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| किसी भी प्रकार की प्रेरणा हो, शोध कार्य का महत्व तो अनन्यसाधारण है। जो समाज शोध के क्षेत्र में अग्रणी रहेगा, वही समाज विश्व का नेतृत्व करेगा। नकलची कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। | | किसी भी प्रकार की प्रेरणा हो, शोध कार्य का महत्व तो अनन्यसाधारण है। जो समाज शोध के क्षेत्र में अग्रणी रहेगा, वही समाज विश्व का नेतृत्व करेगा। नकलची कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। |
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− | यूरो अमरीकी देशों में उपर्युक्त दोनों प्रेरणाओं से शोध कार्य करनेवालों की संख्या की तुलना में शोध के क्षेत्र में भारत के युवा बहुत याने शायद दर्जनों गुना पीछे हैं। ऐसा कहा जाता है कि इन्फर्मेशन टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में हमारे युवा बहुत बड़ी संख्या में हैं। वे बुद्धिमान भी हैं। लेकिन सामान्यत: व्यक्तिश: और कोई अपना उपक्रम चलाते भी हैं तो, वे अभारतीय कंपनियों के लिए काम करते हैं। स्वतन्त्रता यह श्रेष्ठ मानव का लक्षण है। लेकिन हमारे युवा कष्टमय स्वतन्त्रता से सुखमय गुलामी को अधिक पसंद करते हैं। | + | यूरो अमरीकी देशों में उपर्युक्त दोनों प्रेरणाओं से शोध कार्य करनेवालों की संख्या की तुलना में शोध के क्षेत्र में भारत के युवा बहुत याने संभवतः दर्जनों गुना पीछे हैं। ऐसा कहा जाता है कि इन्फर्मेशन टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में हमारे युवा बहुत बड़ी संख्या में हैं। वे बुद्धिमान भी हैं। लेकिन सामान्यत: व्यक्तिश: और कोई अपना उपक्रम चलाते भी हैं तो, वे अभारतीय कंपनियों के लिए काम करते हैं। स्वतन्त्रता यह श्रेष्ठ मानव का लक्षण है। लेकिन हमारे युवा कष्टमय स्वतन्त्रता से सुखमय गुलामी को अधिक पसंद करते हैं। |
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| भारत ने कभी भी विचार किया है तो विश्व के हित का ही वह विचार रहा है। इस दृष्टि से भारतीय विचार क्षेत्र पुन: भारतीय पद्धति से विचार करे और विश्व में अग्रणी भी बने यह आवश्यक है। और भारत को फिर से यदि अग्रणी बनाना हो तो भारतीय शोध क्षेत्र के सम्भ्रम को और ग़ुलामी की मानसिकता को दूर करने का तथा इस क्षेत्र को भारतकेंद्री दृष्टि से व्याप्त बनाने का विचार, अत्यंत प्रासंगिक है। | | भारत ने कभी भी विचार किया है तो विश्व के हित का ही वह विचार रहा है। इस दृष्टि से भारतीय विचार क्षेत्र पुन: भारतीय पद्धति से विचार करे और विश्व में अग्रणी भी बने यह आवश्यक है। और भारत को फिर से यदि अग्रणी बनाना हो तो भारतीय शोध क्षेत्र के सम्भ्रम को और ग़ुलामी की मानसिकता को दूर करने का तथा इस क्षेत्र को भारतकेंद्री दृष्टि से व्याप्त बनाने का विचार, अत्यंत प्रासंगिक है। |
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| == अंग्रेजी शासन का प्रभाव ''' ''' == | | == अंग्रेजी शासन का प्रभाव ''' ''' == |
