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इंग्लैण्ड में ग्यारहवीं सदी के मध्य में नॉर्मन जनजाति के विजय के बाद उमरावशाही प्रस्थापित हुई। अन्य देशों में इसके प्रस्थापित होने के अनेक कारण हैं। कार्ल मार्क्स, फ्रेड्रिक एंजल्स आदि के मतानुसार तन्त्रज्ञान  में होने वाला बड़ा परिवर्तन भी उनमें से एक कारण है। धर्मपालजी बताते हैं<ref>धर्मपाल जी , भारत का पुनर्बोध (पृष्ठ २५८)</ref> - युद्धों के कारण विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को गति प्राप्त होती है, वह यूरोप के अंतिम कुछ शताब्दियों के अनुभवों का ही परिणाम है। इसी पृष्ठ पर आगे और कहा है – अर्थात् आधुनिक विज्ञान गुलामी की प्रथा, उमरावशाही, विश्वविजय एवं अत्याचार तथा अधिपत्य की ही उपज है।      
 
इंग्लैण्ड में ग्यारहवीं सदी के मध्य में नॉर्मन जनजाति के विजय के बाद उमरावशाही प्रस्थापित हुई। अन्य देशों में इसके प्रस्थापित होने के अनेक कारण हैं। कार्ल मार्क्स, फ्रेड्रिक एंजल्स आदि के मतानुसार तन्त्रज्ञान  में होने वाला बड़ा परिवर्तन भी उनमें से एक कारण है। धर्मपालजी बताते हैं<ref>धर्मपाल जी , भारत का पुनर्बोध (पृष्ठ २५८)</ref> - युद्धों के कारण विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को गति प्राप्त होती है, वह यूरोप के अंतिम कुछ शताब्दियों के अनुभवों का ही परिणाम है। इसी पृष्ठ पर आगे और कहा है – अर्थात् आधुनिक विज्ञान गुलामी की प्रथा, उमरावशाही, विश्वविजय एवं अत्याचार तथा अधिपत्य की ही उपज है।      
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वर्तमान साईंस का विकास यूरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुआ है। इस विकास में धार्मिक कट्टरता एवं रूढ़िवादिता के कारण कई साईंटिस्टों को कष्ट सहन करने पड़े। ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जैसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी तथा कारागृह में सड़ना पडा। फिर भी यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय पराक्रम कर दिखाया। तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है।      
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वर्तमान साईंस का विकास यूरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुआ है। इस विकास में धार्मिक कट्टरता एवं रूढ़िवादिता के कारण कई साईंटिस्टों को कष्ट सहन करने पड़े। ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जैसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी तथा कारागृह में सड़ना पडा। तथापि यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय पराक्रम कर दिखाया। तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है।      
    
== वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टि ==
 
== वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टि ==
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विज्ञान की धार्मिक (भारतीय) व्याख्या जो श्रीमद्भगवद्गीता में मिलती है उसके अनुसार<ref>श्रीमद भगवद गीता 4.7</ref> -     <blockquote>भूमिरापोऽनलो वायू: खं मनो बुद्धिरेव च:</blockquote><blockquote>अहंकार इतियं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ (4.7)</blockquote><blockquote>अर्थ: तेज, वायु पृथ्वी, जल, आकाश यह पाँच महाभूत तथा मन बुद्धि और अहंकार मिलकर 8 तत्वों से प्रकृति बनी है। याने प्रकृति का हर अस्तित्व बना है।</blockquote> इस अष्टधा प्रकृति के माध्यम से परमात्मा या ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया ही विज्ञान है। अर्थात् ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया ही विज्ञान है। ब्रह्म को जानने के लिये पहले अष्टधा प्रकृति को जानना होगा। वर्तमान साईंस केवल उपर्युक्त आठ तत्वों में से पाँच याने पंचमहाभौतिक तत्वों के अस्तित्त्व को स्वीकार करता है। इस दृष्टि से वर्तमान सायंस धार्मिक (भारतीय) विज्ञान का एक हिस्सा है। गणित की भाषा में एक सबसेट है।      
 
