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{{One source|date=March 2021}}
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व्यक्ति की गर्भाधान से विवाहसंस्कार तक की शिक्षा घर में होती है और वह मातापिता ट्वारा होती है <ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। परन्तु गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यास्ताश्रम में शिक्षा किससे और कैसे मिलती है और लोक शिक्षा से उसका क्या सम्बन्ध है यह विचारणीय विषय है । हम कुछ इस प्रकार से विचार कर सकते हैं
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व्यक्ति की गर्भाधान से विवाहसंस्कार तक की शिक्षा घर में होती है और वह मातापिता द्वारा होती है <ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। परन्तु गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यास्ताश्रम में शिक्षा किससे और कैसे मिलती है और लोक शिक्षा से उसका क्या सम्बन्ध है यह विचारणीय विषय है । हम कुछ इस प्रकार से विचार कर सकते हैं
== गृहस्थाश्रम में शिक्षा ==
== गृहस्थाश्रम में शिक्षा ==
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विद्यालयीन शिक्षा समाप्त होने के बाद, विवाह हो जाने के बाद स्वाध्याय, स्वचिन्तन और उसके आधार पर
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विद्यालयीन शिक्षा समाप्त होने के बाद, विवाह हो जाने के बाद स्वाध्याय, स्वचिन्तन और उसके आधार पर व्यवहार यह मुख्य विषय बनता है। उस समय जिससे स्वाभाविक रूप से परामर्श लिया जा सकता है वे हैं मातापिता । प्रौण वानप्रस्थ मातापिता अभी भी परामर्शक हैं ही। विमर्श के लिये अन्य गृहस्थाश्रमी भी हैं। विश्वविद्यालयों में और अपने अपने घरों में शिक्षित युवावस्था के गृहस्थाश्रमी अब अपनी व्यवस्था से एकदूसरे से विमर्श कर सीखते हैं । विभिन्न व्यवसायों के, विभिन्न जातियों के, विभिन्न विचारधाराओं के, विभिन्न सम्प्रदायों के समूह संस्थाओं, मण्डलों और संगठनों के रूप में कार्यरत होते हैं जो अपने अपने क्षेत्र की स्थिति का आकलन करते हैं, उपलब्धियों और समस्याओं की चर्चा करते हैं, समस्याओं का हल खोजने का प्रयास करते हैं, अपनी सन्तानों की शिक्षा, संस्कार, चरित्र आदि के बारे में, अपने व्यवसाय की स्थिति और विकास के बारे में, अपने व्यवसाय के माध्यम से की जाने वाली समाजसेवा के बारे में चर्चा करते हैं । यहाँ निरन्तर शिक्षा होती ही रहती है ।गृहस्थ विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संगठनों से जुड़ते हैं । वहाँ समाजसेवा के प्रकल्प चलते हैं । वहाँ सांस्कृतिक और राष्ट्रीय समस्याओं की चर्चा होती है । उसमें हमारे लिये करणीय कार्य कया है इसकी भी चर्चा होती है । ऐसे कार्यों में गृहस्थों की सहभागिता होती है । काम करते करते सीखने और सिखाने का यह अच्छा माध्यम है । इसमें भी निःस्वार्थता और विवेक जितनी मात्रा में होते हैं उतनी मात्रा में शिक्षा अच्छी चलती है ।
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व्यवहार यह मुख्य विषय बनता है। उस समय जिससे
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== विशेष स्थिति में विशेष कार्य ==
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प्राकृतिक और मानवसर्जित संकर्टों में समाज के सभी सदस्यों को कुछ न कुछ करना होता है । साम्प्रदायिक दंगे, आतंकवादियों के हमले, कारीगरों या अन्य व्यावसायिकों की हडताल, आदि मानवसर्जित संकट हैं । कभी कभी ये अल्प अवधि के होते हैं, कभी दीर्घ अवधि के । कभी अधिक उग्र होते हैं, कभी कम उग्र । भूकम्प, बाढ़, अतिवृष्टि, अकाल आदि प्राकृतिक आपदायें हैं । वे भी कमअधिक मात्रा में भीषण होती हैं । ऐसे समय में हरेक को अपने समाजधर्म का पालन करना होता है । यह सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा है । इन संकटों का निवारण करना, इन आपदाओं में सहायता करना ही धर्म है । यह केवल सरकार का विषय नहीं है । सरकार और समाज दोनों का विषय है । इस कार्य में जो भी लोग जुडते हैं उनमें सीखने वाले और सिखाने वाले दोनों होते हैं । प्रत्यक्ष काम करते करते सीखना और सीखते सीखते करना इस शिक्षा का स्वरूप होता है । मुख्य बात यह है कि किसी ने भी ऐसे समय में बिना काम किये और बिना सीखे नहीं रहना चाहिये । ऐसे समय में सीखने से ही आगे किसी को सिखाने के पायक भी बनते हैं ।
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स्वाभाविक रूप से परामर्श लिया जा सकता है वे हैं
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== सम्प्रदाय सम्बन्धी शिक्षा ==
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सम्प्रदाय को और सम्प्रदायपरस्ती को आज हेय बना दिया गया है । इसका कारण स्वार्थ और राजनति तो है ही, साथ में इस विषय में उचित शिक्षा का अभाव भी है जिसके परिणाम स्वरूप सम्प्रदाय के अनुसार का विकृतिकरण हो गया है । सम्प्रदाय हेय नहीं है, साम्प्रदायिक विद्वेष हेय है । परन्तु आज सम्प्रदाय और साम्प्रदायिक विद्वेष को एकदूसरे के पर्याय के रूप में देखा जाता है । वास्तव में सम्प्रदाय व्यक्तियों की आस्था का आलम्बन है । वह चरित्र की रक्षा करने का साधन है । अतः सम्प्रदाय की शिक्षा की व्यवस्था होना आवश्यक है । यह शिक्षा लोकशिक्षा का ही अंग है, और महत्त्वपूर्ण अंग है । सम्प्रदाय सम्बन्धी शिक्षा के आयाम इस प्रकार हो सकते हैं:
