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| सन्ध्योपासन शब्द सन्ध्या और उपासन इन दो शब्दोंके मेलसे बना है ।यह एक द्विज मात्र के लिये अत्यावश्यक कर्म निर्धारित किया गया है और आधुनिक काल में इसके आचरण का लोप हो रहा है ।प्राचीन काल से वेद स्वाध्याय आदि वैदिक कर्मों को करने की योग्यता सन्ध्या वन्दन कर्म करने के उपरान्त होती है सन्ध्या वन्दन से हमारा प्रबल आरोग्य सूत्र भी सम्बद्ध है। | | सन्ध्योपासन शब्द सन्ध्या और उपासन इन दो शब्दोंके मेलसे बना है ।यह एक द्विज मात्र के लिये अत्यावश्यक कर्म निर्धारित किया गया है और आधुनिक काल में इसके आचरण का लोप हो रहा है ।प्राचीन काल से वेद स्वाध्याय आदि वैदिक कर्मों को करने की योग्यता सन्ध्या वन्दन कर्म करने के उपरान्त होती है सन्ध्या वन्दन से हमारा प्रबल आरोग्य सूत्र भी सम्बद्ध है। |
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− | सन्ध्या शब्दकी व्युत्पत्ति है- <blockquote>सम्यग् ध्यायन्ति सम्यग् ध्यायते वा परब्रह्म यया यस्यां वा सा सन्ध्या।।</blockquote>वह क्रिया जिसमें परमात्माका भलीभाँति ध्यान या चिन्तन किया जाय सन्ध्या कहलाती है। सन्ध्या शब्द सन्धि+यत्+टाप् प्रत्यय लगकर बनता है या सम् उपसर्गपूर्वक ध्यै धातुसे अङ् प्रत्यय और फिर स्त्रीलिंगका टाप् प्रत्यय लगकर बनता है। सन्ध्या शब्दका अर्थ मिलाप, जोड़, प्रभाग आदि होता है। सन्ध्याका एक अर्थ और है- | + | सन्ध्या शब्दकी व्युत्पत्ति है- <blockquote>सम्यग् ध्यायन्ति सम्यग् ध्यायते वा परब्रह्म यया यस्यां वा सा सन्ध्या।(कर्मठ गुरु)<ref>मुकुन्दवल्लभज्यौतिषाचार्यः,कर्मठगुरुः,मोतीलाल बनारसीदास(पृ० १४)।</ref></blockquote>वह क्रिया जिसमें परमात्माका भलीभाँति ध्यान या चिन्तन किया जाय सन्ध्या कहलाती है। सन्ध्या शब्द सन्धि+यत्+टाप् प्रत्यय लगकर बनता है या सम् उपसर्गपूर्वक ध्यै धातुसे अङ् प्रत्यय और फिर स्त्रीलिंगका टाप् प्रत्यय लगकर बनता है। सन्ध्या शब्दका अर्थ मिलाप, जोड़, प्रभाग आदि होता है। सन्ध्याका एक अर्थ और है- <blockquote>अहोरात्रस्य या सन्धिः सूर्यनक्षत्रवर्जिताः।सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥(द०स्मृ०)</blockquote>सूर्य और नक्षत्रोंसे रहित दिन और रात्रिका जो सन्धिकाल है उसे ही तत्त्वदर्शी मुनियोंने सन्ध्या कहा है। इस प्रकार दिन और रात्रिकी दोनों सन्धियाँ (प्रातः सन्धिकाल और सायं सन्धिकाल)-में किया जानेवाला परमात्माका चिन्तन सन्ध्या और उसका अनुष्ठान या उपासन सन्ध्योपासन कहलाता है। इस प्रकार एक ओर सन्ध्या शब्द सन्धिकालपरक है वहीं दूसरी ओर आराधनापरक भी है। <blockquote>सन्धौ सन्ध्यामुपासीत् नोदितेनास्तगे रवौ।।</blockquote>इस वृद्ध याज्ञवल्क्यके वचनसे प्रातः रात्रि और दिनकी सन्धिवेलामें और सायंकाल दिन और रात्रिकी सन्धिवेलामें सन्ध्योपासन करना चाहिये। प्रात:काल सूर्योदयसे पूर्व जबकि आकाशमें तारे हों उस समयकी सन्ध्या उत्तम कही गयी है। |
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− | अहोरात्रस्य या सन्धिः सूर्यनक्षत्रवर्जिताः।सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥(दक्षस्मृति) | |
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− | सूर्य और नक्षत्रोंसे रहित दिन और रात्रिका जो सन्धिकाल है उसे ही तत्त्वदर्शी मुनियोंने सन्ध्या कहा है। इस प्रकार दिन और रात्रिकी दोनों सन्धियाँ (प्रातः सन्धिकाल और सायं सन्धिकाल)-में किया जानेवाला परमात्माका चिन्तन सन्ध्या और उसका अनुष्ठान या उपासन सन्ध्योपासन कहलाता है। इस प्रकार एक ओर सन्ध्या शब्द सन्धिकालपरक है, वहीं दूसरी ओर आराधनापरक भी है। <blockquote>सन्धौ सन्ध्यामुपासीत् नोदितेनास्तगे रवौ।।</blockquote>इस वृद्ध याज्ञवल्क्यके वचनसे प्रातः रात्रि और दिनकी सन्धिवेलामें और सायंकाल दिन और रात्रिकी सन्धिवेलामें सन्ध्योपासन करना चाहिये। प्रात:काल सूर्योदयसे पूर्व जबकि आकाशमें तारे हों उस समयकी सन्ध्या उत्तम कही गयी है। | |
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| ==परिचय== | | ==परिचय== |
