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| त्वामाहुर्देव वर्म ! त्वां दर्भ ! ब्रह्मणस्पतिम् । त्वामिन्द्रस्य आहुर्वमे, त्वं राष्ट्राणि रक्षसि॥ (अथर्व० १६।३०।३) | | त्वामाहुर्देव वर्म ! त्वां दर्भ ! ब्रह्मणस्पतिम् । त्वामिन्द्रस्य आहुर्वमे, त्वं राष्ट्राणि रक्षसि॥ (अथर्व० १६।३०।३) |
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− | इस मन्त्रमें कुशोंको देवताओंका कवचरूप माना गया है। तब उनकी भूत-प्रेतोंकी बाधाको दूर करने में क्षमता भी सिद्ध होगई कई व्यक्ति भूतप्रेतोंको कीटाणुरूपमें मानते हैं; तब इनकी कीटाणुओंको दूर करनेकी शक्ति भी सिद्ध होगई। [[File:Kusha.jpg|thumb|257x257px]] | + | इस मन्त्रमें कुशोंको देवताओंका कवचरूप माना गया है। तब कुशों की भूत-प्रेतोंकी बाधाको दूर करने में क्षमता भी सिद्ध हो गई कई व्यक्ति भूतप्रेतोंको कीटाणुरूपमें मानते हैं; तब इनकी कीटाणुओंको दूर करनेकी शक्ति भी सिद्ध होगई। [[File:Kusha.jpg|thumb|257x257px]] |
| कुशमें त्रिदेवका निवास -<blockquote>कुशमूले स्थितो ब्रह्मा कुशमध्ये जनार्दनः । </blockquote><blockquote>कुशाग्रे शङ्करो देवः त्रयो देवाः कुशे स्थिताः॥(य.मी <ref name=":2">Pt. Shriveniram Sharma Gauda (2018) ''Yajna Mimamsa.'' Varanasi: Chaukhamba Vidyabhavan (Page 372)</ref> )</blockquote>'''अनु -''' कुशके मूल में ब्रह्मा, कुशके मध्य में जनार्दन (विष्णु) और कुशके अग्रभागमें भगवान् शङ्कर-ये तीनों देवता कुश में निवास करते हैं।<ref name=":2" /> | | कुशमें त्रिदेवका निवास -<blockquote>कुशमूले स्थितो ब्रह्मा कुशमध्ये जनार्दनः । </blockquote><blockquote>कुशाग्रे शङ्करो देवः त्रयो देवाः कुशे स्थिताः॥(य.मी <ref name=":2">Pt. Shriveniram Sharma Gauda (2018) ''Yajna Mimamsa.'' Varanasi: Chaukhamba Vidyabhavan (Page 372)</ref> )</blockquote>'''अनु -''' कुशके मूल में ब्रह्मा, कुशके मध्य में जनार्दन (विष्णु) और कुशके अग्रभागमें भगवान् शङ्कर-ये तीनों देवता कुश में निवास करते हैं।<ref name=":2" /> |
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| मेध्या वैदर्भाः, मेध्यो भूत्वा दीः इति । पवित्रं वै दर्भाः। पवित्रपूतो दीः इति । तस्माद् एनं दर्भ-पवित्रेण पावयति' (शतपथ ३।१।३।१८) | | मेध्या वैदर्भाः, मेध्यो भूत्वा दीः इति । पवित्रं वै दर्भाः। पवित्रपूतो दीः इति । तस्माद् एनं दर्भ-पवित्रेण पावयति' (शतपथ ३।१।३।१८) |
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− | दर्भ (कुश)के धारणसे पवित्रता भी बताई गई हैं। जैसे कि [यहाँ मनुष्यको असत्यभाषी होनेसे भीतरसे अपवित्र बताया गया है। उसकी भी पवित्रता कुशोंसे बताते हैं]
| + | '''अनु''' -यहाँ मनुष्यको असत्यभाषी होनेसे भीतरसे अपवित्र बताया गया है किन्तु असत्यभाषी अपवित्र मनुष्यकी भी पवित्रता कुशों के धारण करने से बताई गई हैं। |
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− | सनातन हिन्दुधर्मके प्रत्येक कर्मोमें-चाहे मृतककर्म हो, चाहे विवाहादि शुभ कर्म हो कुशों का उपयोग आदिष्ट किया गया है। वेदमें अन्य भी इसके लिए कहा है-
| + | यद् द्वमन्त्य उदायन् ,तस्माद् दर्भाः। ता ह एताः शुद्धा मेधा आपो वृत्राभिप्रक्षरिता यद् दर्भा, यदु दर्भाः, तेन ओषधयः' (१२।३।२) यहां पर पापों तथा रोगोंकी दूर करनेकी शक्ति दर्भमैं कहकर उन्हें ओषधिस्वरूप बताया गया है। |
