Changes

Jump to navigation Jump to search
→‎धर्म की व्याख्या: कंटेंट एडिट किया
Line 6: Line 6:  
धर्म की अनेक व्याख्याएं है । उन में से कुछ महत्वपूर्ण व्याख्याओं का अब हम विचार करेंगे ।  
 
धर्म की अनेक व्याख्याएं है । उन में से कुछ महत्वपूर्ण व्याख्याओं का अब हम विचार करेंगे ।  
   −
क)  धर्मो धारयते प्रजा : यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्याख्या है । जिन बातों के करने और ना करने से समाज की धारणा होती है उन का नम धर्म है । समाज की धारणा का अर्थ है समाज बने रहना, बलवान बनना, समाजजीवन में लचीलापन होना, समाज निरोग रहना और समाजजीवन मे तितिक्षा रहना । शरीरधर्म शब्द का प्रयोग हम कई बार करते है । इस का अर्थ है सर्वप्रथम शरीर बनाए रखने के लिये खाना पिना, मलमूत्र विसर्जन, आराम व्यायाम आदि के माध्यम से शरीर को बनाए रखना । दूसरे शरीर बलवान बनाना । जिसे आयुर्वेद में युक्त आहार विहार कहा है ऐसे व्यायाम, योग, योग्य आदतें योग्य पौष्टिक आहार आदि के माध्यम से शरीर बलवान बनाना । तीसरा है शरीर को लचीला बनाना और बनाए रखना । इस के लिये आसन या विविध प्रकार के खेल का अनियमित अभ्यास करना । चौथा है निरोग रहना । योग्य आदतें आहार विहार और दिनचर्या और ॠतुचर्या के अनुसार आचरण से शरीर निरोगी रहता है । तितिक्षा अर्थात् दम यह पाँचवीं बात है । विपरीत परिस्थियों में भी अधितम कालतक शरीर स्वस्थ बनाए रखने का अर्थ है तितिक्षावान बनना । यह अभ्यास से, शरीर के बल के आधारपर और इच्छाशक्ति बढाने से होता है। यह सब हो इस हेतु जो भी करना पडता है बस वही शरीरधर्म माना जाता है। इसी प्रकार पड़ोसी धर्म भी होता है । पड़ोसीयों के साथ संबंध बनें रहें, मजबूत हों, लचीले रहें, निरोग रहें और तितिक्षावान रहें इस हेतु जो जो करना पडे वही पड़ोसी धर्म कहलाता है ।  
+
=== क)  धर्मो धारयते प्रजा: ===
समाज बने रहने से तात्पर्य है समाज सातत्य से । समाज अपने वप्रशिष्ठयों के साथ चिरंजीवी बने इस के लिये आवश्यक बातें । समाज बलवान बनता है संगठन से । परस्पर प्रेमभाव से । ऐसा संगठन बनाने के लिये और परस्पर प्रेमभाव निर्माण करने और बनाए रखने की व्यवस्था से । समाज निरोगी, लचीला और तितिक्षावन बनता है योग्य संस्कार और शिक्षा और सुयोग्य व्यवस्थाओं के कारण । इसलिये हमारे पूर्वजों ने इस के लिये अधिजनन, पीढी-दर-पीढी संस्कार संक्रमण के लिये कुटुंब व्यवस्था, श्रेष्ठ, तेजस्वी और प्रभावी ऐसी गुरूकुल शिक्षा व्यवस्था, चतुराश्रम व्यवस्था, वर्णव्यवस्था आदी का निर्माण और व्यवहार किया था । इन्ही के फलस्वरूप सैंकड़ों वर्षों के निरंतर विदेशी बर्बर आक्रमणों के उपरांत भी हम आज अपनी अत्यंत श्रेष्ठ ऐसी वेदकालीन परंपराओं से अबतक पूर्णत: टूटे नहीं हैं।
+
यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्याख्या है । जिन बातों के करने और ना करने से समाज की धारणा होती है उन का नाम धर्म है । समाज की धारणा का अर्थ है समाज बने रहना, बलवान बनना, समाज जीवन में लचीलापन होना, समाज निरोग रहना और समाज जीवन मे तितिक्षा रहना । शरीर धर्म शब्द का प्रयोग हम कई बार करते है । इस का अर्थ है '''सर्वप्रथम''' शरीर बनाए रखने के लिये खाना पीना, आराम व्यायाम आदि के माध्यम से शरीर को बनाए रखना । '''दूसरा''' शरीर बलवान बनाना । जिसे आयुर्वेद में युक्त आहार विहार कहा है ऐसे व्यायाम, योग, योग्य आदतें योग्य पौष्टिक आहार आदि के माध्यम से शरीर बलवान बनाना । '''तीसरा''' है शरीर को लचीला बनाना और बनाए रखना । इस के लिये आसन या विविध प्रकार के खेल का अनियमित अभ्यास करना । '''चौथा''' है निरोग रहना । योग्य आदतें आहार विहार और दिनचर्या और ॠतुचर्या के अनुसार आचरण से शरीर निरोगी रहता है । तितिक्षा अर्थात् दम यह '''पाँचवीं''' बात है । विपरीत परिस्थियों में भी अधिकतम काल तक शरीर स्वस्थ बनाए रखने का अर्थ है तितिक्षावान बनना । यह अभ्यास से, शरीर के बल के आधार पर और इच्छा शक्ति बढाने से होता है। यह सब हो इस हेतु जो भी करना पडता है बस वही शरीर धर्म माना जाता है।
ख) धर्म का अर्थ है कर्तव्य:
+
 
