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| == धर्म और संस्कृति == | | == धर्म और संस्कृति == |
− | भारतीय दृष्टिकोण से मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। इसलिए मोक्ष की ओर ले जानेवाली हर कृति यह संस्कृति है। मोक्षप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ चतुष्टय के अनुपालन का आग्रह इसी कारण से है। ये चार पुरुषार्थ हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें काम का अर्थ इच्छाएँ है। अर्थ पुरुषार्थ से तात्पर्य इच्छाओं की पूर्ती के लिए किये जानेवाले प्रयासों तथा उपयोग में लाये जानेवाले धन, साधन और संसाधनों से है। अर्थ पुरुषार्थ इच्छाओं पर याने काम पुरुषार्थपर निर्भर होता है। इच्छाएँ ही यह तय करती हैं कि प्रयास कैसे हों, धन, साधन और संसाधनों की प्राप्ति और विनिमय कैसे किया जाए। इसलिए काम पुरुषार्थ ही मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जा सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता में इसीलिये भगवान कहते हैं – धर्मा$$विरुद्धो भूतेषु कामो$स्मी भरतर्षभ । अर्थ है धर्म का अविरोधी जो काम है वह मैं हूँ। | + | भारतीय दृष्टिकोण से मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। इसलिए मोक्ष की ओर ले जानेवाली हर कृति यह संस्कृति है। मोक्षप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ चतुष्टय के अनुपालन का आग्रह इसी कारण से है। |
− | अब इसमें धर्म पुरुषार्थ आ जाता है। मनुष्य की कामनाएँ याने इच्छाएँ जब धर्म से नियमित, मार्गदर्शित और निर्देशित होती हैं तो वे इच्छाएँ मनुष्य को मेरे निकट लातीं हैं। मैं उसे प्राप्त हो जाता हूँ। इस तरह से इच्छाओं की पूर्ती जब धर्म के दायरे में की जाती है तब मोक्ष प्राप्ती होती है। मोक्ष यह जीवन का लक्ष्य है। और इसकी दिशा में ले जानेवाली हर कृति संस्कृति है। यह हर कृति जब धर्म के दायरे में होती है तब ही वह मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाती है। इसा का अर्थ है की भारतीय दृष्टि से धर्म के अनुसार कृति ही संस्कृति है। | + | |
− | एक अलग तरीके से भी धर्म और संस्कृति का संबंध समझा जा सकता है। मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। मोक्षप्राप्ति का साधन पुरुषार्थ चतुष्टय है याने धर्म के अविरोधी काम या इच्छाओं को रखने में है। धर्म के अच्छे अनुपालना के लिए सर्वश्रेष्ठ साधन है शरीर (शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्)। अपने शरीर को ठीक रखने के लिए समाज की मदद आवश्यक होती है। समाज के द्वारा निर्माण की गई वस्तुओं, सेवाओं के बिना हम सुखा से जी नहीं सकते। समाज यदि सुखी होगा तो हम भी सुखी हो सकते हैं। इसलिए समाजके सुखी रहने से ही हम अपने जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ सकते हैं। इसलिए कहा गया है – आत्मनो मोक्षार्थम् जगद् हिताय च। जगत का याने समाज का और पर्यावरण का दोनों का हित करने के लिए किये गए व्यवहार का ही नाम संस्कृति है। समाज ओर पर्यावरण दोनों के हित की कृति ही संस्कृति है। | + | ये चार पुरुषार्थ हैं: '''धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष'''। इनमें काम का अर्थ इच्छाएँ है, अर्थ पुरुषार्थ से तात्पर्य इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये जानेवाले प्रयासों तथा उपयोग में लाये जानेवाले धन, साधन और संसाधनों से है। अर्थ पुरुषार्थ इच्छाओं पर याने काम पुरुषार्थ पर निर्भर होता है। इच्छाएँ ही यह तय करती हैं कि प्रयास कैसे हों, धन, साधन और संसाधनों की प्राप्ति और विनिमय कैसे किया जाए। इसलिए काम पुरुषार्थ ही मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जा सकता है। |
