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संस्कृति के विषय में बहुत सारी भ्रामक कल्पनाएँ वर्त्तमान में समाज में प्रतिष्ठित हैं| नाचना, गाना, सिनेमा, नाटक आदि जैसे मनोरंजन के कार्यक्रमों को संस्कृति माना जा रहा है| विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन में इसी भ्रम का प्रदर्शन दिखाई देता है| शासकीय कार्यक्रमों में भी यही देखने को मिलता है| विभिन्न देशों में सांस्कृतिक लेनदेन के कार्यक्रमों में ऐसे ही मनोरंजन करनेवाले नाच, गाने, नाटकों के जत्थे भेजे जाते हैं| ऐसी संस्कृति के विस्तार के लिए तो हमारे ऋषि मुनियों ने विश्वसंचार के उपक्रम नहीं किये थे| फिर वह कैसी संस्कृति थी?
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संस्कृति के विषय में बहुत सारी भ्रामक कल्पनाएँ वर्तमान में समाज में प्रतिष्ठित हैं। नाचना, गाना, सिनेमा, नाटक आदि जैसे मनोरंजन के कार्यक्रमों को संस्कृति माना जा रहा है। विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन में इसी भ्रम का प्रदर्शन दिखाई देता है। शासकीय कार्यक्रमों में भी यही देखने को मिलता है। विभिन्न देशों में सांस्कृतिक लेनदेन के कार्यक्रमों में ऐसे ही मनोरंजन करनेवाले नाच, गाने, नाटकों के जत्थे भेजे जाते हैं। ऐसी संस्कृति के विस्तार के लिए तो हमारे ऋषि मुनियों ने विश्वसंचार के उपक्रम नहीं किये थे। फिर वह कैसी संस्कृति थी?  
अंग्रेजी में संस्कृति के लिए कल्चर शब्द का प्रयोग होता है| ऑक्स्फ़र्ड डिक्शनरी के अनुसार कल्चर शब्द का अर्थ है साहित्य, कला, संगीत आदि; किसी समाज या देश की कला, रीति-रिवाज आदि की विकसित समझ| (डेव्हलप्ड अंडरस्टैंडिंग ऑफ़ लिटरेचर, आर्ट, म्यूझिक आदि; आर्ट; कस्टम्स ऑफ़ ए परटीक्यूलर कंट्री ऑर सोसायटी)| विकसित समझ से तात्पर्य क्या है स्पष्ट नहीं किया गया है| शायद उसका तात्पर्य गहरी समझ से हो सकता है| याने किसी समाज के साहित्य, संगीत, कला, रीति रिवाज की अभिव्यक्ति ठीक से जिस में होती है वह संस्कृति है| शायद इसी समझ के कारण हमारे सांस्कृतिक प्रतिनिधि मण्डल केवल नाचगाना और नाटक मंडली तक सीमित रहता है| वेबस्टर डिक्शनरी में भी कुछ ऐसे ही अर्थ बताया गया है|
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संस्कृति और सभ्यता इन दो विषयों में भी बहुत अस्पष्टता दिखाई देती है| अंग्रेजी में सिव्हिलायझेशन शब्द का प्रयोग सभ्यता इस शब्द के लिए किया जाता है| सिव्हिलायझेशन शब्द सिव्हिल शब्द से बना है| ऑक्स्फ़र्ड डिक्शनरी के अनुसार सिव्हिल शब्द के दो अर्थ दिए हैं| १. ऑफ़ सिटीझन्स; नॉट ऑफ़ द आर्म्ड फोर्सेस ऑर चर्च| याने नागरिकों नागरिकों का; सेना या चर्चा का नहीं| २. ‘पोलाइट एंड ओब्लाइझिंग’| याने नम्र और उपकारी| इन दो अर्थों में से पहला अर्थ ही यहाँ लागू होता है| भारतीय शब्द सभ्यता का अर्थ इससे भिन्न है| सभा में अच्छी तरह से व्यवहार करना ही सभ्यता है| ऐसा व्यवहार जैसे नागरिक कर सकता है उसी तरह कोई ग्रामीण भी कर सकता है| सभ्यता का सीधा संबंध शिष्टाचार से है| शिष्ट व्यवहार को ही सभ्यता कहते हैं| वेबस्टर डिक्शनरी में भी कुछ ऐसे ही अर्थ बताया गया है|
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अंग्रेजी में संस्कृति के लिए कल्चर शब्द का प्रयोग होता है। ऑक्स्फ़र्ड डिक्शनरी के अनुसार कल्चर शब्द का अर्थ है साहित्य, कला, संगीत आदि; किसी समाज या देश की कला, रीति-रिवाज आदि की विकसित समझ। (डेव्हलप्ड अंडरस्टैंडिंग ऑफ़ लिटरेचर, आर्ट, म्यूझिक आदि; आर्ट; कस्टम्स ऑफ़ ए परटीक्यूलर कंट्री ऑर सोसायटी)विकसित समझ से तात्पर्य क्या है स्पष्ट नहीं किया गया है। शायद उसका तात्पर्य गहरी समझ से हो सकता है। याने किसी समाज के साहित्य, संगीत, कला, रीति रिवाज की अभिव्यक्ति ठीक से जिस में होती है वह संस्कृति है। शायद इसी समझ के कारण हमारे सांस्कृतिक प्रतिनिधि मण्डल केवल नाचगाना और नाटक मंडली तक सीमित रहता है। वेबस्टर डिक्शनरी में भी कुछ ऐसे ही अर्थ बताया गया है।
संस्कृति का अर्थ समझाने की दृष्टी से अंग्रेजी भाषा की मदद का कोई उपयोग नहीं है| इसे भारतीय साहित्य में ही ढूँढना होगा| मराठी शब्दकोश में खंड १८ में कहा है – सम् और कृति इन दो शब्दों से संस्कृति और संस्कार दोनों शब्द बने हैं| संस्कृति यह समाज की जीवन पद्धति होती है| लेकिन इन से कोई स्पष्टता नहीं होती| किसी समाज की जीवन पद्धति यदि अपने सुख के लिए औरों को लूटने की है तो क्या यह संस्कृति कही जाएगी| यह तो विकृति है| संस्कृति शब्द की और भी एक व्युत्पत्ति है – सम्यक् कृति याने संस्कृति| सम्यक का अर्थ है अच्छी या सबके लिए समान| याने सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत कृति ही संस्कृति है|
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संस्कृति और सभ्यता इन दो विषयों में भी बहुत अस्पष्टता दिखाई देती है। अंग्रेजी में सिव्हिलायझेशन शब्द का प्रयोग सभ्यता इस शब्द के लिए किया जाता है। सिव्हिलायझेशन शब्द सिव्हिल शब्द से बना है। ऑक्स्फ़र्ड डिक्शनरी के अनुसार सिव्हिल शब्द के दो अर्थ दिए हैं। 
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१. ऑफ़ सिटीझन्स; नॉट ऑफ़ द आर्म्ड फोर्सेस ऑर चर्च। याने नागरिकों नागरिकों का; सेना या चर्चा का नहीं। 
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२. ‘पोलाइट एंड ओब्लाइझिंग’। याने नम्र और उपकारी। इन दो अर्थों में से पहला अर्थ ही यहाँ लागू होता है। 
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भारतीय शब्द सभ्यता का अर्थ इससे भिन्न है। सभा में अच्छी तरह से व्यवहार करना ही सभ्यता है। ऐसा व्यवहार जैसे नागरिक कर सकता है उसी तरह कोई ग्रामीण भी कर सकता है। सभ्यता का सीधा संबंध शिष्टाचार से है। शिष्ट व्यवहार को ही सभ्यता कहते हैं। 
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वेबस्टर डिक्शनरी में भी कुछ ऐसे ही अर्थ बताया गया है।
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संस्कृति का अर्थ समझाने की दृष्टि से अंग्रेजी भाषा की मदद का कोई उपयोग नहीं है। इसे भारतीय साहित्य में ही ढूँढना होगा। 
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मराठी शब्दकोश में खंड १८ में कहा है – सम् और कृति इन दो शब्दों से संस्कृति और संस्कार दोनों शब्द बने हैं। संस्कृति यह समाज की जीवन पद्धति होती है। लेकिन इन से कोई स्पष्टता नहीं होती। किसी समाज की जीवन पद्धति यदि अपने सुख के लिए औरों को लूटने की है तो क्या यह संस्कृति कही जाएगी। यह तो विकृति है। संस्कृति शब्द की और भी एक व्युत्पत्ति है – सम्यक् कृति याने संस्कृति। सम्यक का अर्थ है अच्छी या सबके लिए समान। याने सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत कृति ही संस्कृति है।
    