धर्म का अर्थ कर्तव्य भी होता है । कर्तव्य के भी दो हिस्से है । एक है सामासिक धर्म या समाज के प्रत्येक घटकद्वारा अपेक्षित कर्तव्य और दूसरा हिस्सा है व्यक्तिगत स्तर के कर्तव्य । सामान्य धर्म के विषय में मनुस्मृति में कहा है -  
+
इसी प्रकार पड़ोसी धर्म भी होता है । पड़ोसीयों के साथ संबंध बनें रहें, मजबूत हों, लचीले रहें, निरोग रहें और तितिक्षावान रहें इस हेतु जो जो करना पडे वही पड़ोसी धर्म कहलाता है ।
 +
 
 +
समाज बने रहने से तात्पर्य है समाज सातत्य से । समाज अपनी विशिष्टताओं के साथ चिरंजीवी बने इस के लिये कुछ आवश्यक बातें समझना चाहिए । समाज बलवान बनता है संगठन से । परस्पर प्रेमभाव से । ऐसा संगठन बनाने के लिये और परस्पर प्रेमभाव निर्माण करने और बनाए रखने की व्यवस्था से । समाज निरोगी, लचीला और तितिक्षावन बनता है योग्य संस्कार और शिक्षा और सुयोग्य व्यवस्थाओं के कारण । इसलिये हमारे पूर्वजों ने इस के लिये अधिजनन, पीढी-दर-पीढी संस्कार संक्रमण के लिये कुटुंब व्यवस्था, श्रेष्ठ, तेजस्वी और प्रभावी ऐसी गुरूकुल शिक्षा व्यवस्था, चतुराश्रम व्यवस्था, वर्णव्यवस्था आदि का निर्माण और व्यवहार किया था । इन्ही के फलस्वरूप सैंकड़ों वर्षों के निरंतर विदेशी बर्बर आक्रमणों के उपरांत भी हम आज अपनी अत्यंत श्रेष्ठ वेदकालीन परंपराओं से अब तक पूर्णत: टूटे नहीं हैं।
 +
 
 +
=== ख) धर्म का अर्थ है कर्तव्य ===
 +
 
 +
धर्म का अर्थ कर्तव्य भी होता है । कर्तव्य के भी दो हिस्से है । एक है सामासिक धर्म या समाज के प्रत्येक घटकद्वारा अपेक्षित कर्तव्य और दूसरा हिस्सा है व्यक्तिगत स्तर के कर्तव्य । सामान्य धर्म के विषय में मनुस्मृति में कहा है -  
 
अहिंसा सत्य अस्तेयं शाप्रचमिन्द्रियनिग्रह: ।
 
अहिंसा सत्य अस्तेयं शाप्रचमिन्द्रियनिग्रह: ।
 
एतं सामासिकं धर्मं चातुरर््वण्येऽब्रवीन्मनु:  ॥  ( मनुस्मृती १० - १६३)
 
एतं सामासिकं धर्मं चातुरर््वण्येऽब्रवीन्मनु:  ॥  ( मनुस्मृती १० - १६३)
890

edits

Navigation menu