− | धर्म और मजहब या रिलीजन में अंतर है। इसलिए मजहबी या रिलीजन के अनुसार की हुई कोई भी कृति जबतक धर्म के अनुसार ठीक नहीं है तबतक वह कृति यह भारतीय संस्कृति नहीं है। इसी तरह किसी मत, पंथ या सम्प्रदाय के द्वारा बताई हुई या समर्थित या पुरस्कृत कोई भी कृति जब धर्म के अनुकूल होगी तब ही वह भारतीय संस्कृति कहलाएगी। | + | |
| + | श्रीमद्भगवद्गीता में इसीलिये भगवान कहते हैं<blockquote>धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।</blockquote>अर्थ है धर्म का अविरोधी जो काम है वह मैं हूँ। |
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| + | अब इसमें धर्म पुरुषार्थ आ जाता है। मनुष्य की कामनाएँ याने इच्छाएँ जब धर्म से नियमित, मार्गदर्शित और निर्देशित होती हैं तो वे इच्छाएँ मनुष्य को मेरे निकट लातीं हैं। मैं उसे प्राप्त हो जाता हूँ। इस तरह से इच्छाओं की पूर्ति जब धर्म के दायरे में की जाती है तब मोक्ष प्राप्ति होती है। |
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| + | मोक्ष - यह जीवन का लक्ष्य है। और इसकी दिशा में ले जानेवाली हर कृति संस्कृति है। यह हर कृति जब धर्म के दायरे में होती है तब ही वह मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाती है। इस का अर्थ है कि भारतीय दृष्टि से धर्म के अनुसार कृति ही संस्कृति है। |
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| + | एक अलग तरीके से भी धर्म और संस्कृति का संबंध समझा जा सकता है। मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। मोक्षप्राप्ति का साधन पुरुषार्थ चतुष्टय है याने धर्म के अविरोधी काम या इच्छाओं को रखने में है। धर्म के अच्छे अनुपालना के लिए सर्वश्रेष्ठ साधन है शरीर (शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्)। अपने शरीर को ठीक रखने के लिए समाज की मदद आवश्यक होती है। समाज के द्वारा निर्माण की गई वस्तुओं, सेवाओं के बिना हम सुख से जी नहीं सकते। समाज यदि सुखी होगा तो हम भी सुखी हो सकते हैं। इसलिए समाज के सुखी रहने से ही हम अपने जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ सकते हैं। इसलिए कहा गया है:<blockquote>आत्मनो मोक्षार्थम् जगद् हिताय च।</blockquote>जगत का याने समाज का और पर्यावरण का दोनों का हित करने के लिए किये गए व्यवहार का ही नाम संस्कृति है। समाज ओर पर्यावरण दोनों के हित की कृति ही संस्कृति है। |
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| + | धर्म और मजहब या रिलीजन में अंतर है। इसलिए मजहबी या रिलीजन के अनुसार की हुई कोई भी कृति जब तक धर्म के अनुसार ठीक नहीं है तब तक वह कृति भारतीय संस्कृति नहीं है। इसी तरह किसी मत, पंथ या सम्प्रदाय के द्वारा बताई हुई या समर्थित या पुरस्कृत कोई भी कृति जब धर्म के अनुकूल होगी तब ही वह भारतीय संस्कृति कहलाएगी। |
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| == वर्तमान जीवन की गति और संस्कृति == | | == वर्तमान जीवन की गति और संस्कृति == |
− | गति करता है इसीलिये विश्व को जगत भी कहते हैं। गति ही जीवन है। गतिशून्यता मृत्यू है। इसलिए जीवन चालता रहने के लिए गति आवश्यक होती है। लेकिन जीवन की गति जब बहुत अधिक हो जाती है तब बड़ी मात्रा में समाज के दुर्बल घटक उस गति के साथ चल नहीं पाते। ऐसा होनेसे वे अन्यों से पिछड़ जाते हैं। दु:खी हो जाते हैं। लेकिन जीवन जब इष्ट गति से चलता है तब वह सबको सुखमय होता है। इष्ट गति से तात्पर्य उस गति से है जिस गति से समाज का अंतिम व्यक्ति भी साथ चल सके। इष्ट गति से कम या अधिक गति जब समाज जीवन को मिलती है तब समाज सुख से दूर जाता है। वर्तमान में जीवन को जो गति मिली है वह जीवन की इष्ट गति से बहुत ही अधिक है। इस बढ़ी हुई गति के कारण जीवन में किसी भी प्रकार का ठहराव