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भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की प्रतिष्ठापना के प्रयास भी १९ वीं सदी से ही आरम्भ हो गये थे। यह प्रयास रवींद्रनाथ ठाकुर, स्वामी दयानंद सरस्वती, मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य टिळक, बिपिनचंद्र पाल , महात्मा गांधी जैसे दिग्गजों ने किये थे। किंतु शिक्षा राष्ट्रीय नहीं बनीं। स्वाधीनता के उपरांत भी यह प्रयास हुए। विद्या भारती के द्वारा, गायत्री परिवार के द्वारा, अन्यान्य संतों द्वारा हजारों की संख्या में भारत में विद्यालय और गुरुकुल चलाए जाते है। किंतु शिक्षा भारतीय बनती दिखाई नहीं देती।
 
भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की प्रतिष्ठापना के प्रयास भी १९ वीं सदी से ही आरम्भ हो गये थे। यह प्रयास रवींद्रनाथ ठाकुर, स्वामी दयानंद सरस्वती, मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य टिळक, बिपिनचंद्र पाल , महात्मा गांधी जैसे दिग्गजों ने किये थे। किंतु शिक्षा राष्ट्रीय नहीं बनीं। स्वाधीनता के उपरांत भी यह प्रयास हुए। विद्या भारती के द्वारा, गायत्री परिवार के द्वारा, अन्यान्य संतों द्वारा हजारों की संख्या में भारत में विद्यालय और गुरुकुल चलाए जाते है। किंतु शिक्षा भारतीय बनती दिखाई नहीं देती।
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गांधीजी ने १९४४ में द्वितीय विश्वयुध्द समाप्त होने से पूर्व जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा था और स्वाधीन भारत के मार्गक्रमण का आधार क्या होगा इस विषय में चर्चा छेडी थी। इस के उत्तर मे नेहरूजी ने भी लिखा था की आप के हिंद स्वराज पुस्तक में लिखे विचार मैंने १९३० में पढे थे। मैं आप के विचारों से तब भी सहमत नहीं था और आज भी सहमत नहीं हूं। इस पर गांधीजी ने फिर नेहरूजी को लिखा था कि ठीक है। फिर भी इस विषय पर लोगोंं को तय करने दो कि स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा। नेहरूजी ने गांधीजी को फिर पत्र लिख कर कहा की स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा यह स्वाधीन भारत के निर्वाचित लोग तय करेंगे। आप कृपया यह बहस अभी नहीं छेडें। गांधीजी ने बहस बंद कर दी। जवाहरलाल नेहरुजी के विचारों से सहमति नहीं होने के उपरांत भी गांधीजी की दृष्टि से जो देशहित था, उस को भी गांधीजी ने दाँव पर क्यों लगाया यह एक खोज का विषय ही है।
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गांधीजी ने १९४४ में द्वितीय विश्वयुध्द समाप्त होने से पूर्व जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा था और स्वाधीन भारत के मार्गक्रमण का आधार क्या होगा इस विषय में चर्चा छेडी थी। इस के उत्तर मे नेहरूजी ने भी लिखा था की आप के हिंद स्वराज पुस्तक में लिखे विचार मैंने १९३० में पढे थे। मैं आप के विचारों से तब भी सहमत नहीं था और आज भी सहमत नहीं हूं। इस पर गांधीजी ने फिर नेहरूजी को लिखा था कि ठीक है। तथापि इस विषय पर लोगोंं को तय करने दो कि स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा। नेहरूजी ने गांधीजी को फिर पत्र लिख कर कहा की स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा यह स्वाधीन भारत के निर्वाचित लोग तय करेंगे। आप कृपया यह बहस अभी नहीं छेडें। गांधीजी ने बहस बंद कर दी। जवाहरलाल नेहरुजी के विचारों से सहमति नहीं होने के उपरांत भी गांधीजी की दृष्टि से जो देशहित था, उस को भी गांधीजी ने दाँव पर क्यों लगाया यह एक खोज का विषय ही है।
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नेहरूजी शिक्षा और संस्कारों से अंग्रेजीयत में रंगे हुए थे। फिर भी अनाकलनीय कारणों से उन्हें गांधीजी का समर्थन प्राप्त था। इस लिये अंग्रेज जाने के बाद भी स्वाधीन भारत में अंग्रेजी शिक्षा की लीक पर ही भारत की शिक्षा चलती रही। महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा चलाए गये गुरूकुल, रवींद्रनाथ ठाकूर द्वारा चलाए जा रहे शांति निकेतन आदि और गांधीजी द्वारा चलाए जा रहे बुनियादी शिक्षा के विद्यालय, यहाँ तक की स्वायत्त गुजरात विद्यापीठ जैसे राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग भी धीरे धीरे इसी पश्चिमी ज्ञानधारा में विसर्जित हो गये।
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नेहरूजी शिक्षा और संस्कारों से अंग्रेजीयत में रंगे हुए थे। तथापि अनाकलनीय कारणों से उन्हें गांधीजी का समर्थन प्राप्त था। इस लिये अंग्रेज जाने के बाद भी स्वाधीन भारत में अंग्रेजी शिक्षा की लीक पर ही भारत की शिक्षा चलती रही। महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा चलाए गये गुरूकुल, रवींद्रनाथ ठाकूर द्वारा चलाए जा रहे शांति निकेतन आदि और गांधीजी द्वारा चलाए जा रहे बुनियादी शिक्षा के विद्यालय, यहाँ तक की स्वायत्त गुजरात विद्यापीठ जैसे राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग भी धीरे धीरे इसी पश्चिमी ज्ञानधारा में विसर्जित हो गये।
    
गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी लिखते है<ref>धर्मपालजी, भारतीय परंपरा (पुनरूत्थान ट्रस्ट द्वारा अनुवादित और प्रकाशित) पृष्ठ 14</ref>:
 
गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी लिखते है<ref>धर्मपालजी, भारतीय परंपरा (पुनरूत्थान ट्रस्ट द्वारा अनुवादित और प्रकाशित) पृष्ठ 14</ref>:
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तात्पर्य यह है कि हर समाज की मान्यताओं में भिन्नता होती है । इन मान्यताओं के आधार पर वह समाज व्यवहार करे ऐसी अपेक्षा की जाती है। ऐसा व्यवहार व्यक्ति कर सके इस के लिये अनुकूल और अनुरूप व्यवस्थाएं निर्माण की जातीं है। ऐसा करने से समाज का जीवन सुचारू रूप से चलता है।  
 
तात्पर्य यह है कि हर समाज की मान्यताओं में भिन्नता होती है । इन मान्यताओं के आधार पर वह समाज व्यवहार करे ऐसी अपेक्षा की जाती है। ऐसा व्यवहार व्यक्ति कर सके इस के लिये अनुकूल और अनुरूप व्यवस्थाएं निर्माण की जातीं है। ऐसा करने से समाज का जीवन सुचारू रूप से चलता है।  
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यह प्रक्रिया दुनिया भर के सभी देशों को लागू है। आजकल व्हॅल्यू एज्युकेशन का बोलबाला है। दुनियाभर के लोग आज अनेकों भीषण समस्याओं से जूझ रहे है। महिलाओं पर अत्याचार बढ रहे है। बेरोजगारी के कारण युवक वर्ग गुनहगारी की दिशा में खींचा जा रहा है। पर्यावरण के संरक्षण की बातें तो हो रही है फिर भी हवा, पानी और जमीन का प्रदूषण बढता ही जा रहा है। प्लॅस्टिक के कचरे के अंबार लग रहे है। आण्विक कचरे और आण्विक विकीरणों के कारण नयी पीढी में जन्मगत विकृतियाँ आ रही है। कार्य के घण्टे बढ रहे है और जीना कम हो रहा है। युवकों को आयु से पूर्व ही बुढापा घेर रहा है। निराधार महिलाओं के लिये महिलाश्रम, वृध्दाश्रम, अनाथाश्रम बढ रहे है। उच्च शिक्षा विभूषित युवक अपने माता पिताओं को वृध्दाश्रमों मे धकेल रहे है। इसीलिये युनेस्को की पहल से सभी देशों में व्हॅल्यू एज्युकेशन (मूल्यशिक्षा) का विचार किया जा रहा है। भारत में भी हो रहा है। अंग्रेज भारत में आए तब भारत अपने पतन के निम्नतम स्तरपर था। फिर भी सामान्य भारतीय मनुष्य की नीतिमत्ता ब्रिटिश पादरी से श्रेष्ठ पाई गई थी, इसीलिये १७९२ की चार्टर डिबेट में चर्चा के बाद, भारत के ईसाईकरण के लिये भारत में पादरी भेजने की योजना को रोक दिया गया था। जीवनमूल्यों की शिक्षा का विचार भारत में प्राचीन काल से अंग्रेज पूर्व काल तक की शिक्षा के इतिहास में कभी भी ऐसा अलग से किया नहीं किया गया था। किंतु अब विदेशी विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में यह हो रहा है।  
