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सन्ध्योपासन शब्द सन्ध्या और उपासन इन दो शब्दोंके मेलसे बना है ।यह एक द्विज मात्र के लिये अत्यावश्यक कर्म निर्धारित किया गया है और आधुनिक काल में इसके आचरण का लोप हो रहा है ।प्राचीन काल से वेद स्वाध्याय आदि वैदिक कर्मों को करने की योग्यता सन्ध्या वन्दन कर्म करने के उपरान्त होती है सन्ध्या वन्दन से हमारा प्रबल आरोग्य सूत्र भी सम्बद्ध है।
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सन्ध्योपासन शब्द सन्ध्या और उपासन इन दो शब्दोंके मेलसे बना है ।यह एक द्विज मात्र के लिये अत्यावश्यक कर्म निर्धारित किया गया है। आधुनिक काल में इसके आचरण का लोप हो रहा है।प्राचीन काल से वेद स्वाध्याय आदि वैदिक कर्मों को करने की योग्यता सन्ध्या वन्दन कर्म करने के उपरान्त होती है। सन्ध्या वन्दन से हमारा प्रबल आरोग्य सूत्र भी सम्बद्ध है।सन्ध्या शब्दकी व्युत्पत्ति है-<blockquote>सम्यग् ध्यायन्ति सम्यग् ध्यायते वा परब्रह्म यया यस्यां वा सा सन्ध्या।(कर्मठ गुरु)<ref>मुकुन्दवल्लभज्यौतिषाचार्यः,कर्मठगुरुः,मोतीलाल बनारसीदास(पृ० १४)।</ref></blockquote>वह क्रिया जिसमें परमात्माका भलीभाँति ध्यान या चिन्तन किया जाए वह सन्ध्या कहलाती है। सन्ध्या शब्द सन्धि+यत्+टाप् प्रत्यय लगकर बनता है या सम् उपसर्गपूर्वक ध्यै धातुसे अङ् प्रत्यय और फिर स्त्रीलिंगका टाप् प्रत्यय लगकर बनता है। सन्ध्या शब्दका अर्थ मिलाप, जोड़, प्रभाग आदि होता है। सन्ध्याका एक अर्थ और है- <blockquote>अहोरात्रस्य या सन्धिः सूर्यनक्षत्रवर्जिताः।सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥(द०स्मृ०)</blockquote>सूर्य और नक्षत्रोंसे रहित दिन और रात्रिका जो सन्धिकाल है उसे ही तत्त्वदर्शी मुनियोंने सन्ध्या कहा है। इस प्रकार दिन और रात्रिकी दोनों सन्धियाँ (प्रातः सन्धिकाल और सायं सन्धिकाल)-में किया जानेवाला परमात्माका चिन्तन सन्ध्या और उसका अनुष्ठान या उपासन सन्ध्योपासन कहलाता है। इस प्रकार एक ओर सन्ध्या शब्द सन्धिकालपरक है वहीं दूसरी ओर आराधनापरक भी है।  <blockquote>सन्धौ सन्ध्यामुपासीत् नोदितेनास्तगे रवौ।।</blockquote>इस वृद्ध याज्ञवल्क्यके वचनसे प्रातः रात्रि और दिनकी सन्धिवेलामें और सायंकाल दिन और रात्रिकी सन्धिवेलामें सन्ध्योपासन करना चाहिये। प्रात:काल सूर्योदयसे पूर्व जबकि आकाशमें तारे हों उस समयकी सन्ध्या उत्तम कही गयी है।
 