− | <blockquote>ॐकारप्रौढमूलः क्रमपदसहितश्छन्दविस्तीर्णशाख । ऋक्पत्रः सामपुष्पो यजुरधिकफलोऽथर्वगन्धं दधानः।</blockquote><blockquote>यज्ञच्छायासमेतो द्विजमधुपगणैः सेव्यमानः प्रभाते । मध्ये सायं त्रिकालं सुचरितचरितः पातु वो वेदवृक्षः॥</blockquote>परमात्माको प्राप्त किये अथवा जाने बिना जीवनकी भवबन्धनसे मुक्ति नहीं हो सकती। यह सभी ऋषि-महर्षियोंका निश्चित मत है। उनके ज्ञानका सबसे सहज, उत्तम और प्रारम्भिक साधन है— संध्योपासना। संध्योपासना द्विजमात्रके लिये परम आवश्यक कर्म है। इसकी अवहेलनासे पाप होता है और पालनसे अन्तःकरण शुद्ध होकर परमात्मसाक्षात्कारका अधिकारी बन जाता है। तन-मनसे संध्योपासनाका आश्रय लेनेवाले द्विजको स्वल्पकालमें ही परमेश्वरकी प्राप्ति हो जाती है। अतः द्विजातिमात्रको संध्योपासनामें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये।
| + | सन्ध्या हमारी अहोरात्रचर्या का मुख्य अंग है ।<blockquote>विप्रो वृक्षस्तस्य मूलञ्च सन्ध्या । </blockquote>कहते हुये शास्त्रकारों ने उसे द्विजाति के लिए जीवन का मूल स्वीकार किया है। उसमें लौकिक और पारमार्थिक श्रेय की ऐसी प्रक्रियाओं का सम्मिश्रण है कि यदि उसे स्वास्थ्य, शक्ति, मेधा और दीर्घ जीवन की कुञ्जी कह दें तो अनुपयुक्त न होगा। इससे भी अधिक सन्ध्या का प्रमुख उद्देश्य हमारी उस श्वास प्रक्रिया का नियमन है जो हमारे जीवन का वास्तविक मूल है। |
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− | संध्योपासनाका_अर्थ
| + | सन्ध्या से जहाँ अनेक रोगों की निवृत्ति पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति और दीर्घायु का लाभ होता है वहां विधिवत् प्राण त्याग कर सकने की योग्यता प्राप्त हो जाने के कारण पुण्य लोकों की प्राप्ति अक्षय्य मोक्ष पद तक की भी प्राप्ति हो सकती है।<blockquote>ॐकारप्रौढमूलः क्रमपदसहितश्छन्दविस्तीर्णशाख । ऋक्पत्रः सामपुष्पो यजुरधिकफलोऽथर्वगन्धं दधानः।</blockquote><blockquote>यज्ञच्छायासमेतो द्विजमधुपगणैः सेव्यमानः प्रभाते । मध्ये सायं त्रिकालं सुचरितचरितः पातु वो वेदवृक्षः॥</blockquote>परमात्माको प्राप्त किये अथवा जाने बिना जीवनकी भवबन्धनसे मुक्ति नहीं हो सकती। यह सभी ऋषि-महर्षियोंका निश्चित मत है। उनके ज्ञानका सबसे सहज, उत्तम और प्रारम्भिक साधन है— संध्योपासना। संध्योपासना द्विजमात्रके लिये परम आवश्यक कर्म है। इसकी अवहेलनासे पाप होता है और पालनसे अन्तःकरण शुद्ध होकर परमात्मसाक्षात्कारका अधिकारी बन जाता है। तन-मनसे संध्योपासनाका आश्रय लेनेवाले द्विजको स्वल्पकालमें ही परमेश्वरकी प्राप्ति हो जाती है। अतः द्विजातिमात्रको संध्योपासनामें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये।संध्योपासनाका अर्थ - |
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− | सम्यक् ध्यायते इति सन्ध्या ।
| + | संध्योपासनामें दो शब्द हैं—संध्या और उपासना।संध्याका प्रायः तीन अर्थोंमें व्यवहार होता है- |
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− | संध्योपासनामें दो शब्द हैं—संध्या और उपासना। संध्याका प्रायः तीन अर्थोंमें व्यवहार होता है | |
| * संध्याकाल (दक्षस्मृति)। | | * संध्याकाल (दक्षस्मृति)। |
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| अहरहः संध्यामुपासीत (प्रतिदिन संध्योपासना करें) इस प्रकार प्रतिदिन संध्या करनेकी विधि होनेसे तथा-<blockquote>एतत् संध्यात्रयं प्रोक्तं ब्राह्मण्यं यदधिष्ठितम्। यस्य नास्त्यादरस्तत्र न स ब्राह्मण उच्यते॥ .(छान्दोग्यपरिशिष्ट)</blockquote>यह त्रिकालसंध्याकर्मका वर्णन किया गया जिसके आधारपर ब्राह्मणत्व सुप्रतिष्ठित होता है। इसमें जिसका आदर नहीं है जो प्रतिदिन संध्या नहीं करता, वह जन्मसे ब्राह्मण होनेपर भी कर्मभ्रष्ट होनेके कारण ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता। -इस वचनके अनुसार संध्या न करनेसे दोषका श्रवण होनेके कारण संध्या नित्यकर्म है। तथा-<blockquote>दिवा वा यदि वा रात्रौ यदज्ञानकृतं भवेत्। त्रिकालसंध्याकरणात् तत्सर्वं च प्रणश्यति॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति)</blockquote>अर्थात् दिन या रातमें अनजानसे जो पाप बन जाता है, वह सब-का-सब तीनों कालोंकी संध्या करनेसे नष्ट हो जाता है।