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== पुरूष और स्त्री की विशेषताएं ==
 
== पुरूष और स्त्री की विशेषताएं ==
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पुरूष और स्त्री को परमात्मा ने मूलत: ही भिन्न बनाया है। फिर भी यदी ठीक से देखा जाये तो बच्चे को जन्म देना, जो दोनों का साझा काम है, उसे छोडकर दूसरा ऐसा कोई भी काम नहीं है जो स्त्री या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु केवल ' कर सकना ' के आधारपर स्त्री और पुरूष दोनों जो काम वर्तमान में स्त्रियाँ करतीं है वही करने लग जाएं तो जीना हराम हो जाएगा। इसीलिये सामान्यत: विभिन्न कामों का स्त्री सुलभ और पुरूष सुलभ कामों में बँटवारा किया जाता है और स्त्री के काम काप्रन से है और पुरूष के काप्रन से है यह निश्चय किया जाता है। वप्रसे तो कई काम ऐसे है जो सीमा रेखा पर होते है। जो स्त्री भी और पुरूष भी सहजता से कर सकते है। स्त्री में इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरॉन नाम के लैंगिक अंत:स्त्राव (हार्मोन) होते है। इन के कारण स्त्री के शरीर और अवयवों की रचना भिन्न और कोमल बनती है। पुरूष में ऍंड्रोजन और टेस्टोस्टेरॉन नाम के स्त्राव (हार्मोन) होते है। इन के कारण पुरूष के शरीर और अवयवों की रचना भिन्न और मजबूत बनती है। वैसे तो स्त्री और पुरूष दोनों में इस्ट्रोजन और टेस्टोस्टेरॉन दोनों हार्मोन होते ही है। लेकिन पुरूष में टेस्टोस्टेरॉन का प्रमाण स्त्री से १५ से २० गुना अधिक होता है। इसी प्रकार से स्त्री के शरीर में २६ प्रतिशत चरबी (फॅट्) और २० प्रतिशत प्रथिन (प्रोटीन) होते है तो पुरूष के शरीर में १५ प्रतिशत चरबी और ४५ प्रतिशत प्रथिन होते है। इन्हीं घटकों के कारण स्त्री और पुरूष में शारीरिक और मानसिक भिन्नता होती है। स्त्री में स्त्रीत्व और पुरूष में पुरूषत्व होता है। स्त्री का स्त्रीत्व और पुरूष का पुरूषत्व तीव्र होने से संतति अधिक तेजस्वी और ओजस्वी बनती है। सामाजिक संस्कारों के माध्यम से स्त्री के स्त्रीत्व को और पुरूष के पुरूषत्व को अधिक तीव्र बनाया जा सकता है। अधिजनन शास्त्र के माध्यम से भारतीय परंपराओं में ऐसा बनाया जाता रहा है।  स्त्री का स्वभाव भावना प्रधान होता है तो पुरूष का स्वभाव वस्तुनिष्ठ और तर्कनिष्ठ होता है। दिशा, गणित, विज्ञान, समय आदि विश्लेषण और संश्लेषण के विषय पुरूष के लिये अधिक सरल होते है। स्त्री के लिये कला, कौशल, कोमलता से करने के विषय सरल होते है। स्त्री की त्वचा भी पुरूष की त्वचा से महीन और इसलिये अधिक संवेदनशील होती है। स्पर्श ही नही तो स्पर्श के पीछे छुपी इच्छाओं को भी समझने की सामर्थ्य स्त्री में होती है। स्त्री में संवाद कुशलता अधिक अच्छी होती है। अन्यों के भाव स्त्री आसानी से समझ जाती है। पुरूष को उस के लिये प्रयास करने पडते है। पुरूष मेहनत के काम दीर्घ कालतक कर सकता है। स्त्री, उस के स्नायू कोमल होने के कारण शारीरिक दृष्टि से अधिक सहनशील होती है जब की पुरूष मानसिक आघातों को अधिक अच्छी तरह सहन कर लेता है।    १२-१३ वर्ष की अर्थात् माहवारी शुरू होने की आयु में स्त्री के शरीर में इस्ट्रोजन का प्रमाण और इस कारण प्रभाव बढ जाता है। यह स्त्री में लैंगिक आकर्षण निर्माण करता है। माहवारी के काल में स्त्री के अंत:स्त्रावों के असंतुलन के कारण स्त्री का स्वभाव चिडचिडा बन जाता है। पुरूषों में यह आयु १५-१६ वर्ष की होती है। इस आयु में पुरूषों में टेस्टोस्टेरॉन का प्रमाण बढता है। उस के स्नायू कठोर बनने लगते है। वह मदमस्त बन किसीको टकराने की इच्छा करने लगता है। आजकल लैंगिक  स्वैराचार और खुलापन बढ़ने से यह आयु कम हो रही है| गर्भ धारणा से लेकर संतान के पाँच वर्ष का होने तक के लिये स्त्री को किसी अन्य की मदद की आवश्यकता होती है। स्त्री में काम वासना से वात्सल्य की भावना अधिक प्रबल होती है। इसीलिये कहा गया है कि स्त्री क्षण काल की पत्नि और अनंत काल की माता होती है। स्त्री का स्वभाव बचत का होता है। उस के लिये प्रतिष्ठा से बचत का मूल्य अधिक होता है। इस लिये वह नि:संकोच होकर बीच बाजार में भी रुपये दो रुपयों के लिये भाव ताव करती दिखाई देती है।  स्त्री को अंतर्मुख होना कठिन होता है। त्रयस्थ वृत्ति से वह अपने व्यवहार का विश्लेषण नहीं कर सकती। स्त्री शारीरिक दृष्टि से पुरूष से दुर्बल तो होती ही है, गर्भावस्था में वह और भी परावलंबी बन जाती है। इस दुर्बलता के कारण ही मनु ने कहा है - पिता रक्षति कौमार्ये, भर्ता रक्षति यौवने, स्थवीरे रक्षति पुत्र: अर्थात् कौमार्यावस्था में स्त्री को पिता का यौवन में पति का और वार्धक्य में पुत्र का संरक्षण मिलना आवश्यक होता है। इस से उस स्त्री का और समाज का भी भला होता है। इस सब विश्लेषण का हेतु पुरूष और स्त्री में परमात्मा प्रदत्त अंतर होता है यह बताने का है। इस अंतर के कारण स्त्रियों के और पुरूषों के बलस्थान और दुर्बलस्थान भिन्न होते है, यह बताने का है। २७. मनुष्य एक स्खलनशील जीव है। स्खलन यह प्रकृति का नियम है। जैसे पानी हमेशा नीचे की ओर प्रवाहित होता है उसी तरह मनुष्य की प्रेरणाएँ भी उसे स्वभावत: निन्म स्तरकी दिशा में आगे बढातीं हैं। इस कारण मानव व्यवस्थाओं को और संस्कारों को बिगाडता रहता है। मानव जीवन और समाज जीवन सुचारू रूप से चलने के लिये मानव को तीव्र संस्कारों और शिक्षा की तथा दंण्ड व्यवस्था की आवश्यकता होती है। २८. मानव जीवन को मोक्षगामी बनाने का साधन धर्म है। अपनी इच्छाओं (काम) को और उन इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये गये प्रयासों तथा उपयोग में लाए गये धन, साधन और संसाधनों (तीनों मिलाकर अर्थ)को धर्मानुकूल रखने से मनुष्य मोक्षगामी बनता है। इसलिये काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने की शिक्षा ही वास्तव में शिक्षा होती है। जो मोक्षगामी नहीं बनना चाहते उन के लिये भी काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखना उतना ही आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है जितना मोक्षगामी लोगों के लिये। काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने से ही समाज सुखी, समृध्द और सुसंस्कृत बनता है। जब मानव के व्यवहारों को यानि इच्छाओं की पूर्ति के प्रयासों को धर्म के दायरे में रखा जाता है तब 'सर्वे भवन्तु सुखिन: की प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं।  २९. जब मनुष्य पैदा होता है उस समय उसके कोई कर्तव्य नहीं होते। केवल अधिकार ही होते हैं। ऐसे केवल अधिकार लेकर जिन्होंने जन्म लिया है उन बच्चों को अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिये जीनेवाले मनुष्य नहीं बनाया गया तो मानव का समाज जीवन नरक बन जाएगा। उसे कर्तव्यों के लिए जीनेवाला मनुष्य बनाना यह परिवार का काम है| और ऐसा विकास ही व्यक्ति का विकास है|
