भारतीय शोध क्षेत्र – एक प्रासंगिक चिंतन
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शोध की आवश्यकता
अज्ञात सत्य को खोजना ही शोध कार्य कहलाता है[1]। शोध करने का अर्थ जिसे अंग्रेजी में ‘री-इन्व्हेंटिंग द व्हील’ याने फिर से पहिये की खोज नहीं होता। वर्तमान में जो लोगों के संज्ञान में है उस से अलग हट कर कुछ नया और उपयुक्त निर्माण करना, शोध कार्य की प्रेरणा होती है।
शोध कार्य यह प्रेरणा का विषय है। प्रेरणा दो प्रकार की होती है। बाह्य प्रेरणा और अंत:प्रेरणा। दोनों प्रकार की प्रेरणा के दो कारक हो सकते हैं। एक है स्वार्थ याने अपने और अपनों के हित के लिए और दूसरा है परमार्थ याने चराचर सृष्टि के सभी अस्तित्वों के हित के लिए। परमार्थ याने परम अर्थ याने सब का हित। परमार्थ होता है तब उस में सीमित स्वार्थ तो आ ही जाता है।
किसी भी प्रकार की प्रेरणा हो, शोध कार्य का महत्व तो अनन्यसाधारण है। जो समाज शोध के क्षेत्र में अग्रणी रहेगा, वही समाज विश्व का नेतृत्व करेगा। नकलची कभी नेतृत्व नहीं कर सकते।
यूरो अमरीकी देशों में उपर्युक्त दोनों प्रेरणाओं से शोध कार्य करनेवालों की संख्या की तुलना में शोध के क्षेत्र में भारत के युवा बहुत याने संभवतः दर्जनों गुना पीछे हैं। ऐसा कहा जाता है कि इन्फर्मेशन टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में हमारे युवा बहुत बड़ी संख्या में हैं। वे बुद्धिमान भी हैं। लेकिन सामान्यत: व्यक्तिश: और कोई अपना उपक्रम चलाते भी हैं तो, वे अभारतीय कंपनियों के लिए काम करते हैं। स्वतन्त्रता यह श्रेष्ठ मानव का लक्षण है। लेकिन हमारे युवा कष्टमय स्वतन्त्रता से सुखमय गुलामी को अधिक पसंद करते हैं।
भारत ने कभी भी विचार किया है तो विश्व के हित का ही वह विचार रहा है। इस दृष्टि से भारतीय विचार क्षेत्र पुन: भारतीय पद्धति से विचार करे और विश्व में अग्रणी भी बने यह आवश्यक है। और भारत को फिर से यदि अग्रणी बनाना हो तो भारतीय शोध क्षेत्र के सम्भ्रम को और ग़ुलामी की मानसिकता को दूर करने का तथा इस क्षेत्र को भारतकेंद्री दृष्टि से व्याप्त बनाने का विचार, अत्यंत प्रासंगिक है।
अंग्रेजी शासन का प्रभाव
अंग्रेजों के लिए हम भारतीय जितना अधिक अंग्रेजों के अंधानुगामी बनेंगे उतना बनना इष्ट था। हम भारतीय जितने विभाजित रहेंगे, संगठनहीन रहेंगे उतना आवश्यक था, जितने आत्मविश्वासहीन रहेंगे उतना आवश्यक था, जितने अधिक अंग्रेज़ियत में रंगेंगे उतना अधिक वांछनीय था। इस लिए अंग्रेजों ने हमारे पूरे जीवन के (भारतीय) प्रतिमान को ही नष्ट कर उस के स्थान पर उनके जीवन का याने अंग्रेजी जीवन का प्रतिमान स्थापित कर दिया। समाज की विश्व निर्माण की मान्यता, इस मान्यता के कारण बनी जीवन की ओर देखने की जीवन दृष्टि, जीवन दृष्टि के अनुसार बने जीवनशैली (व्यवहार सूत्र), सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं और श्रेष्ठ व्यवस्थाओं के अनुकूल और अनुरूप श्रेष्ठ सामाजिक संगठन, इन सब को मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है। इस के बाहर उस समाज के जीवन का कुछ भी नहीं होता। हमारी सृष्टि निर्माण की मान्यता, जीवनदृष्टि, जीवनशैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं सभी अभारतीय बन गये हैं। सामाजिक संगठन नष्टप्राय हो गया है। यदि कुछ शेष है तो पिछली पीढियों के कुछ लोग जो भारतीय जीवनदृष्टि को जानने वाले हैं। व्यवहार तो उन के भी मोटे तौर पर अभारतीय जीवनदृष्टि के अनुरूप ही होते हैं। युवा पीढी के तो संभवतः ही कोई लोग भारतीय जीवनदृष्टि से ठीक से परिचित होंगे। जब जीवनदृष्टि से ही युवा पीढी अपरिचित है तो भारतीय जीवनशैली, जीवन की व्यवस्थाओं और सामाजिक संगठन की समझ की उन से अपेक्षा नहीं की जा सकती।
१९४७ में हम स्वाधीन हुए। स्वतंत्र नहीं। स्वतंत्र का अर्थ है अपने तंत्रों के साथ याने अपनी व्यवस्थाओं के साथ जीनेवाले। अंग्रेजों ने भारत में स्थापित की हुई शासन, प्रशासन, न्याय, अर्थ, उद्योग, कृषी, जल प्रबंधन, शिक्षा आदि सभी तो अंग्रेजों ने भारत में स्थापित की हुई ही हम आगे चला रहे हैं। इन में से एक भी व्यवस्था को हमने अपनी जीवन दृष्टि और जीवन शैली के अनुसार बदलने का विचार भी नहीं किया है। अर्थात् स्वतंत्र होने का तो कोई विचार भी हमारे मन में नहीं है। प्रत्यक्ष स्वतंत्र बनना तो बहुत दूर की बात है।
इस लिए हमारी शोध दृष्टि आज भी अंग्रेजों की भारत के संबंध में शोध की जो दृष्टि थी, वही है।
भारतीय विचार क्षेत्र में संभ्रम और हीनता बोध
जिन पर भारत का शोध क्षेत्र निर्भर है ऐसे विचार के क्षेत्र में काम करनेवाले हिंदुत्ववादियों की स्थिति को समझना उचित होगा। इन में कुछ लोग हैं जो भारतीय चिंतन से अच्छी तरह से परिचित हैं लेकिन यूरो अमरीकी ज्ञानधारा से अपरिचित हैं। इस कारण गंभीर विमर्ष के समय उन्हें मौन रहना पड़ता है। कुछ ऐसे हैं जो अभिमान तो भारतीय ज्ञानधारा का सँजोते हैं लेकिन भारतीयता की श्रेष्ठता के बारे में कुछ नहीं जानते। ये किसी विमर्ष का हिस्सा बन नहीं सकते। कुछ लोग ऐसे हैं जो भारतीय शास्त्रों के जानकार हैं लेकिन इन शास्त्रों के ज्ञान के युगानुकूल स्वरूप का उन्हों ने चिंतन नहीं किया है। गंभीर और सार्वजनिक विमर्ष में ये अपना पक्ष ठीक से नहीं रख पाते। कुछ ऐसे भी हैं जो भारतीय और अभारतीय दोनों ज्ञानधाराओं के जानकार हैं लेकिन उन में मुखर होकर कठमुल्लों को चुनौति देने की हिम्मत नहीं होती। ये भी विमर्ष से दूर ही रहते हैं।
१९४७ में हमारी गुलामी गयी किन्तु गुलामी की मानसिकता नहीं गई। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि जिस तपस्वी ने सत्य दर्शन किये हैं, उसने यह कहा है, ऐसा जब कोई कहता है तो हमारे विद्वान उसे मूर्ख कहते हैं। किन्तु वही बात जब किसी मिस्टर हक्सले या मिस्टर टिंडल ने कही है ऐसा कहा जाता है तब उसे सत्य मान लिया जाता है। साहेब वाक्यं प्रमाणम् की मानसिकता आज भी बदली नहीं है|
हमारे विद्वानों में आजकल एक लहर उठी है। अपने पूर्वजों के गौरव का बखान करते रहने की। जहाँ तक इससे भविष्य के लिए कुछ श्रेष्ठ करने की प्रेरणा देने का विषय है वहाँ तक तो यह वांछनीय ही है। लेकिन सामान्यत: इन उपक्रमों में भविष्य की दृष्टि या योजनाओं का अभाव ही होता है। इस कारण कई बार तो ये हीनता बोध को छिपाने के प्रयास लगने लगते हैं। प्रगति केवल भावनाओं से नहीं होती। भावनाओं के साथ सटीक योजना और क्रियान्वयन की शक्ति भी आवश्यक होती है।
यह हीनता बोध १० पीढियों से चली आ रही अभारतीय शिक्षा और ऐसी शिक्षा की माँग करनेवाली जीवन की अभारतीय व्यवस्थाओं के कारण और गहरा होता जा रहा है। इस शिक्षा के कारण लोगों को लगने लगा है कि भारत के पास विश्व को देने के लिये कुछ भी नहीं है। विश्व में कुछ भी श्रेष्ठ है तो वह यूरो अमरिकी देशों की देन है। डॉ राधाकृष्णन जैसे कई ख्याति प्राप्त भारतीय विद्वानों ने भी कुछ लेखन ऐसा किया है जो भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रति हीनता का भाव निर्माण करने वाला है। (संदर्भ : भारतीय विद्या भवन प्रकाशित व्हॉट इंडिया शुड नो)। भारतीयता की विकृत समझ रखने वाले नौकरशाहों और शासकीय नीतियों ने भी इस हीनता बोध को बढाया ही है।
एँथ्रॉपॉलॉजी के तहत् शोध कार्य
एँथ्रॉपॉलॉजी, जीतने वाले समाज के द्वारा किए जा रहे, मृत समाज या जीते गए मानव समाज के अध्ययन की एक शाखा है। अंग्रेजों के काल से ही भारत में जो शोध कार्य शुरू हुए उन का आधार एँथ्रॉपॉलॉजी ही रहा। एँथ्रॉपॉलॉजी के धुरंधर विद्वान क्लॉड लेवी स्ट्रॉस के अनुसार “पराधीन, पराजित और विखंडित समाज” इस अध्ययन की विषयवस्तु होते हैं। विजेता समाज विजित समाजों का अध्ययन करने के लिये जो उपक्रम करते हैं वही एँथ्रॉपॉलॉजी है। एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार अपने ही समाज का अध्ययन नहीं किया जाता। पराजित समाज के विद्वान भी विजेता समाज का ऐसा अध्ययन नहीं करते। किन्तु भारतीय समाज के विद्वान हीनता बोध और वैचारिक संभ्रम के कारण अपने ही समाज का अध्ययन एँथ्रॉपॉलॉजी की दृष्टि के अनुसार किये जा रहे हैं। (धर्मपाल - भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १४)| आज भारत में यह सब अध्ययन भारतीय दृष्टि से नहीं तो यूरोपीय दृष्टि से चल रहे हैं। इस का चोटी का उदाहरण (भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १५) धर्मपाल देते हैं। वह है, २० वी शताब्दी के एक श्रेष्ठ भारतीय मनीषी द्वारा तत्कालीन अंग्रेजी शासन के विभागों के आधार पर पुरूष सूक्त का श्रेष्ठत्व समझाना। धर्मपाल आगे बताते हैं कि ऐसे सब काम बुध्दिमत्ता के तो होते है। किन्तु इस का कोई लाभ भारत को या भारतीय समाज को नहीं मिलता। उनका कथन यह एक विदारक सत्य ही है। ये सब शोध कार्य भारत के विषय में होते हैं। भारत के लिये नहीं। इस लिये इन शोध कार्यों का वर्तमान और भावि भारत से कोई लेना देना नहीं होता। भारत में जाति व्यवस्था के विषय में कई शोध कार्य चल रहे होंगे। लेकिन उन का स्वरूप काल के प्रवाह में या ऐतिहासिक कारणों से बिगड़ी हुई इस व्यवस्था को निर्दोष और युगानुकूल बनाने का नहीं है और ना ही उस से श्रेष्ठ किसी वैकल्पिक व्यवस्था का विचार इन शोध कार्यों में है। हजारों वर्षों से जाति व्यवस्था भारत में रही है। तो उस के कुछ लाभ होंगे ही। उन लाभों का और उस के कारण हुई हानियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना इन शोध कार्यों का उद्देश्य नहीं है। वास्तव में नयी व्यवस्था के निर्माण से पहले पुरानी व्यवस्था को तोडना या टूटने देना यह बुध्दिमान समाज का लक्षण नहीं है। लेकिन हम एँथ्रॉपॉलॉजी की शोध दृष्टि के कारण ठीक ऐसा ही कर रहे हैं।