== प्रकृति, विकृति और संस्कृति ==
 
== प्रकृति, विकृति और संस्कृति ==
जो स्वाभाविक है वह प्रकृति है| अपने लिए अपने किये हुए हितकारी कर्मों के अच्छे फल की इच्छा करना स्वाभाविक है| यह प्रकृति है| नि:स्वार्थ या निष्काम भावना से लोगों के हित के कर्म करना संस्कृति है| और दूसरे के किये कर्मों का अच्छा फल उसे नहीं मुझे मिले ऐसी इच्छा करना विकृति है|
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जो स्वाभाविक है वह प्रकृति है। अपने लिए अपने किये हुए हितकारी कर्मों के अच्छे फल की इच्छा करना स्वाभाविक है। यह प्रकृति है। नि:स्वार्थ या निष्काम भावना से लोगों के हित के कर्म करना संस्कृति है। और दूसरे के किये कर्मों का अच्छा फल उसे नहीं मुझे मिले ऐसी इच्छा करना विकृति है।
    
== संस्कृति ==
 
== संस्कृति ==
संस्कृति यह शब्द प्राचीन भारतीय वैदिक साहित्य में नहीं मिलता| लेकिन उसका निकटवर्ती शब्द संस्कार यह बहुत पुराना है| संस्कृति का और संस्कार का संबंध बहुत घनिष्ठता का है| तमिल में तो संस्कृति को संस्कार ही कहा जाता है| संस्कार का अर्थ है भिन्न भिन्न बातों का हमारे शरीरपर, मनपर, बुद्धिपर उनमें परिवर्तन करनेवाला जो प्रभाव पड़ता है वह संस्कार है| ऐसे संस्कारों से ही संस्कृति बनती है|
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संस्कृति शब्द प्राचीन भारतीय वैदिक साहित्य में नहीं मिलता। लेकिन उसका निकटवर्ती शब्द संस्कार, बहुत पुराना है। संस्कृति का और संस्कार का संबंध बहुत घनिष्ठता का है। तमिल में तो संस्कृति को संस्कार ही कहा जाता है। संस्कार का अर्थ है भिन्न भिन्न बातों का हमारे शरीर पर, मन पर, बुद्धि पर, परिवर्तन करने वाला जो प्रभाव पड़ता है - वही संस्कार है। ऐसे संस्कारों से ही संस्कृति बनती है। 
संस्कार अच्छे भी होते हैं और बुरे भी होते हैं| इसी तरह संस्कृति जब बुरे संस्कारों से बनती है तब उसे अप-संस्कृति या विकृति कहना ठीक होगा| सामान्यत: बुरे संस्कारों को संस्कार नहीं कहा जाता| उन्हें कुसंस्कार कहते हैं| मनुष्य में अच्छे और बुरे दोनों बातों के प्रभाव होते हैं| लेकिन जब अच्छे संस्कारों का प्रभाव प्रखर होता है तब उसे सुसंस्कारित या संस्कारित मनुष्य कहा जाता है|
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अब अच्छे और बुरे संस्कार का अर्थ क्या है| अच्छे बुरे का संबंध किये जानेवाले काम से है| एक ही काम को स्थल-काल में अंतर के कारण कभी अच्छा कभी बुरा माना जा सकता है| या एक ही काम को एक समाज अच्छा मानता है और दूसरा समाज उसे बुरा मानता है| जैसे मूर्तिपूजा का विषय लें| इस्लाम मूर्तिपूजा को छोड़ें मूर्ती तोड़ने को अच्छा काम मानता है| जब कि हिन्दू मूर्तिपूजा को आदर से देखता है| अच्छा मानता है| इस अच्छे और बुरे की कसौटी क्या है? किसी समाज में वह काम जीवन के लक्ष्य की ओर ले जानेवाला होने से अच्छा बन जाता है| और लक्ष्य से अन्यत्र ले जानेवाला काम बुरा बन जाता है| इस्लाम में जन्नत यह लक्ष्य है| मोहम्मद पैगंबर के व्यवहार का अनुसरण करने से जन्नत मिलेगी ऐसी इस्लाम की मान्यता है| इसलिए उनकी तरह ही मूर्तियों को तोड़ना यह इस्लाम के लिए अच्छी बात हो जाती है| जब की मूर्ती के रूप में एक आलंबन सामने रखकर मन को परमात्मा के चिंतन में लगाने से मनुष्य मोक्ष की ओर बढ़ता है ऐसा मानने के कारण मूर्तिपूजा अच्छा काम हो जाता है|
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संस्कार अच्छे भी होते हैं और बुरे भी होते हैं। इसी तरह संस्कृति जब बुरे संस्कारों से बनती है तब उसे अप-संस्कृति या विकृति कहना ठीक होगा। सामान्यत: बुरे संस्कारों को संस्कार नहीं कहा जाता। उन्हें कुसंस्कार कहते हैं। मनुष्य में अच्छे और बुरे दोनों बातों के प्रभाव होते हैं। लेकिन जब अच्छे संस्कारों का प्रभाव प्रखर होता है तब उसे सुसंस्कारित या संस्कारित मनुष्य कहा जाता है। 
संस्कृति व्यक्ति की नहीं समाज की होती है| राष्ट्र की होती है| समाज जीवन सुख शान्ति से चलाने के लिए संस्कृति का सार्वत्रिक होना आवश्यक है| साथ में यह भी समझना होगा कि अंत में संस्कार तो व्यक्तिपर ही करने होते हैं| संस्कार करने की जिम्मेदारी यद्यपि समाज के अन्य घटकों की है संस्कार ग्रहण तो व्यक्ति को ही करने हैं| इस दृष्टी से समाज का प्रत्येक बच्चा सुसंस्कारित बने इसकी आश्वस्ति करना समाज की ही जिमेदारी है|
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अब अच्छे और बुरे संस्कार का अर्थ क्या है। अच्छे बुरे का संबंध किये जानेवाले काम से है। एक ही काम को स्थल-काल में अंतर के कारण कभी अच्छा कभी बुरा माना जा सकता है। या एक ही काम को एक समाज अच्छा मानता है और दूसरा समाज उसे बुरा मानता है। जैसे मूर्तिपूजा का विषय लें। 
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इस्लाम मूर्तिपूजा को छोड़ें मूर्ति तोड़ने को अच्छा काम मानता है। जब कि हिन्दू मूर्तिपूजा को आदर से देखता है, अच्छा मानता है। इस अच्छे और बुरे की कसौटी क्या है? किसी समाज में वह काम जीवन के लक्ष्य की ओर ले जानेवाला होने से अच्छा बन जाता है। और लक्ष्य से अन्यत्र ले जानेवाला काम बुरा बन जाता है। 
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इस्लाम में जन्नत एक लक्ष्य है। मोहम्मद पैगंबर के व्यवहार का अनुसरण करने से जन्नत मिलेगी ऐसी इस्लाम की मान्यता है। इसलिए उनकी तरह ही मूर्तियों को तोड़ना यह इस्लाम के लिए अच्छी बात हो जाती है। जब की मूर्ति के रूप में एक आलंबन सामने रखकर मन को परमात्मा के चिंतन में लगाने से मनुष्य मोक्ष की ओर बढ़ता है ऐसा मानने के कारण मूर्ति पूजा अच्छा काम हो जाता है। 
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संस्कृति व्यक्ति की नहीं समाज की होती है। राष्ट्र की होती है। समाज जीवन सुख शान्ति से चलाने के लिए संस्कृति का सार्वत्रिक होना आवश्यक है। साथ में यह भी समझना होगा कि अंत में संस्कार तो व्यक्ति पर ही करने होते हैं। संस्कार करने की जिम्मेदारी यद्यपि समाज के अन्य घटकों की है संस्कार ग्रहण तो व्यक्ति को ही करने हैं। इस दृष्टि से समाज का प्रत्येक बच्चा सुसंस्कारित बने इसकी आश्वस्ति करना समाज की ही जिमेदारी है।
    
