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== सामाजिक कानून और राज्य का कानून ==
== सामाजिक कानून और राज्य का कानून ==
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एक समय ऐसा था जब भारत में दो प्रकार के कानून
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एक समय ऐसा था जब भारत में दो प्रकार के कानून चलते थे । एक थे सामाजिक कानून और दूसरे थे राज्य के कानून । दोनों में सामाजिक कानून अधिक प्रभावी थे क्योंकि वे सामाजिक प्रतिष्ठा पर असर करते थे । सामाजिक कानूनों का संचालन जाति पंचायतों द्वारा होता था । रोटी बेटी व्यवहार और व्यवसाय मुख्य रूप से उसका कार्यक्षेत्र होता था । सामाजिक स्तर के झगडे निपटाना उनका काम था । आर्थिक रूप में दण्ड लगाना, प्रायश्चित देना, रोटी- बेटी निषेध करना, जातिबाह्य करना आदि दण्ड के प्रकार होते थे । व्यक्ति को ये अन्तिम दो सहे नहीं जाते थे । इसलिये सामाजिक अपराध से लोग बचना चाहते थे ।
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चलते थे । एक थे सामाजिक कानून और दूसरे थे राज्य के
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सामाजिक स्तर पर सबसे बड़ा भय लोकनिन्दा का रहता था। यह कानून के अन्तर्गत नहीं होता था । तो भी अत्यन्त प्रभावी था । इससे बचने के लिये लोग अनेक प्रकार से सावधानी बरतते थे । लोकनिन्दा कभी कभी दुष्परिणामकारी होने पर भी कुल मिलाकर सामाजिक चरित्र की रक्षा करती थी । उदाहरण के लिये कौटुम्बिक रिश्ता नहीं है ऐसे किशोर किशोरी या युवक युवती साथ साथ देखे गये तो निन्दा का विषय बनता था, अच्छे घर का युवक व्यसन में फँस गया तो निन्दा का विषय बनता था ।पड़ौसी, जातिबाँधव, मित्रमण्डली आदि से छिपाना या बचना असम्भव था । इसी प्रकार से सज्जनता और सच्चरित्र की प्रतिष्ठा भी उतनी ही सहजता से बन जाती है । यह प्रतिष्ठा सही होती है । लोगों की परख बहुत सही होती है।
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कानून । दोनों में सामाजिक कानून अधिक प्रभावी थे
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धर्मशिक्षा का अभाव रहा तो सामाजिक कानून, अन्यायपूर्ण बन जाते हैं, सामाजिक सद्भावना विद्वेष में बदल जाती है, सुरक्षा शोषण का कारण बन जाती है । कुरूढियों और अन्धविश्वासों का जोर जम जाता है । आज सामाजिक कानून का अस्तित्व ही नहीं रहा है क्योंकि राज्य ने सभी भारतीय सामाजिक संस्थाओं को नष्ट कर दिया है । भारतीय समाज सामाजिक कानूनों को ही मान्य करता है, राज्य के कानून सामाजिक व्यवहार को या तो लागू ही नहीं हैं या तो सामाजिक स्तर पर प्रतिष्ठित नहीं है । इसलिये कानूनभंग ही सामान्य बन गया है । कानून का पालन करना विवशत्ता है । परिणाम स्वरूप अपराधों की संख्या और जघन्यता बढ गये हैं, वकीलों का व्यवसाय फलफूल रहा है । न्यायालय कम पड़ रहे हैं और सामाजिक सुरक्षा, सद्भाव, समरसता आदि सब नष्ट हो रहे हैं । धर्म को विवाद का विषय बनाने तथा शिक्षा का यूरोपीकरण करने का यह परिणाम है । इन दो कारणों को दूर किये बिना लोकशिक्षा का सही आधार ही नहीं बनता । वास्तव में इन्हें दूर करने के लिये ही प्रथम तो लोकशिक्षा की आवश्यकता है । ये दो क्षेत्र भी तो धर्मसंस्था और विद्यालयसंस्था के हैं । इस दृष्टि से अध्ययन, चिन्तन, विद्वदचर्चा और प्रबोधन इस क्रम में योजना करने की आवश्यकता होती है । ज्ञान और धर्म के क्षेत्र के उत्पात के कारण से समाज व्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जाती है । गृहव्यवस्था और अर्थव्यवस्था पर इसका विपरीत परिणाम होता है । उदाहरण के लिये ब्रिटिश जीवनदृष्टि ने निम्नलिखित धारणायें उपहास, अत्याचार और शिक्षा के माध्यम से समाज के मानस में स्थापित कर दी हैं...