| + | |
| + | सनातनधर्म के प्रत्येक कर्मोमें-चाहे मृतककर्म हो, चाहे विवाहादि शुभ कर्म हो कुशों का उपयोग आदिष्ट किया गया है। वेदमें अन्य भी इसके लिए कहा है- |
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| + | ब्राह्मणभागात्मक वेद-शतपथ (वाजसनेयक)में भी कहा है-'या वै वृत्राद्बीभत्समाना आपो धन्व भन्त्य उदायन, ते दर्भा अभवन [यहाँ दर्भ की उत्पत्ति बतलाई गई है] । |
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| + | यद् द्वमन्त्य उदायन् ,तस्माद् दर्भाः। ता ह एताः शुद्धा मेधा आपो वृत्राभिप्रक्षरिता यद् दर्भा, यदु दर्भाः, तेन ओषधयः' (१२।३।२) यहां पर पापों तथा रोगोंकी दूर करनेकी शक्ति दर्भमैं कहकर उन्हें ओषधिस्वरूप बताया गया है। |
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| स नोऽयं दर्भः परिपातु विश्वतो देवो मणिरायुषा संसृजाति नः' (अथर्व० १६।३३।३) | | स नोऽयं दर्भः परिपातु विश्वतो देवो मणिरायुषा संसृजाति नः' (अथर्व० १६।३३।३) |
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| * तर्पण - श्राद्ध (एकोद्दिष्ट,पार्वणिक,काम्य(त्रिपिण्डी श्राद्ध,नारायण बली )आदि) | | * तर्पण - श्राद्ध (एकोद्दिष्ट,पार्वणिक,काम्य(त्रिपिण्डी श्राद्ध,नारायण बली )आदि) |
| * यज्ञ या हवन | | * यज्ञ या हवन |
− | * ग्रहशांति पूजन
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− |
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− | === देव-पूजा ===
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| संध्योपासन,नित्य पूजन,गणेश गौरी कलश विष्णु आदि देव पूजन में अग्र और मूल सहित दो कुशाओं की पवित्री दोनों हाथों की अनामिका उंगली में धारण करनी चाहिये एवं संकल्प आदि विविध पूजन संबन्धी कार्यों में कुश की आवश्यकता पड़ती है। | | संध्योपासन,नित्य पूजन,गणेश गौरी कलश विष्णु आदि देव पूजन में अग्र और मूल सहित दो कुशाओं की पवित्री दोनों हाथों की अनामिका उंगली में धारण करनी चाहिये एवं संकल्प आदि विविध पूजन संबन्धी कार्यों में कुश की आवश्यकता पड़ती है। |
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| '''अनु''' - कुश तथा काला तिल-ये दोनों भगवान् विष्णुके शरीरसे प्रादुर्भूत हुए हैं। अत: ये श्राद्धकी रक्षा करनेमें सर्वसमर्थ हैं-ऐसा देवगण कहते हैं। | | '''अनु''' - कुश तथा काला तिल-ये दोनों भगवान् विष्णुके शरीरसे प्रादुर्भूत हुए हैं। अत: ये श्राद्धकी रक्षा करनेमें सर्वसमर्थ हैं-ऐसा देवगण कहते हैं। |
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− | समूलाग्र हरित (जड़से अन्ततक हरे) तथा गोकर्णमात्र परिमाणके कुश श्राद्धमें उत्तम कहे गये हैं।
| + | ओजसा (अथर्व० १।३३।३) इस पूर्वोक्त मन्त्रके अंशसे कुशोंकी भूमिको विद्युत्के निरोधमें क्षमता संकेतित की गई है। तभी तो ध्यानके समय भूमिकी विद्युत्से विघ्न न हो, अतः भूमिपर रखे हुए आसनपर भगवान्ने कुशका निवेश भी आवश्यक माना है। इसी कारण पिण्डपितृयज्ञमें पिण्डोंके नीचे भी कुश रखे जाते हैं। |
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− | अप्रैस्तु तर्पयेद देवान् मनुष्यान् कुशमध्यतः।पितृस्तु कुशमूलाविधिः कौशो यथाक्रमम् ॥ १२२.