विज्ञान की धार्मिक (भारतीय) व्याख्या जो श्रीमद्भगवद्गीता में मिलती है उसके अनुसार<ref>श्रीमद भगवद गीता 4.7</ref> -     <blockquote>भूमिरापोऽनलो वायू: खं मनो बुद्धिरेव च:</blockquote><blockquote>अहंकार इतियं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ (4.7)</blockquote><blockquote>अर्थ: तेज, वायु पृथ्वी, जल, आकाश यह पाँच महाभूत तथा मन बुद्धि और अहंकार मिलकर 8 तत्वों से प्रकृति बनी है। याने प्रकृति का हर अस्तित्व बना है।</blockquote> इस अष्टधा प्रकृति के माध्यम से परमात्मा या ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया ही विज्ञान है। अर्थात् ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया ही विज्ञान है। ब्रह्म को जानने के लिये पहले अष्टधा प्रकृति को जानना होगा। वर्तमान साईंस केवल उपर्युक्त आठ तत्वों में से पाँच याने पंचमहाभौतिक तत्वों के अस्तित्त्व को स्वीकार करता है। इस दृष्टि से वर्तमान सायंस धार्मिक (भारतीय) विज्ञान का एक हिस्सा है। गणित की भाषा में एक सबसेट है।      
 
श्रीमद्भगवद्गीता में और भी कहा है:     <blockquote>इंद्रियाणि पराण्याहूरिन्द्रियेभ्य परं मन:</blockquote><blockquote>मनसस्तु परा बुधिर्यो बुध्दे परतस्तु स: ॥3.7॥</blockquote><blockquote>अर्थ : शरीर या हमारे इंद्रीयों से मन सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक व्यापक, अधिक बलवान। मनसे बुद्धि अधिक सूक्ष्म होती है। और आत्मतत्व तो अत्यंत सूक्ष्म होता है।</blockquote>जिस प्रकार से अत्यंत सूक्ष्म भौतिक कणों याने नॅनो कणों का मापन हमारी सामान्य मापन पट्टी से नहीं हो सकता उसी प्रकार से मन जो पंचमहाभूतों से याने पंचमहाभूतों के सूक्ष्म कणों से भी अत्यंत सूक्ष्म है उसका मापन भौतिक सूक्ष्मतादर्शक से भी नहीं किया जा सकता। इसलिये मन और बुद्धि के व्यापार जानने के लिये मन और बुद्धि का ही सहारा लिया जा सकता है। इस का श्रेष्ठ साधन 'अष्टांग योग' है। आगे हम विज्ञान शब्द का वर्तमान साईंस के अर्थ से ही प्रयोग करेंगे।      
 
श्रीमद्भगवद्गीता में और भी कहा है:     <blockquote>इंद्रियाणि पराण्याहूरिन्द्रियेभ्य परं मन:</blockquote><blockquote>मनसस्तु परा बुधिर्यो बुध्दे परतस्तु स: ॥3.7॥</blockquote><blockquote>अर्थ : शरीर या हमारे इंद्रीयों से मन सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक व्यापक, अधिक बलवान। मनसे बुद्धि अधिक सूक्ष्म होती है। और आत्मतत्व तो अत्यंत सूक्ष्म होता है।</blockquote>जिस प्रकार से अत्यंत सूक्ष्म भौतिक कणों याने नॅनो कणों का मापन हमारी सामान्य मापन पट्टी से नहीं हो सकता उसी प्रकार से मन जो पंचमहाभूतों से याने पंचमहाभूतों के सूक्ष्म कणों से भी अत्यंत सूक्ष्म है उसका मापन भौतिक सूक्ष्मतादर्शक से भी नहीं किया जा सकता। इसलिये मन और बुद्धि के व्यापार जानने के लिये मन और बुद्धि का ही सहारा लिया जा सकता है। इस का श्रेष्ठ साधन 'अष्टांग योग' है। आगे हम विज्ञान शब्द का वर्तमान साईंस के अर्थ से ही प्रयोग करेंगे।      
# मानव जीवन का लक्ष्य यदि परमात्मपद प्राप्ति है तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोग का लक्ष्य भी परमात्मपद प्राप्ति ही रहेगा। अन्य नहीं। और मोक्षप्राप्ति का या परमात्मपदप्राप्ति का मार्ग तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ ही है। कुछ लोग कहेंगे कि मोक्ष मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। मानव जीवन का लक्ष्य सुख है। फिर भी व्यक्ति समाज का और सृष्टि का अविभाज्य ऐसा हिस्सा होने से जब तक सुख समाजव्याप्त और सृष्टिव्याप्त नहीं होता व्यक्ति भी सुख से नहीं जी सकता। विज्ञान और तन्त्रज्ञान का उपयोग ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये करने से ही व्यक्तिगत सुख की आश्वस्ति मिल सकेगी।      
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# मानव जीवन का लक्ष्य यदि परमात्मपद प्राप्ति है तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोग का लक्ष्य भी परमात्मपद प्राप्ति ही रहेगा। अन्य नहीं। और मोक्षप्राप्ति का या परमात्मपदप्राप्ति का मार्ग तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ ही है। कुछ लोग कहेंगे कि मोक्ष मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। मानव जीवन का लक्ष्य सुख है। तथापि व्यक्ति समाज का और सृष्टि का अविभाज्य ऐसा हिस्सा होने से जब तक सुख समाजव्याप्त और सृष्टिव्याप्त नहीं होता व्यक्ति भी सुख से नहीं जी सकता। विज्ञान और तन्त्रज्ञान का उपयोग ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये करने से ही व्यक्तिगत सुख की आश्वस्ति मिल सकेगी।      
 