आधुनिक या नये का बोलबाला
आधुनिक या नए के संदर्भ में वर्तमान का सटीक वर्णन टेनिसन की एक कविता की पंक्तियों में मिलता है। ये पंक्तियाँ अभारतीय जीवनदृष्टि का एक और पहलू स्पष्ट करती है।
Ring out the old Ring in the new Ring out the False Ring in the Truth
भावार्थ : जो पुराना है वह झूठ है। वह झूठ है इस लिए उसे छोड़ो। जो नया है वह सच्चा है। जो नया है वह सत्य है। इस लिए जो नया उस का स्वीकार करो।
महाकवि कालिदास ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में भारतीय दृष्टि को स्पष्ट करते हैं।
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् | संत: परीक्ष्यान्यतरद्भजंते मूढ़: परप्रत्ययनेयबुद्धि: । ।
भावार्थ : जो पुराना है वह सब केवल पुराना होने से श्रेष्ठ नहीं होता। विवेकशील व्यक्ति अपनी बुद्धि से परीक्षा कर जो श्रेष्ठ है उसे स्वीकार करते हैं और मूर्ख लोग दूसरों द्वारा बताने पर ग्राह्य या अग्राह्य का निर्णय करते हैं।
और एक सुभाषित में यह भी कहा गया है –
युक्तियुक्तं वचो ग्राह्यं बालादपि शुकादपि | अयुक्तियुक्तं वचो त्याज्य बालादपि शुकादपि ||
भावार्थ : बच्चा या तोता भी यदि कुछ बुद्धिसंगत श्रेष्ठ बात कहता है तो वह बात मानने योग्य है। और अबुद्धिसंगत घटिया बात बच्चा कहे या प्रत्यक्ष विद्वत्श्रेष्ठ शुक मुनि भी कहें, तो वह त्याज्य है। इसलिए केवल पुराना है इसलिए न तो वह स्वीकार्य बनता है और न ही त्याज्य। इसी प्रकार केवल नया होने से वह न तो त्याज्य होता है न स्वीकार्य।
ऐसे ही एक अन्य सुभाषित में दूसरी पंक्ति भिन्न है। दूसरी पंक्ति है – आयुक्तिमपि न ग्राह्यं साक्षादपि बृहस्पते:। याने बात यदि आयुक्तिसंगत हो तो प्रत्यक्ष बृहस्पति भी कहते हैं तो वह अस्वीकार्य है।
इस लिए हमारे शोध क्षेत्र के लिए न तो एँथ्रॉपॉलॉजी की दृष्टि मान्य है और न ही केवल नया है इस लिए उस का स्वीकार और केवल पुराना है उस का बहिष्कार की दृष्टि ही मान्य है।
साईंटिफिक टेम्परामेंट का आतंक
वर्तमान में साईंटिफिक टेम्परामेंट जिसे हम गलती से वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहते हैं, को अनन्य साधारण महत्व प्राप्त हो गया है। जीवन के किसी भी पहलू से जुडी कोई भी बात हो उसे साईंस की कसौटि पर तोला जाता है। वर्तमान में जिसे साईंस कहा जाता है वह मुख्यत: पंचमहाभौतिक तत्वों से संबंध रखता है। इन पंचमहाभूतों से संबंधित जो भी सिध्दांत साईंटिस्टों ने प्रस्तुत किये हैं, सामान्यत: तो वे सत्य ही हैं। पंचमहाभूतों के संबंध में तो कसौटि साईंस के नियमों के आधार पर लगाई जाये यह सामान्यत: तो उचित है। किन्तु विश्व केवल पंचमहाभूतों से ही नहीं बना। अन्य भी कुछ घटक मिलकर विश्व का निर्माण हुआ है। इस कारण से सृष्टि की कई बातों के लिए वर्तमान की साईंस की कसौटियाँ लगाना न केवल ग़लत है, हानिकारक भी है। मन, बुध्दि, अहंकार जैसी अनुभवजन्य बातों के लिये जो सामान्य पंचमहाभूतों से अति सूक्ष्म है उन के लिये और जीवात्मा तथा परमात्मा जैसी अनूभूतिजन्य बातों के लिये साईंस की कसौटियाँ लागू नहीं होतीं। किन्तु सामान्यत: आज के साईंटिस्ट यह समझते नहीं हैं।
वास्तव में भारतीय शास्त्रों के ज्ञाता जब वर्तमान साईंस का भी ठीक अध्ययन कर दोनों की संतुलित विश्लेषणात्मक प्रस्तुति करेंगे तब कसौटी की समस्या दूर होगी। साईंस की कसौटि की समस्या दूर होने के साथ ही वर्तमान में (लगभग सन १९८७-१९८८ से) साईंस के विकास का का मार्ग जो आज पंचमहाभौतिक में उलझ जाने के कारण अवरूध्द हुआ है, वह भी प्रशस्त होगा। वैसे तो एस्ट्रो फिजिक्स या पार्टिकल फिजिक्स जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले वैज्ञानिक अपने प्रगत प्रयोगों के माध्यम से पंचमहाभौतिक से आगे मन और बुद्धि के क्षेत्र में विचार करने को बाध्य हो रहे हैं। आईन्स्टीन, नील बोर, हायज़ेनबर्ग, व्हीलर आदि केवल साईंटिस्ट नहीं थे। वे कुछ मात्रा में वैज्ञानिक भी थे। उन के चिंतन को मानने वाले साईंटिस्ट वैज्ञानिक बनने का प्रयास कर रहे हैं। ये साईंटिस्ट भारतीय दर्शनों में साईंस को आगे बढाने की सम्भावनाएँ देखते हैं। उन के लिये भी ऐसा संतुलित, समग्र और बुध्दियुक्त विश्लेषण लाभदायी होगा।
विज्ञान की ‘भारतीय’ अवधारणा
श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का नाम ही ज्ञान-विज्ञान योग है। इस में श्लोक ४ और ५ में की हुई विज्ञान और अध्यात्म की सोच निम्न है।
भूमिरापोऽनलोवायू: खं मनो बुध्दिरेव च ।
अहंकार इतियं मे भिन्ना प्रकृतिरष्ट्धा: ॥ अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।।
अर्थात् भूमि, जल, अग्नि, वायु और पृथ्वि इन पंचमहाभूतों के साथ मन, बुद्धि और अहंकार मिलकर अष्टधा प्रकृति बनती है। परमात्म तत्त्व के अलावा सृष्टि में कुछ भी नहीं है। परमात्मा ने अपने में से ही जो इंद्रियों से समझी नहीं जा सकती ऐसी परा का निर्माण किया है। परा को ही आत्मा कहते हैं। और अपरा याने अष्टधा प्रकृति, जिसे इंद्रियों की मदद से जाना जा सकता है, उस का भी अपने में से ही निर्माण किया है। चराचर सृष्टि का प्रत्येक अस्तित्व इसी अष्टधा प्रकृति का ही बना हुआ है। यह प्रत्येक अस्तित्व अन्य कुछ नहीं, परमात्म तत्त्व के ही विविध रूप हैं। इस अपरा को याने अष्टधा प्रकृति को जानना ही विज्ञान है।
श्रीमद्भगवद्गीता के १५ वें अध्याय के श्लोक ७ में कहा है –
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: ।
अर्थ है, जीवों के शरीर में जो जीवात्मा है वह मेरा ही अंश है।
तात्पर्य यह है कि सृष्टि के जड़ पदार्थ परमात्मा से बनी अष्टधा प्रकृति और परमात्म तत्त्व ऐसे दोनों से बने हैं। और सभी जीव परमात्मा, जीवात्मा और अष्टधा प्रकृति ऐसे तीनों से बने हैं। जड़ और जीव ये सभी परमात्म तत्त्व के ही बने हुए हैं। परमात्म तत्त्व को जानने के शास्त्र को अध्यात्म शास्त्र कहते हैं।
परमात्म तत्त्व अंत चैतन्य वाला है। इस लिए उससे बने सभी अस्तित्व चेतन ही हैं। सृष्टि में अचेतन कुछ भी नहीं है। चेतन की अक्रिय अवस्था या अक्रिय स्तर को ही जड़ कहते हैं।
इसी प्रकार से अध्याय ३, श्लोक ४२ में बताया गया है -
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन ।
मनसस्तु परा बुध्दिर्यो बुध्दे: परतस्तु स: ॥
अर्थात् इंद्रियों से मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि सूक्ष्म है। और आत्म तत्त्व तो बुद्धि से भी कहीं अधिक सूक्ष्म है। संस्कृत में सूक्ष्म का अर्थ होता है बलवान और व्यापक। पंचमहाभूतों से बनीं इंद्रियाँ स्थूल पाँच महाभूतों से तो सूक्ष्म हैं किन्तु मन उन से भी अत्यंत सूक्ष्म है। बुद्धि मन से और वह (आत्म तत्त्व) तो बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म है। जो सूक्ष्म होता है उस की मापन पट्टी से तो जो उस से स्थूल है उस का कदाचित मापन किया जा सकता है, किन्तु जो उस से अधिक सूक्ष्म है उस का मापन नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से आत्म तत्त्व की मापन पट्टी से बुद्धि, मन और इंद्रियों का, बुद्धि की मापन पट्टी से मन और इंद्रियों का और मन की मापन पट्टी से इंद्रियों का और इंद्रियों की मापन पट्टी से स्थूल पंचमहाभूतों का मापन (लम्बाई, चौड़ाई, गहराई, भार याने वजन आदि) किया जा सकता है। किन्तु इस से उलट नहीं किया जा सकता। भौतिक उपकरणों से इंद्रिय, मन, बुद्धि और आत्म तत्व आदि के व्यापारों का मापन नहीं किया जा सकता। वर्तमान साईंस के मापन के जो उपकरण हैं वे प्रकृति के पंचमहाभौतिक घटकों का तो मापन कर सकते है। कुछ उपकरण कुछ अधिक सूक्ष्मता से भी अध्ययन के लिए बने हैं। लेकिन तथापि वे पंचमहाभौतिक पदार्थों से बने होने के कारण उन की मापन क्षमता की मर्यादा है। वे मन, बुद्धि, आत्मा आदि अति और अति-अति सूक्ष्म घटकों का मापन नहीं कर सकते| आत्मा जिस परमात्मा का अंश है उसे जानने का क्षेत्र अध्यात्म का क्षेत्र है। इस विषय की चर्चा हम आगे ‘प्रमाण की समस्या का समाधान’ में करेंगे।
वर्तमान साईंस के विकास की पृष्ठभूमि