== संस्कृति और राष्ट्र ==
 
== संस्कृति और राष्ट्र ==
संस्कृति यह राष्ट्र की आत्मा होती है| जबतक किसी समाज की यह संस्कृति जीवित है राष्ट्र जीता है| संस्कृति के नष्ट होने से राष्ट्र नष्ट हो जाता है| जैसे भारतवर्ष के जिन जिन भूक्षेत्रों में हिन्दू समाज अल्पसंख्य हो गया, दुर्बल हो गया असंगठित हो गया वह हिस्सा भारत राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा| १९४७ अगस्त से पूर्व जो रावलपिन्डी भारत राष्ट्र का हिस्सा थी वह सप्टेम्बर १९४७ को भारतीय राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा| क्यों कि अगस्त १९४७ के बाद वहाँ एक भिन्न राष्ट्र बना| इस राष्ट्र की संस्कृति, जीवन दृष्टी भारतीय संस्कृति या जीवन दृष्टी से भिन्न थी| अमरीका को ‘मेल्टिंग पॉट’ कहा जाता है| मेल्टिंग पॉट का अर्थ है ऐसा बर्तन जिसके अन्दर जो भी रहेगा वह पिघल जाएगा| पिघलाकर एक हो जाएगा| समरस हो जाएगा| सांस्कृतिक दृष्टी से एक बन जाएगा|
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संस्कृति यह राष्ट्र की आत्मा होती है। जबतक किसी समाज की यह संस्कृति जीवित है राष्ट्र जीता है। संस्कृति के नष्ट होने से राष्ट्र नष्ट हो जाता है। जैसे भारतवर्ष के जिन जिन भूक्षेत्रों में हिन्दू समाज अल्पसंख्य हो गया, दुर्बल हो गया असंगठित हो गया वह हिस्सा भारत राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा। १९४७ अगस्त से पूर्व जो रावलपिन्डी भारत राष्ट्र का हिस्सा थी वह सप्टेम्बर १९४७ को भारतीय राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा। क्यों कि अगस्त १९४७ के बाद वहाँ एक भिन्न राष्ट्र बना। इस राष्ट्र की संस्कृति, जीवन दृष्टि भारतीय संस्कृति या जीवन दृष्टि से भिन्न थी। अमरीका को ‘मेल्टिंग पॉट’ कहा जाता है। मेल्टिंग पॉट का अर्थ है ऐसा बर्तन जिसके अन्दर जो भी रहेगा वह पिघल जाएगा। पिघलाकर एक हो जाएगा। समरस हो जाएगा। सांस्कृतिक दृष्टि से एक बन जाएगा।
हम कहते हैं कि “विविधता में एकता’ यह हमारी विशेषता है| इसमें हम विविधता को सांस्कृतिक विविधता तक ले जाते हैं| प्रश्न यह निर्माण होता है कि फिर एकता किस बात में है? केवल भारतीय कहलाने मात्र से “किसी भी प्रकार की एकता” ध्यान में नहीं आती| हाँ ! विविधता बनाए रखने का आग्रह और प्रयास होते रहते हैं| जातियों की संस्कृति, छोटे छोटे समूहों की संस्कृति, प्रादेशिक समूहों की संस्कृति, मजहबों की संस्कृति, वनवासी, गिरिवासी लोगों को आदिवासी कहकर उनकी प्रत्येक की भिन्न भिन्न ऐसी सैंकड़ों प्रकार की संस्कृतियाँ, ग्रामीण और नागरी संस्कृति आदि के कारण हम पूरे राष्ट्र को बाँट रहे हैं| भारत में हमारे सामने जो समस्याएँ खडी हैं उन में से कई समस्याएँ इस “विविधता” को बनाए रखने के आग्रह और प्रयासों के कारण है| पंडित दीनदयालजी संविधान में हुई इस गलती को “मूलगामी भूल” कहते हैं|
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हम कहते हैं कि “विविधता में एकता’ यह हमारी विशेषता है। इसमें हम विविधता को सांस्कृतिक विविधता तक ले जाते हैं। प्रश्न यह निर्माण होता है कि फिर एकता किस बात में है? केवल भारतीय कहलाने मात्र से “किसी भी प्रकार की एकता” ध्यान में नहीं आती। हाँ ! विविधता बनाए रखने का आग्रह और प्रयास होते रहते हैं। जातियों की संस्कृति, छोटे छोटे समूहों की संस्कृति, प्रादेशिक समूहों की संस्कृति, मजहबों की संस्कृति, वनवासी, गिरिवासी लोगों को आदिवासी कहकर उनकी प्रत्येक की भिन्न भिन्न ऐसी सैंकड़ों प्रकार की संस्कृतियाँ, ग्रामीण और नागरी संस्कृति आदि के कारण हम पूरे राष्ट्र को बाँट रहे हैं। भारत में हमारे सामने जो समस्याएँ खडी हैं उन में से कई समस्याएँ इस “विविधता” को बनाए रखने के आग्रह और प्रयासों के कारण है। पंडित दीनदयालजी संविधान में हुई इस गलती को “मूलगामी भूल” कहते हैं।