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# भारत में स्त्रियों का शोषण होता है और उन्हें निम्न माना जाता है । उन्हें इस शोषण से बचाने की आवश्यकता है । उनकी मुक्ति के लिये आन्दोलन चलाना चाहिये।
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# भारत का समाज पिछड़ा है क्योंकि यहाँ बालविवाह होता है । व्यक्ति की स्वतन्त्रता का नाश होता है । उसे अपना करिअर तय करने का भी अधिकार नहीं है। इस स्थिति से इस समाज का उद्धार करना चाहिये ।
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# भारत में वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था एक बहुत बडा सामाजिक दूषण है। यह वर्गभेद है । इसे मिटाना ही चाहिये ।
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# यहाँ विज्ञान और तकनीकी का विकास नहीं हो सकता क्योंकि लोगों में इसके लिये आवश्यक बुद्धि नहीं है ।
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# यहाँ लोग असभ्य और अशिष्ट हैं । पुरुष आधे कपड़े पहनते हैं और स्त्रियाँ पर्दा करती हैं । विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं है पुरुषों को है। यह बड़ी असमानता है और अन्याय है ।
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# पत्थर को, नदी को, वृक्ष को, बन्दर को, हाथी को देवता मानने वाली भारत की प्रजा जंगली है । सभ्य जीवन के उच्च तत्त्वों की इन्हें समझ नहीं है ।
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ये तो कुछ उदाहरण हैं इसी प्रकार की गलत धारणायें, जो अज्ञान और मत्सरजनित हैं, ब्रिटिशों ने भारतीयों के मानस में स्थापित की हैं । दुर्भाग्य से भारत के शिक्षित समाज के मन को धारणायें सत्य ही लगती हैं । इन धारणाओं के चलते समाज की व्यवस्थायें छिन्नविच्छिन्न हो गई हैं । बिगड़ी हुई स्थिति को और पक्की करने के लिये कानून बनाये गये । उन बातों को ठीक करने हेतु धर्माचार्यों और विद्वानों ने खास कोई प्रयास नहीं किया, उल्टे उसका लाभ उठाने के प्रयास हुए ।
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क्योंकि वे सामाजिक प्रतिष्ठा पर असर करते थे । सामाजिक
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इस स्थिति को ठीक करने के लिये एक ओर विद्वानों ने ज्ञानात्मक पद्धति से और दूसरी ओर धर्माचार्यों ने मनोवैज्ञानिक पद्धति से लोकशिक्षा के व्यापक प्रयास करने चाहिये । परराष्ट्र के सीमा पर के आक्रमण के सामने जिस प्रकार प्रजा जाग्रत होती है उसी प्रकार परराष्ट्र के सांस्कृतिक आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए भी प्रजा में जागृति निर्माण करने का प्रयास करना चाहिये । कई विषय ऐसे होते हैं जिनका ज्ञानात्मक और मनोवैज्ञानिक निदान करना आवश्यक होता है । उदाहरण के लिये महानगरों में बड़े घर के, अच्छे घर के लड़के अधिक मात्रा में नशाखोरी के शिकार बनते हैं, चौदह पन्द्रह की आयु के बच्चे आत्महत्या करते हैं, बड़ी आयु तक लड़कियाँ विवाह के लिये तैयार नहीं होती हैं। इन सामाजिक समस्याओं के मूल कारण ढूँढना आवश्यक है । उसके बाद उसका उपचार किया जा सकता है । निदान और उपचार का काम सरकार को सॉंप देने से समस्या हल नहीं होती । सरकार इसके लिये कानून बनाने से और दण्ड का प्रावधान करने से अधिक कुछ नहीं कर सकती । लोकजागरण के अभियान करती है, उस कार्य में यश मिला ऐसा मानती है और मनवाती है परन्तु वास्तव में उसे यश मिलता नहीं क्योंकि सरकारी प्रयासों से सुलझने वालीं ये समस्यायें नहीं हैं। यह कार्य लोकशिक्षा का है जो धर्माचार्यों द्वारा होना चाहिये ।
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कानूनों का संचालन जाति पंचायतों ट्रारा होता था । रोटी
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बेटी व्यवहार और व्यवसाय मुख्य रूप से उसका कार्यक्षेत्र
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होता था । सामाजिक स्तर के झगडे निपटाना उनका काम
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था । आर्थिक रूप में दण्ड लगाना, प्रायश्चित देना, रोटी-
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बेटी निषेध करना, जातिबाह्य करना आदि दण्ड के प्रकार
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होते थे । व्यक्ति को ये अन्तिम दो सहे नहीं जाते थे ।
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इसलिये सामाजिक अपराध से लोग बचना चाहते थे ।
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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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सामाजिक स्तर पर सबसे बड़ा भय लोकनिन््दा का रहता
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था। यह कानून के अन्तर्गत नहीं होता था । तो भी