| + | समूलाग्र हरित (जड़से अन्त तक हरे) तथा गोकर्णमात्र परिमाणके कुश श्राद्धमें उत्तम कहे गये हैं। |
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| + | अग्रैस्तु तर्पयेद देवान् मनुष्यान् कुशमध्यतः।पितृस्तु कुशमूलाविधिः कौशो यथाक्रमम् ॥ १२२. |
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| देवताओं को एक-एक, मनष्यों को दो-दो और पितरों को तीन-तीन अङ्जलि जल देना चाहिये। | | देवताओं को एक-एक, मनष्यों को दो-दो और पितरों को तीन-तीन अङ्जलि जल देना चाहिये। |
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− | चितौ दर्भाः पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु । स्तरणासनपिण्डेषु षट् कुशान् परिवर्जयेत् ॥ हता मूत्रपुरीषाभ्यां तेषां त्यागो विधीयते॥ (श्राद्धसंग्रह, श्राद्धविवेक, श्राद्धकल्पलता
| + | ये तु पिण्डास्तृता दर्भा यैः कृतं पितृतर्पणम् अमेध्याशुचिलिप्ता ये तेषां त्यागो विधीयते ।। (गृहपरि) |
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− | === ग्रहशांति पूजन ===
| + | पिण्ड के नीचे तथा ऊपर की, तर्पण की तथा अपवित्र जगह में पड़ी हुई कुशाओं को त्याग देना चाहिये। |
− | केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं। रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापन में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म आदि में किया जाता है।
| |
| | | |
− | केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है। देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है।
| + | चितौ दर्भाः पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु । स्तरणासनपिण्डेषु षट् कुशान् परिवर्जयेत् ॥ हता मूत्रपुरीषाभ्यां तेषां त्यागो विधीयते॥(श्राद्धसंग्रह, श्राद्धविवेक, श्राद्धकल्पलता) |
− | | |
− | यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं।
| |
− | | |
− | कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है।
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| === '''यज्ञ या हवन''' === | | === '''यज्ञ या हवन''' === |
| स्नाने होमे जपे दाने स्वाध्याये पितृकर्मणि । करौ सदर्भी कुर्वीत तथा सन्ध्याभिवादने । (प्रयोगपारिजात ) | | स्नाने होमे जपे दाने स्वाध्याये पितृकर्मणि । करौ सदर्भी कुर्वीत तथा सन्ध्याभिवादने । (प्रयोगपारिजात ) |
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− | 'स्नानमें, हवन, जपमें, दान, स्वाध्यायमें, पितृकर्ममें, सन्ध्योपासनमें और अभिवादनमें दोनों हाथों में कुश धारण करने चाहिये। कुशादिके बिना कोई भी कर्म पूर्ण नहीं होता | + | 'स्नानमें, हवन, जपमें, दान, स्वाध्यायमें, पितृकर्ममें, सन्ध्योपासनमें और अभिवादनमें दोनों हाथों में कुश धारण करने चाहिये। कुशादिके बिना कोई भी कर्म पूर्ण नहीं होता है। |
| | | |
| विना दर्भेण यत्कर्म विना सूत्रेण वा पुनः । राक्षसं तद्भवेत्सर्वन्नामुत्रेह फलप्रदम्||( कूर्मपुराण, उत्तरार्ध १८।५० ) | | विना दर्भेण यत्कर्म विना सूत्रेण वा पुनः । राक्षसं तद्भवेत्सर्वन्नामुत्रेह फलप्रदम्||( कूर्मपुराण, उत्तरार्ध १८।५० ) |
| | | |
− | 'कुश और यज्ञोपवीतके बिना किया हुआ समस्त कर्म राक्षस कहलाता है और वह इहलोकमें फलप्रद नहीं होता है।
| + | कुश और यज्ञोपवीतके बिना किया हुआ समस्त कर्म राक्षस कहलाता है और वह इहलोकमें फलप्रद नहीं होता है। |
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− | 'त्वं भूमिमत्येषि प्रोजसा, त्वं वेद्यां सीदसि चारुरप्परे। त्वां पवित्रसृषयो भरन्त त्वं पुनीहि दुरितानि अस्मत॥ (अथर्व०१६।३३।३)
| + | त्वं भूमिमत्येषि प्रोजसा, त्वं वेद्यां सीदसि चारुरप्परे। त्वां पवित्रसृषयो भरन्त त्वं पुनीहि दुरितानि अस्मत॥ (अथर्व०१६।३३।३) |