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यह प्रक्रिया दुनिया भर के सभी देशों को लागू है। आजकल व्हॅल्यू एज्युकेशन का बोलबाला है। दुनियाभर के लोग आज अनेकों भीषण समस्याओं से जूझ रहे है। महिलाओं पर अत्याचार बढ रहे है। बेरोजगारी के कारण युवक वर्ग गुनहगारी की दिशा में खींचा जा रहा है। पर्यावरण के संरक्षण की बातें तो हो रही है तथापि हवा, पानी और जमीन का प्रदूषण बढता ही जा रहा है। प्लॅस्टिक के कचरे के अंबार लग रहे है। आण्विक कचरे और आण्विक विकीरणों के कारण नयी पीढी में जन्मगत विकृतियाँ आ रही है। कार्य के घण्टे बढ रहे है और जीना कम हो रहा है। युवकों को आयु से पूर्व ही बुढापा घेर रहा है। निराधार महिलाओं के लिये महिलाश्रम, वृध्दाश्रम, अनाथाश्रम बढ रहे है। उच्च शिक्षा विभूषित युवक अपने माता पिताओं को वृध्दाश्रमों मे धकेल रहे है। इसीलिये युनेस्को की पहल से सभी देशों में व्हॅल्यू एज्युकेशन (मूल्यशिक्षा) का विचार किया जा रहा है। भारत में भी हो रहा है। अंग्रेज भारत में आए तब भारत अपने पतन के निम्नतम स्तरपर था। तथापि सामान्य भारतीय मनुष्य की नीतिमत्ता ब्रिटिश पादरी से श्रेष्ठ पाई गई थी, इसीलिये १७९२ की चार्टर डिबेट में चर्चा के बाद, भारत के ईसाईकरण के लिये भारत में पादरी भेजने की योजना को रोक दिया गया था। जीवनमूल्यों की शिक्षा का विचार भारत में प्राचीन काल से अंग्रेज पूर्व काल तक की शिक्षा के इतिहास में कभी भी ऐसा अलग से किया नहीं किया गया था। किंतु अब विदेशी विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में यह हो रहा है।  
    
वर्तमान में जीवनमूल्य शब्द का जिस अर्थ से प्रयोग किया जाता है वह भारतीय सोच के अनुसार ठीक नहीं है। यह अंग्रेजी ‘व्हैल्यू’ शब्द का सीधा अनुवाद है। अंग्रेजों का अन्धानुकरण है। भारतीय शिक्षा के इतिहास में जीवनमूल्य शब्द का कभी प्रयोग नहीं किया गया था। जो मूल में होता है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में होता है उसे प्रकृति कहते हैं। शिक्षा की आवश्यकता ही, जो प्राकृतिक है उसे अन्नत कर सांस्कृतिक बनाने के लिए होती है। इसे जीवनदृष्टि की, जीवनशैली की शिक्षा कहा जाना चाहिए।  
 
वर्तमान में जीवनमूल्य शब्द का जिस अर्थ से प्रयोग किया जाता है वह भारतीय सोच के अनुसार ठीक नहीं है। यह अंग्रेजी ‘व्हैल्यू’ शब्द का सीधा अनुवाद है। अंग्रेजों का अन्धानुकरण है। भारतीय शिक्षा के इतिहास में जीवनमूल्य शब्द का कभी प्रयोग नहीं किया गया था। जो मूल में होता है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में होता है उसे प्रकृति कहते हैं। शिक्षा की आवश्यकता ही, जो प्राकृतिक है उसे अन्नत कर सांस्कृतिक बनाने के लिए होती है। इसे जीवनदृष्टि की, जीवनशैली की शिक्षा कहा जाना चाहिए।  

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