Line 12: |
Line 12: |
| | | |
| === बड़सौमत या बड़-सावित्री व्रत === | | === बड़सौमत या बड़-सावित्री व्रत === |
− | बड़सौमत ज्येष्ठ की अमावस्या को मनाई जाती है, इस दिन बड़ के पेड़ की पूजा करनी चाहिए। यह व्रत केवल औरतों को ही करना चाहिए। एक थाल में (जल, रोली, चावल, हल्दी, गुड़, भीगे चने) आदि लेकर बड़ के पेड़ के नीचे बैठना चाहिए। बड़ के तने पर रोली का टीका लगाकर चना, गुड़, चावल सबको बड़ के पेड़ के नीचे चढ़ा दें। घी का दीपक व धूप जलायें। तत्पश्चात् सूत के धागों को हल्दी में रंगकर बड़ के पेड़ पर लपेटते हुए सात परिक्रमा लें। बड़ के पत्तों की माला बनाकर पहन लें, कहानी सुनें, घर में बनी वस्तु व चने, रुपये रखकर बायने के रूप में पैर छूकर अपनी सासू मां को दें तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। इस दिन बड़ के पेड़ के साथ-साथ सत्यवान सावित्री और यमराज की पूजा की जाती है। तत्पश्चात् फलों का भक्षण किया जाता है। सावित्री ने इस व्रत के प्रभाव से अपने मृतक पति सत्यवान को धर्मराज से छुड़ा लिया था। सुवर्ण या मिट्टी से सावित्री, सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यमराज की प्रतिमा बनाकर धूप, चन्दन, दीपक, रोली, केसर, से पूजा करनी चाहिए और सत्यवान - सावित्री की कथा सुनानी चाहिए | | + | बड़सौमत ज्येष्ठ की अमावस्या को मनाई जाती है, इस दिन बड़ के पेड़ की पूजा करनी चाहिए। यह व्रत केवल औरतों को ही करना चाहिए। एक थाल में (जल, रोली, चावल, हल्दी, गुड़, भीगे चने) आदि लेकर बड़ के पेड़ के नीचे बैठना चाहिए। बड़ के तने पर रोली का टीका लगाकर चना, गुड़, चावल सबको बड़ के पेड़ के नीचे चढ़ा दें। घी का दीपक व धूप जलायें। तत्पश्चात् सूत के धागों को हल्दी में रंगकर बड़ के पेड़ पर लपेटते हुए सात परिक्रमा लें। बड़ के पत्तों की माला बनाकर पहन लें, कहानी सुनें, घर में बनी वस्तु व चने, रुपये रखकर बायने के रूप में पैर छूकर अपनी सासू मां को दें तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। इस दिन बड़ के पेड़ के साथ-साथ सत्यवान सावित्री और यमराज की पूजा की जाती है। तत्पश्चात् फलों का भक्षण किया जाता है। सावित्री ने इस व्रत के प्रभाव से अपने मृतक पति सत्यवान को धर्मराज से छुड़ा लिया था। सुवर्ण या मिट्टी से सावित्री, सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यमराज की प्रतिमा बनाकर धूप, चन्दन, दीपक, रोली, केसर, से पूजा करनी चाहिए और सत्यवान - सावित्री की कथा सुनानी चाहिए । |
| | | |
| ==== व्रत की कथा- ==== | | ==== व्रत की कथा- ==== |
Line 19: |
Line 19: |
| "वृक्षा न होहि देव ऋषि बानी " ऐसा विचार करके उन्होने अपनी पुत्री को समझाया कि ऐसे अल्पायु व्यक्ति के साथ विवाह करना उचित नहीं है। इसलिए कोई अन्य वर चुन लो। इस पर सावित्री बोली "पिताजी। आर्य कन्याये अपना वर ही वरण करती है। राजा एक बार आता देता है, पडित एक बार ही प्रतिज्ञा करते हैं। कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है। अन चाहे जो हो सत्यवान को ही अपने पति के रूप में स्वीकार करूगी।" सावित्री ने सत्यवान के मृत्यु का समय मालूम कर लिया था। अन्ततः