वर्तमान साईंस का विकास युरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुआ है। इस विकास के मार्ग में कट्टरपंथी ईसाई मत के कारण कई साईंटिस्टों को कष्ट झेलने पडे हैं। ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जैसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी। तथापि यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। अल्प काल में ही साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय ऐसा पराक्रम कर दिखाया। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है। हालाँ की इस प्रौद्योगिकी में हुई तेज प्रगति का एक कारण साईंस के क्षेत्र में ‘पाँच महाभूतों को छोड़ कर सृष्टि में कुछ भी नहीं है’ ऐसी अड़ियल भूमिका के कारण निर्माण हुआ अवरोध भी है।
रेने देकार्ते को इस साईंटिफिक टेम्परामेंट का जनक माना जाता है। रेने देकार्ते एक गणिति तथा फिलॉसॉफर था। इस साईंटिफिक टेम्परामेंट के महत्वपूर्ण पहलू निम्न हैं।
१. द्वैतवाद : इस का भारतीय द्वैत/अद्वैत की अवधारणाओं से कोई संबंध नहीं है। इस में यह माना गया है कि विश्व में ‘मैं’ और ‘अन्य सारी सृष्टि’ ऐसे दो घटक है। ‘मैं इस सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने वाला हूँ, मैं इस सृष्टि से भिन्न हूँ, मैं इस सृष्टि का भोग करने वाला हूँ’ ऐसी द्वैत की भावना।
२. वस्तुनिष्ठता : जो प्रत्येक सामान्य मनुष्य द्वारा समान रूप से जाना जा सकता है वही वस्तुनिष्ठ है। एक साडी की लम्बाई और चौडाई तो सभी महिलाओं के लिये समान ही होगी। किन्तु उससाड़ी के कपड़े के स्पर्श का अनुभव हर स्त्री का भिन्न होगा। एक किलो लड्डू का वजन कोई भी करे वह एक किलो ही होगा। किन्तु उस लड्डू का स्वाद हर मनुष्य के लिये भिन्न होता है। जिनका मापन किया जा सकता है वह ‘वस्तुनिष्ठता’ के याने साईंस के दायरे में आता है। लेकिन स्पर्श, स्वाद आदि जो हर व्यक्ति के अनुसार भिन्न भिन्न होंगे वे साईंस के विषय नहीं बन सकते।
३. विखंडित विश्लेषण पध्दति : साईंटिफिक टेम्परामेंट की विचारधारा को देकार्ते की यह सब से बडी देन है। उस ने पेंचिदा बातों को समझने के लिये सामान्य मनुष्य के लिये विखंडित विश्लेषण पध्दति के रूप में एक प्रणालि बताई। इस पध्दति के अनुसार पूर्ण वस्तू का ज्ञान उसके छोटे छोटे टुकडों के प्राप्त किये ज्ञान का जोड होगा।
४. जडवाद : जड का अर्थ है अजीव। पूरी सृष्टि अजीव पदार्थों की बनीं है। साईंस के अनुसार सृष्टि में चेतन कुछ भी नहीं है। स्वयंप्रेरणा, स्वत: कुछ करने की शक्ति सृष्टि में कहीं नहीं है। साईंस भावना, प्रेम, सहानुभूति आदि नहीं मानता। मिलर की परिकल्पना के अनुसार जिन्हे हम जीव समझते है वे वास्तव में रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे होते है। भावनाएँ जड़ पदार्थों में चलने वाली रासायनिक प्रक्रिया (Chemical Reaction) का परिणाम हैं।
५. यांत्रिक दृष्टिकोण : जीव भी यंत्र जैसे ही होते हैं। इस लिए जीव को जानने के लिए भी उस के सारे अलग अलग अंगों के काम को जोड़ कर जानना होता है। लेकिन जीव को, उस के टुकडों के ज्ञान को जोड कर संपूर्ण जीव को जानना तब ही संभव होगा जब उस जीव की बनावट केवल यांत्रिक होगी। यंत्र में एक एक पुर्जा कृत्रिम रूप से एक दूसरे के साथ जोडा जाता है। उसे अलग अलग कर उसके कार्य को समझना सरल होता है। ऐसे प्रत्येक पुर्जेका कार्य समझ कर पूरे यंत्र के कार्य को समझा जा सकता है। ऐसा जानना उचित भी होता है।
इस विचार में जड को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित रह जाता है। चेतन का निर्माण जड पंचमहाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार, जीवात्मा तथा आत्मतत्त्व इन के योग से होता है। परिवर्तन तो जड याने भौतिक में ही होता है। लेकिन वह जीव याने चेतन की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये जीव का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। भौतिक शरीर के साथ जब मन की शक्ति या आत्म शक्ति जुड जाती है तब वह केवल जड की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। वह जीव के अंगों की भौतिक शक्ति से कहीं अधिक होती है।
प्रत्येक जीव यह जड और चेतन का योग ही होता है। जड़ में भी मन, बुद्धि होते हैं। ये दोनों पंचमहाभौतिक से अत्यंत सूक्ष्म याने अत्यंत व्यापक, अत्यंत बलवान होते हैं। लेकिन जड़ में वह अत्यंत निम्न स्तर के होने के कारण जड़ पदार्थ अक्रिय होते हैं। जड़ पदार्थ स्वत: कुछ भी करने की क्षमता नहीं रखते। इसलिए इन का भौतिक ज्ञान प्राप्त करने से इन का लगभग पूरा ज्ञान प्राप्त हो जाता है। जड़ पदार्थों की तुलना में चेतन के मन, बुध्दि, अहंकार आदि चेतना के उच्च स्तर के होने से सक्रिय होते हैं। मनुष्य में तो उन का स्तर बहुत ऊंचा होता है। इस लिए मानव मानवेतर जीवों से अत्यंत सक्रिय रहता है। मानव के मन, बुद्धि और अहंकार तथा आत्मतत्त्व के व्यापारों को जानने के लिए भौतिक(फिझिकल) साईंस की कसौटियों को प्रमाण नहीं माना जा सकता।
अनिश्चितता का प्रमेय (Theory of Un-Certainty), क्वॉटम मेकॅनिक्स (Quantum Mechanics), अंतराल भौतिकी (Astro Physics), कण भौतिकी (Particle Physics) आदि साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के साईंटिफ़िक दृष्टिकोण की मर्यादाएँ स्पष्ट कर दी हैं।
लेकिन अपने अधिकार कोई छोडना नहीं चाहता। यह बात स्वाभाविक है। इसी के कारण आज का साईंटिस्ट प्रमाण के क्षेत्र में अपना महत्व खोना नहीं चाहता। पुनर्जन्म से संबंधित कार्यक्रम कई दूरदर्शन की वाहिनियों ने प्रसारित किये गये है। लगभग ऐसे सभी कार्यक्रमों में वह दूरचित्र वाहिनी एक टोली बनाती है। इस टोली में एक साईंटिस्ट भी लिया जाता है। फिर सुने हुए पुनर्जन्म के किस्सों की टोली द्वारा प्रत्यक्ष और किससे से जुड़ी सभी सम्भावनाओं की जानकारी प्राप्त की जाती है। प्रत्यक्ष जिन बच्चों को पुर्व जन्म की कुछ स्मृतियाँ है उन से मिल कर उन से पूर्व जन्म की जानकारी ली जाती है। फिर उस बच्चे के पूर्व जन्म के स्थान पर जाकर बच्चे की दी हुई जानकारी को जाँचा जाता है। सामान्यत: सभी प्रसंगों में, उसे सत्य पाया गया था। ऐसी कई घटनाओं का प्रत्यक्ष प्रसारण वाहिनियों के कार्यक्रम में हुआ है। अंत में उस तहकीकात करने वाली टोलि के सदस्य साईंटिस्ट को प्रश्न पूछा जाता है कि आपने यह सब प्रत्यक्ष देखा है। इस पर आप की क्या राय है? साईंस क्या कहता है? साईंटिस्ट का उत्तर होता है - यह सब तो ठीक है। किन्तु साईंस पुनर्जन्म को मान्यता नहीं देता। यह तो विशुद्ध अड़ियलबाज़ी है।
इस में समझने की कुछ बातें है। न तो दूरचित्र वाहिनी वाले और ना ही वह साईंटिस्ट साईंस की सीमाएँ या मर्यादाएँ जानते हैं। इन मर्यादाओं को न समझने के कारण वह साईंटिस्ट भी अपने अधिकार के क्षेत्र (भौतिक शास्त्र) के बाहर के विषयों में भी साईंस के ज्ञान के आधार पर अपनी राय देता है। वास्तव में तो ये कार्यक्रम साईंस की मर्यादा को ही स्पष्ट करते है।
साईंस की कसौटि की मर्यादा समझने के उपरांत भी साईंस की मर्यादा से बाहर किसे प्रमाण मानना यह प्रश्न रह ही जाता है।
अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान
आजकल वर्तमान अभारतीय शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगों को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। भारतीय जीवनदृष्टि के अनुसार कहा गया है 'ना मूलं लिख्यते किंचित'। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। बगैर प्रमाण के, का अर्थ है जो प्रमाणित सत्य नहीं है उसे नहीं लिखना। अज्ञानी लेकिन लिखना जानने वाले हमने बहुत बड़ी संख्या में निर्माण किये हैं। लिखना जानने वाले लोग कुछ भी लिख सकते हैं। व्यक्ति स्वतंत्रता की विकृत लेकिन समाज में व्याप्त समझ के कारण उन्हें रोका नहीं जा सकता। लेकिन केवल कहीं किसी ने कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में छप जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता।
महाभारत में सत्य की व्याख्या की गई है 'यदभूत हितं अत्यंत' याने जिस में चराचर का हित हो (या किसी का भी अहित न हो) वही सत्य है। इसी का अर्थ है जिसे चराचर का हित किस या किन बातों में है यह नहीं समझ में आता वह सत्य को स्वत: नहीं समझ सकता। ऐसे लोगों के लिये कहा गया है 'महाजनो येन गत: स पंथ:'। ऐसे लोगों ने महाजनों का अनुकरण करना चाहिये। श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है –
यद्यदाचरति श्रेष्ठ: तत्त देवेतरो जना:। स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनु वर्तंते ।।
केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता। और विवेक का याने सत्य को जानने की क्षमता का लिखना आने से कोई सम्बन्ध नहीं है।
अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का या मार्गदर्शन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। इस लिए प्रश्न तो रह ही जाता है कि फिर प्रमाण का अधिष्ठान क्या है?
