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येन काशी दृढी ध्याता येन काशीः सेविता।तेनाहं हृदि संध्यातस्तेनाहं  सेवितः सदा॥
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विश्व में ऐसा कोई नगर नहीं है जो काशी(वाराणसी) से बढकर प्राचीनता, निरन्तरता एवं मोहक आदर का पात्र हो। शताब्दियों से इस नगर के कई नाम प्रचलित रहे हैं जैसे-वाराणसी, काशी, अविमुक्त, आनन्दकानन श्मशान या महाश्मशान आदि। <blockquote>येन काशी दृढी ध्याता येन काशीः सेविता।तेनाहं हृदि संध्यातस्तेनाहं  सेवितः सदा॥
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काशी यः सेवते जन्तु  निर्विकल्पेन चेतसा। तमहं  हृदये   नित्यं  धारयामि  प्रयत्नतः ॥ (काशी_खण्ड् )
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काशी यः सेवते जन्तु  निर्विकल्पेन चेतसा। तमहं  हृदये   नित्यं  धारयामि  प्रयत्नतः ॥ (काशी खण्ड )</blockquote>विश्वनाथ जी कहते हैं की जो मनुष्य हृदय में काशी का ध्यान करता है साथ ही जो मनुष्य निर्विकल्प चित से काशी का स्मरण करता है , समझना चाहिए कि उसने मेरा हृदय में ध्यान कर लिया , उससे मैं सदा सेवित रहता हूं तथा मैं नित्य उसे प्रयत्न पूर्वक अपने हृदय में धारण करता हूं ।
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विश्वनाथ जी कहते हैं की जो मनुष्य हृदय में काशी का ध्यान करता है साथ ही जो मनुष्य निर्विकल्प चित से काशी का स्मरण करता है , समझना चाहिए कि उसने मेरा हृदय में ध्यान कर लिया , उससे मैं सदा सेवित रहता हूं तथा मैं नित्य उसे प्रयत्न पूर्वक अपने हृदय में धारण करता हूं ।
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महाभाष्य में पतञ्जलि ने वाराणसी को गंगा के किनारे अवस्थित कहा है।( पा (४।३।८४)पतञ्जलि महाभाष्य पृ० ३८०)
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इन्होंने कहा है कि व्यापारी गण वाराणसी को जित्वरी कहते हैं। प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों से पता चलता है कि वाराणसी बुद्ध-काल (कम-से-कम पाँचवीं ई० पू० शताब्दी) में चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत एवं कौशाम्बी जैसे महान् एवं प्रसिद्ध नगरों में परिगणित होती थी।(देखिए महापरिनिब्वानसुत्त एवं महासुदस्सनसुत्त, सैक्रेड बुक आव दि ईस्ट, जिल्द ११, पृ० ९९ एवं २४७)
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गौतम बुद्ध ने गया में सम्बोधि प्राप्त करने के उपरान्त वाराणसी के मृगदाव अर्थात् सारनाथ में आकर धर्मचक्र प्रवर्तन किया।
    
== काशी का महत्व ==
 
== काशी का महत्व ==
काशी के ब्राह्मण , भगवान विश्वनाथ के बड़े ही अनन्य भक्त थे।   जब भगवान सदाशिव राजा दिवोदास के फलस्वरूप #ब्रह्मा जी के गौरव की रक्षा के लिए समस्त देवी देवताओं सहित अविमुक्त पूरी काशी को छोड़कर मंदराचल चले गए , तब उनके भक्त , ऋषि , मुनि एवं ब्राह्मणों को बहुत दुख हुआ । वह किसी का दिया हुआ दान दक्षिणा नहीं लेते थे, प्रति ग्रह से दूर रहते थे वह अपनी जीविका के लिए डंडों से पृथ्वी खोद खोद कर कंदमूल का आहार करने लगे इससे वहां एक बहुत बड़ा तालाब बन गया जो दंडखात (यह दंडखात तीर्थ भुत भैरव मुहल्ले के पास कही था पर अब लुप्त होगया है) के नाम से प्रसिद्ध हुआ उन ब्राह्मणों ने उस तालाब के चारों ओर शिवलिंग एवं अनेक मूर्तियां स्थापित की और उनकी पूजा-अर्चना प्रारंभ कर दी।
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काशी के ब्राह्मण , भगवान विश्वनाथ के बड़े ही अनन्य भक्त थे।   जब भगवान सदाशिव राजा दिवोदास के फलस्वरूप ब्रह्मा जी के गौरव की रक्षा के लिए समस्त देवी देवताओं सहित अविमुक्त पूरी काशी को छोड़कर मंदराचल चले गए , तब उनके भक्त , ऋषि , मुनि एवं ब्राह्मणों को बहुत दुख हुआ । वह किसी का दिया हुआ दान दक्षिणा नहीं लेते थे, प्रति ग्रह से दूर रहते थे वह अपनी जीविका के लिए डंडों से पृथ्वी खोद खोद कर कंदमूल का आहार करने लगे इससे वहां एक बहुत बड़ा तालाब बन गया जो दंडखात (यह दंडखात तीर्थ भुत भैरव मुहल्ले के पास कही था पर अब लुप्त होगया है) के नाम से प्रसिद्ध हुआ उन ब्राह्मणों ने उस तालाब के चारों ओर शिवलिंग एवं अनेक मूर्तियां स्थापित की और उनकी पूजा-अर्चना प्रारंभ कर दी।
    
जब उन ब्राह्मणों को विदित हुआ कि भगवान विश्वनाथ जी पुनः काशी में आ गए हैं तब उन सभी ने प्रसन्न होकर उनके दर्शनार्थ उनके समक्ष उपस्थित होकर दंडवत प्रणाम करके अनेक अनेक स्त्रोतों से उनकी स्तुति की ।
 
जब उन ब्राह्मणों को विदित हुआ कि भगवान विश्वनाथ जी पुनः काशी में आ गए हैं तब उन सभी ने प्रसन्न होकर उनके दर्शनार्थ उनके समक्ष उपस्थित होकर दंडवत प्रणाम करके अनेक अनेक स्त्रोतों से उनकी स्तुति की ।
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== पंचक्रोशात्मक_काशी ==
 
== पंचक्रोशात्मक_काशी ==
<blockquote>शिव_उवाचः॥
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<blockquote>शिव उवाचः॥
    
विषयासक्तचित्तेःपि त्यक्तधर्मरतिनर्रः। ह क्षेत्रे मृतः सोपि संसारे न पुनर्भवेत् ॥
 
विषयासक्तचित्तेःपि त्यक्तधर्मरतिनर्रः। ह क्षेत्रे मृतः सोपि संसारे न पुनर्भवेत् ॥
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