उन दोनों का विवाह हो गया। वह ससुराल पहुंचते ही सास ससुर की सेवा में दिन रात रहने लगी। समय बदला साविता के ससुर का जल क्षीण होता देखकर शत्रुओं ने राज्य छीन लिया। नारद का वचन साविती को दिन प्रतिदिन अधौर करता रहा। जब उसो जाना कि पति की मृत्यु का समय नजदीक आ गया है तो उसने तीन दिन पूर्व ही उपवास करना शुरू कर दिया। नारद द्वारा कथित तिथि पर पितरों का पूजन किया। नित्य ही सत्यवान लकड़ी काटने जंगल जाया करता था। उस दिन भी सत्यवान लकड़ी काटने जंगल जा रहा था तो सावित्री भी सास ससुर की माला से सत्यवान के साथ चलने को तैयार हो गयी। सत्यवान वन में पहुंचकर लकड़ी काटने वृया पर चढ़ गया। वृक्ष पर चढ़ते ही सत्यवान के सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी। वह व्याकुल हो गया और से नीचे उतर गया। | | "वृक्षा न होहि देव ऋषि बानी " ऐसा विचार करके उन्होने अपनी पुत्री को समझाया कि ऐसे अल्पायु व्यक्ति के साथ विवाह करना उचित नहीं है। इसलिए कोई अन्य वर चुन लो। इस पर सावित्री बोली "पिताजी। आर्य कन्याये अपना वर ही वरण करती है। राजा एक बार आता देता है, पडित एक बार ही प्रतिज्ञा करते हैं। कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है। अन चाहे जो हो सत्यवान को ही अपने पति के रूप में स्वीकार करूगी।" सावित्री ने सत्यवान के मृत्यु का समय मालूम कर लिया था। अन्ततः उन दोनों का विवाह हो गया। वह ससुराल पहुंचते ही सास ससुर की सेवा में दिन रात रहने लगी। समय बदला साविता के ससुर का जल क्षीण होता देखकर शत्रुओं ने राज्य छीन लिया। नारद का वचन साविती को दिन प्रतिदिन अधौर करता रहा। जब उसो जाना कि पति की मृत्यु का समय नजदीक आ गया है तो उसने तीन दिन पूर्व ही उपवास करना शुरू कर दिया। नारद द्वारा कथित तिथि पर पितरों का पूजन किया। नित्य ही सत्यवान लकड़ी काटने जंगल जाया करता था। उस दिन भी सत्यवान लकड़ी काटने जंगल जा रहा था तो सावित्री भी सास ससुर की माला से सत्यवान के साथ चलने को तैयार हो गयी। सत्यवान वन में पहुंचकर लकड़ी काटने वृया पर चढ़ गया। वृक्ष पर चढ़ते ही सत्यवान के सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी। वह व्याकुल हो गया और से नीचे उतर गया। |
| | | |
− | सावित्री अपना भविष्य समझ गयी और अपनी जांघ पर सत्यवान को लिटा लिया। उसी समय उसने दक्षिण दिशा से अत्यन्त प्रभावशाली महिषारूढ़ यमराज को आते देखा। धर्मराज सत्यवान के जीवन को लेकर जन चल दिये तो सावित्री भी उनके पीछे चल दी। पहले तो यमराज ने उसे दैवी विधान सुनाया, किन्तु उसको अपने पति में निष्ठा देखकर वर मांगने को कहा। सावित्री बोली-"मेरे सास-ससुर बनवासी और अन्य है। उन्हें आप दिव्य ज्योति प्रदान करें।" यमराज ने कहा-"ऐसा ही होगा। अब लौट जाओ।" यमराज की बात सुनकर उसने कहा-"भगवान मुझे अपने पतिदेव के पीछे - पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं | पति अनुगमन मेरा कर्तव्य है।" यह सुनकर यमराज ने फिर वर मांगने को कहा। सावित्री बोली-"मारे ससुर का राज्य शत्रुओं ने छीन लिया है। उन्हें वह पुनः प्राप्त हो और ये धर्मपरायण हो।" यमराज ने ये घर भी दे दिया और लौट जाने को कहा किन्तु उसने