सत्य जानने के तरीके
सत्य समझने का साधन प्रमाण है। प्रमाण चार प्रकार के माने गए हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द या शास्त्र वचन। न्याय दर्शन का सूत्र है -
प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा: प्रमाणानि ॥ १.१.३ ॥
१. प्रत्यक्ष प्रमाण : ‘मा’ धातु का अर्थ है ‘मापना’। इंद्रियों की सहायता से नाप-तोल करने को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जाता है। संक्षेप में प्रमाण वह साधन है जिस से वस्तु, विचार, अथवा समस्या का नाप-तोल किया जा सकता है।
२. अनुमान प्रमाण : पूर्व में प्राप्त अनुभवों या स्मृति के साथ वर्तमान के प्रत्यक्ष की तुलना कर, जब दोनों मेल खाते हैं, तब उसे अनुमान प्रमाण कहा जाता है। यहाँ यह समझना योग्य होगा कि पूर्व अनुभव का चित्त पर अंकन, वर्तमान पदार्थ का प्रत्यक्ष निरीक्षण, परीक्षण और अनुभव और दोनों की तुलना जितनी सटीक या दोषपूर्ण होंगे सत्य का आकलन याने अनुमान प्रमाण भी उतना ही सटीक या दोषपूर्ण होगा। मिथ्या अनुमान जैसे अँधेरे में रस्सी को साँप समझ लेना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता।
३. उपमान : जब किसी साम्य रखनेवाली वस्तु की उपमा देकर बात को समझाया जाता है तब उसे उपमान प्रमाण कहते हैं। जैसे सूर्य उगते ही सूर्य के प्रकाश से अंधेरा दूर हो जाता है उसी प्रकार ज्ञानसूर्य के उदय होते ही अज्ञान का अंधेरा दूर हो जाता है।
४. शब्द या शास्त्रवचन या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक अनुभव कोई भी व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कई अनुभव तो सामान्य व्यक्ति कभी भी नहीं प्राप्त करता या प्राप्त कर सकता। कुछ अनुभव केवल एकबार ही ले सकता है, जैसे सायनाईड का स्वाद। ऐसे कतिपय अनुभव छोड़ भी दें तो भी अनन्त ऐसी परिस्थितियाँ होती हैं कि हर परिस्थिति का अनुभव प्राप्त करना हर मनुष्य के लिए संभव नहीं होता है। ऐसी स्थिति में शास्त्रवचन प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिए तो शास्त्र प्रमाण होता है। लेकिन जो शास्त्रों के जानकार नहीं है, ऐसे सामान्य मनुष्यों के लिए, शास्त्र का ज्ञान रखने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले ज्ञानी व्यक्ति का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे ज्ञानी व्यक्ति को ‘आप्त’ कहते हैं। ‘आप्त’ के वचन को भी प्रमाण माना जाता है।
इन में उपमान याने उपमा से पूरा सत्य नहीं जाना जा सकता। इसलिए उपमान प्रमाण गौण होता है।
सामान्यत: अभारतीय समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु भारतीय परंपरा में और भी एक प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अंत:प्रेरणा या अभिप्रेरणा। यह सिद्धि सब के पास नहीं होती। इस लिए यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिध्दि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है।
सभी प्रमाणों का आधार तो प्रत्यक्ष प्रमाण ही होता है। शास्त्र वचन भी शास्त्र निर्माण कर्ता का कथन होता है। इस कथन का आधार भी उस शास्त्र कर्ता के अपने प्रत्यक्ष दर्शन या अनुभव और अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति के माध्यम से प्राप्त हुई जानकारी ही होती है। इसी जानकारी की प्रस्तुति को शास्त्र कहते है।
शास्त्र की परिभाषा
श्रेष्ठ मीमांसक कुमारिल भट्ट अपने श्लोक वार्तिक में शास्त्र को निम्न शब्दों में परिभाषित करते हैं।
शासनात् शंसनात् शास्त्रम् ।
अर्थ: किसी विषय के ज्ञान को अनुशासन में बांध कर की हुई प्रस्तुति ही शास्त्र है। भारतीय परम्परा में यह अनुशासन ‘सर्वे भवन्तु सुख़िन: सर्वे संतु निरामया:’ का रहा है। अर्थात् जब ‘सर्वे भवन्तु सुख़िन:’ के अनुशासन में बांध कर याने चराचर के हित में किसी विषय के ज्ञान का उपयोग कैसे करना चाहिए इस दृष्टि से प्रस्तुति की जाती है तब वह अनुशासित ज्ञान ‘शास्त्र’ कहलाता है।
शास्त्र की प्रस्तुति का अधिकार
किसी भी विद्वान ने लिखी बात को शास्त्र के रूप में मान्यता नहीं मिलती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त हुई है ऐसे व्यक्ति ने ध्यानावस्था में जो प्रस्तुति की होती है केवल उसी को शास्त्र कहते है। हजारों मूर्धन्य विद्वानों ने एकत्रित आकर भी की हुई प्रस्तुति शास्त्र नहीं हो सकती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त है ऐसे मनुष्य के समक्ष समूची सृष्टि एक खुले पुस्तक के रूप में प्रस्तुत हो जाती है। वह हर वस्तु को उस के आदि से लेकर अंत तक जान जाता है। अंतर्बाह्य जान जाता है। इस लिये उस की प्रस्तुति त्रिकालाबाधित सत्य होती है।
प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान - प्रस्थान त्रयी
भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण हैं। वेद की ऋचाएँ तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है| लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त दर्शन की अनुभूति की उन ऋषियों द्वारा की हुई अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद ऐसी ऋचाओं का संग्रह है। सामान्य विद्वान की बुद्धि के स्तर की ये सब रचनाएँ नहीं है। यह एक ऋषि की प्रस्तुति नहीं है। ‘ऋषि दर्शनात्’ ऐसी ऋषि की परिभाषा है। वेद ज्ञान तो पहले से ही था। जिसने वेद ज्ञान का दर्शन किया वे ऋषि कहलाए। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है, स्वत: प्रमाण भी माना जाता है।
वेदों की विषय वस्तू के मोटे मोटे तीन हिस्से किये जा सकते है। पहला है इस का उपासना पक्ष। दूसरा है कर्मकांड पक्ष। और तीसरा है इन का ज्ञान का पक्ष। यह ज्ञान पक्ष उपनिषदों में अधिक विस्तार से वर्णित है। और उपनिषदों का सार है श्रीमद्भगवद्गीता।
वैदिक दर्शनों के सार के रूप में ब्रह्मसूत्र, वेद ज्ञान के विषदीकरण की दृष्टि से उपनिषद और उपनिषदों के सार के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता इन तीनों को मिला कर 'प्रस्थान त्रयी' कहा जाता है। भारतीय परम्परा में ‘प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान प्रस्थान त्रयी’ है।
वर्तमान साईंस के विकास से पहले तक याने मुष्किल से २००-२५० वर्ष पूर्व तक भारत में प्रस्थान त्रयी को ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रमाण माना जाता था। किन्तु विपरीत शैक्षिक दृष्टि और साईंस की अधूरी दृष्टि के कारण आज इसे कोई महत्व नहीं दिया जाता। ऐसा क्यों? वर्तमान साईंस के विकास के कारण या अन्य कारणों से गत २००-२५० वर्षों में ऐसे कौन से घटक निर्माण हो गये है जिन्हें हम प्रस्थान त्रयी की कसौटि पर नहीं तोल सकते?