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पुरूष और स्त्री को परमात्मा ने मूलत: ही भिन्न बनाया है। फिर भी यदी ठीक से देखा जाये तो बच्चे को जन्म देना, जो दोनों का साझा काम है, उसे छोडकर दूसरा ऐसा कोई भी काम नहीं है जो स्त्री या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु केवल ' कर सकना ' के आधारपर स्त्री और पुरूष दोनों जो काम वर्तमान में स्त्रियाँ करतीं है वही करने लग जाएं तो जीना हराम हो जाएगा। इसीलिये सामान्यत: विभिन्न कामों का स्त्री सुलभ और पुरूष सुलभ कामों में बँटवारा किया जाता है और स्त्री के काम काप्रन से है और पुरूष के काप्रन से है यह निश्चय किया जाता है। वप्रसे तो कई काम ऐसे है जो सीमा रेखा पर होते है। जो स्त्री भी और पुरूष भी सहजता से कर सकते है।
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स्त्री में इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरॉन नाम के लैंगिक अंत:स्त्राव (हार्मोन) होते है। इन के कारण स्त्री के शरीर और अवयवों की रचना भिन्न और कोमल बनती है। पुरूष में ऍंड्रोजन और टेस्टोस्टेरॉन नाम के स्त्राव (हार्मोन) होते है। इन के कारण पुरूष के शरीर और अवयवों की रचना भिन्न और मजबूत बनती है। वैसे तो स्त्री और पुरूष दोनों में इस्ट्रोजन और टेस्टोस्टेरॉन दोनों हार्मोन होते ही है। लेकिन पुरूष में टेस्टोस्टेरॉन का प्रमाण स्त्री से १५ से २० गुना अधिक होता है। इसी प्रकार से स्त्री के शरीर में २६ प्रतिशत चरबी (फॅट्) और २० प्रतिशत प्रथिन (प्रोटीन) होते है तो पुरूष के शरीर में १५ प्रतिशत चरबी और ४५ प्रतिशत प्रथिन होते है। इन्हीं घटकों के कारण स्त्री और पुरूष में शारीरिक और मानसिक भिन्नता होती है। स्त्री में स्त्रीत्व और पुरूष में पुरूषत्व होता है। स्त्री का स्त्रीत्व और पुरूष का पुरूषत्व तीव्र होने से संतति अधिक तेजस्वी और ओजस्वी बनती है। सामाजिक संस्कारों के माध्यम से स्त्री के स्त्रीत्व को और पुरूष के पुरूषत्व को अधिक तीव्र बनाया जा सकता है। अधिजनन शास्त्र के माध्यम से भारतीय परंपराओं में ऐसा बनाया जाता रहा है।  स्त्री का स्वभाव भावना प्रधान होता है तो पुरूष का स्वभाव वस्तुनिष्ठ और तर्कनिष्ठ होता है। दिशा, गणित, विज्ञान, समय आदि विश्लेषण और संश्लेषण के विषय पुरूष के लिये अधिक सरल होते है। स्त्री के लिये कला, कौशल, कोमलता से करने के विषय सरल होते है। स्त्री की त्वचा भी पुरूष की त्वचा से महीन और इसलिये अधिक संवेदनशील होती है। स्पर्श ही नही तो स्पर्श के पीछे छुपी इच्छाओं को भी समझने की सामर्थ्य स्त्री में होती है। स्त्री में संवाद कुशलता अधिक अच्छी होती है। अन्यों के भाव स्त्री आसानी से समझ जाती है। पुरूष को उस के लिये प्रयास करने पडते है। पुरूष मेहनत के काम दीर्घ कालतक कर सकता है। स्त्री, उस के स्नायू कोमल होने के कारण शारीरिक दृष्टि से अधिक सहनशील होती है जब की पुरूष मानसिक आघातों को अधिक अच्छी तरह सहन कर लेता है।    १२-१३ वर्ष की अर्थात् माहवारी शुरू होने की आयु में स्त्री के शरीर में इस्ट्रोजन का प्रमाण और इस कारण प्रभाव बढ जाता है। यह स्त्री में लैंगिक आकर्षण निर्माण करता है। माहवारी के काल में स्त्री के अंत:स्त्रावों के असंतुलन के कारण स्त्री का स्वभाव चिडचिडा बन जाता है। पुरूषों में यह आयु १५-१६ वर्ष की होती है। इस आयु में पुरूषों में टेस्टोस्टेरॉन का प्रमाण बढता है। उस के स्नायू कठोर बनने लगते है। वह मदमस्त बन किसीको टकराने की इच्छा करने लगता है। आजकल लैंगिक  स्वैराचार और खुलापन बढ़ने से यह आयु कम हो रही है| गर्भ धारणा से लेकर संतान के पाँच वर्ष का होने तक के लिये स्त्री को किसी अन्य की मदद की आवश्यकता होती है। स्त्री में काम वासना से वात्सल्य की भावना अधिक प्रबल होती है। इसीलिये कहा गया है कि स्त्री क्षण काल की पत्नि और अनंत काल की माता होती है।
