चेत्| |
| + | * सञ्जातहर्षौ मैथुने चानुकूलाविष्टगन्धं स्वास्तीर्णं सुखं शयनमुपकल्प्य मनोज्ञं हितमशनमशित्वा नात्यशितौ दक्षिणपादेन पुमानारोहेत् वामपादेन स्त्री||७|| |
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− | Time of Impregnation
| + | When all the above mentioned conditions are considered and followed a couple is advised to copulate for producing a new life. Acharya Vagbhata also gives a vedic verse that generates an environment and a call to the new life energy (atman) that is going to enter the product of conception to give it a life. The sutra is as follows, |
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− | Mental status of the Expecting Mother
| + | <blockquote>तत्र मन्त्रं प्रयुञ्जीत- “अहिरसि आयुरसि सर्वतः प्रतिष्ठाऽसि धाता त्वा ददतु विधाता त्वा दधातु ब्रह्मवर्चसा भव” इति| |
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| + | “ब्रह्मा बृहस्पतिर्विष्णुःसोमःसूर्यस्तथाऽश्विनौ| |
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| + | भगोऽथ मित्रावरुणौ वीरं <sup>[२]</sup> ददतु मे सुतम्” |
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| + | इत्युक्त्वा संवसेयाताम्||८||</blockquote>सा चेदेवमाशासीत- बृहन्तमवदातं हर्यक्षमोजस्विनं शुचिं सत्त्वसम्पन्नं पुत्रमिच्छेयमिति, शुद्धस्नानात् प्रभृत्यस्यै मन्थमवदातयवानां मधुसर्पिर्भ्यां संसृज्य श्वेताया गोः सरूपवत्सायाः पयसाऽऽलोड्य राजते कांस्ये वा पात्रे काले काले सप्ताहं सततं प्रयच्छेत् पानाय| |
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| + | प्रातश्च शालियवान्नविकारान् दधिमधुसर्पिर्भिः पयोभिर्वा संसृज्य भुञ्जीत, तथा सायमवदातशरणशयनासनपानवसनभूषणा च स्यात्| |
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| + | सायं प्रातश्च शश्वच्छ्वेतं महान्तं वृषभमाजानेयं वा हरिचन्दनाङ्गदं पश्येत्| |
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| + | सौम्याभिश्चैनां कथाभिर्मनोनुकूलाभिरुपासीत| |
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| + | सौम्याकृतिवचनोपचारचेष्टांश्च स्त्रीपुरुषानितरानपि चेन्द्रियार्थानवदातान् पश्येत्| |
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| + | सहचर्यश्चैनां प्रियहिताभ्यां सततमुपचरेयुस्तथा भर्ता| |
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| + | न च मिश्रीभावमापद्येयातामिति| |
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| + | अनेन विधिना सप्तरात्रं स्थित्वाऽष्टमेऽहन्याप्लुत्याद्भिः सशिरस्कं सह भर्त्रा अहतानि वस्त्राण्याच्छादयेदवदातानि, अवदाताश्च स्रजो भूषणानि च बिभृयात्||९|| |
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| + | Putreeya vidhi |
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| + | तत ऋत्विक् प्रागुत्तरस्यां दिश्यगारस्य प्राग्प्रवणमुदक्प्रवणं वा प्रदेशमभिसमीक्ष्य, गोमयोदकाभ्यां स्थण्डिलमुपलिप्य, प्रोक्ष्य चोदकेन, वेदीमस्मिन् स्थापयेत्| |
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| + | तां पश्चिमेनाहतवस्त्रसञ्चये श्वेतार्षभे वाऽप्यजिन उपविशेद् ब्राह्मणप्रयुक्तः, राजन्यप्रयुक्तस्तु वैयाघ्रे चर्मण्यानडुहे वा, वैश्यप्रयुक्तस्तु रौरवे बास्ते वा| |
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| + | तत्रोपविष्टः पालाशीभिरैङ्गुदीभिरौदुम्बरीभिर्माधूकीभिर्वा समिद्भिरग्निमुपसमाधाय, कुशैः परिस्तीर्य, परिधिभिश्च परिधाय, लाजैः शुक्लाभिश्च गन्धवतीभिः सुमनोभिरुपकिरेत्| |
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| + | तत्र प्रणीयोदपात्रं पवित्रपूतमुपसंस्कृत्य सर्पिराज्यार्थं यथोक्तवर्णानाजानेयादीन् समन्ततः स्थापयेत्||१०|| |
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| + | ततः पुत्रकामा पश्चिमतोऽग्निं दक्षिणतो ब्राह्मणमुपविश्यान्वालभेत सह भर्त्रा यथेष्टं पुत्रमाशासाना| |