− | अंग्रेजों के लिए हम भारतीय जितना अधिक अंग्रेजों के अंधानुगामी बनेंगे उतना बनना इष्ट था। हम भारतीय जितने विभाजित रहेंगे''',''' संगठनहीन रहेंगे उतना आवश्यक था''',''' जितने आत्मविश्वासहीन रहेंगे उतना आवश्यक था''',''' जितने अधिक अंग्रेज़ियत में रंगेंगे उतना अधिक वांछनीय था। इस लिए अंग्रेजों ने हमारे पूरे जीवन के (भारतीय) प्रतिमान को ही नष्ट कर उस के स्थान पर उनके जीवन का याने अंग्रेजी जीवन का प्रतिमान स्थापित कर दिया। समाज की विश्व निर्माण की मान्यता, इस मान्यता के कारण बनी जीवन की ओर देखने की जीवन दृष्टि, जीवन दृष्टि के अनुसार बने जीवनशैली (व्यवहार सूत्र), सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं और श्रेष्ठ व्यवस्थाओं के अनुकूल और अनुरूप श्रेष्ठ सामाजिक संगठन, इन सब को मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है। इस के बाहर उस समाज के जीवन का कुछ भी नहीं होता। हमारी सृष्टि निर्माण की मान्यता, जीवनदृष्टि, जीवनशैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं सभी अभारतीय बन गये हैं। सामाजिक संगठन नष्टप्राय हो गया है। यदि कुछ शेष है तो पिछली पीढियों के कुछ लोग जो भारतीय जीवनदृष्टि को जानने वाले हैं। व्यवहार तो उन के भी मोटे तौर पर अभारतीय जीवनदृष्टि के अनुरूप ही होते हैं। युवा पीढी के तो शायद ही कोई लोग भारतीय जीवनदृष्टि से ठीक से परिचित होंगे। जब जीवनदृष्टि से ही युवा पीढी अपरिचित है तो भारतीय जीवनशैली, जीवन की व्यवस्थाओं और सामाजिक संगठन की समझ की उन से अपेक्षा नहीं की जा सकती। | + | अंग्रेजों के लिए हम भारतीय जितना अधिक अंग्रेजों के अंधानुगामी बनेंगे उतना बनना इष्ट था। हम भारतीय जितने विभाजित रहेंगे''',''' संगठनहीन रहेंगे उतना आवश्यक था''',''' जितने आत्मविश्वासहीन रहेंगे उतना आवश्यक था''',''' जितने अधिक अंग्रेज़ियत में रंगेंगे उतना अधिक वांछनीय था। इस लिए अंग्रेजों ने हमारे पूरे जीवन के (भारतीय) प्रतिमान को ही नष्ट कर उस के स्थान पर उनके जीवन का याने अंग्रेजी जीवन का प्रतिमान स्थापित कर दिया। समाज की विश्व निर्माण की मान्यता, इस मान्यता के कारण बनी जीवन की ओर देखने की जीवन दृष्टि, जीवन दृष्टि के अनुसार बने जीवनशैली (व्यवहार सूत्र), सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं और श्रेष्ठ व्यवस्थाओं के अनुकूल और अनुरूप श्रेष्ठ सामाजिक संगठन, इन सब को मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है। इस के बाहर उस समाज के जीवन का कुछ भी नहीं होता। हमारी सृष्टि निर्माण की मान्यता, जीवनदृष्टि, जीवनशैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं सभी अभारतीय बन गये हैं। सामाजिक संगठन नष्टप्राय हो गया है। यदि कुछ शेष है तो पिछली पीढियों के कुछ लोग जो भारतीय जीवनदृष्टि को जानने वाले हैं। व्यवहार तो उन के भी मोटे तौर पर अभारतीय जीवनदृष्टि के अनुरूप ही होते हैं। युवा पीढी के तो संभवतः ही कोई लोग भारतीय जीवनदृष्टि से ठीक से परिचित होंगे। जब जीवनदृष्टि से ही युवा पीढी अपरिचित है तो भारतीय जीवनशैली, जीवन की व्यवस्थाओं और सामाजिक संगठन की समझ की उन से अपेक्षा नहीं की जा सकती। |