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सन्ध्या शब्दकी व्युत्पत्ति है- <blockquote>सम्यग् ध्यायन्ति सम्यग् ध्यायते वा परब्रह्म यया यस्यां वा सा सन्ध्या।(कर्मठ गुरु)<ref>मुकुन्दवल्लभज्यौतिषाचार्यः,कर्मठगुरुः,मोतीलाल बनारसीदास(पृ० १४)।</ref></blockquote>वह क्रिया जिसमें परमात्माका भलीभाँति ध्यान या चिन्तन किया जाय सन्ध्या कहलाती है। सन्ध्या शब्द सन्धि+यत्+टाप् प्रत्यय लगकर बनता है या सम् उपसर्गपूर्वक ध्यै धातुसे अङ् प्रत्यय और फिर स्त्रीलिंगका टाप् प्रत्यय लगकर बनता है। सन्ध्या शब्दका अर्थ मिलाप, जोड़, प्रभाग आदि होता है। सन्ध्याका एक अर्थ और है- <blockquote>अहोरात्रस्य या सन्धिः सूर्यनक्षत्रवर्जिताः।सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥(द०स्मृ०)</blockquote>सूर्य और नक्षत्रोंसे रहित दिन और रात्रिका जो सन्धिकाल है उसे ही तत्त्वदर्शी मुनियोंने सन्ध्या कहा है। इस प्रकार दिन और रात्रिकी दोनों सन्धियाँ (प्रातः सन्धिकाल और सायं सन्धिकाल)-में किया जानेवाला परमात्माका चिन्तन सन्ध्या और उसका अनुष्ठान या उपासन सन्ध्योपासन कहलाता है। इस प्रकार एक ओर सन्ध्या शब्द सन्धिकालपरक है वहीं दूसरी ओर आराधनापरक भी है।  <blockquote>सन्धौ सन्ध्यामुपासीत् नोदितेनास्तगे रवौ।।</blockquote>इस वृद्ध याज्ञवल्क्यके वचनसे प्रातः रात्रि और दिनकी सन्धिवेलामें और सायंकाल दिन और रात्रिकी सन्धिवेलामें सन्ध्योपासन करना चाहिये। प्रात:काल सूर्योदयसे पूर्व जबकि आकाशमें तारे हों उस समयकी सन्ध्या उत्तम कही गयी है।
      
==परिचय==
 
==परिचय==
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इस वचनमें प्रातः और सायं—इन्हीं दो संध्याओंके न करनेसे दोष बताया गया है, अतः प्रातः तथा सायंकालकी संध्या ही आवश्यक है, मध्याह्नकी नहीं। किंतु ऐसा मानना उचित नहीं है, कारण कि इस वचनद्वारा मनुजीने जो उक्त दो कालोंकी संध्या न करनेसे दोष बताया है, उससे उक्त समयकी संध्याकी अवश्यकर्तव्यतामात्र सिद्ध हुई। इससे यह नहीं व्यक्त होता कि मध्याह्म-संध्या अनावश्यक है, क्योंकि-<blockquote>संध्यात्रयं तु कर्तव्यं द्विजेनात्मविदा सदा। (अत्रिस्मृति)</blockquote>आत्मवेत्ता द्विजको सदा त्रिकाल-संध्या करनी चाहिये। —इत्यादि वचनके अनुसार मध्याह्न-संध्या भी आवश्यक ही है। शुक्लयजुर्वेदियोंके लिये तो मध्याह्न-संध्या विशेष आवश्यक है।  
 