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| इस मन्त्रमें कुशकी लोकोत्तर-शक्ति, पवित्र करनेकी योग्यता और पापको दूर कर देनेकी क्षमता बताई है। और उसका यज्ञकी वेदीमें उपयोग भी बताया है | | इस मन्त्रमें कुशकी लोकोत्तर-शक्ति, पवित्र करनेकी योग्यता और पापको दूर कर देनेकी क्षमता बताई है। और उसका यज्ञकी वेदीमें उपयोग भी बताया है |
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| ,स्तुणीत बहिः (१।१३।५) इस मन्त्रमें भी यही बताया है | | ,स्तुणीत बहिः (१।१३।५) इस मन्त्रमें भी यही बताया है |
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− | । तब यज्ञोंमें गृह्यसूत्रप्रोक्त कुशकण्डिकाकी वैदिकता भी सिद्ध हुई, वेदका विषय यज्ञ भी सिद्ध हुआ। यज्ञादिमें कुशकण्डिका आवश्यक है यह भी सिद्ध हुआ | + | 'एष एव विधिर्यत्र क्वचिद्धोमः ।<ref>पारस्कर गृह्यसूत्र १।१।५</ref> |
| + | |
| + | 'उपयमनप्रभृत्यौपासनस्य परिचरणम् ।' ( पा० गृ० सू० १।६।१ ) |
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− | 'एष एव विधिर्यत्र क्वचिद्धोमः । ( पा० गृ० सू० १।१।२७) इस सूत्रसे कुशकण्डिकाविधि ( अग्निमुख गाह्य, स्मार्त्त, तान्त्रिक
| + | तब यज्ञोंमें गृह्यसूत्रप्रोक्त कुशकण्डिकाकी वैदिकता भी सिद्ध हुई,और हवनात्मक यज्ञादि ( अग्निमुख गार्ह्य, स्मार्त्त, तान्त्रिक |
| | | |
− | और लौकिक हवन-कर्म में सर्वत्र आवश्यक है। | + | और लौकिक हवन ) सभी शान्तिक, पौष्टिक तथा प्रायश्चित्तादि कर्मोमें कुशकण्डिका करनी ही चाहिये कार्यों में कुशकण्डिका आवश्यक है यह भी सिद्ध हुआ |
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− | 'उपयमनप्रभृत्यौपासनस्य परिचरणम् ।' ( पा० गृ० सू० १।६।१ )
| + | अर्कः पलाशः खदिरो हपामार्गश्च पिप्पलः । औदुम्बरं शमी दूर्वा कुशाश्च समिधो नव ॥ ( संस्कारगणपति ) |
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| + | नवग्रहों की समिधा में कुश को केतु की समिधा बताया गया है केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं। |
| + | |
| + | रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापन में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म आदि में किया जाता है। |
| + | |
| + | केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है। देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है। |
| | | |
− | सभी शान्तिक, पौष्टिक तथा
| + | यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं। |
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− | प्रायश्चित्तादि कर्मोमें कुशकण्डिका करनी ही चाहिये
| + | कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है। |
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| == कुशा आसन का महत्त्व == | | == कुशा आसन का महत्त्व == |
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| '''अनु -'''माङ्गलिक कार्योंकी अभिवृद्धिके लिये कुशके स्थानमें दूर्वा ग्राह्य है। | | '''अनु -'''माङ्गलिक कार्योंकी अभिवृद्धिके लिये कुशके स्थानमें दूर्वा ग्राह्य है। |
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− | कुशा महिलाओं की सुरक्षा करने में राम बाण है जब लंका पति रावण माता सीता जी का हरण कर उन्हें अशोक वाटिका ले गया , उसके बाद वह बार बार उन्हें प्रलोभित करने जाता था और माता सीता "इस कुशा को अपना सुरक्षा कवच बनाकर "" उससे बात करती थी।
| + | जब लंका पति रावण माता सीता जी का हरण कर उन्हें अशोक वाटिका ले गया , उसके बाद वह बार बार उन्हें प्रलोभित करने जाता था और माता सीता "इस कुशा को अपना सुरक्षा कवच बनाकर "" उससे बात करती थी। |
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| == कुशोत्पाटिनी अमावस्या का महत्व == | | == कुशोत्पाटिनी अमावस्या का महत्व == |
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| * कौन सा कुश उखाड़ेंं | | * कौन सा कुश उखाड़ेंं |
| * कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व | | * कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व |
− | '''कुशोत्पाटिनी अमावस्या''' | + | '''कुशोत्पाटिनी अमावस्या''' |
| + | |
| + | मासि मास्वाहता दस्तित्तन्यास्येव चादृताः । <ref>पं लालबिहारी मिश्र ,नित्यकर्म पूजाप्रकाश, गीताप्रेस गोरखपुर। (पृ ४१/४२)</ref> |
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− | भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अमावस्या को शास्त्रों में कुशाग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या कहा जाता है।इस दिन उखाड़ा गया कुश एक वर्ष तक चलता है; खास बात ये है कि कुश उखाडऩे से एक दिन पहले बड़े ही आदर के साथ उसे अपने घर लाने का निमंत्रण दिया जाता है। हाथ जोड़कर प्रार्थना की जाती है।मंत्र का जाप करते हुए कुश को उखाडऩा है उसे अपने साथ घर लाना है और एक साल तक घर पर रखने से आपको शुभ फल प्राप्त होंगे। | + | कुश प्रत्येक दिन नई उखाडनी पडती है लेकिन अमावाश्या की तोडी कुशा पूरे महीने काम दे सकती है और भादों(भाद्रपद मास) की अमावश्या के दिन की तोडी कुशा पूरे साल काम आती है। इसलिए लोग इसे तोड के रख लते हैं।भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अमावस्या को शास्त्रों में कुशाग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या कहा जाता है खास बात ये है कि कुश उखाडऩे से एक दिन पहले बड़े ही आदर के साथ उसे अपने घर लाने का निमंत्रण दिया जाता है। हाथ जोड़कर प्रार्थना की जाती है।मंत्र का जाप करते हुए कुश को उखाडऩा है उसे अपने साथ घर लाना है और एक साल तक घर पर रखने से आपको शुभ फल प्राप्त होंगे।कुश का प्रयोग पूजा करते समय जल छिड़कने, उन्गलि में पवित्री पहनने, विवाह में मंडप छाने तथा अन्य मांगलिक कार्यों में किया जाता है। इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है। |
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| पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि। | | पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि। |
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Line 185: |
| बल्वजाः पुण्डरीकाश्च कुशाः सप्त प्रकीर्तिताः॥( पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड ४६।३४,३५) | | बल्वजाः पुण्डरीकाश्च कुशाः सप्त प्रकीर्तिताः॥( पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड ४६।३४,३५) |
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− | 'कुश, काश, दूर्वा, जौका पत्ता, धानका पत्ता, बल्वज और कमल--ये सात प्रकारके कुश कहे गये हैं।' | + | 'कुश, काश, दूर्वा, जौका पत्ता, धानका पत्ता, बल्वज और कमल--ये सात प्रकारके कुश कहे गये हैं। इन सात प्रकारके कुशोंमें क्रमशः पूर्व-पूर्व कथित कुश अधिक पवित्र माने गये हैं। |
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| यानि कुश, काश , दूर्वा, जौ पत्र इत्यादि कोई भी कुश आज उखाड़ी जा सकती है और उसका घर में संचय किया जा सकता है। लेकिन इस बात का ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि हरी पत्तेदार कुश जो कहीं से भी कटी हुई ना हो , एक विशेष बात और जान लीजिए कुश का स्वामी केतु है लिहाज़ा कुश को अगर आप अपने घर में रखेंगे तो केतु के बुरे फलों से बच सकते हैं।ज्योतिष शास्त्र के नज़रिए से कुश को विशेष वनस्पति का दर्जा दिया गया है। | | यानि कुश, काश , दूर्वा, जौ पत्र इत्यादि कोई भी कुश आज उखाड़ी जा सकती है और उसका घर में संचय किया जा सकता है। लेकिन इस बात का ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि हरी पत्तेदार कुश जो कहीं से भी कटी हुई ना हो , एक विशेष बात और जान लीजिए कुश का स्वामी केतु है लिहाज़ा कुश को अगर आप अपने घर में रखेंगे तो केतु के बुरे फलों से बच सकते हैं।ज्योतिष शास्त्र के नज़रिए से कुश को विशेष वनस्पति का दर्जा दिया गया है। |