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| १९४७ में हम स्वाधीन हुए। स्वतंत्र नहीं। स्वतंत्र का अर्थ है अपने तंत्रों के साथ याने अपनी व्यवस्थाओं के साथ जीनेवाले। अंग्रेजों ने भारत में स्थापित की हुई शासन, प्रशासन, न्याय, अर्थ, उद्योग, कृषी, जल प्रबंधन, शिक्षा आदि सभी तो अंग्रेजों ने भारत में स्थापित की हुई ही हम आगे चला रहे हैं। इन में से एक भी व्यवस्था को हमने अपनी जीवन दृष्टि और जीवन शैली के अनुसार बदलने का विचार भी नहीं किया है। अर्थात् स्वतंत्र होने का तो कोई विचार भी हमारे मन में नहीं है। प्रत्यक्ष स्वतंत्र बनना तो बहुत दूर की बात है। | | १९४७ में हम स्वाधीन हुए। स्वतंत्र नहीं। स्वतंत्र का अर्थ है अपने तंत्रों के साथ याने अपनी व्यवस्थाओं के साथ जीनेवाले। अंग्रेजों ने भारत में स्थापित की हुई शासन, प्रशासन, न्याय, अर्थ, उद्योग, कृषी, जल प्रबंधन, शिक्षा आदि सभी तो अंग्रेजों ने भारत में स्थापित की हुई ही हम आगे चला रहे हैं। इन में से एक भी व्यवस्था को हमने अपनी जीवन दृष्टि और जीवन शैली के अनुसार बदलने का विचार भी नहीं किया है। अर्थात् स्वतंत्र होने का तो कोई विचार भी हमारे मन में नहीं है। प्रत्यक्ष स्वतंत्र बनना तो बहुत दूर की बात है। |
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| वर्तमान साईंस के विकास से पहले तक याने मुष्किल से २००-२५० वर्ष पूर्व तक भारत में प्रस्थान त्रयी को ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रमाण माना जाता था। किन्तु विपरीत शैक्षिक दृष्टि और साईंस की अधूरी दृष्टि के कारण आज इसे कोई महत्व नहीं दिया जाता। ऐसा क्यों? वर्तमान साईंस के विकास के कारण या अन्य कारणों से गत २००-२५० वर्षों में ऐसे कौन से घटक निर्माण हो गये है जिन्हें हम प्रस्थान त्रयी की कसौटि पर नहीं तोल सकते'''?''' | | वर्तमान साईंस के विकास से पहले तक याने मुष्किल से २००-२५० वर्ष पूर्व तक भारत में प्रस्थान त्रयी को ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रमाण माना जाता था। किन्तु विपरीत शैक्षिक दृष्टि और साईंस की अधूरी दृष्टि के कारण आज इसे कोई महत्व नहीं दिया जाता। ऐसा क्यों? वर्तमान साईंस के विकास के कारण या अन्य कारणों से गत २००-२५० वर्षों में ऐसे कौन से घटक निर्माण हो गये है जिन्हें हम प्रस्थान त्रयी की कसौटि पर नहीं तोल सकते'''?''' |
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− | शायद साईंटिस्टों का कहना है कि निम्न बातों में साईंस ने जो विशेष प्रगति की है उस के कारण प्रस्थान त्रयी को प्रमाण के क्षेत्र में कोई स्थान नहीं दिया जा सकता।
| + | संभवतः साईंटिस्टों का कहना है कि निम्न बातों में साईंस ने जो विशेष प्रगति की है उस के कारण प्रस्थान त्रयी को प्रमाण के क्षेत्र में कोई स्थान नहीं दिया जा सकता। |
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| १) साईंस ने नॅनो''',''' बायो और न्यूक्लियर जैसे सूक्ष्मता के क्षेत्रों में और सृष्टि के मूल द्रव्य को जानने की दिशा में बहुत प्रगति की है। | | १) साईंस ने नॅनो''',''' बायो और न्यूक्लियर जैसे सूक्ष्मता के क्षेत्रों में और सृष्टि के मूल द्रव्य को जानने की दिशा में बहुत प्रगति की है। |