इस वचनके अनुसार पापध्वंसकी साधिका होनेसे संध्याप्रायश्चित्त कर्म भी है। द्विजमात्रको यथासम्भव प्रातः, सायं और मध्याह्न तीनों कालोंकी संध्याका पालन करना चाहिये। कुछ लोगोंका विचार है कि-<blockquote>नानुतिष्ठति यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्। स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥ (मनु०)</blockquote>जो प्रातः और सायं-संध्याका अनुष्ठान नहीं करता वह सभी द्विजोचित कर्मोंसे बहिष्कृत कर देनेयोग्य है। | | अहरहः संध्यामुपासीत (प्रतिदिन संध्योपासना करें) इस प्रकार प्रतिदिन संध्या करनेकी विधि होनेसे तथा-<blockquote>एतत् संध्यात्रयं प्रोक्तं ब्राह्मण्यं यदधिष्ठितम्। यस्य नास्त्यादरस्तत्र न स ब्राह्मण उच्यते॥ .(छान्दोग्यपरिशिष्ट)</blockquote>यह त्रिकालसंध्याकर्मका वर्णन किया गया जिसके आधारपर ब्राह्मणत्व सुप्रतिष्ठित होता है। इसमें जिसका आदर नहीं है जो प्रतिदिन संध्या नहीं करता, वह जन्मसे ब्राह्मण होनेपर भी कर्मभ्रष्ट होनेके कारण ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता। -इस वचनके अनुसार संध्या न करनेसे दोषका श्रवण होनेके कारण संध्या नित्यकर्म है। तथा-<blockquote>दिवा वा यदि वा रात्रौ यदज्ञानकृतं भवेत्। त्रिकालसंध्याकरणात् तत्सर्वं च प्रणश्यति॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति)</blockquote>अर्थात् दिन या रातमें अनजानसे जो पाप बन जाता है, वह सब-का-सब तीनों कालोंकी संध्या करनेसे नष्ट हो जाता है।इस वचनके अनुसार पापध्वंसकी साधिका होनेसे संध्याप्रायश्चित्त कर्म भी है। द्विजमात्रको यथासम्भव प्रातः, सायं और मध्याह्न तीनों कालोंकी संध्याका पालन करना चाहिये। कुछ लोगोंका विचार है कि-<blockquote>नानुतिष्ठति यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्। स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥ (मनु०)</blockquote>जो प्रातः और सायं-संध्याका अनुष्ठान नहीं करता वह सभी द्विजोचित कर्मोंसे बहिष्कृत कर देनेयोग्य है। |
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− | इस वचनमें प्रातः और सायं—इन्हीं दो संध्याओंके न करनेसे दोष बताया गया है, अतः प्रातः तथा सायंकालकी संध्या ही आवश्यक है, मध्याह्नकी नहीं। किंतु ऐसा मानना उचित नहीं है, कारण कि इस वचनद्वारा मनुजीने जो उक्त दो कालोंकी संध्या न करनेसे दोष बताया है, उससे उक्त समयकी संध्याकी अवश्यकर्तव्यतामात्र सिद्ध हुई। इससे यह नहीं व्यक्त होता कि मध्याह्म-संध्या अनावश्यक है, क्योंकि-<blockquote>संध्यात्रयं तु कर्तव्यं द्विजेनात्मविदा सदा। (अत्रिस्मृति)</blockquote>आत्मवेत्ता द्विजको सदा त्रिकाल-संध्या करनी चाहिये। —इत्यादि वचनके अनुसार मध्याह्न-संध्या भी आवश्यक ही है। | + | इस वचनमें प्रातः और सायं—इन्हीं दो संध्याओंके न करनेसे दोष बताया गया है, अतः प्रातः तथा सायंकालकी संध्या ही आवश्यक है, मध्याह्नकी नहीं। किंतु ऐसा मानना उचित नहीं है, कारण कि इस वचनद्वारा मनुजीने जो उक्त दो कालोंकी संध्या न करनेसे दोष बताया है, उससे उक्त समयकी संध्याकी अवश्यकर्तव्यतामात्र सिद्ध हुई। इससे यह नहीं व्यक्त होता कि मध्याह्म-संध्या अनावश्यक है, क्योंकि-<blockquote>संध्यात्रयं तु कर्तव्यं द्विजेनात्मविदा सदा। (अत्रिस्मृति)</blockquote>आत्मवेत्ता द्विजको सदा त्रिकाल-संध्या करनी चाहिये। —इत्यादि वचनके अनुसार मध्याह्न-संध्या भी आवश्यक ही है। शुक्लयजुर्वेदियोंके लिये तो मध्याह्न-संध्या विशेष आवश्यक है। |
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− | शुक्लयजुर्वेदियोंके लिये तो मध्याह्न-संध्या विशेष आवश्यक है। आजकल बाजारोंमें 'क्षत्रिय-संध्या' और 'वैश्य- संध्या' के नामसे भी पुस्तकें बिकने लगी हैं, इससे लोगोंमें बड़ा भ्रम फैल रहा है। वैश्य और क्षत्रियोंके लिये कोई अलग संध्या नहीं है। एक ही प्रकारकी संध्या द्विजमात्रके उपयोगके लिये होती है।