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# सम्प्रदाय विषयक जानकारी: इसमें सम्प्रदाय का उद्गम, उसके संस्थापक अथवा प्रवर्तक, सम्प्रदाय का पवित्र ग्रन्थ, सम्प्रदाय की पहचान के साधन आदि की जानकारी हो सकती है ।
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# सम्प्रदाय की पूजा पद्धति, उसके ब्रत उपवास, आचार आदि की शिक्षा दी जानी चाहिये ।
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# सम्प्रदाय का धर्मतत्त्व समझना अत्यन्त आवश्यक है ।
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# सम्प्रदाय का अन्य सम्प्रदायों के साथ तथा व्यापक धर्म के साथ अविरोध होना अत्यन्त आवश्यक है । सम्प्रदाय के आचार्यों ट्वारा इसकी शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिये । इस हेतु से अन्य सम्प्रदायों के विषय में जानना भी आवश्यक होता है ।
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# कभी कभी युवा पीढी साम्प्रदायिक आचारों का पालन नहीं करती । इस स्थिति में परिस्थिति का आकलन कर या तो आचारपद्धति में परिवर्तन अथवा अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करना आवश्यक हो जाता है । सर्व पंथ समादर की शिक्षा देना प्रत्येक सम्प्रदाय का कर्तव्य है ।
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# अपने सम्प्रदाय का प्रचार करना इष्ट नहीं है। अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ और अन्य सम्प्रदायों को हेय मानना अधार्मिक है, अतः मूल से ही यह नहीं होना चाहिये । कोई यदि अपनी प्रतीति से और श्रद्धा से हमारे सम्प्रदाय का स्वीकार करना चाहे या छोड़ना चाहे तो उसकी अनुमति होनी चाहिये । हम देखते हैं कि आज ऐसा नहीं होता है । कुछ सम्प्रदाय परिवर्तन के अत्यधिक आग्रही होते हैं । अपना ही सम्प्रदाय सर्वश्रेष्ठ मानने वाले और उसका रानीतिक उपयोग करने वाले ये लोग बलात् धर्मपरिवर्तन करते हैं । उन्होंने अनेक सम्प्रदायों को नष्टप्राय कर दिया है और अनेक देशों को अपने सम्प्रदाय से व्याप्त कर दिया है। इस स्थिति में अन्य सम्प्रदायों ने सम्प्रदायपरिवर्तन न हो और सम्प्रदायपरिवर्तन के प्रतिकार की शक्ति निर्माण हो इसका भी प्रयास करना चाहिये । हर सम्प्रदाय को देश में सम्प्रदायों को लेकर क्या समस्या है उसका अध्ययन करना चाहिये और उसके निराकरण हेतु किये जाने वाले प्रयासों के स्वरूप का निर्धारण करना चाहिये और सम्प्रदाय के पथप्रदर्शक के निर्देशन में हर अनुयायी को व्यावहार करना चाहिये । हर अनुयायी को अपने सम्प्रदाय का आग्रहपूर्वक पालन करने की और कट्टरता से बचने की उदारता की शिक्षा साथ साथ मिलनी चाहिये । हमारा आज का प्रचलन ऐसा है कि ये सारी बातें हम सरकार को सौंप देते हैं और अपना दायरा व्यक्तिगत जीवन तक सीमित कर लेते हैं । सम्प्रदाय प्रमुख को चाहिये कि वह अपने अनुयायियों को सीमितता से मुक्त करे ।
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मातापिता । प्रौठ वानप्रस्थ मातापिता अभी भी परामर्शक हैं
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== आचार विचार की शुद्धता ==
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विद्यालयों और घरों में आचार विचार की शुद्धता का आग्रह सुसंस्कृत समाज का लक्षण है। ऐसा आग्रह सिखाना शिक्षकों और मातापिताओं का दायित्व है, परन्तु इनके लिये भी स्रोत मन्दिर, संस्था और धर्माचार्य हैं । ये धर्माचार्य किसी न किसी सम्प्रदाय के होने पर भी आचार विचार की शुद्धता सिखाने के लिये उन्हें सम्प्रदाय से ऊपर उठना चाहिये । उदाहरण के लिये:
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ही। विमर्श के लिये अन्य गृहस्थाश्रमी भी हैं।
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# सार्वजनिक स्थानों पर कचरा नहीं फेंकना ।
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# तीर्थस्थानों पर प्लास्टीक की थैलियाँ और डिब्बे नहीं फैंकना
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विश्वविद्यालयों में और अपने अपने घरों में शिक्षित
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# व्यसनों से मुक्त रहना
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# तामसी आहार नहीं करना और नहीं बेचना
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युवावस्था के गृहस्थाश्रमी अब अपनी व्यवस्था से एकदूसरे
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# पोलीएस्टर के कपडे नहीं पहनना
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# बिना स्नान किये रसोई या भोजनगृह में नहीं जाना
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से विमर्श कर सीखते हैं । विभिन्न व्यवसायों के, विभिन्न
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# अशिष्ट और असंस्कृत भाषा का प्रयोग नहीं करना
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# अशिष्ट वेशपरिधान नहीं करना