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| + | ततस्तस्या आशासानाया ऋत्विक् प्रजापतिमभिनिर्दिश्य योनौ तस्याः कामपरिपूरणार्थं काम्यामिष्टिं निर्वर्तयेद् ‘विष्णुर्योनिं कल्पयतु’ इत्यनयर्चा| |
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| + | ततश्चैवाज्येन स्थालीपाकमभिघार्य त्रिर्जुहुयाद्यथाम्नायम्| |
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| + | मन्त्रोपमन्त्रितमुदपात्रं तस्यै दद्यात् सर्वोदकार्थान् कुरुष्वेति| |
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| + | ततः समाप्ते कर्मणि पूर्वं दक्षिणपादमभिहरन्ती प्रदक्षिणमग्निमनुपरिक्रामेत् सह भर्त्रा| |
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| + | ततो [१] ब्राह्मणान् स्वस्ति वाचयित्वाऽऽज्यशेषं [२] प्राश्नीयात् पूर्वं पुमान्, पश्चात् स्त्री; न चोच्छिष्टमवशेषयेत्| |
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| + | ततस्तौ सह संवसेयातामष्टरात्रं, तथाविधपरिच्छदावेव च स्यातां [३] , तथेष्टपुत्रं जनयेताम्||११|| |
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| + | या तु स्त्री श्यामं लोहिताक्षं व्यूढोरस्कं महाबाहुं च पुत्रमाशासीत, या वा कृष्णं कृष्णमृदुदीर्घकेशं शुक्लाक्षं शुक्लदन्तं तेजस्विनमात्मवन्तम्; एष एवानयोरपि होमविधिः| |
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| + | किन्तु परिबर्हो वर्णवर्जं स्यात्| |
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| + | पुत्रवर्णानुरूपस्तु यथाशीरेव तयोः परिबर्होऽन्यः कार्यः स्यात्||१२|| |
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| + | शूद्रा तु नमस्कारमेव कुर्यात् (देवाग्निद्विजगुरुतपस्विसिद्धेभ्यः [४] )||१३|| |
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| + | या या च यथाविधं पुत्रमाशासीत तस्यास्तस्यास्तां तां पुत्राशिषमनुनिशम्य तांस्ताञ्जनपदान्मनसाऽनुपरिक्रामयेत्| |
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| + | ततो [५] या या येषां येषां जनपदानां मनुष्याणामनुरूपं पुत्रमाशासीत सा सा तेषां तेषां जनपदानां मनुष्याणामाहारविहारोपचारपरिच्छदाननुविधत्स्वेति वाच्या स्यात्| |
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| + | इत्येतत् सर्वं पुत्राशिषां समृद्धिकरं कर्म व्याख्यातं भवति||१४|| |
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| + | Phalam: |
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| + | यथोक्तेन विधिनोपसंस्कृतशरीरयोः स्त्रीपुरुषयोर्मिश्रीभावमापन्नयोः शुक्रं शोणितेन सह संयोगं समेत्याव्यापन्नमव्यापन्नेन योनावनुपहतायामप्रदुष्टे गर्भाशये गर्भमभिनिर्वर्तयत्येकान्तेन| |
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| + | यथा- निर्मले वाससि सुपरिकल्पिते रञ्जनं समुदितगुणमुपनिपातादेव रागमभिनिर्वर्तयति, तद्वत्; यथा वा क्षीरं दध्नाऽभिषुतमभिषवणाद्विहाय स्वभावमापद्यते दधिभावं, शुक्रं तद्वत्||१७|| |
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| Carakasaṃhitā (Śārīrasthānam, 2.25) says that the lady would give birth to a child similar to the one whom she had had in mind during conception: | | Carakasaṃhitā (Śārīrasthānam, 2.25) says that the lady would give birth to a child similar to the one whom she had had in mind during conception: |
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| An example of this point is seen in Pravarakhya, the legend of [[Varuthini and Pravara (वरूथिनी प्रवरश्च)|Varuthini and Pravara]]. | | An example of this point is seen in Pravarakhya, the legend of [[Varuthini and Pravara (वरूथिनी प्रवरश्च)|Varuthini and Pravara]]. |
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