उनका पीछा न छोड़ा। यमराज बोले-"एक घर और मांग लो।" सावित्री बोली-"मुन्ने वर दी कि मेरे सौ पुत्र हो।" यमराज ने 'तथास्तु' कहा और आगे चल दिया सावित्री बोली- देव, आप मेरे पति को तो लिए जा रहे हैं मेरे पुत्र कैसे होगा यमराज को उसके पति के प्राण छोड़ने पड़े। सावित्री को अभय-मुहाग का वरदान देकर अन्तर्ध्यान हो गये। इस तरह सावित्री उस वटवृक्ष के नीचे आई जहां पति का शरीर पड़ा था। | + | सावित्री अपना भविष्य समझ गयी और अपनी जांघ पर सत्यवान को लिटा लिया। उसी समय उसने दक्षिण दिशा से अत्यन्त प्रभावशाली महिषारूढ़ यमराज को आते देखा। धर्मराज सत्यवान के जीवन को लेकर जन चल दिये तो सावित्री भी उनके पीछे चल दी। पहले तो यमराज ने उसे दैवी विधान सुनाया, किन्तु उसको अपने पति में निष्ठा देखकर वर मांगने को कहा। सावित्री बोली-"मेरे सास-ससुर बनवासी और अन्य है। उन्हें आप दिव्य ज्योति प्रदान करें।" यमराज ने कहा-"ऐसा ही होगा। अब लौट जाओ।" यमराज की बात सुनकर उसने कहा-"भगवान मुझे अपने पतिदेव के पीछे - पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं । पति अनुगमन मेरा कर्तव्य है।" यह सुनकर यमराज ने फिर वर मांगने को कहा। सावित्री बोली-"मारे ससुर का राज्य शत्रुओं ने छीन लिया है। उन्हें वह पुनः प्राप्त हो और ये धर्मपरायण हो।" यमराज ने ये घर भी दे दिया और लौट जाने को कहा किन्तु उसने उनका पीछा न छोड़ा। यमराज बोले-"एक घर और मांग लो।" सावित्री बोली-"मुन्ने वर दी कि मेरे सौ पुत्र हो।" यमराज ने 'तथास्तु' कहा और आगे चल दिया सावित्री बोली- देव, आप मेरे पति को तो लिए जा रहे हैं मेरे पुत्र कैसे होगा यमराज को उसके पति के प्राण छोड़ने पड़े। सावित्री को अभय-मुहाग का वरदान देकर अन्तर्ध्यान हो गये। इस तरह सावित्री उस वटवृक्ष के नीचे आई जहां पति का शरीर पड़ा था। |
| | | |
| ईश्वर की अनुकम्पा से उसमें जीवन का संचार हुआ और सत्यवान उठकर बैठ गया। दोनों हर्ष से प्रेमालिंगन करके राजधानी की तरफ लौट चले। सत्यवान के माता-पिता को भी दिव्य ज्योति प्राप्त हुई। इस प्रकार सत्यवान और सावित्री चिरकाल तक राज्य-सुख भोगते रहे। यह व्रत सुहागिन स्त्रियों को अवश्य करना चाहिए। ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को रखे जाने वाला यह व्रत सुहागिन स्त्रियों के लिए विशेष प्रभावी है। इस व्रत को सच्चे मन व श्रद्धा से रखने वाली स्त्रियों का सुहाग सदैव अचलं रहता है। | | ईश्वर की अनुकम्पा से उसमें जीवन का संचार हुआ और सत्यवान उठकर बैठ गया। दोनों हर्ष से प्रेमालिंगन करके राजधानी की तरफ लौट चले। सत्यवान के माता-पिता को भी दिव्य ज्योति प्राप्त हुई। इस प्रकार सत्यवान और सावित्री चिरकाल तक राज्य-सुख भोगते रहे। यह व्रत सुहागिन स्त्रियों को अवश्य करना चाहिए। ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को रखे जाने वाला यह व्रत सुहागिन स्त्रियों के लिए विशेष प्रभावी है। इस व्रत को सच्चे मन व श्रद्धा से रखने वाली स्त्रियों का सुहाग सदैव अचलं रहता है। |
Line 32: |
Line 32: |