| + | == संध्योपासन के मुख्य अंग == |
| + | [[File:Surya arghya.jpeg|right|frameless|340x340px]] |
| + | संध्योपासन की प्रमुख क्रियायें इनमें बड़ा रहस्य छिपा है और बड़े लाभ निहित हैं ।सन्ध्या के मुख्य कृत्यों का संग्रह श्लोक जो कि इस प्रकार है- <blockquote>संकल्प आसनविशोधनमम्बुपानं, प्राणावरोधनमघक्षयताऽभिषेकः । सौत्रामणीसवनसावभृथार्घ्यदानं सन्ध्याविधिर्निगदितो मुनिभिः पुराणैः ॥</blockquote>अर्थात्-सकल्प, आसन शोधन,आचमन, प्राणायाम, नित्यकृत पापक्षयार्थ अपामुपस्पर्श, अवभृथ, अघमर्षण, सूर्यार्घ्य और सूर्योपस्थान ये सब सन्ध्याकी विधियें पुरातन मुनियो ने कही हैं। |
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| + | * Sankakpa (संकल्प) - महर्षि मनु के अनुसार -समस्त कामनाएँ सकल्प मूलक ही हैं। सब यज्ञ सङ्कल्प के अनन्तर ही सम्पन्न होते है, व्रत उपवास और सन्ध्या आदि समस्त धर्मानुष्ठान सकल्प जन्य है । अतःप्रत्येक धर्मानुष्ठान के प्रारम्भ में संकल्प परमावश्यक है। |
| + | * Aasan shodhana (आसन शोधन) - |
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− | == संध्योपासन विधि ==
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− | [[File:Surya arghya.jpeg|right|frameless|340x340px]]
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− | संध्योपासन की प्रमुख क्रियायें इनमें बड़ा रहस्य छिपा है और बड़े लाभ निहित हैं जो कि इस प्रकार हैं-
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| *Achamana (आचमन) - आचमन की क्रिया सामान्यतः सभी धार्मिक क्रियायों में देखी जाती है। मुख्यतः आचमन विष्णु जी के तीन नामों (केशव,नारायण और माधव) के साथ जल को अधरों से स्पर्श करना चाहिये।कहीं कहीं आचमन में विष्णु जी के २४ नाम लिये जाते हैं।आचमन के द्वारा अन्तःकरण की शुद्धि होती है। | | *Achamana (आचमन) - आचमन की क्रिया सामान्यतः सभी धार्मिक क्रियायों में देखी जाती है। मुख्यतः आचमन विष्णु जी के तीन नामों (केशव,नारायण और माधव) के साथ जल को अधरों से स्पर्श करना चाहिये।कहीं कहीं आचमन में विष्णु जी के २४ नाम लिये जाते हैं।आचमन के द्वारा अन्तःकरण की शुद्धि होती है। |
| *[[Pranayama (प्राणायाम)]] - प्राणायाम में श्वास एवं प्रश्वास का गति विच्छेद कहा गया है ।गौतम ऋषि जी के अनुसार प्राणायाम के मुख्य तीन अंग हैं- पूरक (बाहरी वायु भीतर लेना),कुम्भक(लिये हुये श्वास को रोके रखना अर्थात न तो श्वास छोडना न ग्रहण करना) और रेचक(फेफडों से वायु बाहर निकलना) । | | *[[Pranayama (प्राणायाम)]] - प्राणायाम में श्वास एवं प्रश्वास का गति विच्छेद कहा गया है ।गौतम ऋषि जी के अनुसार प्राणायाम के मुख्य तीन अंग हैं- पूरक (बाहरी वायु भीतर लेना),कुम्भक(लिये हुये श्वास को रोके रखना अर्थात न तो श्वास छोडना न ग्रहण करना) और रेचक(फेफडों से वायु बाहर निकलना) । |
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| *Upasthana (उपस्थान) - उपस्थान में बौधायन के मतानुसार उद्वयम् ० आदि मन्त्रों के द्वारा प्रातः काल सूर्य से प्रार्थना करनी चाहिये किन्तु सायन्ह सन्ध्या में वरुण मन्त्रों के द्वारा वरुण देव का उपस्थान किया जाता है। | | *Upasthana (उपस्थान) - उपस्थान में बौधायन के मतानुसार उद्वयम् ० आदि मन्त्रों के द्वारा प्रातः काल सूर्य से प्रार्थना करनी चाहिये किन्तु सायन्ह सन्ध्या में वरुण मन्त्रों के द्वारा वरुण देव का उपस्थान किया जाता है। |
| *[[Abhivadana (अभिवादन)]] - अभिवादन सन्ध्योपासन के अनन्तर गुरुजी के सन्निकट जाकर नमन करना अथवा गृह,तीर्थ, विदेश आदि ऐसे स्थान पर जहां गुरुजी उपस्थित न हों उन्हैं अपना स्व नाम गोत्र शाखा वेद आदि का उच्चाकरण करके मन से प्रणाम निवेदित करना चाहिये । | | *[[Abhivadana (अभिवादन)]] - अभिवादन सन्ध्योपासन के अनन्तर गुरुजी के सन्निकट जाकर नमन करना अथवा गृह,तीर्थ, विदेश आदि ऐसे स्थान पर जहां गुरुजी उपस्थित न हों उन्हैं अपना स्व नाम गोत्र शाखा वेद आदि का उच्चाकरण करके मन से प्रणाम निवेदित करना चाहिये । |