नहीं आ पाता। ठहराव यह विकास का विरोधी है ऐसी भावना व्याप्त हो गयी है। केवल ठहराव ही नहीं तो कम गति भी विकास के विरोध में मानी जाती है। वर्तमान जीवन ने लोगों को पगढ़ीला बना दिया है। आवागमन के क्षिप्रा गति के साधनों के कारण समाज घुमंतू बन रहा है। घुमंतू जातियों की भी कुछ संस्कृति होती है। क्यों कि घुमंतू स्वभाव छोड़ दें तो उनका जीवन ठहराव से भरा रहता है। घुमंतू स्वभाव के कारण संस्कृति शायद श्रेष्ठ नहीं होगी लेकिन होती अवश्य है। लेकिन वर्तमान तंत्रज्ञान के और तेजी से विकास की तीव्र इच्छा के कारण समाज में कोइ ठहराव की संभावनाएं नहीं रहतीं। | + | विश्व गति करता है इसीलिये विश्व को जगत भी कहते हैं। गति ही जीवन है। गतिशून्यता मृत्यू है। इसलिए जीवन चालता रहने के लिए गति आवश्यक होती है। लेकिन जीवन की गति जब बहुत अधिक हो जाती है तब बड़ी मात्रा में समाज के दुर्बल घटक उस गति के साथ चल नहीं पाते। ऐसा होनेसे वे अन्यों से पिछड़ जाते हैं। दु:खी हो जाते हैं। लेकिन जीवन जब इष्ट गति से चलता है तब वह सबको सुखमय होता है। इष्ट गति से तात्पर्य उस गति से है जिस गति से समाज का अंतिम व्यक्ति भी साथ चल सके। इष्ट गति से कम या अधिक गति जब समाज जीवन को मिलती है तब समाज सुख से दूर जाता है। वर्तमान में जीवन को जो गति मिली है वह जीवन की इष्ट गति से बहुत ही अधिक है। इस बढ़ी हुई गति के कारण जीवन में किसी भी प्रकार का ठहराव नहीं आ पाता। ठहराव यह विकास का विरोधी है ऐसी भावना व्याप्त हो गयी है। केवल ठहराव ही नहीं तो कम गति भी विकास के विरोध में मानी जाती है। वर्तमान जीवन ने लोगों को पगढ़ीला बना दिया है। आवागमन के क्षिप्रा गति के साधनों के कारण समाज घुमंतू बन रहा है। घुमंतू जातियों की भी कुछ संस्कृति होती है। क्यों कि घुमंतू स्वभाव छोड़ दें तो उनका जीवन ठहराव से भरा रहता है। घुमंतू स्वभाव के कारण संस्कृति शायद श्रेष्ठ नहीं होगी लेकिन होती अवश्य है। लेकिन वर्तमान तंत्रज्ञान के और तेजी से विकास की तीव्र इच्छा के कारण समाज में कोइ ठहराव की संभावनाएं नहीं रहतीं। |
| लेकिन जीवन जबतक इष्ट गति से नहीं चलता उसमें धर्म की भावना, संस्कृति पनप ही नहीं सकती। संस्कृति के लिए ठहराव आवश्यक होता है। लेकिन ठराव से तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। इसलिए इष्ट गति वह गति है जिसमें धर्म तथा संस्कृति के पनपने के लिए वातावरण रहे। जब समाज के सारे लोग सामान (इष्ट) गति से आगे बढ़ाते हैं तब वे एक सापेक्ष ठहराव की स्थिति को प्राप्त करते हैं। यह सापेक्ष ठहराव ही संस्कृति के विकास के लिए भूमि बनाता है। वर्तमान जीवन की गति विश्व की सभी समाजों की संस्कृतियों को नष्ट कर रही हैं। विश्व के सभी राष्ट्रों के सम्मुख संस्कृति की रक्षा की चुनौती निर्माण हो गयी है। यह गति जिस सामाजिक जीवन के अभारतीय प्रतिमान में हम जी रहे हैं उसका स्वाभाविक परिणाम है। | | लेकिन जीवन जबतक इष्ट गति से नहीं चलता उसमें धर्म की भावना, संस्कृति पनप ही नहीं सकती। संस्कृति के लिए ठहराव आवश्यक होता है। लेकिन ठराव से तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। इसलिए इष्ट गति वह गति है जिसमें धर्म तथा संस्कृति के पनपने के लिए वातावरण रहे। जब समाज के सारे लोग सामान (इष्ट) गति से आगे बढ़ाते हैं तब वे एक सापेक्ष ठहराव की स्थिति को प्राप्त करते हैं। यह सापेक्ष ठहराव ही संस्कृति के विकास के लिए भूमि बनाता है। वर्तमान जीवन की गति विश्व की सभी समाजों की संस्कृतियों को नष्ट कर रही हैं। विश्व के सभी राष्ट्रों के सम्मुख संस्कृति की रक्षा की चुनौती निर्माण हो गयी है। यह गति जिस सामाजिक जीवन के अभारतीय प्रतिमान में हम जी रहे हैं उसका स्वाभाविक परिणाम है। |
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