| ज्येष्ठ सुदी दरामी को गंगा दशहरा कहा जाता है। इसी दिन नदियों में श्रेष्ठ गंगाजी भगीरथ द्वारा स्वर्गलोक से पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी सोमवार और हस्त नक्षत्र होने पर यह तिथि घोर पापों को नष्ट करने वाली मानी गयी है। हस्त नक्षत्र में बुधवार के दिन गंगावतरण हुआ था। यह तिथि अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस तिथि में स्नान, दान, तर्पण से सब पापों का विनाश होता है। इसलिए इसका नाम दशहरा पड़ा है। व्रत की कथा-प्राचीन काल में अयोध्या नगरी में एक सगर नाम के राजा राज्य करते थे। उनके केशिनी और सुमति नामकी दो रानियां थीं। पहली रानी के अंशुमान नामक पुत्र का उल्लेख मिलता है, किन्तु दूसरी रानी सुमति के साठ हजार पुत्र थे। उसी समय यज्ञ की पूर्ति के लिए एक घोड़ा छोड़ा। इन्द्र यज्ञ को भंग करने के लिए उस घोड़े को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध आये। राजा ने उसे खोजने के लिए साठ हजार पुत्रों को भेजा। खोजते-खोजते वे कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे तथा समाधिस्थ मुनि की क्रोधाग्नि में जलकर भस्म हो गये। | | ज्येष्ठ सुदी दरामी को गंगा दशहरा कहा जाता है। इसी दिन नदियों में श्रेष्ठ गंगाजी भगीरथ द्वारा स्वर्गलोक से पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी सोमवार और हस्त नक्षत्र होने पर यह तिथि घोर पापों को नष्ट करने वाली मानी गयी है। हस्त नक्षत्र में बुधवार के दिन गंगावतरण हुआ था। यह तिथि अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस तिथि में स्नान, दान, तर्पण से सब पापों का विनाश होता है। इसलिए इसका नाम दशहरा पड़ा है। व्रत की कथा-प्राचीन काल में अयोध्या नगरी में एक सगर नाम के राजा राज्य करते थे। उनके केशिनी और सुमति नामकी दो रानियां थीं। पहली रानी के अंशुमान नामक पुत्र का उल्लेख मिलता है, किन्तु दूसरी रानी सुमति के साठ हजार पुत्र थे। उसी समय यज्ञ की पूर्ति के लिए एक घोड़ा छोड़ा। इन्द्र यज्ञ को भंग करने के लिए उस घोड़े को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध आये। राजा ने उसे खोजने के लिए साठ हजार पुत्रों को भेजा। खोजते-खोजते वे कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे तथा समाधिस्थ मुनि की क्रोधाग्नि में जलकर भस्म हो गये। |
| | | |
− | अपने-अपने पितृत्व चरणों को खोजता हुआ अंशुमान जब मुनि-आश्रम में पहुंचा तो महात्मा गरुड़ से भस्म होने का सम्पूर्ण वृतान्त जाना। गरुड़जी ने यह भी बताया कि यदि तुम इन सबकी मुक्ति चाहते हो तो स्वर्ग से गंगाजी को पृथ्वी पर लाना पड़ेगा। इस समय अश्व को ले जाकर अपने पितामह के यज्ञ को पूर्ण कराओ, उसके बाद यह कार्य करना। अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञ मण्डप पर पहुंचकर सगर को सम्पूर्ण वृतान्त कह सुनाया। महाराज सगर की मृत्यु के उपरान्त अंशुमान और उनके पुत्र दिलीप जीवन- पर्यन्त तपस्या करके भी गंगाजी को पृथ्वी पर ना ला सके। अन्त में राजा दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गंगाजी को इस लोक में लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या की, इस तरह तपस्या करते-करते कई वर्ष बीत गये, तब ब्रह्माजी प्रसन्न हुए और गंगाजी को पृथ्वीलोक में ले जाने