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| '''कौन सा कुश उखाड़ेंं''' | | '''कौन सा कुश उखाड़ेंं''' |
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− | कुश उखाडऩे से पूर्व यह ध्यान रखें कि जो कुश आप उखाड़ रहे हैं वह उपयोग करने योग्य हो। ऐसा कुश ना उखाड़ें जो गन्दे स्थान पर हो, जो जला हुआ हो, जो मार्ग में हो या जिसका अग्रभाग कटा हो, इस प्रकार का कुश ग्रहण करने योग्य नहीं होता है। | + | कुश उखाडऩे से पूर्व यह ध्यान रखें कि जो कुश आप उखाड़ रहे हैं वह उपयोग करने योग्य हो। ऐसा कुश ना उखाड़ें जो गन्दे स्थान पर हो, जो जला हुआ हो, जो मार्ग में हो या जिसका अग्रभाग कटा हो, इस प्रकार का कुश ग्रहण करने योग्य नहीं होता है।चितौ दर्भाः पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु । स्तरणासनपिण्डेषु षट् कुशान् परिवर्जयेत् ॥ हता मूत्रपुरीषाभ्यां तेषां त्यागो विधीयते॥(श्राद्धसंग्रह, श्राद्धविवेक, श्राद्धकल्पलता) |
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− | कौन सा कुश उखाड़ेंं
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− | कुश उखाडऩे से पूर्व यह ध्यान रखें कि जो कुश आप उखाड़ रहे हैं वह उपयोग करने योग्य हो। ऐसा कुश ना उखाड़ें जो गन्दे स्थान पर हो, जो जला हुआ हो, जो मार्ग में हो या जिसका अग्रभाग कटा हो, इस प्रकार का कुश ग्रहण करने योग्य नहीं होता है।
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− | चितौ दर्भाः पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु । स्तरणासनपिण्डेषु षट् कुशान् परिवर्जयेत् ॥ हता मूत्रपुरीषाभ्यां तेषां त्यागो विधीयते॥ (श्राद्धसंग्रह, श्राद्धविवेक, श्राद्धकल्पलता)
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| '''कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व''' | | '''कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व''' |
Line 197: |
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| कुशोत्पाटिनी अमावस्या के दिन साल भर के धार्मिक कृत्यों के लिये कुश एकत्र लेते हैं. प्रत्येक धार्मिक कार्यो के लिए कुशा का इस्तेमाल किया जाता है. शास्त्रों में भी सात तरह की कुशा का वर्णन प्राप्त होता है. जिस कुशा का मूल सुतीक्ष्ण हो, इसमें सात पत्ती हो, कोई भाग कटा न हो, पूर्ण हरा हो, तो वह कुशा देवताओं तथा पितृ दोनों कृत्यों के लिए उचित मानी जाती है. कुशा तोड़ते समय मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। | | कुशोत्पाटिनी अमावस्या के दिन साल भर के धार्मिक कृत्यों के लिये कुश एकत्र लेते हैं. प्रत्येक धार्मिक कार्यो के लिए कुशा का इस्तेमाल किया जाता है. शास्त्रों में भी सात तरह की कुशा का वर्णन प्राप्त होता है. जिस कुशा का मूल सुतीक्ष्ण हो, इसमें सात पत्ती हो, कोई भाग कटा न हो, पूर्ण हरा हो, तो वह कुशा देवताओं तथा पितृ दोनों कृत्यों के लिए उचित मानी जाती है. कुशा तोड़ते समय मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। |
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− | कुश से बनी पवित्री (अंगूठी) पूजा /तर्पण के समय पहनी जाती है जिस भाग्यवान् ने सोने की अंगूठी पहनी हो उसको जरूरत नहीं है।<blockquote>मासि मास्वाहता दस्तित्तन्यास्येव चादृताः । (नित्यकर्म पूजाप्रकाश <ref>पं लालबिहारी मिश्र ,नित्यकर्म पूजाप्रकाश, गीताप्रेस गोरखपुर। (पृ ४१/४२)</ref>)</blockquote>कुश प्रत्येक दिन नई उखाडनी पडती है लेकिन अमावाश्या की तोडी कुशा पूरे महीने काम दे सकती है और भादों(भाद्रपद मास) की अमावश्या के दिन की तोडी कुशा पूरे साल काम आती है। इसलिए लोग इसे तोड के रख लते हैं। | + | कुश से बनी पवित्री (अंगूठी) पूजा /तर्पण के समय पहनी जाती है जिस भाग्यवान् ने सोने की अंगूठी पहनी हो उसको जरूरत नहीं है। |