इस वचनमें प्रातः और सायं—इन्हीं दो संध्याओंके न करनेसे दोष बताया गया है, अतः प्रातः तथा सायंकालकी संध्या ही आवश्यक है, मध्याह्नकी नहीं। किंतु ऐसा मानना उचित नहीं है, कारण कि इस वचनद्वारा मनुजीने जो उक्त दो कालोंकी संध्या न करनेसे दोष बताया है, उससे उक्त समयकी संध्याकी अवश्यकर्तव्यतामात्र सिद्ध हुई। इससे यह नहीं व्यक्त होता कि मध्याह्म-संध्या अनावश्यक है, क्योंकि-<blockquote>संध्यात्रयं तु कर्तव्यं द्विजेनात्मविदा सदा। (अत्रिस्मृति)</blockquote>आत्मवेत्ता द्विजको सदा त्रिकाल-संध्या करनी चाहिये। —इत्यादि वचनके अनुसार मध्याह्न-संध्या भी आवश्यक ही है। शुक्लयजुर्वेदियोंके लिये तो मध्याह्न-संध्या विशेष आवश्यक है।  
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== सन्ध्या का महत्व ==
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भागवत पुराण के अनुसार एक बार दक्ष पुत्र दिति ने कामातुर होकर अपने पति मरीचिनंदन कश्यपजी से प्रार्थना की। उस समय कश्यपजी खीर की आहुतियों द्वारा अग्निजिह्व भगवान यज्ञपति की आराधना कर सूर्यास्त के समय अग्निशाला में ध्यानस्थ बैठे थे, लेकिन दिति कामदेव के वेग से अत्यंत बैचेन हो बेबस हो रही थी। यह वक्त संध्यावंदन का था, लेकिन लाख समझाने पर भी वह नहीं मानी।
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कश्यपजी ने के कहा- तुम एक मुहूर्त ठहरो यह अत्यंत घोर समय चल रहा है जबकि राक्षसादि प्रेत योनि की आत्माएं सक्रिय हैं, ऐसे में यह वक्त ईश्वर भक्ति का वक्त है। इस वक्त महादेवजी अपने तीसरे नेत्र से सभी को देखते रहते हैं। यह वक्त उन्हीं का है। यह समय तो संध्यावंदन और भगवत् पूजन आदि के लिए ही है। इस समय जो पिशाचों जैसा आचरण करते हैं, वे नरकगामी होते हैं।
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पति के इस प्रकार समझाने पर भी दिति नहीं मानी और उन्होंने कश्यपजी का वस्त्र पकड़ लिया। तब विवश होकर उन्होंने इस शिव समय में देवों को नमस्कार किया और एकांत में दिति के साथ समागम किया।
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समागम के बाद कश्यपजी ने निर्मल जल से स्नान किया और फिर से ब्रह्म का ध्यान करने लगे लेकिन दिति को बाद में इसका पश्चात्ताप हुआ और लज्जा आई। तब वह ब्रह्मर्षि के समक्ष सिर नीचा करके कहने लगी-भूतों के स्वामी भगवान रुद्र का मैंने अपराध किया है, किंतु वह भूतश्रेष्ठ मेरे इस गर्भ को नष्ट न करें। मैं उनसे क्षमा मांगती हूं।
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बाद में कश्यपजी जब ध्यान से उठे तो उन्होंने देखा की दिति भय से थर-थर कांपते हुए प्रार्थना कर रही है। कश्यपजी बोले, तुमने देवताओं की अवहेलना करते हुए अमंगल समय में काम की कामना की इसलिए तुम्हारी कोख से दो बड़े ही अमंगल और अधम पुत्र जन्म लेंगे और वे धरती पर बार-बार अपने अत्याचारों से लोगों को रुलाएंगे। तब उनका वध करने के लिए स्वयं जगदीश्वर को अवतार लेना होगा।
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सृष्टि में भयानक उत्पात और अंधकार के बाद दिति के गर्भ से सर्वप्रथम दो जुड़वां पुत्र जन्मे हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष। जन्म लेते ही दोनों पर्वत के समान दृढ़ तथा विशाल हो गए। ये दोनों ही आदि दैत्य कहलाए।अतःशास्त्र के अनुसार सन्ध्या काल में भगवद् ध्यान जप आदि धार्मिक कार्य ही करना चाहिये।आहार निद्रा मैथुन स्वाध्याय आदि कार्यों को नहीं करना चाहिये।जैसा कि कहा गया है-<blockquote>संध्या काले तु संप्राप्ते कर्म चत्वारि वर्जयेत। आहारं मैथुनं निद्रा स्वाध्यातु विशेषतः।।</blockquote><blockquote>आहारं जायते ब्याधिः मैथुनं दुष्ट संतति। निद्रा ह्रयते लक्ष्मी स्वाध्यातु विष्मरणं भवेत।।</blockquote>
    
== संध्योपासन के मुख्य अंग ==
 
== संध्योपासन के मुख्य अंग ==
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== उल्लेख ==
 
== उल्लेख ==
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