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जातियों के, विभिन्न विचारधाराओं के, विभिन्न सम्प्रदायों के
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# स्वयं अपवित्र नहीं रहना और किसी स्थान या पदार्थ को अपवित्र नहीं बनाना
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# श्रद्धाकेन्द्रों की निन्दा नहीं करना
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इस प्रकार से. सामाजिक सुरक्षा, सद्भावना, समरसता, एकात्मता बनी रहे और समाज का, देश का सामर्थ्य बढे ऐसे प्रयास होने चाहिये । ज्ञानक्षेत्र और धर्मक्षेत्र का यह दायित्व है। मुख्य दायित्व धर्मकेन्द्र का है, ज्ञानकेन्द्र को उसमें सहयोग करना है ।
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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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समूह संस्थाओं, मण्डलों और संगठनों के रूप में कार्यरत
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होते हैं जो अपने अपने क्षेत्र की स्थिति का आकलन करते
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हैं, उपलब्धियों और समस्याओं की चर्चा करते हैं,
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समस्याओं का हल खोजने का प्रयास करते हैं, अपनी
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सन्तानों की शिक्षा, संस्कार, चरित्र आदि के बारे में, अपने
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व्यवसाय की स्थिति और विकास के बारे में, अपने
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व्यवसाय के माध्यम से की जाने वाली समाजसेवा के बारे
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में चर्चा करते हैं । यहाँ निरन्तर शिक्षा होती ही रहती है ।
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गृहस्थ विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक
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संगठनों से जुड़ते हैं । वहाँ समाजसेवा के प्रकल्प चलते
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हैं । वहाँ सांस्कृतिक और राष्ट्रीय समस्याओं की चर्चा होती
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है । उसमें हमारे लिये करणीय कार्य कया है इसकी भी चर्चा
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होती है । ऐसे कार्यों में गृहस्थों की सहभागिता होती है ।
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काम करते करते सीखने और सिखाने का यह अच्छा
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माध्यम है । इसमें भी निःस्वार्थता और विवेक जितनी मात्रा
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में होते हैं उतनी मात्रा में शिक्षा अच्छी चलती है ।
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विशेष स्थिति में विशेष कार्य
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प्राकृतिक और मानवसर्जित संकर्टों में समाज के सभी
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सदस्यों को कुछ न कुछ करना होता है । साम्प्रदायिक दंगे,
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आतंकवादियों के हमले, कारीगरों या अन्य व्यावसायिकों
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की हडताल, आदि मानवसर्जित संकट हैं । कभी कभी ये
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अल्प अवधि के होते हैं, कभी दीर्घ अवधि के । कभी
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अधिक उग्र होते हैं, कभी कम उग्र । भूकम्प, बाढ़,
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अतिवृष्टि, अकाल आदि प्राकृतिक आपदायें हैं । वे भी
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कमअधिक मात्रा में भीषण होती हैं । ऐसे समय में हरेक को
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अपने समाजधर्म का पालन करना होता है । यह सामाजिक
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दायित्वबोध की शिक्षा है । इन संकटों का निवारण करना,
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इन आपदाओं में सहायता करना ही धर्म है । यह केवल
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सरकार का विषय नहीं है । सरकार और समाज दोनों का
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विषय है । इस कार्य में जो भी लोग जुडते हैं उनमें सीखने
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वाले और सिखाने वाले दोनों होते हैं । प्रत्यक्ष काम करते
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करते सीखना और सीखते सीखते करना इस शिक्षा का
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स्वरूप होता है ।
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मुख्य बात यह है कि किसी ने भी ऐसे समय में बिना
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काम किये और बिना सीखे नहीं रहना
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चाहिये । ऐसे समय में सीखने से ही आगे किसी को