# ‘प्रकृति के नियम’ ही विज्ञान है। विज्ञान के व्यवहार में उपयोग को ही तन्त्रज्ञान  कहते हैं। विज्ञान वैश्विक होता है। तन्त्रज्ञान  नहीं। तन्त्रज्ञान स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर चयन करने या विकास करने की बात है।      
 
# ‘प्रकृति के नियम’ ही विज्ञान है। विज्ञान के व्यवहार में उपयोग को ही तन्त्रज्ञान  कहते हैं। विज्ञान वैश्विक होता है। तन्त्रज्ञान  नहीं। तन्त्रज्ञान स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर चयन करने या विकास करने की बात है।      
 
# विज्ञान या तन्त्रज्ञान यह अपने आप में न तो उपकारी होते है और ना ही विनाशकारी। इनका उपयोग करनेवाले मनुष्य की सुर या असुर प्रवृत्ति उसे उपकारक या विनाशकारी बनाती है। इसलिये सृष्टि के अस्तित्वों याने जीव और जड़ जगत के लिये हानिकारक कोई तन्त्रज्ञान असुर स्वभाव के मनुष्य को मिलना दुनिया के लिये घातक होता है।      
 
# विज्ञान या तन्त्रज्ञान यह अपने आप में न तो उपकारी होते है और ना ही विनाशकारी। इनका उपयोग करनेवाले मनुष्य की सुर या असुर प्रवृत्ति उसे उपकारक या विनाशकारी बनाती है। इसलिये सृष्टि के अस्तित्वों याने जीव और जड़ जगत के लिये हानिकारक कोई तन्त्रज्ञान असुर स्वभाव के मनुष्य को मिलना दुनिया के लिये घातक होता है।      
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# मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओंपर नहीं।      
 
# मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओंपर नहीं।      
 
# परिवर्तन ही दुनियाँ का स्वभाव है। प्रकृति में भी परिवर्तन होते रहते हैं। प्रकृति के परिवर्तनों के साथ समायोजन कर ही तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग होना चाहिये।      
 
# परिवर्तन ही दुनियाँ का स्वभाव है। प्रकृति में भी परिवर्तन होते रहते हैं। प्रकृति के परिवर्तनों के साथ समायोजन कर ही तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग होना चाहिये।      
# सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाड़ने की, प्रकृति सुसंगत फिर भी अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन  बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है।      
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# सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाड़ने की, प्रकृति सुसंगत तथापि अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन  बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है।      
 
# आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग मनुष्यों और पशुओं में दोनों में एक जैसे ही होते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं का निर्धारण प्राणिक आवेग करते हैं। लेकिन मनुष्य का मन इच्छाएँ भी करता हैं। प्राणिक आवेगों की तृप्ति की सीमा होती है। लेकिन इच्छाओं की और इस कारण से तृप्ति की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन प्रकृति के संसाधन मर्यादित होते हैं। इस विसंगति को दूर करने का एकमात्र उपाय ‘उपभोग संयम’ ही है। उपभोग संयम की शिक्षा के अभाव में हर नया तन्त्रज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढाकर पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि करता है।      
 
# आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग मनुष्यों और पशुओं में दोनों में एक जैसे ही होते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं का निर्धारण प्राणिक आवेग करते हैं। लेकिन मनुष्य का मन इच्छाएँ भी करता हैं। प्राणिक आवेगों की तृप्ति की सीमा होती है। लेकिन इच्छाओं की और इस कारण से तृप्ति की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन प्रकृति के संसाधन मर्यादित होते हैं। इस विसंगति को दूर करने का एकमात्र उपाय ‘उपभोग संयम’ ही है। उपभोग संयम की शिक्षा के अभाव में हर नया तन्त्रज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढाकर पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि करता है।      
 
# किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगोंं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगोंं की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान  के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है।      
 
# किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगोंं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगोंं की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान  के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है।      
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## पहले स्वचालित यंत्रों से विशाल मात्रा में उत्पादन करना और बाद में उसे अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनबाजी की सहायतासे लोगोंं को लेने के लिये उकसाने के कारण अनावश्यक उपभोग बढता जाता है।  इससे एक ओर तो आदतें बिगडतीं हैं तो दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग होता है। और तीसरा याने महंगाई भी बढती है।      
 
## पहले स्वचालित यंत्रों से विशाल मात्रा में उत्पादन करना और बाद में उसे अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनबाजी की सहायतासे लोगोंं को लेने के लिये उकसाने के कारण अनावश्यक उपभोग बढता जाता है।  इससे एक ओर तो आदतें बिगडतीं हैं तो दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग होता है। और तीसरा याने महंगाई भी बढती है।      
 
# सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाला तन्त्रज्ञान अमान्य है। परस्पर मिलने से, साथ में समय बिताने से, एक दूसरे के सुख दु:ख में सहभागी होने से सामाजिकता में वृद्धि होती है। इनकी संभावनाएँ कम करनेवाले तन्त्रज्ञान अस्वीकार्य हैं। जीवन को अनावश्यक गति देनेवाले, समाज को पगढीला बनाकर संस्कृति को नष्ट करनेवाले तंत्रज्ञानों का सार्वत्रिकीकरण वर्ज्य है।      
 
# सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाला तन्त्रज्ञान अमान्य है। परस्पर मिलने से, साथ में समय बिताने से, एक दूसरे के सुख दु:ख में सहभागी होने से सामाजिकता में वृद्धि होती है। इनकी संभावनाएँ कम करनेवाले तन्त्रज्ञान अस्वीकार्य हैं। जीवन को अनावश्यक गति देनेवाले, समाज को पगढीला बनाकर संस्कृति को नष्ट करनेवाले तंत्रज्ञानों का सार्वत्रिकीकरण वर्ज्य है।      
# जैविक तंत्रज्ञान अनैतिक है। जैविक तन्त्रज्ञान सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक बलवान। अधिक व्यापक। इन का चार या दस पीढियों के बाद की पीढियों पर क्या परिणाम होगा यह समझना इनका विकास करनेवालों के लिये संभव ही नहीं है। फिर भी कुछ प्रयोगों के आधार पर प्रतिजैविकों को मनुष्य के लिये योग्य होने की घोषणा अनैतिक ही है। एक ही पीढी में तेजी से परिवर्तन करनेवाले जैविक तन्त्रज्ञान प्रकृति में जो सहज ऐसा परस्परावलंबन है उस की किसी कडी को हानी पहुँचाते हैं। लाखों की संख्या में जो जीवजातियाँ हैं उन के इस परस्परावलंबन को पूरी तरह से समझना असंभव है। फिर भी इस का झूठा दावा कर जैविक परिवर्तन करने के तन्त्रज्ञान वर्तमान में बाजार व्याप रहे हैं। ऐसे तन्त्रज्ञान सर्वथा अमान्य हैं।      
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# जैविक तंत्रज्ञान अनैतिक है। जैविक तन्त्रज्ञान सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक बलवान। अधिक व्यापक। इन का चार या दस पीढियों के बाद की पीढियों पर क्या परिणाम होगा यह समझना इनका विकास करनेवालों के लिये संभव ही नहीं है। तथापि कुछ प्रयोगों के आधार पर प्रतिजैविकों को मनुष्य के लिये योग्य होने की घोषणा अनैतिक ही है। एक ही पीढी में तेजी से परिवर्तन करनेवाले जैविक तन्त्रज्ञान प्रकृति में जो सहज ऐसा परस्परावलंबन है उस की किसी कडी को हानी पहुँचाते हैं। लाखों की संख्या में जो जीवजातियाँ हैं उन के इस परस्परावलंबन को पूरी तरह से समझना असंभव है। तथापि इस का झूठा दावा कर जैविक परिवर्तन करने के तन्त्रज्ञान वर्तमान में बाजार व्याप रहे हैं। ऐसे तन्त्रज्ञान सर्वथा अमान्य हैं।      
 
