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== नैतिकता का अभाव ==
 
== नैतिकता का अभाव ==
अब इसका परिणाम यह हुआ कि ईश्वर और मनुष्य का, ज्ञान और क्रिया का, भौतिक और पराभौतिक का, विचार और आचार का जो अन्तरंग सम्बन्ध है जो उनकी अन्योन्याश्रितता है, जो उनकी interdependence है वह समाप्त हो गई, ओझल हो गई। world view की जो integrity थी, विश्वदृष्टि की जो समग्रता थी, जिसे आज कल हम लोग holistic कहते हैं, वह समाप्त हो गई। अब दृष्टि रह गई partial, आधी-अधूरी fragmented | हमने टुकडों टुकड़ों में चीजों को देखना आरम्भ किया। और हमने संकट को कभी राजनीतिक मानकर उसके राजनीतिक उपाय करके समाधान करना चाहा, कभी आर्थिक मानकर उसके आर्थिक उपाय करके समाधान करना चाहा तो कभी उसको सामाजिक मानकर सामाजिक उपाय अपनाने आरम्भ किये। लेकिन संकट तो नैतिक था,' the crisis was moral and spiritual' बीमारी कुछ और उपचार कुछ ऐसा होने से रोग बढ़ता ही गया । जो राजनीतिक जीवन के संकट हैं, जो आर्थिक जगत के भी संकट हैं, जो परिवार के संकट है उसको हम ध्यान से देखें तो जान सकेंगे कि हमारा मूल संकट है आत्मिक-नैतिक (spiritual - moral) जिसकी इन अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ हैं । भ्रष्टाचार से हम सब लोग ग्रस्त हैं, वो कोई राजनीतिक प्रश्न है, प्रशासनिक प्रश्न है क्या ? यह तो नैतिक प्रश्न है। नवउदारवाद में अगर मुनाफाखोरी है, बेरजोगारी है तो क्यों हैं ? क्योंकि जिनके पास धन है उनकी दृष्टि दूषित है, उनकी दृष्टि अनैतिक है। तो इस प्रकार की ही अर्थव्यवस्था बनेगी जो शोषण पर आधारित होगी, अन्याय पर आधारित होगी। अतः जो मूल बात है, उस की ओर ध्यान ही नहीं गया । जो पहला काम था देश के निर्माण का, मनुष्य निर्माण का वह होना चाहिए था। मनुष्य पर अच्छे संस्कार होने चाहिए थे, मनुष्य को सम्यक् दृष्टि मिलनी चाहिए थीं वो तो मिली नहीं । हमने अपना आर्थिक निर्माण किया, राजनैतिक निर्माण किया । दूसरे तरह-तरह के निर्माण किये लेकिन जो मूल दायित्व था उसकी कतई उपेक्षा की। परिणाम क्या हुआ ? परिणाम यह हुआ कि आरम्भ में जब तक पुराना चरित्र बल था, ५० व ६० के दशक तक जो चरित्र बल था, वह कायम रहा तब तक संस्थायें फिर भी ठीक-ठाक चलती रहीं। लेकिन पिछली तीन-चार पीढियों में जब से यह नई सोच नया चरित्र आया है तो अब कुछ भी ठीक-ठाक नहीं चल सकता है क्यों कि अपवाद अगर छोड़ दीजिए तो चरित्र अब कोई बड़ी सम्पत्ति नहीं रहा । हमारा चरित्र अब कोई primary consideration नहीं रहा। यह केवल कहने की बात रह गई कि 'when character is lost everything is lost' | किसी को भी इसकी चिन्ता है नहीं । अतः जब मूल प्रश्न की उपेक्षा हुई तो गाँधीजी ने हिन्द स्वराज में कहा कि मेरी शिकायत अंग्रेजों से नहीं है, मेरी लड़ाई अंगेजों से नहीं है, अंग्रेजियत से है, इस पश्चिमी सभ्यता से है, इस पश्चिमी जीवन दृष्टि से है। अंग्रेज तो ठीक है, आज हैं, कल चले जायेंगे, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता । कब तक रहेंगे हमारे यहाँ । लेकिन ये जो दृष्टि आ गई है, ये कब जायेगी मुझे इसकी चिन्ता है। 'भारत आजाद होने के बाद जो मार्ग चुना जा रहा था, वह उसके निर्माण का मार्ग नहीं था। तो एक प्रश्न यह है कि बुद्धि का क्षरण हुआ, जिससे हमारी दृष्टि का विखण्डन हुआ और हम टुकडों-टुकडों में समस्याओं को देखने व समाधान करने में लग गये । मूल प्रश्न क्या है और उस मूल प्रश्न की ओर समग्र दृष्टि से देखा जाना क्यों आवश्यक है, यह शायद चिन्ता नहीं रही।