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सिखाने के पायक भी बनते हैं ।
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३. सम्प्रदाय सम्बन्धी शिक्षा
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सम्प्रदाय को और सम्प्रदायपरस्ती को आज हेय बना
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दिया गया है । इसका कारण स्वार्थ और राजनति तो है ही,
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साथ में इस विषय में उचित शिक्षा का अभाव भी है जिसके
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परिणाम स्वरूप सम्प्रदाय के अनुसार का विकृतिकरण हो
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गया है । सम्प्रदाय हेय नहीं है, साम्प्रदायिक विद्रेष हेय है ।
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परन्तु आज सम्प्रदाय और साम्प्रदायिक विट्रेष को एकदूसरे
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के पर्याय के रूप में देखा जाता है । वास्तव में सम्प्रदाय
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व्यक्तियों की आस्था का आलम्बन है । वह चरित्र की रक्षा
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करने का साधन है । अतः सम्प्रदाय की शिक्षा की व्यवस्था
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होना आवश्यक है । यह शिक्षा लोकशिक्षा का ही अंग है,
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और महत्त्वपूर्ण अंग है । सम्प्रदाय सम्बन्धी शिक्षा के
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आयाम इस प्रकार हो सकते हैं
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१... सम्प्रदाय विषयक जानकारी : इसमें सम्पर्दाय का
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उद्गम, उसके संस्थापक अथवा प्रवर्तक, सम्प्रदाय
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का पवित्र ग्रन्थ, सम्प्रदाय की पहचान के साधन
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आदि की जानकारी हो सकती है ।
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सम्प्रदाय की पूजा पद्धति, उसके ब्रत उपवास,
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आचार आदि की शिक्षा दी जानी चाहिये ।
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सम्प्रदाय का धर्मतत्त्वसमझना अत्यन्त आवश्यक है ।
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सम्प्रदाय का अन्य सम्प्रदायों के साथ तथा व्यापक
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धर्म के साथ अविरोध होना अत्यन्त आवश्यक है ।
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सम्प्रदाय के आचार्यों ट्वारा इसकी शिक्षा अनिवार्य
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रूप से दी जानी चाहिये । इस हेतु से अन्य सम्प्रदायों
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के विषय में जानना भी आवश्यक होता है ।
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कभी कभी युवा पीढी साम्प्रदायिक आचारों का
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पालन नहीं करती । इस स्थिति में परिस्थिति का
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आकलन कर या तो आचारपद्धति में परिवर्तन अथवा
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अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करना आवश्यक हो जाता
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है । सर्व पंथ समादर की शिक्षा देना प्रत्येक सम्प्रदाय
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का कर्तव्य है ।
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अपने सम्प्रदाय का प्रचार करना
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इृष्ट नहीं है। अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ और अन्य
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सम्प्रदायों को हेय मानना अधार्मिक है, अतः मूल से
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ही यह नहीं होना चाहिये । कोई यदि अपनी प्रतीति
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से और श्रद्धा से हमारे सम्प्रदाय का स्वीकार करना
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चाहे या छोड़ना चाहे तो उसकी अनुमति होनी
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चाहिये । हम देखते हैं कि आज ऐसा नहीं होता है ।
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इस्लाम और इसाइयत सम्प्रदाय परिवर्तन के
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अत्यधिक आग्रही होते हैं । अपना ही सम्प्रदाय
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सर्वश्रेष्ठ मानने वाले और उसका रानीतिक उपयोग
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करने वाले ये लोग बलात् धर्मपरिवर्तन करते हैं ।
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उन्होंने अनेक सम्प्रदायों को नष्टप्राय कर दिया है और
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अनेक देशों को अपने सम्प्रदाय से व्याप्त कर दिया