− | ==== सन्ध्या करने के अधिकारी ==== | + | ==== सन्ध्या करने के अधिकारी - ==== |
| + | आजकल बाजारोंमें क्षत्रिय-संध्या और वैश्य- संध्या के नामसे भी पुस्तकें बिकने लगी हैं इससे लोगोंमें बड़ा भ्रम फैल रहा है। वैश्य और क्षत्रियोंके लिये कोई अलग संध्या नहीं है। एक ही प्रकारकी संध्या द्विजमात्रके उपयोगके लिये होती है। |
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| == सन्ध्या करें या न करें ॽ == | | == सन्ध्या करें या न करें ॽ == |
− | सन्ध्या की मुख्यतः दो विशेषतायें हैं गायत्री उपासना एवं अग्निकार्य । वर्तमान परिवेश में नित्यकर्म सन्ध्या वन्दन आदि कर्मों के ह्रास हो जाने से नित्य क्रिया का पालन नहीं हो पा रहा है जिसके कारण आत्मिक बल हीनता,शारीरिक दुर्बलता एवं मानसिक असन्तुलन जैसे दुष्प्रभाव से वर्तमान पीढी के मानव ग्रसित है अतः आर्ष पद्धतियों का त्यागना अनुचित माना जा रहा है। | + | सन्ध्या की मुख्यतः दो विशेषतायें हैं गायत्री उपासना एवं अग्निकार्य । वर्तमान परिवेश में नित्यकर्म सन्ध्या वन्दन आदि कर्मों के ह्रास हो जाने से नित्य क्रिया का पालन नहीं हो पा रहा है जिसके कारण आत्मिक बल हीनता,शारीरिक दुर्बलता एवं मानसिक असन्तुलन जैसे दुष्प्रभाव से वर्तमान पीढी के मानव ग्रसित है आर्ष पद्धतियों का त्यागना अनुचित माना जा रहा है। अतः सन्ध्या करना द्विजाति मात्र के लिये परमावश्यक है । |
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| ====संध्याकरनेसे लाभ==== | | ====संध्याकरनेसे लाभ==== |
− | योगशास्त्र के अनुसार सन्ध्या में आसनों के अनुष्ठान से शरीर के सब नस नाडियों की शुद्धि होती है और खून का प्रवाह शरीर में उत्तम प्रकार से होता है। रक्त की शुद्धि से स्वास्थ्य दीर्घ आयु और बल आदि प्राप्त होते हैं वह रक्त की पवित्रता प्राणायाम से सिद्ध होती है। | + | योगशास्त्र के अनुसार सन्ध्या में आसनों के अनुष्ठान से शरीर के सब नस नाडियों की शुद्धि होती है और खून का प्रवाह शरीर में उत्तम प्रकार से होता है। रक्त की शुद्धि से स्वास्थ्य दीर्घ आयु और बल आदि प्राप्त होते हैं वह रक्त की पवित्रता प्राणायाम से सिद्ध होती है। <blockquote>श्वासप्रश्वासयोः गतिविच्छेदः प्राणायामः। पातञ्जलयोगसूत्रम्, २.४९॥</blockquote>स्मृतियों(धर्मशास्त्र) के अनुसार जो लोग दृढ़प्रतिज्ञ होकर प्रतिदिन नियतरूपसे संध्या करते हैं, वे पापरहित होकर अनामय ब्रह्मपदको प्राप्त होते है । सायं- संध्यासे दिनके पाप नष्ट होते हैं और प्रातः-संध्यासे रात्रिके। जो अन्य किसी कर्मका अनुष्ठान न करके केवल संध्याकर्मका अनुष्ठान करता रहता है, वह पुण्यका भागी होता है। परन्तु अन्य सत्कर्मोंका अनुष्ठान करनेपर भी संध्या न करनेसे पापका भागी होना पड़ता है। जो प्रतिदिन स्नान किया करता है तथा कभी संध्याकर्मका लोप नहीं करता, उसको बाह्य और आन्तरिक दोनों ही प्रकारके दोष नहीं प्राप्त होते, जैसे गरुड़के पास सर्प नहीं जा सकते।<blockquote>संध्यामुपासते ये तु नियतं संशितव्रताः। विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकमनामयम्॥ (यमस्मृति)</blockquote><blockquote>पूर्वां संध्यां जपंस्तिष्ठन् नैशमेनो व्यपोहति। पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम्॥ (मनु०)</blockquote><blockquote>यस्तु तां केवलां संध्यामुपासीत स पुण्यभाक्। तां परित्यज्य कर्माणि कुर्वन् प्राप्नोति किल्बिषम्॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote><blockquote>संध्यालोपस्य चाकर्ता स्नानशीलश्च यः सदा। तं दोषा नोपसर्पन्ति गरुत्मन्तमिवोरगाः॥ (कात्यायन)</blockquote> |
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− | श्वासप्रश्वासयोः गतिविच्छेदः प्राणायामः। पातञ्जलयोगसूत्रम्, २.४९॥ | |
