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| # तंत्रशास्त्र के प्राध्यापकों के विकास के लिये बारबार ‘कौटुम्बिक उद्योग-आमुखीकरण’ की कार्यशालाएँ, पाठयक्रमों का आयोजन करना। इन में उपस्थिति की अनिवार्यता रखना। हर ५ वर्ष में एक बार प्राध्यापकोंने और शिक्षकोंने कौटुम्बिक उद्योगों का विषय कितना आत्मसात किया है इस का परिक्षण करना। परीक्षण के आधारपर योग्य बदलाव के लिये सकारात्मक और नकारात्मक कार्यवाही करना। | | # तंत्रशास्त्र के प्राध्यापकों के विकास के लिये बारबार ‘कौटुम्बिक उद्योग-आमुखीकरण’ की कार्यशालाएँ, पाठयक्रमों का आयोजन करना। इन में उपस्थिति की अनिवार्यता रखना। हर ५ वर्ष में एक बार प्राध्यापकोंने और शिक्षकोंने कौटुम्बिक उद्योगों का विषय कितना आत्मसात किया है इस का परिक्षण करना। परीक्षण के आधारपर योग्य बदलाव के लिये सकारात्मक और नकारात्मक कार्यवाही करना। |
| # पात्रता और कुपात्रता की परीक्षा प्रणालि को कौटुम्बिक पार्श्वभूमि, सामान्य व्यवहार, स्वभाव की विशेषताएँ आदि के आधारपर मूल्यांकन करने की पक्की प्रक्रिया का विकास करना। वैसे कोई सुसंस्कृत है, धर्माचरणी है इसे जानना बहुत कठिन नहीं होता। इस दृष्टि से परीक्षक की निष्पक्षता, सर्वभूतहितेरत: वृत्ति या स्वभाव और परीक्षा की विधा का ज्ञान इन तीन कसौटियोंको लगाकर परीक्षक का चयन किया जा सकता है। | | # पात्रता और कुपात्रता की परीक्षा प्रणालि को कौटुम्बिक पार्श्वभूमि, सामान्य व्यवहार, स्वभाव की विशेषताएँ आदि के आधारपर मूल्यांकन करने की पक्की प्रक्रिया का विकास करना। वैसे कोई सुसंस्कृत है, धर्माचरणी है इसे जानना बहुत कठिन नहीं होता। इस दृष्टि से परीक्षक की निष्पक्षता, सर्वभूतहितेरत: वृत्ति या स्वभाव और परीक्षा की विधा का ज्ञान इन तीन कसौटियोंको लगाकर परीक्षक का चयन किया जा सकता है। |
− | # दुष्ट समाजों से संरक्षण हेतु कुछ कालतक तो संहारक शस्त्रों के तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग करना हमारे लिये आपध्दर्म ही है। यह कालखण्ड शायद ३ -४ पीढीयोंतक का भी हो सकता है। इसलिये कुछ कालतक तो एक ओर कौटुम्बिक उद्योग आधारित तन्त्रज्ञान युग और दूसरी ओर कुछ अनिवार्य प्रमाण में बडे उद्योगों का युग ऐसे दोनों युग साथ में चलेंगे। क्रमश: दूसरा युग विश्वभर में क्षीण होता जाए ऐसे प्रयास करने होंगे। इसके लिये हमें दुनियाँ की क्रमांक एक की भौतिक शक्ति तो बनना ही होगा। | + | # दुष्ट समाजों से संरक्षण हेतु कुछ कालतक तो संहारक शस्त्रों के तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग करना हमारे लिये आपध्दर्म ही है। यह कालखण्ड संभवतः ३ -४ पीढीयोंतक का भी हो सकता है। इसलिये कुछ कालतक तो एक ओर कौटुम्बिक उद्योग आधारित तन्त्रज्ञान युग और दूसरी ओर कुछ अनिवार्य प्रमाण में बडे उद्योगों का युग ऐसे दोनों युग साथ में चलेंगे। क्रमश: दूसरा युग विश्वभर में क्षीण होता जाए ऐसे प्रयास करने होंगे। इसके लिये हमें दुनियाँ की क्रमांक एक की भौतिक शक्ति तो बनना ही होगा। |
| # बडे उद्योग इसे सहजता से नहीं लेंगे। इसलिये एक ओर तो समाज में कौटुम्बिक उद्योगों के संबंध में जागरूकता निर्माण करना और साथ में बडे उद्योगों को दी जानेवाली सुविधाएँ कम करते जाना और दूसरी ओर बडे उद्योग कौटुम्बिक उद्योगों को हानी न पहुँचा पाए इसकी आश्वस्ति जागरूक और सक्षम कानून और सुरक्षा व्यवस्था के माध्यम से करना। | | # बडे उद्योग इसे सहजता से नहीं लेंगे। इसलिये एक ओर तो समाज में कौटुम्बिक उद्योगों के संबंध में जागरूकता निर्माण करना और साथ में बडे उद्योगों को दी जानेवाली सुविधाएँ कम करते जाना और दूसरी ओर बडे उद्योग कौटुम्बिक उद्योगों को हानी न पहुँचा पाए इसकी आश्वस्ति जागरूक और सक्षम कानून और सुरक्षा व्यवस्था के माध्यम से करना। |