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है। इस स्थिति में अन्य सम्प्रदायों ने
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सम्प्रदायपरिवर्तन न हो और सम्प्रदायपरिवर्तन के
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प्रतिकार की शक्ति निर्माण हो इसका भी प्रयास करना
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चाहिये । हर सम्प्रदाय को देश में सम्प्रदायों को लेकर
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क्या समस्या है उसका अध्ययन करना चाहिये और
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उसके निराकरण हेतु किये जाने वाले प्रयासों के
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स्वरूप का निर्धारण करना चाहिये और सम्प्रदाय के
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पथप्रदर्शक के निर्देशन में हर अनुयायी को व्यावहार
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करना चाहिये । हर अनुयायी को अपने सम्प्रदाय का
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ames पालन करने की और कट्टरता से बचने
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की उदारता की शिक्षा साथ साथ मिलनी चाहिये ।
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हमारा आज का प्रचलन ऐसा है कि ये सारी बातें हम
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सरकार को सौंप देते हैं और हमारा दायरा व्यक्तिगत
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जीवन तक सीमित कर लेते हैं । सम्प्रदाय प्रमुख को
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चाहिये कि वह अपने अनुयायियों को सीमितता से
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मुक्त करे ।
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४. आचार विचार की शुद्धता
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विद्यालयों और घरों में आचार विचार की शुद्धता का
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आग्रह सुसंस्कृत समाज का लक्षण है। ऐसा ame
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सिखाना शिक्षकों और मातापिताओं का दायित्व है, परन्तु
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इनके लिये भी स्रोत मन्दिर, संस्था और धर्माचार्य हैं । ये
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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धर्माचार्य किसी न किसी सम्प्रदाय के होने पर भी आचार
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विचार की शुद्धता सिखाने के लिये उन्होंने सम्प्रदाय से
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ऊपर उठना चाहिये । उदाहरण के लिये
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१... सार्वजनिक स्थानों पर कचरा नहीं फेंकना ।
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2. तीर्थस्थानों पर प्लास्टीक की थैलियाँ और
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डिब्बे नहीं फैंकना
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3. व्यसनों से मुक्त रहना
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¥. तामसी आहार नहीं करना और नहीं बेचना
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५. . पोलीएस्टर के कपडे नहीं पहनना
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६.. बिना स्नान किये रसोई या भोजनगृह में नहीं
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जाना
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७... अशिष्ट और असंस्कृत भाषा का प्रयोग नहीं
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करना
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é. अशिष्ट वेशपरिधान नहीं करना
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९... स्वयं अपवित्र नहीं रहना और किसी स्थान या
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पदार्थ को अपवित्र नहीं बनाना
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१०, श्रद्धाकेन्द्रों की निन््दा नहीं करना
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इस प्रकार से. सामाजिक सुरक्षा, सद्भावना,
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समरसता, एकात्मता बनी रहे और समाज का, देश का
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सामर्थ्य बढे ऐसे प्रयास होने चाहिये । ज्ञानक्षेत्र और धर्मक्षेत्र
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का यह दायित्व है। मुख्य दायित्व धर्मकेन्द्र का है,
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ज्ञानकेन्द्र को उसमें सहयोग करना है ।
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५. सामाजिक कानून और राज्य का कानून
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== सामाजिक कानून और राज्य का कानून ==
एक समय ऐसा था जब भारत में दो प्रकार के कानून
एक समय ऐसा था जब भारत में दो प्रकार के कानून