ऐसे कई राष्ट्र हैं जिनकी संस्कृति नष्ट होने के कारण नष्ट हो गए| ईरान में से पारसी समाज भारत में आया| लेकिन आनेवाले लोग वहाँ की कुल जनसंख्या के प्रमाण में अत्यंत कम संख्या में थे| बड़ी संख्या में तो लोग वहीं रह गए| उनका जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया| अब उनकी संस्कृति इस्लामी हो गई| लोग तो वही थे| लेकिन उनके वंशज पारसी नहीं रहे| उनके राष्ट्र की भूमि तो वही रही लेकिन उनका राष्ट्र “पारसी” नहीं रहा| इसी तरह से ग्रीस, रोम इनकी भूमि वही है जो ईसाईयत के जबरदस्ती या मन:पूर्वक स्वीकार से पहले थी, लोग उन्हीं लोगों के वंशज हैं जो ईसाईयत के जबरदस्ती या मन:पूर्वक स्वीकार से पहले थे, लेकिन अब उनके राष्ट्र बदल गए| उनकी जीवन दृष्टी बदल गई| उनका रहन-सहन बदला गया, उनकी संस्कृति बदल गई| इसके विपरीत इजराईल का उदाहरण देखें| लगभग दो हजार वर्ष पहले इन यहूदियों को ईसाईयों ने पेलेस्टाईन से खदेड़कर बाहर किया| ये छोटे छोटे समूह में भिन्न भिन्न देशों में शरण लेने को विवश हो गए| लेकिन यहूदियों ने यथासंभव अपनी संस्कृति को बनाए और बचाए रखने के प्रयास किये| हिन्दू छोड़कर दुनिया के हर समाज ने इन शरणार्थियोपर अत्याचार किये| लेकिन इन्होंने अपनी संस्कृति जैसे तैसे बचाने का प्रयास किया| और जैसे ही पेलेस्टाईन की भूमि फिर से प्राप्त की पूरी शक्ति के साथ यहूदी संस्कृति का पुनरुत्थान किया| इनकी भाषा का नाम हिब्रू है| यह भाषा नष्टप्राय हो गई थी| अथक और प्रचंड प्रयत्नों के द्वारा हिब्रू में प्राप्त होनेवाले पुरातन साहित्य का संकलन किया गया| उअसके आधारपर फिर से हिब्रू भाषा को राष्ट्र की भाषा के रूप में स्थापित किया गया| आगे हम देखेंगे की भाषा का संस्कृति से कैसा अटूट संबंध होता है|
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ऐसे कई राष्ट्र हैं जिनकी संस्कृति नष्ट होने के कारण नष्ट हो गए। ईरान में से पारसी समाज भारत में आया। लेकिन आनेवाले लोग वहाँ की कुल जनसंख्या के प्रमाण में अत्यंत कम संख्या में थे। बड़ी संख्या में तो लोग वहीं रह गए। उनका जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया। अब उनकी संस्कृति इस्लामी हो गई। लोग तो वही थे। लेकिन उनके वंशज पारसी नहीं रहे। उनके राष्ट्र की भूमि तो वही रही लेकिन उनका राष्ट्र “पारसी” नहीं रहा। इसी तरह से ग्रीस, रोम इनकी भूमि वही है जो ईसाईयत के जबरदस्ती या मन:पूर्वक स्वीकार से पहले थी, लोग उन्हीं लोगों के वंशज हैं जो ईसाईयत के जबरदस्ती या मन:पूर्वक स्वीकार से पहले थे, लेकिन अब उनके राष्ट्र बदल गए। उनकी जीवन दृष्टि बदल गई। उनका रहन-सहन बदला गया, उनकी संस्कृति बदल गई। इसके विपरीत इजराईल का उदाहरण देखें। लगभग दो हजार वर्ष पहले इन यहूदियों को ईसाईयों ने पेलेस्टाईन से खदेड़कर बाहर किया। ये छोटे छोटे समूह में भिन्न भिन्न देशों में शरण लेने को विवश हो गए। लेकिन यहूदियों ने यथासंभव अपनी संस्कृति को बनाए और बचाए रखने के प्रयास किये। हिन्दू छोड़कर दुनिया के हर समाज ने इन शरणार्थियोपर अत्याचार किये। लेकिन इन्होंने अपनी संस्कृति जैसे तैसे बचाने का प्रयास किया। और जैसे ही पेलेस्टाईन की भूमि फिर से प्राप्त की पूरी शक्ति के साथ यहूदी संस्कृति का पुनरुत्थान किया। इनकी भाषा का नाम हिब्रू है। यह भाषा नष्टप्राय हो गई थी। अथक और प्रचंड प्रयत्नों के द्वारा हिब्रू में प्राप्त होनेवाले पुरातन साहित्य का संकलन किया गया। उअसके आधारपर फिर से हिब्रू भाषा को राष्ट्र की भाषा के रूप में स्थापित किया गया। आगे हम देखेंगे की भाषा का संस्कृति से कैसा अटूट संबंध होता है।
    