संभवतः साईंटिस्टों का कहना है कि निम्न बातों में साईंस ने जो विशेष प्रगति की है उस के कारण प्रस्थान त्रयी को प्रमाण के क्षेत्र में कोई स्थान नहीं दिया जा सकता।
१) साईंस ने नॅनो, बायो और न्यूक्लियर जैसे सूक्ष्मता के क्षेत्रों में और सृष्टि के मूल द्रव्य को जानने की दिशा में बहुत प्रगति की है।
२) साईंस ने अंतरिक्ष की विशालता (कॉसमॉस) के क्षेत्र में बहुत प्रगति की है।
३) साईन्स ने यांत्रिकीकरण में, जिसे कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफ़िशियल इंटेलिजन्स) याने यंत्रमानव निर्माण के क्षेत्र में असाधारण प्रगति की है।
वर्तमान में साईंस ने ये पराक्रम तो किए हैं, इसे कोई नकार नहीं सकता।
प्रमाण की समस्या का समाधान
प्रस्थान त्रयी के माध्यम से अध्यात्म, भारतीय विज्ञान और साईंस का अंगांगी संबंध समझने से ही यह समस्या हल हो सकेगी।
उपर्युक्त तीनों ही क्षेत्र वास्तव में प्रस्थान त्रयी के बाहर के नहीं है। कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफ़िशियल इंटेलिजन्स) तो वास्तव में भौतिक विज्ञान का ही विकसित रूप मात्र है। यंत्र विज्ञान की तरह ही इस के विकास में बुद्धि का संबंध तो है। लेकिन बनाए गए यंत्र का बुद्धि के साथ कोई संबंध नहीं है। वह यंत्र तो उस के निर्माता द्वारा नियोजित कर्म मात्र कर सकता है। यंत्र में अपनी बुद्धि नहीं होती। सूक्ष्मता के क्षेत्र में, अंतरिक्ष ज्ञान के क्षेत्र में और स्वयंचलित यंत्रों (रोबोट्स) के ऐसे तीनों क्षेत्रों में प्रस्थान त्रयी का प्रमाण उपयुक्त ही है। अध्यात्म विज्ञान तो नॅनो से कहीं सूक्ष्म, वर्तमान साईंस की कल्पना से अधिक व्यापक, विशाल और पूरी सृष्टि के निर्माण, रचना और विनाश का ज्ञान रखता है।
सामान्यत: साईंटिस्ट प्रस्थान त्रयी के बारे में जानते ही नहीं है। किन्तु उन्हें समझाने का काम भारतीय शास्त्रों के जानकारों का है। वर्तमान साईंटिस्टों को यह समझाना होगा कि पंचमहाभूतों के साथ मन, बुद्धि और अहंकार के साथ अष्टधा प्रकृति तक सीमा रखने वाला विज्ञान यह अंगी (शरीर) है। और केवल पंचमहाभूतों तक सीमित रहने वाला साईंस उसका अंग (शरीर का अवयव) है। अष्ट्धा प्रकृति से भी अत्यंत सूक्ष्म जो आत्म और परमात्म तत्व हैं उनका क्षेत्र याने अध्यात्म शास्त्र यह तो और भी व्यापक है। अध्यात्म शास्त्र यह अंगी है और अष्टधा प्रकृति की सीमाओं वाला भारतीय विज्ञान उसका अंग है। और इस लिये साईंस, भारतीय विज्ञान और अध्यात्म ज्ञान इन में कोई विरोधाभास नहीं है। यह तीनों तो एक दूसरे से अंगांगी भाव से जुडे विषय है।
पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के निराकरण की साईंस की दृष्टि और भारतीय विज्ञान की दृष्टि, इन दोनों को समझने से इन का परस्पर संबंध और इनमे अंगी और अंग सम्बन्ध समझ में आ जाएँगे| वर्तमान में पर्यावरण के प्रदूषण को दूर करने के लिए बहुत गंभीरता से विचार हो रहा है| प्रमुखता से जल, हवा और पृथ्वी के प्रदूषण का विचार इस में है| यह साईंटिफिक ही है| लेकिन यह अधूरा है| भारतीय विज्ञान की दृष्टि से पर्यावरण याने प्रकृति के आठ घटक हैं| जल, हवा और पृथ्वी इन तीन महाभूतोंका जिनका आज विचार हो रहा है, उनके अलावा आकाश और तेज ये दो महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये सब मिलाकर अष्टधा प्रकृति बनती है| इन में प्रदूषण के लिए जब तक, मन, बुद्धि और अहंकार के प्रदूषण का विचार और इस प्रदूषण का निराकरण नहीं होगा पर्यावरण प्रदूषण के निराकरण की कोई योजना सफल नहीं होगी। इस का तात्पर्य है कि वर्तमान साईंस अंग है और भारतीय विज्ञान अंगी है इसे समझने और उस के अनुसार व्यवहार करने से पर्यावरण प्रदूषण का निराकरण हो जाता है।
वास्तव में भारतीय ज्ञान का दायरा तो उपर्युक्त विज्ञान से भी आगे जाता है। सृष्टि निर्माण से पूर्व परमात्मा अकेला था। सर्वत्र था। अन्य कुछ भी नहीं था। इस लिए परमात्मा अविशेष था। इस अविशेष को जानना ही ‘ज्ञान’ है। परमात्मा ने अपने में से ही जब सृष्टि का सृजन किया तब सृष्टि के अनगिनत अस्तित्व अपनी विशेषताओं के साथ प्रकट हुए। इन ‘विशेष’ अस्तित्वों को जानने को ‘विज्ञान’ याने विशेष का ज्ञान कहते हैं। ज्ञान का ही एक हिस्सा विशेष का ज्ञान याने ‘विज्ञान’ है। अविशेष का ज्ञान और विशेष का ज्ञान दोनों मिल कर ज्ञान का दायरा है। इस में अविशेष जो परमात्म तत्त्व है वह असीम है, अनंत है। इस लिए ज्ञान भी अनंत है। सभी जीवों में वास करने वाले जीवात्मा इस परमात्म तत्त्व के ही अंश है। जो इस सृष्टि के अनगिनत अस्तित्वों के रूप में प्रकट होकर भी शेष है उस परमात्म तत्त्व को जानना ही अध्यात्म है। इस लिए अध्यात्म का ज्ञान ही सर्वव्यापि ज्ञान है। परमात्मा को जानने का तथा परमात्मपद प्राप्त करने का शास्त्र अध्यात्म शास्त्र कहलाता है। इस लिए अध्यात्मशास्त्र सृष्टि से जुड़े जितने भी विषय और उन के शास्त्र हैं, उन सब का अंगी है। विज्ञान अध्यात्म का अंग है और साईंस विज्ञान का उपांग है।
आधुनिक गणित की भाषा में कहें तो अहंकार, बुध्दि, मन और इन्द्रियाँ और पाँच महाभूत याने ‘विज्ञान’ यह परमात्म तत्त्व (Set) को जानने का याने अध्यात्म का एक हिस्सा (Sub Set) हैं। और पाँच महाभूतों को जानने का क्षेत्र याने वर्तमान का साईंस अहंकार, बुद्धि, मन, इंद्रियाँ और पाँच महाभूत, इन का याने विज्ञान के क्षेत्र का एक हिस्सा (Sub Set) है और अध्यात्म के एक हिस्से का हिस्सा (Sub-Sub Set) है। इसे समझने के उपरांत साईंस जो आज पंचमहाभूतों में उलझ गया है, पाँच महाभूतों से परे नहीं जा रहा है, उस का मन, बुद्धि और अहंकार के अध्ययन का क्षेत्र खुल जाता है।
इस अंगांगी भाव को स्थापित करने से ही प्रस्थान त्रयी की पुन: सार्वकालिक और सार्वत्रिक प्रमाण के रूप में स्थापना हो सकेगी तथा प्रमाण से संबंधित समस्या का निराकरण होगा।
संक्षेप में वर्तमान का वास्तव
१) हीनता बोध के कारण पश्चिम की अधूरी बातों को भी प्रमाण मान लिया जाता है। किन्तु भारतीय शास्त्रों को प्रमाण नहीं माना जाता।
२) भारत में भारत के विषय में शोध कार्य होते हैं। किन्तु भारत को श्रेष्ठ बनाने के लिये नहीं।
३) शोध दृष्टि का आधार अभी भी ‘एँथ्रॉपॉलॉजी’ की ही है।
४) अध्यात्म, विज्ञान और साईंस की सही समझ न होने से शास्त्रों के जानकार भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आतंकित होकर साईंस का सीधा सामना करने से बचते रहते हैं।
५) जीवन के भारतीय प्रतिमान की समझ नष्ट हो गई है। वर्तमान अभारतीय प्रतिमान को ही अपना प्रतिमान माना जा रहा। इस कारण हीनता बोध बना रहता है।
६) हम अभारतीय जीवन जी रहे हैं, यह समझ भी नष्ट हो गयी है। अभारतीय जीवन के हम आदि हो गये हैं।
७) भारतीय ज्ञान के चिरंतन तत्त्व जानने वाले लोगों का भी तत्त्व के अनुसार व्यवहार करने का प्रयास अभाव से ही होता है। एकात्मता का जप करते हुए अनात्मवादी, समग्रता की बात करते हुए विखण्डित पध्दति से विचार और व्यवहार हो रहा है।
८) भारतीय ज्ञान के चिरंतन तत्त्व जानने वाले अधिकांश लोगों को यह लगाने लगा है कि ये चिरंतन तत्त्व कितने भी वांछनीय हों इन्हें व्यवहार में अब नहीं लाया जा सकता। अब परिस्थिति बहुत बिगड़ गयी है। अब इसे ठीक करना सम्भव नहीं है। अब आदर्श का विचार छोड़ कर व्यावहारिक का विचार करना ही उचित होगा।
९) अध्यात्मशास्त्र का ज्ञान धीरे धीरे दुर्लभ होता जा रहा है। इन शास्त्रों की युगानुकूल जानकारी रखने वाले, बताने वाले तो ढूण्ढने से भी कदाचित मिलेंगे।
१०) बहुतांश विद्वानों की अब स्वामी विवेकानंद के मार्गदर्शन में श्रद्धा नहीं है। स्वामीजी कहते थे, ‘We should try to realize the Ideals rather than idealize the Real Things याने हमें जो आज व्यावहारिक है उसी को आदर्श न मान कर आदर्श को व्यवहार में लाना चाहिए।
भारतीय शोध दृष्टि के आधार
