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समूलाग्र हरित (जड़से अन्त तक हरे) तथा गोकर्णमात्र परिमाणके कुश श्राद्धमें उत्तम कहे गये हैं।  <blockquote>अग्रैस्तु तर्पयेद् देवान् मनुष्यान् कुशमध्यतः।पितृस्तु कुशमूलाग्रैर्विधिः कौशो यथाक्रमम् ॥<ref>नित्योपासना एवं देवपूजा पद्धति, (पृ० १००)।</ref></blockquote>देवताओं को कुश के अग्र भाग से एक-एक, कुश मध्य से मनष्यों को दो-दो और कुश मूल से पितरों को तीन-तीन अञ्जलि जल देना चाहिये।  
 
समूलाग्र हरित (जड़से अन्त तक हरे) तथा गोकर्णमात्र परिमाणके कुश श्राद्धमें उत्तम कहे गये हैं।  <blockquote>अग्रैस्तु तर्पयेद् देवान् मनुष्यान् कुशमध्यतः।पितृस्तु कुशमूलाग्रैर्विधिः कौशो यथाक्रमम् ॥<ref>नित्योपासना एवं देवपूजा पद्धति, (पृ० १००)।</ref></blockquote>देवताओं को कुश के अग्र भाग से एक-एक, कुश मध्य से मनष्यों को दो-दो और कुश मूल से पितरों को तीन-तीन अञ्जलि जल देना चाहिये।  
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'''श्राद्ध में निषिद्ध कुश-'''<blockquote>ये तु पिण्डास्तृता दर्भा यैः कृतं पितृतर्पणम्।अमेध्याशुचिलिप्ता ये तेषां त्यागो विधीयते ।।<ref>नित्योपासना एवं देवपूजा पद्धति, (पृ० ७०)।</ref></blockquote>'''अनु -'''पिण्ड के नीचे तथा ऊपर की, तर्पण की तथा अपवित्र जगह में पड़ी हुई कुशाओं को त्याग देना चाहिये।<blockquote>चितौ दर्भाः पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु।स्तरणासनपिण्डेषु षट् कुशान् परिवर्जयेत् ॥</blockquote><blockquote>ब्रह्मयज्ञे च ये दर्भा ये दर्भाः पितृतर्पणे। हता मूत्रपुरीषाभ्यां तेषां त्यागो विधीयते॥ <ref>धर्माधिकारि श्रीनन्दपण्डित,श्राद्धकल्पलता,चौखम्बा संस्कृत सीरिज आफिस,(पृ०६५)।</ref></blockquote>'''अनु''' -चितामें बिछाये हुए, रास्तेमें पड़े हुए, पितृतर्पण एवं ब्रह्मयज्ञमें उपयोगमें लिये हुए, बिछौने, गन्दगीसे और आसनमेंसे निकाले हुए, पिण्डोंके नीचे रखे हुए तथा अपवित्र कुश -श्राद्धमें निषिद्ध समझे जाते हैं।   
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'''श्राद्ध में निषिद्ध कुश-''' <blockquote>ये तु पिण्डास्तृता दर्भा यैः कृतं पितृतर्पणम्।अमेध्याशुचिलिप्ता ये तेषां त्यागो विधीयते ।।<ref>नित्योपासना एवं देवपूजा पद्धति, (पृ० ७०)।</ref></blockquote>'''अनु -'''पिण्ड के नीचे तथा ऊपर की, तर्पण की तथा अपवित्र जगह में पड़ी हुई कुशाओं को त्याग देना चाहिये।<blockquote>चितौ दर्भाः पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु।स्तरणासनपिण्डेषु षट् कुशान् परिवर्जयेत् ॥</blockquote><blockquote>ब्रह्मयज्ञे च ये दर्भा ये दर्भाः पितृतर्पणे। हता मूत्रपुरीषाभ्यां तेषां त्यागो विधीयते॥ <ref>धर्माधिकारि श्रीनन्दपण्डित,श्राद्धकल्पलता,चौखम्बा संस्कृत सीरिज आफिस,(पृ०६५)।</ref></blockquote>'''अनु''' -चितामें बिछाये हुए, रास्तेमें पड़े हुए, पितृतर्पण एवं ब्रह्मयज्ञमें उपयोगमें लिये हुए, बिछौने, गन्दगीसे और आसनमेंसे निकाले हुए, पिण्डोंके नीचे रखे हुए तथा अपवित्र कुश -श्राद्धमें निषिद्ध समझे जाते हैं।   
    
=== '''यज्ञ या हवन'''      ===
 
=== '''यज्ञ या हवन'''      ===
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