== भाषा और संस्कृति ==
 
== भाषा और संस्कृति ==
हर राष्ट्र की जीवन की ओर देखने की दृष्टी भिन्न होती है| इसे उस राष्ट्र की जीवनदृष्टी कहते हैं| जीवनदृष्टी के अनुसार जब वह व्यवहार (कृति) करता है, तब वह राष्ट्र अपनी संस्कृति का निर्माण करता है| हर राष्ट्र की अपनी संस्कृति होती है| इस संस्कृति के अनुसार उस राष्ट्र का जीवन चलता है|
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हर राष्ट्र की जीवन की ओर देखने की दृष्टि भिन्न होती है। इसे उस राष्ट्र की जीवनदृष्टि कहते हैं। जीवनदृष्टि के अनुसार जब वह व्यवहार (कृति) करता है, तब वह राष्ट्र अपनी संस्कृति का निर्माण करता है। हर राष्ट्र की अपनी संस्कृति होती है। इस संस्कृति के अनुसार उस राष्ट्र का जीवन चलता है।
हर समाज को परस्पर संवाद की आवश्यकता तो होती ही है| वह समाज अपने जीवन की आवश्यकताओं, मान्यताओं, विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए अपनी भाषा भी निर्माण करता है| यह भाषा उस राष्ट्र की संस्कृति के अनुसार ही आकार लेती है| उस भाषा के मुहावरे, कहावतें आदि उस राष्ट्र की संस्कृति की अभिव्यक्ति करते हैं| जैसे अंग्रेजी में कई कहावतें और मुहावरे ऐसे हैं, कि जिनके भाव किसी भी भारतीय भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए कोई कहावतें या मुहावरे नहीं हैं| जैसे अंग्रेजी में कहावत है “माईट इज राईट” अर्थ है जो बलवान है वह सही है| भारतीय भाषाओं में इससे मिलाती जुलती कहावतें हैं| जैसे मराठी में है “बळी तो कान पिळी” अर्थ है जो बलवान है वह आपके कान मरोड सकता ही| याने बलवान कुछ भी कर सकता है| हिंदी में कहावत है “जिस की लाठी उस की भैंस”| अर्थ है जो बलवान होगा भैंस उस की होगी| हम देखेंगे की मराठी और हिंदी दोनों भाषाओं की कहावतों का भावार्थ एक है लेकिन वह अंग्रेजी कहावत के अर्थ से भिन्न है| हमारी सांस्कृतिक मान्यता यह तो कहती है कि चलेगी बलवान की, लेकिन इस का अर्थ यह नहीं कि वह सही है, जैसी अंग्रेजी मान्यता है|
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हर समाज को परस्पर संवाद की आवश्यकता तो होती ही है। वह समाज अपने जीवन की आवश्यकताओं, मान्यताओं, विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए अपनी भाषा भी निर्माण करता है। यह भाषा उस राष्ट्र की संस्कृति के अनुसार ही आकार लेती है। उस भाषा के मुहावरे, कहावतें आदि उस राष्ट्र की संस्कृति की अभिव्यक्ति करते हैं। जैसे अंग्रेजी में कई कहावतें और मुहावरे ऐसे हैं, कि जिनके भाव किसी भी भारतीय भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए कोई कहावतें या मुहावरे नहीं हैं। जैसे अंग्रेजी में कहावत है “माईट इज राईट” अर्थ है जो बलवान है वह सही है। भारतीय भाषाओं में इससे मिलाती जुलती कहावतें हैं। जैसे मराठी में है “बळी तो कान पिळी” अर्थ है जो बलवान है वह आपके कान मरोड सकता ही। याने बलवान कुछ भी कर सकता है। हिंदी में कहावत है “जिस की लाठी उस की भैंस”। अर्थ है जो बलवान होगा भैंस उस की होगी। हम देखेंगे की मराठी और हिंदी दोनों भाषाओं की कहावतों का भावार्थ एक है लेकिन वह अंग्रेजी कहावत के अर्थ से भिन्न है। हमारी सांस्कृतिक मान्यता यह तो कहती है कि चलेगी बलवान की, लेकिन इस का अर्थ यह नहीं कि वह सही है, जैसी अंग्रेजी मान्यता है।
ऐसी ही एक और कहावत है “ ओनेस्टी इज द बेस्ट पोलिसी” याने प्रामाणिकता यह सर्वोत्तम पोलिसी है| याने जब लाभ हो तब प्रामाणिकता का व्यवहार करो| भारतीय भाषाओं में इस अर्थ की कोई  कहावत नहीं है| क्यों कि हमारी मान्यता है कि प्रामाणिकता तो अनिवार्य बात है| प्रामाणिकता तो हमारे खून में होनी चाहिए| प्रामाणिकता तो हमारा धर्म है| और इसके लिए जान भी दी जा सकती है| जब हम किसी को याद कर रहे होते हैं और वह अचानक अनापेक्षित वहाँ आ जाता है तब के लिए अंग्रेजी में और एक मुहावरा है “थिंक ऑफ़ द डेव्हिल एंड ही इज देयर” अर्थ है शैतान को याद करो और वह हाजिर हो जाता है| भारतीय भाषाओं में भी इसा प्रसंग के लिए मुहावरें हैं लेकिन उनके अर्थ भिन्न हैं| हिन्दी में कहेंगे “लो ! भगवान को याद किया और स्वयं भगवान उपस्थित हो गए”| मराठी में भी ऐसा ही कहेंगे “ घ्या ! नाव घेतले आणि दत्तासारखा (भगवान दत्तात्रेय जैसा) उपस्थित हो गया| इन दोनों मुहावरों में अंतर अंग्रेजों की और हमारी सांस्कृतिक भिन्नता के कारण है| हमारी मान्यता है कि केवल मनुष्य ही नहीं तो हर अस्तित्व यह परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है| जब कि अंग्रेजी याने ईसाई मान्यता यह है कि प्रत्येक मानव डेव्हिल है| पापी है| वह आदम और इव्ह ने किये हुए उस “ओरिजिनल सिन” याने मूल पाप का नतीजा है|
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ऐसी ही एक और कहावत है “ ओनेस्टी इज द बेस्ट पोलिसी” याने प्रामाणिकता यह सर्वोत्तम पोलिसी है। याने जब लाभ हो तब प्रामाणिकता का व्यवहार करो। भारतीय भाषाओं में इस अर्थ की कोई  कहावत नहीं है। क्यों कि हमारी मान्यता है कि प्रामाणिकता तो अनिवार्य बात है। प्रामाणिकता तो हमारे खून में होनी चाहिए। प्रामाणिकता तो हमारा धर्म है। और इसके लिए जान भी दी जा सकती है। जब हम किसी को याद कर रहे होते हैं और वह अचानक अनापेक्षित वहाँ आ जाता है तब के लिए अंग्रेजी में और एक मुहावरा है “थिंक ऑफ़ द डेव्हिल एंड ही इज देयर” अर्थ है शैतान को याद करो और वह हाजिर हो जाता है। भारतीय भाषाओं में भी इसा प्रसंग के लिए मुहावरें हैं लेकिन उनके अर्थ भिन्न हैं। हिन्दी में कहेंगे “लो ! भगवान को याद किया और स्वयं भगवान उपस्थित हो गए”। मराठी में भी ऐसा ही कहेंगे “ घ्या ! नाव घेतले आणि दत्तासारखा (भगवान दत्तात्रेय जैसा) उपस्थित हो गया। इन दोनों मुहावरों में अंतर अंग्रेजों की और हमारी सांस्कृतिक भिन्नता के कारण है। हमारी मान्यता है कि केवल मनुष्य ही नहीं तो हर अस्तित्व यह परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। जब कि अंग्रेजी याने ईसाई मान्यता यह है कि प्रत्येक मानव डेव्हिल है। पापी है। वह आदम और इव्ह ने किये हुए उस “ओरिजिनल सिन” याने मूल पाप का नतीजा है।
    