भारतीय सदा ही वैश्विक ही होता है। शोध की भारतीय दिशा समूचे विश्व के लिए उपयुक्त है। उपर्युक्त परिस्थिति में शोध की वर्तमान अभारतीय सोच को बदलकर भारतीय सोच के अनुसार शोध की दिशा, दृष्टि, उद्देश्य, प्राथमिकताएँ, व्यापकता आदि तय करना भारत के साथ ही समूचे विश्व के लिए हितकारक होगा, प्रासंगिक होगा। भारतीय शोध का आधार प्रस्थान त्रयी है। इस लघु लेखन में प्रस्थान त्रयी की विस्तार से प्रस्तुति आवश्यक नहीं है। प्रस्थान त्रयी के सार के रूप में तीन तत्त्व उभरकर सामने आते हैं। पहला एकात्मता, दूसरा समग्रता और तीसरा धर्म सर्वोपरि होना। इन तीनों को समझना आवश्यक है।
एकात्मता और समग्रता की दृष्टि
चराचर में व्याप्त एकात्मता अनादि काल से भारतीय जीवन का आधार रहा है। इस एकात्मता की सहज व्यावहारिक अभिव्यक्ति ‘कुटुम्ब भावना’ है। भारतीय जीवन में कुटुम्ब भावना ओतप्रोत होती थी। बिल्ली मौसी होती थी। चूहा मामा होता था। चंद्रमा चंदामामा होता था। गाय माता होती थी। गंगा माता होती थी। तुलसी माता होती थी। प्रजा का अर्थ ही संतान होता है। राजा प्रजा का सम्बन्ध पिता पूत्र जैसा होता था। गुरू शिष्य का मानस पिता होता था। भाषण सुनने आए लोग ‘मेरे प्रिय भाईयों और बहनों हुआ करते थे। लेकिन आज हमारा जीवन ऐसा है कि लगे जैसे हमने कुटुम्ब प्रणाली को ध्वस्त करने का संकल्प कर लिया है। हमारे गाँव बड़े कुटुम्ब हुआ करते थे। गावों को हम नष्ट करते जा रहे हैं या शहर बनाते जा रहें हैं। हमारा सारा जीवन अब कुटुम्ब भाव से नहीं ‘संकुचित स्वार्थों’ से ओतप्रोत हो गया है। ‘कुटुम्ब भावना’ के अभाव में चलने वाले शोध कार्य हमें ‘सर्वे भवन्तु सुख़िन:’ से दूर ही ले जाएँगे।
हम कहते तो हैं कि भारतीय दृष्टि हर बात को चराचर में व्याप्त एकात्मता और इस कारण समग्रता से देखने की है। अभारतीयों जैसा हम टुकडों में विचार नहीं करते। किन्तु १० पीढियों की अभारतीय शिक्षा और व्यवस्थाओं के कारण प्रत्यक्ष में तो हम भी टुकडों में ही विचार करने लग गये हैं। अधिकारों के लिये लडने लग गये हैं। एकात्मता की भावना में स्पर्धा के लिये कोई स्थान नहीं रहता। किन्तु हम स्पर्धाओं का आयोजन करते हैं? किसानों की आत्महत्याओं की समस्या क्या मात्र किसानों की है? या पूरे सामाजिक जीवन के प्रतिमान की है? कुटुम्ब टूटने की समस्या क्या केवल कुटुम्बों की समस्या है या पूरे जीवन के प्रतिमान की? किन्तु हम समग्रता में याने जीवन के पूरे प्रतिमान के परिवर्तन का विचार नहीं करते। एकात्म मानव दृष्टि में अधिकारों के लिये संघर्ष की आवश्यकता नहीं होती। कर्तव्य पालन के लिये संघर्ष हो सकते हैं, जो सौहार्द निर्माण करते हैं। किन्तु हमने अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले बडे बडे संगठन बनाये हैं। बनाने की हमारी मजबूरी होगी। लेकिन बनाये तो हैं। गाँव नष्ट हो रहे हैं। जन, धन, उत्पादन के केन्द्रीकरण की समस्या क्या केवल गाँव के विकास की समस्या है? प्रकृति का होने वाला अबाध शोषण क्या केवल दुष्ट स्वभाव के लोगों द्वारा निर्माण की हुई समस्या है? या ये सब समस्याएँ अभारतीय जीवन के प्रतिमान के कारण निर्माण हुई है? इस का विचार होना आवश्यक है।
विभिन्न विषयों का परस्पर संबंध होता है। वह संबंध भी अंग और अंगी के स्वरूप का होता है। अंगांगी होता है। अंग का व्यवहार अंगी के हित के अविरोधी ही होना चाहिये। यह अंग और अंगी दोनों के हित में होता है। लेकिन हम धर्म व्यवस्था, शासन व्यवस्था, कुटुम्ब व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदि व्यवस्थाओं के अंगांगी संबंध ध्यान में रखकर विचार नहीं करते। विभिन्न अध्ययन के विषयों में भी अंग और अंगी संबंध होता है। लेकिन हम इन संबंधों की उपेक्षा कर देते हैं। गणित, विज्ञान को समाज शास्त्र पर, अर्थ व्यवस्था को समाज व्यवस्था पर वरीयता दे देते है। समग्रता से विचार करना अब हमारे स्वभाव में नहीं रहा।
धर्म सर्वोपरि
धर्म की परिभाषा है ‘धारयति इति धर्म:’। जिससे धारणा होती है वह धर्म है। धारणा का अर्थ है बने रहना, सक्षम रहना। और धर्म सर्वोपरि से तात्पर्य है हम जो भी करते हैं वह धर्म सुसंगत हो। धर्म के विपरीत कुछ नहीं करना। धर्म का सब से व्यापक स्तर है सृष्टि के धर्म का। सृष्टि का संचालन जिन नियमों से होता है उन्हें सृष्टि धर्म कहते है। सृष्टि का और सृष्टि में जितने भी अस्तित्व हैं उन का परस्पर अंगांगी सम्बन्ध है। सृष्टि के धर्म के नियमों में सभी अस्तित्वों के धर्मों का समावेश होता है।
अंगांगी सम्बन्धो का एक नियम होता है। कोई भी अंग या उपांग अन्य किसी भी अंग, उपांग या अंगी के विरोधी व्यवहार न करे। ऐसा विरोधी व्यवहार रोग का लक्षण होता है। जैसे कोई भा सामान्यत: अपने हाथों से अपने ही पैर पर हथोड़ा मारता नहीं है। यदि मारता है तो यह माना जाता है कि उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है।
धर्माचरणयुक्त जीवन का अर्थ है सृष्टि के नियमों के अनुसार जीना, व्यवहार करना। सृष्टि संचालन के नियम अलग अलग परिप्रेक्ष्य में अलग अलग होते हैं। पिता पुत्र के संदर्भ में इन नियमों को पुत्रधर्म और पितृधर्म कहते हैं। समाज जीवन सुचारू रूप से चलने के जो नियम हैं उन्हें समाज धर्म कहते है। कोई भी बात जो धर्म के विरोध में सृष्टि के नियमों के विरोध में नहीं है, वह स्वीकार्य है। और जो धर्म विरोधी है वह स्वीकार्य नहीं है। पूरा जीवन धर्ममय होना चाहिए। धर्मयुक्त जीवन से तात्पर्य है विश्व संचालन के नियमों से, इन प्राकृतिक नियमों के साथ समायोजित मानव जीवन से। धर्मयुक्त जीवन सहज और सुखमय हो जाता है। धर्म आचरण का विषय होता है। हर कदम, हर क्षण और हर परिस्थिति में आचरण का मार्गदर्शक तत्त्व होता है। इस लिए शोध कार्य को धर्मानुकूल आचरण से सुसंगत ही होना होगा। गहराई में धर्म की चर्चा हम स्थान के अभाव के कारण यहाँ नहीं कर रहे। धर्म यह पूरे जीवन का और इसी लिए शोध कार्य का भी नियामक तत्त्व है। जिस तरह किसी भी भौतिक क्षेत्र में शोध कार्य करने वाले को ‘गुरुत्वाकर्षण’ के नियमों का तथा उस के संदर्भ में आचरण का ज्ञान होना आवश्यक है। क्यों कि गुरुत्वाकर्षण यह प्रत्येक भौतिक याने भारयुक्त पदार्थ का धर्म है। उसी तरह किसी भी विषय में शोध कार्य करने वाले के लिए, उस विषय के संदर्भ में सृष्टि के नियमों को याने धर्म को याने आचरण या व्यवहार के नियमों को समझना प्राथमिक ज्ञान का विषय होना चाहिए।
शोध कार्य का उद्देश्य
विश्व के सभी विद्वान इस बात से सहमत हैं कि शोध कार्य का उद्देश्य सत्य की खोज ही होता है। भारतीय परम्परा में तो इस का अत्यधिक आग्रह किया गया है।
समस्याएँ दुखदायी होती हैं। समस्याएँ दो प्रकार की होती हैं। प्राकृतिक और मानव निर्मित। सामान्यत: शोध कार्य इन समस्याओं को दूर करने के लिए या समस्याओं की तीव्रता को कम करने के लिए होते हैं।
हर जीव सुख के लिए जीता है। सदासुखी याने हर काल और हर परिस्थिति में सुखी रहना चाहता है। इसलिए स्थल और काल के, ऐसे दोनों ही संदर्भों में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिए सत्य की खोज करना यह शोध कार्य का उद्देश्य होना चाहिए। मानव जीवन में अधिकतर बातें ऐसी हैं जो प्राकृतिक नियमों के अधीन हैं। इन के कारण मनुष्यपर होनेवाले परिणामों और पीड़ाओं से मनुष्य बच नहीं सकता। जैसे बुढ़ापा, शारीरिक सामर्थ्य की मर्यादा, भिन्न भिन्न प्रकार की आवश्यकताएँ, इन की निरंतर पूर्ति होने में अनिश्चितताएँ आदि। इन संकटों का सामना तो मनुष्य को करना ही है। मनुष्य इन संकटों को दूर करने का प्रयास करता रहता है।
मनुष्य अपने प्रयासों को जब प्रकृति के नियमों से सुसंगत रखता है तब वह इन प्राकृतिक संकटों के अनिवार्य परिणामों को कुछ कम कर सकता है। जब मनुष्य के सुख प्राप्ति के प्रयास प्राकृतिक नियमों के अविरोधी होते हैं तब इन परिणामों में वृद्धि नहीं होती लेकिन पीड़ा कुछ कम हो जाती है। जैसे नियमित व्यायाम, आहार विहार आदि के द्वारा मनुष्य अपने स्वास्थ्य को और अच्छा बना सकता है। स्वास्थ्य अच्छा होने से इन संकटों के परिणाम उसे कम प्रभावित करते हैं। जब ये प्रयास प्रकृति के नियमों के विरोधी होते हैं तब मनुष्य समस्याओं को निमंत्रण देता है। इन्हें मानव निर्मित समस्याएँ कहते हैं।