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अब इसका परिणाम यह हुआ कि ईश्वर और मनुष्य का, ज्ञान और क्रिया का, भौतिक और पराभौतिक का, विचार और आचार का जो अन्तरंग सम्बन्ध है जो उनकी अन्योन्याश्रितता है, जो उनकी interdependence है वह समाप्त हो गई, ओझल हो गई। world view की जो integrity थी, विश्वदृष्टि की जो समग्रता थी, जिसे आज कल हम लोग holistic कहते हैं, वह समाप्त हो गई। अब दृष्टि रह गई partial, आधी-अधूरी fragmented | हमने टुकडों टुकड़ों में चीजों को देखना आरम्भ किया। और हमने संकट को कभी राजनीतिक मानकर उसके राजनीतिक उपाय करके समाधान करना चाहा, कभी आर्थिक मानकर उसके आर्थिक उपाय करके समाधान करना चाहा तो कभी उसको सामाजिक मानकर सामाजिक उपाय अपनाने आरम्भ किये। लेकिन संकट तो नैतिक था,' the crisis was moral and spiritual' बीमारी कुछ और उपचार कुछ ऐसा होने से रोग बढ़ता ही गया । जो राजनीतिक जीवन के संकट हैं, जो आर्थिक जगत के भी संकट हैं, जो परिवार के संकट है उसको हम ध्यान से देखें तो जान सकेंगे कि हमारा मूल संकट है आत्मिक-नैतिक (spiritual - moral) जिसकी इन अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ हैं । भ्रष्टाचार से हम सब लोग ग्रस्त हैं, वो कोई राजनीतिक प्रश्न है, प्रशासनिक प्रश्न है क्या ? यह तो नैतिक प्रश्न है। नवउदारवाद में अगर मुनाफाखोरी है, बेरजोगारी है तो क्यों हैं ? क्योंकि जिनके पास धन है उनकी दृष्टि दूषित है, उनकी दृष्टि अनैतिक है। तो इस प्रकार की ही अर्थव्यवस्था बनेगी जो शोषण पर आधारित होगी, अन्याय पर आधारित होगी। अतः जो मूल बात है, उस की ओर ध्यान ही नहीं गया । जो पहला काम था देश के निर्माण का, मनुष्य निर्माण का वह होना चाहिए था। मनुष्य पर अच्छे संस्कार होने चाहिए थे, मनुष्य को सम्यक् दृष्टि मिलनी चाहिए थीं वो तो मिली नहीं । हमने अपना आर्थिक निर्माण किया, राजनैतिक निर्माण किया । दूसरे तरह-तरह के निर्माण किये लेकिन जो मूल दायित्व था उसकी कतई उपेक्षा की। परिणाम क्या हुआ ? परिणाम यह हुआ कि आरम्भ में जब तक पुराना चरित्र बल था, ५० व ६० के दशक तक जो चरित्र बल था, वह कायम रहा तब तक संस्थायें तथापि ठीक-ठाक चलती रहीं। लेकिन पिछली तीन-चार पीढियों में जब से यह नई सोच नया चरित्र आया है तो अब कुछ भी ठीक-ठाक नहीं चल सकता है क्यों कि अपवाद अगर छोड़ दीजिए तो चरित्र अब कोई बड़ी सम्पत्ति नहीं रहा । हमारा चरित्र अब कोई primary consideration नहीं रहा। यह केवल कहने की बात रह गई कि 'when character is lost everything is lost' | किसी को भी इसकी चिन्ता है नहीं । अतः जब मूल प्रश्न की उपेक्षा हुई तो गाँधीजी ने हिन्द स्वराज में कहा कि मेरी शिकायत अंग्रेजों से नहीं है, मेरी लड़ाई अंगेजों से नहीं है, अंग्रेजियत से है, इस पश्चिमी सभ्यता से है, इस पश्चिमी जीवन दृष्टि से है। अंग्रेज तो ठीक है, आज हैं, कल चले जायेंगे, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता । कब तक रहेंगे हमारे यहाँ । लेकिन ये जो दृष्टि आ गई है, ये कब जायेगी मुझे इसकी चिन्ता है। 'भारत आजाद होने के बाद जो मार्ग चुना जा रहा था, वह उसके निर्माण का मार्ग नहीं था। तो एक प्रश्न यह है कि बुद्धि का क्षरण हुआ, जिससे हमारी दृष्टि का विखण्डन हुआ और हम टुकडों-टुकडों में समस्याओं को देखने व समाधान करने में लग गये । मूल प्रश्न क्या है और उस मूल प्रश्न की ओर समग्र दृष्टि से देखा जाना क्यों आवश्यक है, यह शायद चिन्ता नहीं रही।
    
== समग्र दृष्टि का अभाव ==
 
== समग्र दृष्टि का अभाव ==

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