== धर्म और संस्कृति ==
 
== धर्म और संस्कृति ==
भारतीय दृष्टीकोण से मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है| इसलिए मोक्ष की ओर ले जानेवाली हर कृति यह संस्कृति है| मोक्षप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ चतुष्टय के अनुपालन का आग्रह इसी कारण से है| ये चार पुरुषार्थ हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष| इनमें काम का अर्थ इच्छाएँ है| अर्थ पुरुषार्थ से तात्पर्य इच्छाओं की पूर्ती के लिए किये जानेवाले प्रयासों तथा उपयोग में लाये जानेवाले धन, साधन और संसाधनों से है| अर्थ पुरुषार्थ इच्छाओं पर याने काम पुरुषार्थपर निर्भर होता है| इच्छाएँ ही यह तय करती हैं कि प्रयास कैसे हों, धन, साधन और संसाधनों की प्राप्ति और विनिमय कैसे किया जाए| इसलिए काम पुरुषार्थ ही मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जा सकता है| श्रीमद्भगवद्गीता में इसीलिये भगवान कहते हैं – धर्मा$$विरुद्धो भूतेषु कामो$स्मी भरतर्षभ | अर्थ है धर्म का अविरोधी जो काम है वह मैं हूँ|
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भारतीय दृष्टिकोण से मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। इसलिए मोक्ष की ओर ले जानेवाली हर कृति यह संस्कृति है। मोक्षप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ चतुष्टय के अनुपालन का आग्रह इसी कारण से है। ये चार पुरुषार्थ हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें काम का अर्थ इच्छाएँ है। अर्थ पुरुषार्थ से तात्पर्य इच्छाओं की पूर्ती के लिए किये जानेवाले प्रयासों तथा उपयोग में लाये जानेवाले धन, साधन और संसाधनों से है। अर्थ पुरुषार्थ इच्छाओं पर याने काम पुरुषार्थपर निर्भर होता है। इच्छाएँ ही यह तय करती हैं कि प्रयास कैसे हों, धन, साधन और संसाधनों की प्राप्ति और विनिमय कैसे किया जाए। इसलिए काम पुरुषार्थ ही मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जा सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता में इसीलिये भगवान कहते हैं – धर्मा$$विरुद्धो भूतेषु कामो$स्मी भरतर्षभ अर्थ है धर्म का अविरोधी जो काम है वह मैं हूँ।
अब इसमें धर्म पुरुषार्थ आ जाता है| मनुष्य की कामनाएँ याने इच्छाएँ जब धर्म से नियमित, मार्गदर्शित और निर्देशित होती हैं तो वे इच्छाएँ मनुष्य को मेरे निकट लातीं हैं| मैं उसे प्राप्त हो जाता हूँ| इस तरह से इच्छाओं की पूर्ती जब धर्म के दायरे में की जाती है तब मोक्ष प्राप्ती होती है| मोक्ष यह जीवन का लक्ष्य है| और इसकी दिशा में ले जानेवाली हर कृति संस्कृति है| यह हर कृति जब धर्म के दायरे में होती है तब ही वह मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाती है| इसा का अर्थ है की भारतीय दृष्टी से धर्म के अनुसार कृति ही संस्कृति है|
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अब इसमें धर्म पुरुषार्थ आ जाता है। मनुष्य की कामनाएँ याने इच्छाएँ जब धर्म से नियमित, मार्गदर्शित और निर्देशित होती हैं तो वे इच्छाएँ मनुष्य को मेरे निकट लातीं हैं। मैं उसे प्राप्त हो जाता हूँ। इस तरह से इच्छाओं की पूर्ती जब धर्म के दायरे में की जाती है तब मोक्ष प्राप्ती होती है। मोक्ष यह जीवन का लक्ष्य है। और इसकी दिशा में ले जानेवाली हर कृति संस्कृति है। यह हर कृति जब धर्म के दायरे में होती है तब ही वह मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाती है। इसा का अर्थ है की भारतीय दृष्टि से धर्म के अनुसार कृति ही संस्कृति है।
एक अलग तरीके से भी धर्म और संस्कृति का संबंध समझा जा सकता है| मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है| मोक्षप्राप्ति का साधन पुरुषार्थ चतुष्टय है याने धर्म के अविरोधी काम या इच्छाओं को रखने में है| धर्म के अच्छे अनुपालना के लिए सर्वश्रेष्ठ साधन है शरीर (शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्)| अपने शरीर को ठीक रखने के लिए समाज की मदद आवश्यक होती है| समाज के द्वारा निर्माण की गई वस्तुओं, सेवाओं के बिना हम सुखा से जी नहीं सकते| समाज यदि सुखी होगा तो हम भी सुखी हो सकते हैं| इसलिए समाजके सुखी रहने से ही हम अपने जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ सकते हैं| इसलिए कहा गया है – आत्मनो मोक्षार्थम् जगद् हिताय च| जगत का याने समाज का और पर्यावरण का दोनों का हित करने के लिए किये गए व्यवहार का ही नाम संस्कृति है| समाज ओर पर्यावरण दोनों के हित की कृति ही संस्कृति है|    
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एक अलग तरीके से भी धर्म और संस्कृति का संबंध समझा जा सकता है। मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। मोक्षप्राप्ति का साधन पुरुषार्थ चतुष्टय है याने धर्म के अविरोधी काम या इच्छाओं को रखने में है। धर्म के अच्छे अनुपालना के लिए सर्वश्रेष्ठ साधन है शरीर (शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्)अपने शरीर को ठीक रखने के लिए समाज की मदद आवश्यक होती है। समाज के द्वारा निर्माण की गई वस्तुओं, सेवाओं के बिना हम सुखा से जी नहीं सकते। समाज यदि सुखी होगा तो हम भी सुखी हो सकते हैं। इसलिए समाजके सुखी रहने से ही हम अपने जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ सकते हैं। इसलिए कहा गया है – आत्मनो मोक्षार्थम् जगद् हिताय च। जगत का याने समाज का और पर्यावरण का दोनों का हित करने के लिए किये गए व्यवहार का ही नाम संस्कृति है। समाज ओर पर्यावरण दोनों के हित की कृति ही संस्कृति है।    