शोध कार्य के मुख्यतः दो उद्देश्य होने चाहिए।
१॰ मानव निर्मित समस्या/समस्याओं को दूर हो। ऐसा करते समय नयी समस्या का निर्माण नहीं करना।
२॰ प्राकृतिक समस्या में राहत मिले
शास्त्र आधारित शोध कार्य
शास्त्रों का निर्माण प्रकृति के नियमों के अनुसार श्रेष्ठ जीवन कैसे जीना चाहिए यह बताने के लिए ही किया जाता है। मनुष्य व्यायाम और आहार-विहार तीन प्रकार से कर सकता है। शास्त्र के अनुसार, शास्त्र के अविरोधी और शास्त्र विरोधी। शास्त्र के अनुसार की हुई बातें उस के स्वास्थ्य को श्रेष्ठ बनाती हैं। जितनी बातें शास्त्र की अविरोधी होंगी उस से मनुष्य को शारीरिक लाभ भले न मिले, उसे मानसिक या बौद्धिक सुख मिलेगा और जितनी बातें शास्त्र विरोधी हैं उन से उन के करने से शारीरिक दृष्टि से हानी होगी। श्रीमदभगवद्गीता के १६ वें अध्याय के २३ वें श्लोक में में कहा है –
य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: । न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।।
भावार्थ : जो शास्त्र के अनुसार व्यवहार नहीं करता है उसे सिद्धि पाप्त नहीं होती है, उसे सुख और परम गति भी प्राप्त नहीं होती है।
कोई भी शोध कार्य शास्त्रों की कसौटीयों पर खरा उतरने वाला, स्थल और काल के संदर्भ में अखण्डता को ध्यान में रख कर ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के माध्यम से सुख की प्राप्ति करवाने वाला होना चाहिए।
शोध कार्य : प्राथमिकता के क्षेत्र
शोध कार्य का केवल उद्देश्य ठीक होना पर्याप्त नहीं है। शोध कार्य के विषयों की समग्रता, व्यापकता, प्राथमिकता, दिशा आदि भी महत्व की बातें हैं।
समाज अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार कर सके इस दृष्टि से कुछ सामाजिक व्यवस्थाओं का निर्माण भी आवश्यक होता है। ये व्यवस्थाएँ ठीक चलें इस दृष्टि से समाज को संगठित करना होता है।
धर्म के अनुकूल या ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ से सुसंगत जीवन वाली हिन्दू जीवनदृष्टि से अधिक श्रेष्ठ जीवनदृष्टि अन्य कोई नहीं है। इस के तीन आधार हैं। चराचर सृष्टि में व्याप्त एकात्मता, समग्रता और धर्म की सर्वोपरिता। इस जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार के सूत्र भी स्पष्ट हैं। जैसे नर करनी करे तो नारायण बन जाए, आत्मवत् सर्वभूतेषु, कर्मसिद्धांत, पुनर्जन्म में श्रद्धा, पूर्णत्व की आस, अष्टांग योग, वसुधैव कुटुंबकम्, आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:, कृण्वंतो विश्वमार्यम् आदि। इन व्यवहार के सूत्रों के सैद्धान्तिक पक्ष को तो लोग जानते हैं। लेकिन प्रत्यक्ष जीवन में इन व्यवहार सूत्रों के क्रियान्वयन की समझ बहुत कम हो गयी है। जैसे ‘सर्वे भवन्तु सुख़िन:’ सूत्र के रूप में तो बहुत अच्छा लगता है। लेकिन इस के अनुसार जीते कैसे हैं, व्यवहार कैसे किया जाता है इसे प्रत्येक व्यक्ति को उसे समझने वाली भाषा में समझाने के लिए चिंतन और प्रस्तुति करनी होगी। इस लिए हिन्दू जीवनदृष्टि पर आधारित व्यवहार सूत्रों के अनुसार व्यवहार यह शोध क्षेत्र का प्राथमिकता का पहला क्षेत्र होगा।
अंग्रेजों ने भारत को जीतने के बाद सब से पहले यहाँ अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था की स्थापना की। शीघ्र ही उन की समझ में आ गया की शिक्षा व्यवस्था को छोड कर अन्य सब समाज जीवन की व्यवस्थाएँ तो भारतीय हैं। शिक्षा के माध्यम से अंग्रेज़ियत में रंगे जो युवक निर्माण हो रहे हैं, उन्हें समाज स्वीकार नहीं कर रहा है। यह ध्यान में आते ही अंग्रेजों ने हिंदुस्तान की शासन, प्रशासन, न्याय, कर-व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था, जल प्रबंधन व्यवस्था आदि सारी की सारी व्यवस्थाओं को बदलकर अंग्रेजी व्यवस्थाओं को स्थापित किया। आज भी हम उन्हीं व्यवस्थाओं में जीवन जी रहे हैं। वर्तमान अभारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं के चलते भारत का इंडिया बन गया है। अभारतीय जीवन में शासन (बलवान) सर्वोपरि होता है। अन्य सभी सामाजिक व्यवस्थाएँ, शासन अपनी सुविधा के लिए निर्माण करता है। सामाजिक जीवन की सभी समस्याएँ हमारे ‘इंडिया’ बनने के कारण हैं। भारतीय जीवन से भटक जाने के कारण हैं। इंडिया को पुन: भारत बनाना है तो जीवन की सभी व्यवस्थाओं के तथा सभी क्षेत्रों के भारतीयकरण के प्रयास करने होंगे। इस लिए व्यवस्थाओं का क्षेत्र, तीसरा महत्व का क्षेत्र होगा। तीन व्यवस्थाओं के विचार करने से सामान्यत: समाज जीवन की सभी व्यवस्थाओं का विचार हो जाता है। ये व्यवस्थाएँ हैं – शिक्षण व्यवस्था, रक्षण व्यवस्था और पोषण व्यवस्था। भारतीय सोच में धर्म सर्वोपरि होता है। इस लिए उपर्युक्त तीनों व्यवस्थाओं को धर्म के नियंत्रण, नियमन और निर्देशन में रखना आवश्यक है। इस कारण हमें ‘धर्म व्यवस्था’ का भी विचार करना होगा, जो इन तीन व्यवस्थाओं को धर्मानुकूल रख सके। समाज के प्रत्येक सदस्य की आवश्यकताओं और क्षमताओं के अनुसार उस के शिक्षण, रक्षण और पोषण के लिए व्यवस्थाओं निर्माण करना होता है। भारत में धर्म व्यवस्था और शिक्षण व्यवस्था सदैव समेकित रही हैं। इस तरह धर्म/शिक्षण, रक्षण और पोषण ऐसी तीन व्यवस्थाओं के वाचस्पत्योत्तर (Post Doctoral) स्तर के शास्त्रों की प्रस्तुति शोध क्षेत्र का प्राथमिकता का दूसरा क्षेत्र होगा।
उपर्युक्त सूत्रों के आधार पर जीवन चल सके इस दृष्टि से हमारे पूर्वजों ने समाज को संगठित किया था। संगठन यह धर्माचरण का साधन होता है। इसी लिए हिन्दू समाज अपने सामाजिक संगठन को वर्णाश्रम धर्म कहता है। इन में कुटुंब, ग्राम(कुल), आश्रम, जाति प्रणाली आदि संगठन प्रणालियों का समावेश होता है। सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज का केवल संगठित होना पर्याप्त नहीं होता। हिन्दू समाज के इस वर्णाश्रम संगठन की विशेषता समग्रता भी है। यह सम्पूर्ण समाज में व्याप्त है। समाज का कोई सदस्य इस के बाहर नहीं होता। साथ ही में यह प्रत्येक के हित के लिए बनी है। समग्रता के कारण इस में अंतर्विरोधों को कोई स्थान नहीं होता। वर्तमान में हमारे सामाजिक संगठनों का स्वरूप अभारतीय है। इन का निर्माण विखण्डित सोच के परिणाम के कारण है। इन संगठनों में आपस में टकराव, अनबन होती रहती है। ऐसे टकराव और अनबन के कारण समाज स्वास्थ्य बिगड़ता है। समाज दुर्बल हो जाता है। लेकिन व्यापकता से संगठित समाज की सामाजिक व्यवस्थाएँ भी अधिक प्रभावी रूप से काम कर सकती हैं। इस लिए हिंदु समाज की, सामाजिक संगठन और संगठन की प्रणालियाँ यह हमारे शोध क्षेत्र का प्राथमिकता का तीसरा क्षेत्र होगा।
शोध विषयों की व्याप्ति
जीवन के व्यवहार सूत्र और व्यवहार : धर्म, एकात्मता और समग्रता ये जीवनदृष्टी के सूत्र हैं। इन के आधार से बने व्यवहार सूत्रों के अनुसार जीने की शिक्षा आज बंद हो गई है। इन्हें शिक्षा में ओतप्रोत करने के लिए युगानुकूल अध्ययन और अनुसंधान की आवश्यकता है। जैसे सर्वे भवन्तु सुखिन: याद करना, लिखना तो सरल काम है लेकिन उस के अनुसार जीवन जीना सरल नहीं है। इस के लिए मन की शिक्षा की आवश्यकता होती है। वर्तमान अभारतीय शिक्षा में केवल बुद्धि और उस के उपयोग से भौतिक सुख प्राप्ति के लिए अर्थार्जन का विचार है, मन की शिक्षा का विचार अभाव से ही है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत व्यवहार को श्रेष्ठ बनाने के लिए शोध कार्य करना है। इस में व्यक्तिगत धर्मों की श्रेष्ठता के लिए भी शोध कार्य करने हैं।