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स्त्री का स्वभाव बचत का होता है। उस के लिये प्रतिष्ठा से बचत का मूल्य अधिक होता है। इस लिये वह नि:संकोच होकर बीच बाजार में भी रुपये दो रुपयों के लिये भाव ताव करती दिखाई देती है।  स्त्री को अंतर्मुख होना कठिन होता है। त्रयस्थ वृत्ति से वह अपने व्यवहार का विश्लेषण नहीं कर सकती। स्त्री शारीरिक दृष्टि से पुरूष से दुर्बल तो होती ही है, गर्भावस्था में वह और भी परावलंबी बन जाती है। इस दुर्बलता के कारण ही मनु ने कहा है - पिता रक्षति कौमार्ये, भर्ता रक्षति यौवने, स्थवीरे रक्षति पुत्र: अर्थात् कौमार्यावस्था में स्त्री को पिता का यौवन में पति का और वार्धक्य में पुत्र का संरक्षण मिलना आवश्यक होता है। इस से उस स्त्री का और समाज का भी भला होता है। इस सब विश्लेषण का हेतु पुरूष और स्त्री में परमात्मा प्रदत्त अंतर होता है यह बताने का है। इस अंतर के कारण स्त्रियों के और पुरूषों के बलस्थान और दुर्बलस्थान भिन्न होते है, यह बताने का है। २७. मनुष्य एक स्खलनशील जीव है। स्खलन यह प्रकृति का नियम है। जैसे पानी हमेशा नीचे की ओर प्रवाहित होता है उसी तरह मनुष्य की प्रेरणाएँ भी उसे स्वभावत: निन्म स्तरकी दिशा में आगे बढातीं हैं। इस कारण मानव व्यवस्थाओं को और संस्कारों को बिगाडता रहता है। मानव जीवन और समाज जीवन सुचारू रूप से चलने के लिये मानव को तीव्र संस्कारों और शिक्षा की तथा दंण्ड व्यवस्था की आवश्यकता होती है। २८. मानव जीवन को मोक्षगामी बनाने का साधन धर्म है। अपनी इच्छाओं (काम) को और उन इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये गये प्रयासों तथा उपयोग में लाए गये धन, साधन और संसाधनों (तीनों मिलाकर अर्थ)को धर्मानुकूल रखने से मनुष्य मोक्षगामी बनता है। इसलिये काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने की शिक्षा ही वास्तव में शिक्षा होती है। जो मोक्षगामी नहीं बनना चाहते उन के लिये भी काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखना उतना ही आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है जितना मोक्षगामी लोगों के लिये। काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने से ही समाज सुखी, समृध्द और सुसंस्कृत बनता है। जब मानव के व्यवहारों को यानि इच्छाओं की पूर्ति के प्रयासों को धर्म के दायरे में रखा जाता है तब 'सर्वे भवन्तु सुखिन: की प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं।  २९. जब मनुष्य पैदा होता है उस समय उसके कोई कर्तव्य नहीं होते। केवल अधिकार ही होते हैं। ऐसे केवल अधिकार लेकर जिन्होंने जन्म लिया है उन बच्चों को अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिये जीनेवाले मनुष्य नहीं बनाया गया तो मानव का समाज जीवन नरक बन जाएगा। उसे कर्तव्यों के लिए जीनेवाला मनुष्य बनाना यह परिवार का काम है| और ऐसा विकास ही व्यक्ति का विकास है|
     
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