धर्म और मजहब या रिलीजन में अंतर है| इसलिए मजहबी या रिलीजन के अनुसार की हुई कोई भी कृति जबतक धर्म के अनुसार ठीक नहीं है तबतक वह कृति यह भारतीय संस्कृति नहीं है| इसी तरह किसी मत, पंथ या सम्प्रदाय के द्वारा बताई हुई या समर्थित या पुरस्कृत कोई भी कृति जब धर्म के अनुकूल होगी तब ही वह भारतीय संस्कृति कहलाएगी|
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धर्म और मजहब या रिलीजन में अंतर है। इसलिए मजहबी या रिलीजन के अनुसार की हुई कोई भी कृति जबतक धर्म के अनुसार ठीक नहीं है तबतक वह कृति यह भारतीय संस्कृति नहीं है। इसी तरह किसी मत, पंथ या सम्प्रदाय के द्वारा बताई हुई या समर्थित या पुरस्कृत कोई भी कृति जब धर्म के अनुकूल होगी तब ही वह भारतीय संस्कृति कहलाएगी।
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== वर्त्तमान जीवन की गति और संस्कृति ==
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== वर्तमान जीवन की गति और संस्कृति ==
गति करता है इसीलिये विश्व को जगत भी कहते हैं| गति ही जीवन है| गतिशून्यता मृत्यू है| इसलिए जीवन चालता रहने के लिए गति आवश्यक होती है| लेकिन जीवन की गति जब बहुत अधिक हो जाती है तब बड़ी मात्रा में समाज के दुर्बल घटक उस गति के साथ चल नहीं पाते| ऐसा होनेसे वे अन्यों से पिछड़ जाते हैं| दु:खी हो जाते हैं| लेकिन जीवन जब इष्ट गति से चलता है तब वह सबको सुखमय होता है| इष्ट गति से तात्पर्य उस गति से है जिस गति से समाज का अंतिम व्यक्ति भी साथ चल सके| इष्ट गति से कम या अधिक गति जब समाज जीवन को मिलती है तब समाज सुख से दूर जाता है| वर्त्तमान में जीवन को जो गति मिली है वह जीवन की इष्ट गति से बहुत ही अधिक है| इस बढ़ी हुई गति के कारण जीवन में किसी भी प्रकार का ठहराव नहीं आ पाता| ठहराव यह विकास का विरोधी है ऐसी भावना व्याप्त हो गयी है| केवल ठहराव ही नहीं तो कम गति भी विकास के विरोध में मानी जाती है| वर्त्तमान जीवन ने लोगों को पगढ़ीला बना दिया है| आवागमन के क्षिप्रा गति के साधनों के कारण समाज घुमंतू बन रहा है| घुमंतू जातियों की भी कुछ संस्कृति होती है| क्यों कि घुमंतू स्वभाव छोड़ दें तो उनका जीवन ठहराव से भरा रहता है| घुमंतू स्वभाव के कारण संस्कृति शायद श्रेष्ठ नहीं होगी लेकिन होती अवश्य है| लेकिन वर्त्तमान तंत्रज्ञान के और तेजी से विकास की तीव्र इच्छा के कारण समाज में कोइ ठहराव की संभावनाएं नहीं रहतीं|
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गति करता है इसीलिये विश्व को जगत भी कहते हैं। गति ही जीवन है। गतिशून्यता मृत्यू है। इसलिए जीवन चालता रहने के लिए गति आवश्यक होती है। लेकिन जीवन की गति जब बहुत अधिक हो जाती है तब बड़ी मात्रा में समाज के दुर्बल घटक उस गति के साथ चल नहीं पाते। ऐसा होनेसे वे अन्यों से पिछड़ जाते हैं। दु:खी हो जाते हैं। लेकिन जीवन जब इष्ट गति से चलता है तब वह सबको सुखमय होता है। इष्ट गति से तात्पर्य उस गति से है जिस गति से समाज का अंतिम व्यक्ति भी साथ चल सके। इष्ट गति से कम या अधिक गति जब समाज जीवन को मिलती है तब समाज सुख से दूर जाता है। वर्तमान में जीवन को जो गति मिली है वह जीवन की इष्ट गति से बहुत ही अधिक है। इस बढ़ी हुई गति के कारण जीवन में किसी भी प्रकार का ठहराव नहीं आ पाता। ठहराव यह विकास का विरोधी है ऐसी भावना व्याप्त हो गयी है। केवल ठहराव ही नहीं तो कम गति भी विकास के विरोध में मानी जाती है। वर्तमान जीवन ने लोगों को पगढ़ीला बना दिया है। आवागमन के क्षिप्रा गति के साधनों के कारण समाज घुमंतू बन रहा है। घुमंतू जातियों की भी कुछ संस्कृति होती है। क्यों कि घुमंतू स्वभाव छोड़ दें तो उनका जीवन ठहराव से भरा रहता है। घुमंतू स्वभाव के कारण संस्कृति शायद श्रेष्ठ नहीं होगी लेकिन होती अवश्य है। लेकिन वर्तमान तंत्रज्ञान के और तेजी से विकास की तीव्र इच्छा के कारण समाज में कोइ ठहराव की संभावनाएं नहीं रहतीं।
लेकिन जीवन जबतक इष्ट गति से नहीं चलता उसमें धर्म की भावना, संस्कृति पनप ही नहीं सकती| संस्कृति के लिए ठहराव आवश्यक होता है| लेकिन ठराव से तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा| इसलिए इष्ट गति वह गति है जिसमें धर्म तथा संस्कृति के पनपने के लिए वातावरण रहे| जब समाज के सारे लोग सामान (इष्ट) गति से आगे बढ़ाते हैं तब वे एक सापेक्ष ठहराव की स्थिति को प्राप्त करते हैं| यह सापेक्ष ठहराव ही संस्कृति के विकास के लिए भूमि बनाता है| वर्त्तमान जीवन की गति विश्व की सभी समाजों की संस्कृतियों को नष्ट कर रही हैं| विश्व के सभी राष्ट्रों के सम्मुख संस्कृति की रक्षा की चुनौती निर्माण हो गयी है| यह गति जिस सामाजिक जीवन के अभारतीय प्रतिमान में हम जी रहे हैं उसका स्वाभाविक परिणाम है|
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लेकिन जीवन जबतक इष्ट गति से नहीं चलता उसमें धर्म की भावना, संस्कृति पनप ही नहीं सकती। संस्कृति के लिए ठहराव आवश्यक होता है। लेकिन ठराव से तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। इसलिए इष्ट गति वह गति है जिसमें धर्म तथा संस्कृति के पनपने के लिए वातावरण रहे। जब समाज के सारे लोग सामान (इष्ट) गति से आगे बढ़ाते हैं तब वे एक सापेक्ष ठहराव की स्थिति को प्राप्त करते हैं। यह सापेक्ष ठहराव ही संस्कृति के विकास के लिए भूमि बनाता है। वर्तमान जीवन की गति विश्व की सभी समाजों की संस्कृतियों को नष्ट कर रही हैं। विश्व के सभी राष्ट्रों के सम्मुख संस्कृति की रक्षा की चुनौती निर्माण हो गयी है। यह गति जिस सामाजिक जीवन के अभारतीय प्रतिमान में हम जी रहे हैं उसका स्वाभाविक परिणाम है।
    
== भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता ==
 
== भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता ==
भारतने कभी भी आक्रमण नहीं किया| दूसरेपर किसी भी कारण के बिना लूटपाट के लिए, अत्याचार के लिए आक्रमण करना यह एक मानवीय विकृति है| विश्व में ऐसा शायद एक भी समाज का उदाहरण नहीं है जो बलवान बना और उसने औरोंकी लूट करने के लिए, औरोंको गुलाम बनाने के लिए अन्य समाजोंपर आक्रमण नहीं किये| फिर भी भारतीय संस्कृति ने दुनिया को जीता था| कैसे ? वैसे तो इसा पूर्व के काल में कुछ सैनिक अभियान भी हुए लेकिन वे कभी भी जनता की लूटमार करने के लिए नहीं हुए| भारतीय संस्कृति के वैश्विक विस्तार के कारण सभी राज्यों की जनता समान संस्कृति की थी| इसलिए वे आक्रमण एक राष्ट्रद्वारा  दूसरे राष्ट्रपर किये हुए आक्रमण के स्वरूप के नहीं थे| एक ही राष्ट्र के अन्दर होनेवाले राजाओं के संघर्ष जैसे ही थे|
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भारतने कभी भी आक्रमण नहीं किया। दूसरेपर किसी भी कारण के बिना लूटपाट के लिए, अत्याचार के लिए आक्रमण करना यह एक मानवीय विकृति है। विश्व में ऐसा शायद एक भी समाज का उदाहरण नहीं है जो बलवान बना और उसने औरोंकी लूट करने के लिए, औरोंको गुलाम बनाने के लिए अन्य समाजोंपर आक्रमण नहीं किये। फिर भी भारतीय संस्कृति ने दुनिया को जीता था। कैसे ? वैसे तो इसा पूर्व के काल में कुछ सैनिक अभियान भी हुए लेकिन वे कभी भी जनता की लूटमार करने के लिए नहीं हुए। भारतीय संस्कृति के वैश्विक विस्तार के कारण सभी राज्यों की जनता समान संस्कृति की थी। इसलिए वे आक्रमण एक राष्ट्रद्वारा  दूसरे राष्ट्रपर किये हुए आक्रमण के स्वरूप के नहीं थे। एक ही राष्ट्र के अन्दर होनेवाले राजाओं के संघर्ष जैसे ही थे।
    
== भारतीय संस्कृति का विश्वसंचार ==
 
== भारतीय संस्कृति का विश्वसंचार ==
भारतीय संस्कृति का विश्वसंचार कैसा और कितना व्यापक था यह साथ में दी गई चार तालिकाओं से हम जान सकते हैं| ये तालिकाएं शरद हेबालकर लिखित “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” इस ग्रन्थ में देखें| पुस्तक में भारतीय संस्कृति का पूर्व में जापानतक और पश्चिम में अमरीका तक विश्वभर में कैसे विस्तार हुआ था उसका आलेख मिलता है|
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भारतीय संस्कृति का विश्वसंचार कैसा और कितना व्यापक था यह साथ में दी गई चार तालिकाओं से हम जान सकते हैं। ये तालिकाएं शरद हेबालकर लिखित “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” इस ग्रन्थ में देखें। पुस्तक में भारतीय संस्कृति का पूर्व में जापानतक और पश्चिम में अमरीका तक विश्वभर में कैसे विस्तार हुआ था उसका आलेख मिलता है।
    
== इस्लाम के आक्रमणों का भारत राष्ट्र की संस्कृतिपर हुआ परिणाम ==
 
== इस्लाम के आक्रमणों का भारत राष्ट्र की संस्कृतिपर हुआ परिणाम ==
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