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− | स्मृतियों(धर्मशास्त्र) के अनुसार जो लोग दृढ़प्रतिज्ञ होकर प्रतिदिन नियतरूपसे संध्या करते हैं, वे पापरहित होकर अनामय ब्रह्मपदको प्राप्त होते है । सायं- संध्यासे दिनके पाप नष्ट होते हैं और प्रातः-संध्यासे रात्रिके। जो अन्य किसी कर्मका अनुष्ठान न करके केवल संध्याकर्मका अनुष्ठान करता रहता है, वह पुण्यका भागी होता है। परन्तु अन्य सत्कर्मोंका अनुष्ठान करनेपर भी संध्या न करनेसे पापका भागी होना पड़ता है। जो प्रतिदिन स्नान किया करता है तथा कभी संध्याकर्मका लोप नहीं करता, उसको बाह्य और आन्तरिक दोनों ही प्रकारके दोष नहीं प्राप्त होते, जैसे गरुड़के पास सर्प नहीं जा सकते।<blockquote>संध्यामुपासते ये तु नियतं संशितव्रताः। विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकमनामयम्॥ (यमस्मृति)</blockquote><blockquote>पूर्वां संध्यां जपंस्तिष्ठन् नैशमेनो व्यपोहति। पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम्॥ (मनु०)</blockquote><blockquote>यस्तु तां केवलां संध्यामुपासीत स पुण्यभाक्। तां परित्यज्य कर्माणि कुर्वन् प्राप्नोति किल्बिषम्॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote><blockquote>संध्यालोपस्य चाकर्ता स्नानशीलश्च यः सदा। तं दोषा नोपसर्पन्ति गरुत्मन्तमिवोरगाः॥ (कात्यायन)</blockquote> | |
| ====संध्या न करनेसेहानि==== | | ====संध्या न करनेसेहानि==== |
| जो संध्या नहीं जानता अथवा जानकर भी उसकी उपासना नहीं करता, वह जीते-जी शूद्रके समान है और मरनेपर कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता है। जो विप्र संकट प्राप्त हुए बिना ही संध्याका त्याग करता है, वह शूद्रके समान है। उसे प्रायश्चित्तका भागी और लोकमें निन्दित होना पड़ता है।<blockquote>संध्या येन न विज्ञाता संध्या नैवाप्युपासिता। जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चैव जायते॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote><blockquote>अनार्तश्चोत्सृजेद् यस्तु स विप्रः शूद्रसम्मितः। प्रायश्चित्ती भवेच्चैव लोके भवति निन्दितः॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote>संध्याहीन द्विज अपवित्र होता है। उसका किसी भी द्विजकर्ममें अधिकार नहीं है। वह जो कुछ भी दूसरा कर्म करता है, उसका फल भी उसे नहीं मिलता। जो द्विज समयपर प्राप्त हुए संध्याकर्मका आलस्यवश उल्लंघन करता है, उसे सूर्यकी हिंसाका पाप लगता है और मृत्युके पश्चात् वह उल्लू होता है।<blockquote>संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु। यदन्यत् कुरुते कर्म न तस्य फलभाग् भवेत् ॥ (दक्षस्मृति)</blockquote><blockquote>यः संध्यां कालतः प्राप्तामालस्यादतिवर्तते। सूर्यहत्यामवाप्नोति ह्युलूकत्वमियात् स च॥ (अत्रि)</blockquote>संध्याकर्मका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये। जो संध्योपासना नहीं करता उसे सूर्यकी हत्याका दोष लगता है।<blockquote>तस्मान्नोल्लंघन कार्यं संध्योपासनाकर्मणः। २/८/५७</blockquote><blockquote>स हन्ति सूर्यं संध्याया नोपस्तिं कुस्ते तुयः॥ (विष्णुपुराण)</blockquote> | | जो संध्या नहीं जानता अथवा जानकर भी उसकी उपासना नहीं करता, वह जीते-जी शूद्रके समान है और मरनेपर कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता है। जो विप्र संकट प्राप्त हुए बिना ही संध्याका त्याग करता है, वह शूद्रके समान है। उसे प्रायश्चित्तका भागी और लोकमें निन्दित होना पड़ता है।<blockquote>संध्या येन न विज्ञाता संध्या नैवाप्युपासिता। जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चैव जायते॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote><blockquote>अनार्तश्चोत्सृजेद् यस्तु स विप्रः शूद्रसम्मितः। प्रायश्चित्ती भवेच्चैव लोके भवति निन्दितः॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote>संध्याहीन द्विज अपवित्र होता है। उसका किसी भी द्विजकर्ममें अधिकार नहीं है। वह जो कुछ भी दूसरा कर्म करता है, उसका फल भी उसे नहीं मिलता। जो द्विज समयपर प्राप्त हुए संध्याकर्मका आलस्यवश उल्लंघन करता है, उसे सूर्यकी हिंसाका पाप लगता है और मृत्युके पश्चात् वह उल्लू होता है।<blockquote>संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु। यदन्यत् कुरुते कर्म न तस्य फलभाग् भवेत् ॥ (दक्षस्मृति)</blockquote><blockquote>यः संध्यां कालतः प्राप्तामालस्यादतिवर्तते। सूर्यहत्यामवाप्नोति ह्युलूकत्वमियात् स च॥ (अत्रि)</blockquote>संध्याकर्मका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये। जो संध्योपासना नहीं करता उसे सूर्यकी हत्याका दोष लगता है।<blockquote>तस्मान्नोल्लंघन कार्यं संध्योपासनाकर्मणः। २/८/५७</blockquote><blockquote>स हन्ति सूर्यं संध्याया नोपस्तिं कुस्ते तुयः॥ (विष्णुपुराण)</blockquote> |