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अत्यन्त प्रभावी था । इससे बचने के लिये लोग अनेक
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प्रकार से सावधानी बरतते थे । लोकनिन््दा कभी कभी
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दुष्परिणामकारी होने पर भी कुल मिलाकर सामाजिक चरित्र
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की रक्षा करती थी । उदाहरण के लिये कौट्म्बिक रिश्ता
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नहीं है ऐसे किशोर किशोरी या युवक युवती साथ साथ देखे
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गये तो निन््दा का विषय बनता था, अच्छे घर का युवक
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व्यसन में फँस गया तो निन््दा का विषय बनता था ।
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पड़ौसी, जातिबाँधव, मित्रमण्डली आदि से छिपाना या
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बचना असम्भव था । इसी प्रकार से सज्जनता और सच्चरित्र
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की प्रतिष्ठा भी उतनी ही सहजता से बन जाती है । यह
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प्रतिष्ठा सही होती है । लोगों की परख बहुत सही होती
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है।
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धर्मशिक्षा का अभाव रहा तो सामाजिक कानून,
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अन्यायपूर्ण बन जाते हैं, सामाजिक सदूभावना विदट्रेष में
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बदल जाती है, सुरक्षा शोषण का कारण बन जाती है ।
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कुरूढियों और अन्धविश्वासों का जोर जम जाता है ।
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आज सामाजिक कानून का असस्तित्व ही नहीं रहा है
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क्योंकि राज्य ने सभी भारतीय सामाजिक संस्थाओं को नष्ट
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कर दिया है । भारतीय समाज सामाजिक कानूनों को ही
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मान्य करता है, राज्य के कानून सामाजिक व्यवहार को या
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तो लागू ही नहीं हैं या तो सामाजिक स्तर पर प्रतिष्ठित नहीं
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है । इसलिये कानूनभंग ही सामान्य बन गया है । कानून का
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पालन करना विवशत्ता है । परिणाम स्वरूप अपराधों की
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संख्या और जघन्यता बढ गये हैं, वकीलों का व्यवसाय
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फलफूल रहा है । न्यायालय कम पड़ रहे हैं और सामाजिक
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सुरक्षा, सद्भाव, समरसता आदि सब नष्ट हो रहे हैं । धर्म
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को विवाद का विषय बनाने तथा शिक्षा का यूरोपीकरण
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करने का यह परिणाम है । इन दो कारणों को दूर किये
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बिना लोकशिक्षा का सही आधार ही नहीं बनता । वास्तव
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में इन्हें दूर करने के लिये ही प्रथम तो लोकशिक्षा की
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आवश्यकता है । ये दो क्षेत्र भी तो धर्मसंस्था और
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विद्यालयसंस्था के हैं । इस दृष्टि से अध्ययन, चिन्तन,
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विट्रदूचर्चा और प्रबोधन इस क्रम में योजना करने की
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आवश्यकता होती है । ज्ञान और धर्म
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के क्षेत्र के उत्पात के कारण से समाज व्यवस्था
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छिन्नविच्छिन्न हो जाती है । गृहव्यवस्था और अर्थव्यवस्था
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पर इसका विपरीत परिणाम होता है । उदाहरण के लिये
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fed जीवनदृष्टि ने निम्नलिखित धारणायें उपहास,
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अत्याचार और शिक्षा के माध्यम से समाज के मानस में
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स्थापित कर दी हैं...