# इसी तरह से नॅनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है। मनुष्य के आहार में मैदे के अधिक मात्रा में उपयोग का इसीलिये निषेध है।      
 
# इसी तरह से नॅनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है। मनुष्य के आहार में मैदे के अधिक मात्रा में उपयोग का इसीलिये निषेध है।      
 
# कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में सभी मालिक होते हैं। जब की बडे उद्योगों के लिये बननेवाले तन्त्रज्ञान सब को नौकर बना देते हैं। स्वयंचलितीकरण और विशाल उत्पादन करनेवाले वर्तमान तन्त्रज्ञान विश्वभर में नौकरों की मानसिकतावाले लोग निर्माण कर रहे हैं। इसलिये बडे उद्योगों के लिये बनाया जानेवाले तन्त्रज्ञान का केवल चराचर के हित की दृष्टि से अनिवार्यता से सुपात्र व्यक्ति को ही अंतरण होना चाहिये। साथ ही में तेजी से कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान का विकास करने की आवश्यकता है।      
 
# कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में सभी मालिक होते हैं। जब की बडे उद्योगों के लिये बननेवाले तन्त्रज्ञान सब को नौकर बना देते हैं। स्वयंचलितीकरण और विशाल उत्पादन करनेवाले वर्तमान तन्त्रज्ञान विश्वभर में नौकरों की मानसिकतावाले लोग निर्माण कर रहे हैं। इसलिये बडे उद्योगों के लिये बनाया जानेवाले तन्त्रज्ञान का केवल चराचर के हित की दृष्टि से अनिवार्यता से सुपात्र व्यक्ति को ही अंतरण होना चाहिये। साथ ही में तेजी से कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान का विकास करने की आवश्यकता है।      
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==== प्राकृतिक गति पतन की ओर (ढलानपर नीचे की ओर गति) ====
 
==== प्राकृतिक गति पतन की ओर (ढलानपर नीचे की ओर गति) ====
<nowiki>:</nowiki> किसी भी जीवंत ईकाई का विकास तो विशेष प्रयत्नों के अभाव में रुक जाता है। फिर भी -हास तो होता ही रहता है। नीचे के स्तर की ओर गति करना यह प्रकृति का नियम है। नीचे की ओर गति में गुरूत्व - त्वरण (एक्सीलरेशन डयू टु ग्रॅव्हिटी) भी गति बढाने में योगदान देता है। ऊपर के स्तर की ओर जाने के लिए विशेष परिश्रम करने होते हैं। अवतारों और मनीषियों ने किए हुए मार्गदर्शन के कारण प्रकृति के नियम के अनुसार नीचे के स्तर की ओर जाने की गति मंद हो जाती है। नीचे की ओर गति में गुरूत्व - त्वरण (एक्सीलरेशन ड्यू टु ग्रॅव्हिटी) भी गति बढाने में योगदान देता है। बाप से बेटा सवाई, गुरू गुड रहे चेला शकर बन गया जैसी अपने से अधिक श्रेष्ठ अगली पीढी के निर्माण के लिए निर्मित परंपराएँ गुरूत्व - त्वरण के प्रभाव को कम करता है।  
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<nowiki>:</nowiki> किसी भी जीवंत ईकाई का विकास तो विशेष प्रयत्नों के अभाव में रुक जाता है। तथापि -हास तो होता ही रहता है। नीचे के स्तर की ओर गति करना यह प्रकृति का नियम है। नीचे की ओर गति में गुरूत्व - त्वरण (एक्सीलरेशन डयू टु ग्रॅव्हिटी) भी गति बढाने में योगदान देता है। ऊपर के स्तर की ओर जाने के लिए विशेष परिश्रम करने होते हैं। अवतारों और मनीषियों ने किए हुए मार्गदर्शन के कारण प्रकृति के नियम के अनुसार नीचे के स्तर की ओर जाने की गति मंद हो जाती है। नीचे की ओर गति में गुरूत्व - त्वरण (एक्सीलरेशन ड्यू टु ग्रॅव्हिटी) भी गति बढाने में योगदान देता है। बाप से बेटा सवाई, गुरू गुड रहे चेला शकर बन गया जैसी अपने से अधिक श्रेष्ठ अगली पीढी के निर्माण के लिए निर्मित परंपराएँ गुरूत्व - त्वरण के प्रभाव को कम करता है।  
 