| ==== कर्मलोपका प्रायश्चित्त ==== | | ==== कर्मलोपका प्रायश्चित्त ==== |
− | संध्याकर्मके निश्चित कालका लोप हो जानेपर भी प्रायश्चित्त करना पड़ता है, फिर कर्मका लोप होनेपर तो कहना ही क्या है। कर्मका लोप तो कभी होना ही नहीं चाहिये। यदि कभी हो गया तो उसका स्मृतिके अनुसार प्रायश्चित्त कर लेना उचित है। प्रायश्चित्तके विषयमें जमदग्निका मत इस प्रकार है । यदि प्रमादवश एक दिन संध्याकर्म नहीं किया गया तो उसके लिये एक दिन-रातका उपवास करके दस हजार गायत्रीका जप करना चाहिये। शौनकमुनि तो यहाँतक कहते हैं कि यदि किसीके द्वारा प्रमादवश सात राततक संध्या-कर्मका उल्लंघन हो जाय अथवा जो उन्माद-दोषसे दूषित हुआ रहा हो, उस द्विजका पुनः उपनयन-संस्कार करना चाहिये। यदि निम्नांकित कारणोंसे विवश होकर कभी संध्याकर्म न बन सकातो उसके लिये प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता। राष्ट्रका ध्वंस हो रहा हो, राजाके चित्तमें क्षोभ हुआ हो अथवा अपना शरीर ही रोगग्रस्त हो जाय या जनन-मरणरूप अशौच प्राप्त हो जाय- इन कारणोंसे संध्याकर्ममें बाधा पड़े तो उसके लिये प्रायश्चित्त नहीं है।<blockquote>एकाहं समतिक्रम्य प्रमादादकृतं यदि। अहोरात्रोषितो भूत्वा गायत्र्याश्चायुतं जपेत्॥ (जमदग्नि)</blockquote><blockquote>संध्यातिक्रमणं यस्य सप्तरात्रमपि च्युतम्। उन्मत्तदोषयुक्तो वा पुनः संस्कारमर्हति॥(शौनक)</blockquote><blockquote>राष्ट्रभङ्गे नृपक्षोभे रोगाते सूतकेऽपि वा। संध्यावन्दनविच्छित्तिर्न शेषाय कथञ्चन॥(जमदग्नि)</blockquote>परंतु ऐसे समयमें भी मन-ही-मन मन्त्रोंका उच्चारण करके यथासम्भव कर्म करना आवश्यक है। अभिप्राय यह कि मानसिक संध्या कर लेनी चाहिये। संध्या नित्यकर्म है, अतः उसका अनुष्ठान जैसे भी हो, होना ही चाहिये। अकारण उसका त्याग किसी भी तरहसे क्षम्य नहीं है। यदि परदेशमें यात्रा करनेपर किसी समय प्रातः-सायं या मध्याह्म-संध्या नहीं बन पड़ी तो पूर्वकालके उल्लंघनका प्रायश्चित्त अगले समयकी संध्यामें पहले करके फिर उस समयका कर्म आरम्भ करना चाहिये। दिनमें प्रमादवश लुप्त हुए दैनिक कृत्यका अनुष्ठान उसी दिनकी रातके पहले पहरतक अवश्य कर लेना चाहिये। | + | संध्याकर्मके निश्चित कालका लोप हो जानेपर भी प्रायश्चित्त करना पड़ता है, फिर कर्मका लोप होनेपर तो कहना ही क्या है। कर्मका लोप तो कभी होना ही नहीं चाहिये। यदि कभी हो गया तो उसका स्मृतिके अनुसार प्रायश्चित्त कर लेना उचित है। प्रायश्चित्तके विषयमें जमदग्निका मत इस प्रकार है । यदि प्रमादवश एक दिन संध्याकर्म नहीं किया गया तो उसके लिये एक दिन-रातका उपवास करके दस हजार गायत्रीका जप करना चाहिये। शौनकमुनि तो यहाँतक कहते हैं कि यदि किसीके द्वारा प्रमादवश सात राततक संध्या-कर्मका उल्लंघन हो जाय अथवा जो उन्माद-दोषसे दूषित हुआ रहा हो, उस द्विजका पुनः उपनयन-संस्कार करना चाहिये। यदि निम्नांकित कारणोंसे विवश होकर कभी संध्याकर्म न बन सकातो उसके लिये प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता। राष्ट्रका ध्वंस हो रहा हो, राजाके चित्तमें क्षोभ हुआ हो अथवा अपना शरीर ही रोगग्रस्त हो जाय या जनन-मरणरूप अशौच प्राप्त हो जाय- इन कारणोंसे संध्याकर्ममें बाधा पड़े तो उसके लिये प्रायश्चित्त नहीं है।<blockquote>एकाहं समतिक्रम्य प्रमादादकृतं यदि। अहोरात्रोषितो भूत्वा गायत्र्याश्चायुतं जपेत्॥ (जमदग्नि)</blockquote><blockquote>संध्यातिक्रमणं यस्य सप्तरात्रमपि च्युतम्। उन्मत्तदोषयुक्तो वा पुनः संस्कारमर्हति॥