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g. भारत में खियों का शोषण होता है और उन्हें निम्न
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माना जाता है । उन्हें इस शोषण से बचाने की
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आवश्यकता है । उनकी मुक्ति के लिये आन्दोलन
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चलाना चाहिये ।
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भारत का समाज पिछड़ा है क्योंकि यहाँ बालविवाह
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होता है । व्यक्ति की स्वतन्त्रता का नाश होता है ।
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उसे अपना करिअर तय करने का भी अधिकार नहीं
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है। इस स्थिति से इस समाज का उद्धार करना
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चाहिये ।
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भारत में वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था एक बहुत
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बडा सामाजिक दृषण है। यह वर्गभेद है । इसे
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मिटाना ही चाहिये ।
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यहाँ विज्ञान और तकनीकी का विकास नहीं हो
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सकता क्योंकि लोगों में इसके लिये आवश्यक बुद्धि
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नहीं है ।
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यहाँ लोग असभ्य और अशिष्ट हैं । पुरुष आधे कपड़े
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पहनते हैं और feat vet aed हैं । विधवाओं को
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पुनर्विवाह की अनुमति नहीं है पुरुषों को है। यह
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बड़ी असमानता है और अन्याय है ।
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पत्थर को, नदी को, वृक्ष को, बन्दर को, हाथी को
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देवता मानने वाली भारत की प्रजा जंगली है । सभ्य
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जीवन के उच्च तत्त्वों की इन्हें समझ नहीं है ।
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ये तो कुछ उदाहरण हैं इसी प्रकार की गलत
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धारणायें, जो अज्ञान और मत्सरजनित हैं, ब्रिटीशोंने
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भारतीयों के मानस में स्थापित की हैं । दुर्भाग्य से भारत के
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शिक्षित समाज के मन को धारणायें सत्य ही लगती हैं । इन
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धारणाओं के चलते समाज की व्यवस्थायें छिन्नविच्छिन्न हो
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गई हैं । बिगड़ी हुई स्थिति को और पक्की करने के लिये
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कानून बनाये गये । उन बातों को ठीक
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करने हेतु धर्माचार्यों और विद्वानों ने खास कोई प्रयास नहीं
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किया, उल्टे उसका लाभ उठाने के प्रयास हुए ।
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इस स्थिति को ठीक करने के लिये एक ओर विद्वानों
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ने ज्ञानात्मक पद्धति से और दूसरी ओर धर्माचार्यों ने
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मनोवैज्ञानिक पद्धति से लोकशिक्षा के व्यापक प्रयास करने
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चाहिये । परराष्ट्र के सीमा पर के आक्रमण के सामने जिस
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प्रकार प्रजा जाग्रत होती है उसी प्रकार परराष्ट्र के सांस्कृतिक
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आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए भी प्रजा में जागृति
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निर्माण करने का प्रयास करना चाहिये ।
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कई विषय ऐसे होते हैं जिनका ज्ञानात्मक और
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मनोवैज्ञानिक निदान करना आवश्यक होता है । उदाहरण के
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लिये महानगरों में बड़े घर के, अच्छे घर के लड़के अधिक
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मात्रा में नशाखोरी के शिकार बनते हैं, चौदह पन्द्रह की
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आयु के बच्चे आत्महत्या करते हैं, बड़ी आयु तक
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लड़कियाँ विवाह के लिये तैयार नहीं होती हैं। इन
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सामाजिक समस्याओं के मूल कारण ढूँढना आवश्यक है ।
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उसके बाद उसका उपचार किया जा सकता है । निदान और
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उपचार का काम सरकार को सॉंप देने से समस्या हल नहीं
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होती । सरकार इसके लिये कानून बनाने से और दण्ड का
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प्रावधान करने से अधिक कुछ नहीं कर सकती ।
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लोकजागरण के अभियान करती है, उस कार्य में यश मिला
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ऐसा मानती है और मनवाती है परन्तु वास्तव में उसे यश
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मिलता नहीं क्योंकि सरकारी प्रयासों से सुलझने वालीं ये
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समस्यायें नहीं हैं। यह कार्य लोकशिक्षा का है जो
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धर्माचार्यों द्वारा होना चाहिये ।
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६. वानप्रस्थाश्रम और लोकशिक्षा
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== वानप्रस्थाश्रम और लोकशिक्षा ==
वास्तव में सभी वानप्रस्थियों का मुख्य दायित्व
वास्तव में सभी वानप्रस्थियों का मुख्य दायित्व