भारतीय चतुर्युगों की मान्यता मानव जाति के प्राकृतिक पतन के त्वरण को स्पष्ट करती है। निम्न तालिका देखें।
 
भारतीय चतुर्युगों की मान्यता मानव जाति के प्राकृतिक पतन के त्वरण को स्पष्ट करती है। निम्न तालिका देखें।
 
युग   धर्म : सत्य, यज्ञ, तप, दान     अधर्म : असत्य, हिंसा, असंतोष, कलह    पतन का कालखण्ड
 
युग   धर्म : सत्य, यज्ञ, तप, दान     अधर्म : असत्य, हिंसा, असंतोष, कलह    पतन का कालखण्ड
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== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==
तन्त्रज्ञान दृष्टि में बदलाव लाना सहज बात नहीं है। लेकिन फिर भी यह करणीय होने से विशेष ध्यान देकर इसे स्थापित करना होगा। यह बदलाव अकेले तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में नहीं आ सकता। इसलिये हम जिस प्रतिमान में जी रहे हैं उस अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के प्रत्येक घटक को बदलने की प्रक्रिया समांतर ंतथा साथ साथ चलानी होगी। साथ साथ चलाने से ऐसे परिवर्तन के प्रयास एक दूसरे के पूरक और पोषक होंगे। परिवर्तन की प्रक्रिया को भूमितीय प्रमाण में गति देंगे। वैसे तो दुनियाँ के अन्य समाज भी उनके वर्तमान प्रतिमान के कारण दु:खी ही है। लेकिन उनके पास वर्तमान प्रतिमान से अधिक श्रेष्ठ विकल्प ही नहीं है। हमारे पास जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान का कालसिध्द श्रेष्ठ विकल्प भी है और करने की सामर्थ्य भी है। आवश्यकता है इस परिवर्तन के संकल्प की।
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तन्त्रज्ञान दृष्टि में बदलाव लाना सहज बात नहीं है। लेकिन तथापि यह करणीय होने से विशेष ध्यान देकर इसे स्थापित करना होगा। यह बदलाव अकेले तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में नहीं आ सकता। इसलिये हम जिस प्रतिमान में जी रहे हैं उस अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के प्रत्येक घटक को बदलने की प्रक्रिया समांतर ंतथा साथ साथ चलानी होगी। साथ साथ चलाने से ऐसे परिवर्तन के प्रयास एक दूसरे के पूरक और पोषक होंगे। परिवर्तन की प्रक्रिया को भूमितीय प्रमाण में गति देंगे। वैसे तो दुनियाँ के अन्य समाज भी उनके वर्तमान प्रतिमान के कारण दु:खी ही है। लेकिन उनके पास वर्तमान प्रतिमान से अधिक श्रेष्ठ विकल्प ही नहीं है। हमारे पास जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान का कालसिध्द श्रेष्ठ विकल्प भी है और करने की सामर्थ्य भी है। आवश्यकता है इस परिवर्तन के संकल्प की।
    
==References==
 
==References==

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