(शौनक)</blockquote><blockquote>राष्ट्रभङ्गे नृपक्षोभे रोगाते सूतकेऽपि वा। संध्यावन्दनविच्छित्तिर्न शेषाय कथञ्चन॥(जमदग्नि)</blockquote>परंतु ऐसे समयमें भी मन-ही-मन मन्त्रोंका उच्चारण करके यथासम्भव कर्म करना आवश्यक है। अभिप्राय यह कि मानसिक संध्या कर लेनी चाहिये। संध्या नित्यकर्म है, अतः उसका अनुष्ठान जैसे भी हो, होना ही चाहिये। अकारण उसका त्याग किसी भी तरहसे क्षम्य नहीं है। यदि परदेशमें यात्रा करनेपर किसी समय प्रातः-सायं या मध्याह्म-संध्या नहीं बन पड़ी तो पूर्वकालके उल्लंघनका प्रायश्चित्त अगले समयकी संध्यामें पहले करके फिर उस समयका कर्म आरम्भ करना चाहिये। दिनमें प्रमादवश लुप्त हुए दैनिक कृत्यका अनुष्ठान उसी दिनकी रातके पहले पहरतक अवश्य कर लेना चाहिये।<blockquote>कालातीतेषु सर्वेषु प्राप्तवत्सूत्तरेषु च। कालातीतानि कृत्यैव विदध्यादुत्तराणि तु॥</blockquote><blockquote>दिवोदितानि कृत्यानि प्रमादादकृतानि वै। शर्वर्याः प्रथमे भागे तानि कुर्याद्यथाक्रमम्॥ (नागदेव)</blockquote> |
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− | ==== कालातीतेषु सर्वेषु प्राप्तवत्सूत्तरेषु च। कालातीतानि कृत्यैव विदध्यादुत्तराणि तु॥ ====
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− | <blockquote>दिवोदितानि कृत्यानि प्रमादादकृतानि वै। शर्वर्याः प्रथमे भागे तानि कुर्याद्यथाक्रमम्॥ (नागदेव)</blockquote> | |
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| == संध्याके लिये उत्तम स्थान == | | == संध्याके लिये उत्तम स्थान == |
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| == अशौचमें संध्योपासन का विचार == | | == अशौचमें संध्योपासन का विचार == |
| ==== अशौचकाल निर्णय ==== | | ==== अशौचकाल निर्णय ==== |
− | <blockquote>जलाभावे महामार्गे बन्धने त्वशुचावपि। उभयोः संध्ययोः काले रजसा वाऱ्यामुच्यते॥(आह्निकसूत्रावली)</blockquote><blockquote>आपन्नश्चाशुचिः काले तिष्ठन्नपि जपेद्दश।(आचारमयूख)</blockquote>यदि बालक उत्पन्न होकर नालच्छेदके बाद गतायु हो जाय तो उसका [[Mrta-Asoucha (मृताशौचम्)|मरणाशौच]] तो नहीं रहता, किन्तु [[Jaata-Asoucha (जाताशौचम्)|जननाशौच]] निवृत्त नहीं होता अर्थात् पूरे १० दिनका सूतक रहता है। जो बालक।दाँत निकलनेके पहले देह त्याग कर दे, उसका मरणाशौच।तत्काल निवृत्त हो जाता है। दाँत निकलनेसे लेकर चूडाकर्मके।पहलेतक एक राततक अशौच रहता है, चूडाकर्मके बाद जनेऊके पहलेतक तीन रात और जनेऊके बाद दस राततक अशौच रहता है।<blockquote>यावन्न छिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्। छिन्ने नाले ततः पश्चान्मृतकं तु विधीयते॥ (मिताक्षरामें जैमिनिका मत)</blockquote><blockquote>आदन्तजन्मनः सद्य आचूडान्नैशिकी स्मृता। त्रिरात्रमात्रतादेशाद्दशरात्रमतः परम्।। (याज्ञवल्क्यस्मृति ३। २३ । २३)</blockquote> | + | <blockquote>जलाभावे महामार्गे बन्धने त्वशुचावपि। उभयोः संध्ययोः काले रजसा वाऱ्यामुच्यते॥(आह्निकसूत्रावली)</blockquote><blockquote>आपन्नश्चाशुचिः काले तिष्ठन्नपि जपेद्दश।(आचारमयूख)</blockquote>यदि बालक उत्पन्न होकर नालच्छेदके बाद गतायु हो जाय तो उसका [[Mrta-Asoucha (मृताशौचम्)|मरणाशौच]] तो नहीं रहता, किन्तु [[Jaata-Asoucha (जाताशौचम्)|जननाशौच]] निवृत्त नहीं होता अर्थात् पूरे १० दिनका सूतक रहता है। जो बालक दाँत निकलनेके पहले देह त्याग कर दे उसका मरणाशौच तत्काल निवृत्त हो जाता है। दाँत निकलनेसे लेकर चूडाकर्मके पहलेतक एक राततक अशौच रहता है, चूडाकर्मके बाद जनेऊके पहलेतक तीन रात और जनेऊके बाद दस राततक अशौच रहता है।<blockquote>यावन्न छिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्। छिन्ने नाले ततः पश्चान्मृतकं तु विधीयते॥ (मिताक्षरामें जैमिनिका मत)</blockquote><blockquote>आदन्तजन्मनः सद्य आचूडान्नैशिकी स्मृता। त्रिरात्रमात्रतादेशाद्दशरात्रमतः परम्।। (याज्ञवल्क्यस्मृति ३। २३ । २३)</blockquote> |
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| ==== अशौचमें संध्योपासन ==== | | ==== अशौचमें संध्योपासन ==== |