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| अघोर चतुर्दशी के दिन तर्पण कार्य भी किए जाते हैं मान्यता है कि इस दिन शिव के गणों भूत-प्रेत आदि सभी को स्वतंत्रता प्राप्त होती है. कुश अमावस्या के दिन किसी पात्र में जल भर कर कुशा के पास दक्षिण दिशाकी ओर अपना मुख करके बैठ जाएं तथा अपने सभी पितरों को जल दें, अपने घर परिवार, स्वास्थ आदि की शुभता की प्रार्थना करनी चाहिए। | | अघोर चतुर्दशी के दिन तर्पण कार्य भी किए जाते हैं मान्यता है कि इस दिन शिव के गणों भूत-प्रेत आदि सभी को स्वतंत्रता प्राप्त होती है. कुश अमावस्या के दिन किसी पात्र में जल भर कर कुशा के पास दक्षिण दिशाकी ओर अपना मुख करके बैठ जाएं तथा अपने सभी पितरों को जल दें, अपने घर परिवार, स्वास्थ आदि की शुभता की प्रार्थना करनी चाहिए। |
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− | कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व-
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| अमायाश्च पितर:॥<ref>बृहदवकहड़ा चक्रम् तिथि प्रकरण पृ ़३</ref> | | अमायाश्च पितर:॥<ref>बृहदवकहड़ा चक्रम् तिथि प्रकरण पृ ़३</ref> |
Line 209: |
Line 211: |
| इसलिए इस दिन पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण, दान-पुण्य का महत्व है। <ref>संक्षिप्त श्री वराहपुराण,गीताप्रेस गोरखपुर पृ ८१</ref> | | इसलिए इस दिन पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण, दान-पुण्य का महत्व है। <ref>संक्षिप्त श्री वराहपुराण,गीताप्रेस गोरखपुर पृ ८१</ref> |
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− | शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आश्विन कृष्ण पक्ष में चलने वाला पन्द्रह दिनों के पितृ पक्ष का शुभारम्भ भादों मास की अमावस्या से ही हो जाती है! | + | शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आश्विन कृष्ण पक्ष में चलने वाला पन्द्रह दिनों के पितृ पक्ष का शुभारम्भ भादों मास की अमावस्या से ही हो जाती है संयम, साधना और तप के लिए कुशाग्रहणीअमावस्या का दिन इसीलिये बहुत श्रेष्ठ कहा गया है। |
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− | कुश ऊर्जा की कुचालक है। इसलिए इसके आसन पर बैठकर पूजा-वंदना, उपासना या अनुष्ठान करने वाले साधक की शक्ति का क्षय नहीं होता। परिणामस्वरूप कामनाओं की अविलंब पूर्ति होती है।कुश का प्रयोग पूजा करते समय जल छिड़कने, उन्गलि में पवित्री पहनने, विवाह में मंडप छाने तथा अन्य मांगलिक कार्यों में किया जाता है। इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है, क्योंकि इसका स्पर्श अमृत से हुआ है। इसका इस्तेमाल ग्रहण के दौरान खाने-पीने की चीज़ों में रखने के लिए होता है, कुश की पवित्री उंगली में पहनते हैं तो वहीं कुश के आसन भी बनाए जाते हैं।संयम, साधना और तप के लिए कुशाग्रहणीअमावस्या का दिन श्रेष्ठ-कहा जाता है कि कुश के बने आसन पर बैठकर मंत्र जप करने से सभी मंत्र सिद्ध होते हैं।
| + | इसका इस्तेमाल ग्रहण के दौरान खाने-पीने की चीज़ों में रखने के लिए होता है |
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| नास्य केशान् प्रवपन्ति, नोरसि ताडमानते। (देवी भागवत 19/32) | | नास्य केशान् प्रवपन्ति, नोरसि ताडमानते। (देवी भागवत 19/32) |
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| अर्थात कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झडते और छाती में आघात यानी दिल का दौरा नहीं होता। | | अर्थात कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झडते और छाती में आघात यानी दिल का दौरा नहीं होता। |
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− | उल्लेखनीय है कि शास्त्रों में कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है।
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| == References == | | == References == |
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