का वरदान दिया। ब्रह्माजी के कमण्डल से छूटने के पश्चात् समस्या यह थी कि गंगाजी को सम्भालेगा कौन? विधाता ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के सिवाय किसीमें यह शक्ति नहीं जो गंगाजी के वेग को सम्भाल सके। इस आदेश के अनुसार | + | अपने-अपने पितृत्व चरणों को खोजता हुआ अंशुमान जब मुनि-आश्रम में पहुंचा तो महात्मा गरुड़ से भस्म होने का सम्पूर्ण वृतान्त जाना। गरुड़जी ने यह भी बताया कि यदि तुम इन सबकी मुक्ति चाहते हो तो स्वर्ग से गंगाजी को पृथ्वी पर लाना पड़ेगा। इस समय अश्व को ले जाकर अपने पितामह के यज्ञ को पूर्ण कराओ, उसके बाद यह कार्य करना। अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञ मण्डप पर पहुंचकर सगर को सम्पूर्ण वृतान्त कह सुनाया। महाराज सगर की मृत्यु के उपरान्त अंशुमान और उनके पुत्र दिलीप जीवन- पर्यन्त तपस्या करके भी गंगाजी को पृथ्वी पर ना ला सके। अन्त में राजा दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गंगाजी को इस लोक में लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या की, इस तरह तपस्या करते-करते कई वर्ष बीत गये, तब ब्रह्माजी प्रसन्न हुए और गंगाजी को पृथ्वीलोक में ले जाने का वरदान दिया। ब्रह्माजी के कमण्डल से छूटने के पश्चात् समस्या यह थी कि गंगाजी को सम्भालेगा कौन? विधाता ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के सिवाय किसीमें यह शक्ति नहीं जो गंगाजी के वेग को सम्भाल सके। इस आदेश के अनुसार भागीरथ को फिर एक अंगूठे के बल पर खड़ा होकर भगवन शंकर की आराधना करनी पड़ी । शंकर जी प्रसन्न हुए और गंगा जी को धारण करने के लिए जटा फैलाकर तैयार हो गये । गंगा जी देवलोक से छोड़ी गई और शंकरजी की जटाओं को भेदकर धरातल पर चली जाउंगी । |
| + | |
| + | पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता कि गंगाजी शंकर की जटाओं में कई वर्षो तक भ्रमण कराती रही परन्तु निकालने का कहीं भी रास्ता नहीं मिला । भागीरथ के पुनः अनुनय विनय करने पर नन्दीश्वर से प्रसन्न होकर हिमालय में ब्रह्मा जी के द्वारा निर्मित बिन्दुसार में गंगाजी को छोड़ दिया । उस समय इनकी सात धराये हो गयी । आगे आगे भागीरथ चल रहे थे पीछे पीछे गंगाजी चल रही थी । धरातल पर गनगा जी के आते ही हाहाकार मच गया । जिस मार्ग से गंगाजी जा रही थी उसी मार्ग में ऋषिराज जन्हू का आश्रम और तपोस्थल था । तपस्या अदि में विघ्न समझकर गंगाजी को पी गये, फिर देवताओं की प्रार्थना पर उन्हें पुनः जांघ से निकल दिया । तभी से ये जन्हू की पुत्री जान्हवी कहलाई । इस प्रकार अनेक स्थलों से तरन करन करती हुई जान्हवी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचकर सागर के साठ हजार पुत्रो के भस्मावशेष को तरकर मुक्त किया । उसी समय ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन ताप और सगर के साठ हजार पुत्रो के अमर होने का वर दिया , तदन्तर यह घोषित किया की तुम्हारे नाम से गंगाजी का नाम भागीरथी होगा । अब तुम अयोध्या में राजकाज संभालो । ऐसा कहकर ब्रहमाजी अंतर्ध्यान हो गए । इस वरदान से भागीरथ को पुत्रलाभ हुआ और सुखपूर्वक राज्य भोगकर परलोक गमन किया । |