सामाजिक संगठन या समाज धर्म का क्षेत्र : यह मुख्यत: वर्णाश्रम धर्म का क्षेत्र है। इस में समाज के अस्तित्व के लिए, समाज के बने रहने के लिए याने दीर्घायु के लिए, समाज स्वास्थ्य के लिए, सामाजिक एकात्मता और समग्रता की प्रतिष्ठा के लिए शोध कार्य अपेक्षित है। संक्षेप में कहें तो समाज की शिक्षण, रक्षण और पोषण की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक संगठन के विषय में शोध कार्य अपेक्षित है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। उस की आवश्यकताएँ और क्षमताएँ भिन्न होती हैं। ऐसे प्रत्येक व्यक्ति के संभाव्य विकास के उच्चतम स्तर तक उस का विकास हो इस दृष्टि से शिक्षण, रक्षण और पोषण की व्यवस्थाएँ निर्माण हो सकें और वे अच्छी तरह से चल सकें इस दृष्टि से सामाजिक संगठन के निर्माण के लिए अध्ययन और अनुसंधान हो। कुटुंब, आयु की चार अवस्थाएँ याने आश्रम, कौटुंबिक उद्योग, ग्राम (विस्तारित कुटुंब), वर्ण और जाति जैसी सामाजिक संगठन की प्रणालियों के संदर्भ में शोध कार्य अपेक्षित है। प्राचीन काल से चली आ रही इन प्रणालियों का निर्दोष स्वरूप क्या था, प्रणालियाँ कितनी आवश्यक थीं, क्या इन के कारण हिन्दू समाज पतित हुआ है, दुर्बल हुआ है, क्या इन के कोई लाभ नहीं थे, यदि लाभ थे तो क्या उन लाभों की प्राप्ति के साथ कोई विकल्प इन के लिए निर्माण किए जा सकते हैं, ऐसे विकल्पों को समाज जीवन में स्थापित कैसे कर सकेंगे आदि हमारे शोध के विषय बन सकेंगे। लेकिन शोध की दृष्टि भारतीय रखनी होगी। वर्तमान अभारतीय दृष्टि से तो इन संगठन प्रणालियों को त्याज्य विषय ही माना जा रहा है। इन्हें तोड़ने के कारण नई नई समस्याओं का निर्माण हो रहा है, यह जानने के उपरांत भी इन को तोड़ा जा रहा है। इन के निर्दोष स्वरूप से श्रेष्ठ अन्य कोई प्रणालियाँ हम विकसित कर सकते हैं तो उन के लिए भी शोध कार्य हों।
सामाजिक संगठन और सामाजिक व्यवस्थाओं की व्याप्ति का एक पहलू तो यह है कि इस में समाज के प्रत्येक व्यक्ति का समावेश होता है। साथ ही में प्रत्येक व्यक्ति के हित का भी विचार होता है।
व्यवस्थाओं का क्षेत्र : पूर्व में हम देख आए हैं की शोध का प्राथमिकता का क्षेत्र चार प्रकार की व्यवस्थाओं का है। इन में से किसी भी एक का जैसे रक्षण व्यवस्था का उदाहरण लेकर इन चारों व्यवस्थाओं के शोध क्षेत्र की व्याप्ति को हम समझ सकेंगे।
रक्षण व्यवस्था के लिए दो बातें आधारभूत होती हैं। पहली बात याने रक्षक या शासक और दूसरी बात है रक्षण व्यवस्था या शासन व्यवस्था। शासक और शासन व्यवस्था इन दोनों में से एक में भी बिगाड़ होगा तो व्यवस्था का लक्ष्य दूर रहेगा। श्रेष्ठ शासक का निर्माण और श्रेष्ठ शासन व्यवस्था का निर्माण ये दो इस विषय के मुख्य पहलू हैं। आगे श्रेष्ठ शासक के फिर दो आवश्यक पहलू ध्यान में आते हैं। पहला है शासक के गुण-लक्षण। किस प्रकार के गुण लक्षण होने से शासक श्रेष्ठ कहलाएगा, वे लक्षण स्पष्ट हों। लेकिन केवल शासक के गुण-लक्षण बताने से तो शास्त्र अधूरा रह जाएगा। इस लिए साथ ही में शास्त्र का दूसरा पहलू होगा ऐसा श्रेष्ठ शासक निर्माण कैसे निर्माण किया जाएगा, यह भी बताना। श्रेष्ठ शासक निर्माण के भी दो तरीके हो सकते हैं। पहला है वर्तमान लोगों में से श्रेष्ठ शासक के गुण-लक्षणों वाला मनुष्य खोजने की प्रक्रिया। और दूसरा है ऐसे श्रेष्ठ शासक बनने योग्य जीवात्मा को आवाहन कर उसे जन्म देना, उसे संस्कारित, शिक्षित और प्रशिक्षित करना।
रक्षण शास्त्र की व्याप्ति की दृष्टि से श्रेष्ठ शासक निर्माण में एक और बिन्दु का विचार करना भी आवश्यक है। वह है इस प्रस्तुति का स्तर क्या होना चाहिये? यह स्तर पोस्ट डॉक्टोरल याने वाचस्पत्योत्तर स्तर का याने रक्षण शास्त्र में जो विद्या वाचस्पति होगा उस से भी अधिक श्रेष्ठ स्तर का होना चाहिये। ऐसा होने से शासक निर्माण की प्रक्रिया में आयु की अवस्थाऑन के अनुसार उस के संस्कार, शिक्षण, प्रशिक्षण की व्यवस्था की जा सकेगी।
येही सब बातें धर्म शास्त्र, शिक्षण शास्त्र और पोषण शास्त्र की प्रस्तुति में आनी चाहिए।
समग्रता की दृष्टि
पूरे जीवन के प्रतिमान का विचार करना होगा। स्थल और काल की अखण्डता के विषय में भी विचार करना होगा। भारतीय और अभारतीय जीवनदृष्टि में भिन्नता होने के कारण भारतीय प्रतिमान अभारतीय प्रतिमान से भिन्न है। और भारतीय जीवनदृष्टि की श्रेष्ठता के कारण जीवन के अभारतीय प्रतिमान से भारतीय प्रतिमान श्रेष्ठ भी है। इस लिए उपर्युक्त सभी शोध कार्यों का विचार जीवन के भारतीय प्रतिमान के संदर्भ में करना ही उचित होगा। यद्यपि अंग्रेजों की दृष्टि विखण्डित है तथापि अंग्रेजी भाषा का एक वाक्य महत्वपूर्ण है। थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली। कुछ भी काम करना हो तो पहले उस के विश्व के सभी अस्तित्वोंपर होनेवाले परिणाम हितकारी हैं या नहीं इस का विचार करो। और यदि वे परिणाम हितकारी हों तो उसे करो, अन्यथा न करो। अंग्रेजी में समग्रता के लिए ‘(Holistic) होलिस्टिक’ शब्द का प्रयोग होता है।
अपार हित हो अपना लेकिन अन्यों का नुक़सान न हो। नहीं करें जिन कर्मों में भी रत्तीभर परपीड़ा हो ।।
उपसंहार
वर्तमान भारत हीनता बोध से ग्रस्त है, समस्याओं से त्रस्त है, गुलामी में ही मस्त है इसी कारण शोध के क्षेत्र में अस्तव्यस्त है। इस की जीवनदृष्टि अभारतीय बन गई है, व्यवहार अभारतीय हो गये हैं। हमारा सामाजिक संगठन का ढाँचा लगभग ध्वस्त हो गया है। व्यवस्थाएँ सारी की सारी अभारतीय हैं। ऐसे में सब से पहली बात तो भारतीय जीवन और अभारतीय जीवन के अंतर को समझने की है। भारतीय जीवनदृष्टि, व्यवहार के सूत्र, सामाजिक संगठन की प्रणालियाँ और सामाजिक व्यवस्थाओं के भारतीय स्वरूप को भी गहराई से समझना होगा। परिवर्तन की प्रक्रिया में शोध कार्यों की अत्यंत प्राथमिक और महत्वपूर्ण भूमिका होगी। यह शोध कार्य समग्रता की दृष्टि से जितने व्यापक, एकात्मता की दृष्टि से गहरे और तेजस्वी होंगे आगे की परिवर्तन की प्रक्रिया कम कठिन होगी।
संक्षेप में हमें निम्न बिन्दुओं को हमारे शोध कार्य की प्राथमिकता के विषय बनाना होगा।
१. जीवन का वर्तमान अभारतीय प्रतिमान जो सभी मानव निर्मित समस्याओं का निर्माता है।
२. जीवन का भारतीय प्रतिमान
- सृष्टि निर्माण की मान्यता - जीवनदृष्टि - व्यवहार सूत्र
- सामाजिक संगठन और - सामाजिक व्यवस्थाएँ
३. जीवन के अभारतीय प्रतिमान से मुक्त होकर जीवन के भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठापना की ‘करने’ की नहीं ‘होने’ की प्रक्रिया तथा विश्व के सभी समाज, जीवन के भारतीय प्रतिमान का स्वीकार करें इस दृष्टि से ‘स्वं स्वं चरित्रम् शिक्षेरन्’ की प्रक्रिया
अनादि काल से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भारत विश्वगुरु रहा है। इस का कारण भारत में सामाजिक संगठन और सामाजिक व्यवस्थाओं के माध्यम से एक ओर हर व्यक्ति के लिए उस की क्षमताओं के संभाव्य उच्चतम स्तर तक विकास करने की आश्वस्ति होती थी। तो दूसरी ओर उस के पोषण के लिए आवश्यक अन्न की उपलब्धता की आश्वस्ति होती थी। इन दो आश्वस्तियों के कारण आजीविका की जिन्हें चिंता नहीं हैं ऐसे समग्रता में विकसित व्यक्तित्व वाले लोग अपनी अपनी रुचि के क्षेत्र में रम जाते थे। लीन हो जाते थे। इन दोनों की आश्वस्ति के कारण अपने क्षेत्र में उच्चतम शिखरों को प्राप्त करते थे।
भारत एक प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध ऐसा देश है। मानवीय प्रतिभा में भी भारत अद्वितीय है। इस पृष्ठभूमि के कारण शोध कार्य ही नहीं तो आगे की जीवन के भारतीय प्रतिमान की समूचे विश्व में पुन: प्रतिष्ठापना करने तक ऐसी कोई बात नहीं जो हमारे लिए असंभव होगी। विश्व के अन्य देश भी जीवन के भारतीय प्रतिमान का स्वीकार करे यह भी आवश्यक है। अन्यथा हम भी भारतीय जीवन नहीं जी सकेंगे। इसे ही ध्यान में रख कर हमारे पूर्वजों ने ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ विचार हमें विरासत में दिया है। किसी भी सामाजिक परिवर्तन की भारतीय प्रक्रिया क्रान्ति की नहीं उत्क्रांति की होती है, ‘करने’ की नहीं ‘होने’ की होती है।
अल्प होगा लेकिन भारत में आज भी समाज में ऐसा वर्ग है जो स्वामी विवेकानंद के मार्गदर्शन में श्रद्धा रखता है। यह अत्यल्प वर्ग आदर्श को सामने रख कर उसे व्यवहार बनाने की दृष्टि से प्रयत्नशील है। यह वर्ग यह भी जानता है कि यह काम अत्यंत कठिन और धैर्य से करने का है। यह वर्ग भारत की सारे विश्व को आर्य बनाने के परमात्मा प्रदत्त दायित्व के निर्वहन के लिए संकल्पबद्ध है।
References
- ↑ दिलीप केलकर, भारतीय शिक्षण मंच