| # पुराने और नये तंत्रज्ञानों के सार्वत्रिकीकरण के लिये नियामक व्यवस्था निर्माण करना। जो वर्तमान तन्त्रज्ञान इन नियमों के विपरीत समझ में आएँ उन्हें न्यूनतम हानी हो इस ढँग से कालबध्द तरीके से बंद करना। नियामक व्यवस्था के दो स्तर होंगे। पहले स्तरपर तन्त्रज्ञान को ‘पर्यावरण सुरक्षा’ की कसौटिपर परखा जाएगा। इस में अनुत्तीर्ण तन्त्रज्ञान को सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। पर्यावरण सुरक्षा की कसौटी में उत्तीर्ण हुए तन्त्रज्ञान को दूसरे स्तरपर ‘सामाजिकता की सुरक्षा’ की कसौटी लगाई जाएगी। जो तन्त्रज्ञान सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाले होंगे वे अनुत्तीर्ण होंगे। उन के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। जो तन्त्रज्ञान दोनों ही कसौटियो में उत्तीर्ण होंगे उन्हीं के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति दी जाएगी। मनुष्य और समाज मनुष्य समाज का एक घटक होता है। किसी एक मनुष्य के नहीं होने से समाज जीवन में सामान्यत: कुछ कमी नहीं आती। किंतु समाज नहीं होने से मनुष्य तो पशु जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हो जाएगा। इसलिये मनुष्य और समाज का संबंध अंगांगी संबंध होता है। मनुष्य अंग होता है और समाज अंगी होता है। अंग का धर्म होता है अंगी के धर्म के अविरोधी रहना। अर्थात् मनुष्य ऐसा कुछ नहीं करे जो सामाजिक हित का विरोधी हो। सामाजिक सुख का विरोधी हो। इस दृष्टि से सामाजिकता का तकाजा है कि कोई भी मनुष्य, समाज जीवन की इष्ट गति के विरोध में व्यवहार नहीं करे। किसी की मति अन्यों की तुलना में बहुत पैनी हो सकती है। लेकिन वह इस पैनी मति का याने मति की तेज गति का उपयोग जिससे समाज की इष्ट गति में बडी मात्रा में वृद्धि होती हो इस तरह से नहीं करे। हमने ऊपर देखा है कि सुख ही इष्ट गति का नियामक तत्व है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिए मनुष्य को चार बातें आवश्यक होतीं हैं। सुसाध्य आजीविका, शांति, स्वतन्त्रता और पुरूषार्थ। इन चार घटकों के आधारपर हम अब इष्ट गति के लिए समाज जीवन के लिए आवश्यक मानव की दिनचर्या का मोटा मोटा विचार करेंगे। | | # पुराने और नये तंत्रज्ञानों के सार्वत्रिकीकरण के लिये नियामक व्यवस्था निर्माण करना। जो वर्तमान तन्त्रज्ञान इन नियमों के विपरीत समझ में आएँ उन्हें न्यूनतम हानी हो इस ढँग से कालबध्द तरीके से बंद करना। नियामक व्यवस्था के दो स्तर होंगे। पहले स्तरपर तन्त्रज्ञान को ‘पर्यावरण सुरक्षा’ की कसौटिपर परखा जाएगा। इस में अनुत्तीर्ण तन्त्रज्ञान को सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। पर्यावरण सुरक्षा की कसौटी में उत्तीर्ण हुए तन्त्रज्ञान को दूसरे स्तरपर ‘सामाजिकता की सुरक्षा’ की कसौटी लगाई जाएगी। जो तन्त्रज्ञान सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाले होंगे वे अनुत्तीर्ण होंगे। उन के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। जो तन्त्रज्ञान दोनों ही कसौटियो में उत्तीर्ण होंगे उन्हीं के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति दी जाएगी। मनुष्य और समाज मनुष्य समाज का एक घटक होता है। किसी एक मनुष्य के नहीं होने से समाज जीवन में सामान्यत: कुछ कमी नहीं आती। किंतु समाज नहीं होने से मनुष्य तो पशु जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हो जाएगा। इसलिये मनुष्य और समाज का संबंध अंगांगी संबंध होता है। मनुष्य अंग होता है और समाज अंगी होता है। अंग का धर्म होता है अंगी के धर्म के अविरोधी रहना। अर्थात् मनुष्य ऐसा कुछ नहीं करे जो सामाजिक हित का विरोधी हो। सामाजिक सुख का विरोधी हो। इस दृष्टि से सामाजिकता का तकाजा है कि कोई भी मनुष्य, समाज जीवन की इष्ट गति के विरोध में व्यवहार नहीं करे। किसी की मति अन्यों की तुलना में बहुत पैनी हो सकती है। लेकिन वह इस पैनी मति का याने मति की तेज गति का उपयोग जिससे समाज की इष्ट गति में बडी मात्रा में वृद्धि होती हो इस तरह से नहीं करे। हमने ऊपर देखा है कि सुख ही इष्ट गति का नियामक तत्व है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिए मनुष्य को चार बातें आवश्यक होतीं हैं। सुसाध्य आजीविका, शांति, स्वतन्त्रता और पुरूषार्थ। इन चार घटकों के आधारपर हम अब इष्ट गति के लिए समाज जीवन के लिए आवश्यक मानव की दिनचर्या का मोटा मोटा विचार करेंगे। |