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| हर बालक का जन्म से ही अपना अपना अधिकतम विकास की सम्भावना का स्तर होता है। शिक्षा का काम उस संभाव्य विकास के उच्चतम स्तरतक पहुँचने के लिए मार्गदर्शन करना है। सम्पूर्णता और समग्रता में विकास ही शिक्षा की सीमा है। जब बालक का व्यक्तिगत, समष्टीगत, सृष्टिगत और परमेष्ठीगत ऐसा चहुँमुखी विकास होता है तब उसे समग्र विकास कहते हैं। | | हर बालक का जन्म से ही अपना अपना अधिकतम विकास की सम्भावना का स्तर होता है। शिक्षा का काम उस संभाव्य विकास के उच्चतम स्तरतक पहुँचने के लिए मार्गदर्शन करना है। सम्पूर्णता और समग्रता में विकास ही शिक्षा की सीमा है। जब बालक का व्यक्तिगत, समष्टीगत, सृष्टिगत और परमेष्ठीगत ऐसा चहुँमुखी विकास होता है तब उसे समग्र विकास कहते हैं। |
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− | व्यक्तिगत विकास में मनुष्य के ज्ञानार्जन के करणों का विकास आता है। पाँच कर्मेंद्रिय और पाँच ज्ञानेंद्रिय ये बाह्य-करण कहलाते हैं। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये अंत:करण कहलाते हैं। १५ वर्ष की आयुतक शिक्षा का साध्य बालक के ज्ञानार्जन के करणों का अधिकतम विकास यह होता है। इस के लिये विविध विषय साधन होते हैं। इससे आगे जब ज्ञानार्जन के करणों का अच्छी तरह से विकास हो गया है, विषयका ज्ञान साध्य और ज्ञानार्जन के विकसित करण साधन बन जाते हैं। समाज के साथ कौटुम्बिक भावना का विकास समष्टिगत और चराचर के साथ कौटुम्बिक भावना का विकास सृष्टिगत विकास कहलाता है। सृष्टिगत विकास का उच्चतम स्तर ही परमेष्ठीगत विकास है। समग्र विकास है। | + | व्यक्तिगत विकास में मनुष्य के ज्ञानार्जन के करणों का विकास आता है। पाँच कर्मेंद्रिय और पाँच ज्ञानेंद्रिय ये बाह्य-करण कहलाते हैं। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये अंत:करण कहलाते हैं। १५ वर्ष की आयुतक शिक्षा का साध्य बालक के ज्ञानार्जन के करणों का अधिकतम विकास यह होता है। इस के लिये विविध विषय साधन होते हैं। इससे आगे जब ज्ञानार्जन के करणों का अच्छी तरह से विकास हो गया है, विषयका ज्ञान साध्य और ज्ञानार्जन के विकसित करण साधन बन जाते हैं। समाज के साथ [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कौटुम्बिक भावना]] का विकास समष्टिगत और चराचर के साथ कौटुम्बिक भावना का विकास सृष्टिगत विकास कहलाता है। सृष्टिगत विकास का उच्चतम स्तर ही परमेष्ठीगत विकास है। समग्र विकास है। |
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| शिक्षा के महत्त्वपूर्ण पहलू निम्न हैं: | | शिक्षा के महत्त्वपूर्ण पहलू निम्न हैं: |
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| ## स्वभाव शुद्धि और वृद्धि की शिक्षा : मोटे मोटे तौर पर जो भी स्वभाव धर्म व्यवस्था निर्धारित करे उन स्वभावों की शुद्धि और वृद्धि की व्यवस्था करना। यह करते समय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सभी स्वभावों के सन्तुलन और समायोजन का भी ध्यान रखना। | | ## स्वभाव शुद्धि और वृद्धि की शिक्षा : मोटे मोटे तौर पर जो भी स्वभाव धर्म व्यवस्था निर्धारित करे उन स्वभावों की शुद्धि और वृद्धि की व्यवस्था करना। यह करते समय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सभी स्वभावों के सन्तुलन और समायोजन का भी ध्यान रखना। |
| ## काम पुरूषार्थ की शिक्षा : मनुष्य के जीवन का पहला पुरूषार्थ काम है। काम का अर्थ कामना है, इच्छा है। इच्छाएँ धर्म के दायरे में रहें इसलिये काम की शिक्षा आवश्यक होती है। इछाएँ मन करता है। इसलिये काम की शिक्षा का अर्थ है मन की शिक्षा। सामान्यत: बुद्धि सत्यानुगामी होती है। मन के विकार ही उसे भटकाते हैं। मन की शिक्षा के लिये पहले मन को ठीक से समझना होगा। मन की शिक्षा का अर्थ है मन को बुद्धि के नियंत्रण में विवेक के नियंत्रण में रखने की शिक्षा। काम की याने मन की शिक्षा के विषय में अधिक जानने के लिये कृपया [[Indian Governance Systems (धार्मिक शासन दृष्टि)|यहाँ]] देखें। | | ## काम पुरूषार्थ की शिक्षा : मनुष्य के जीवन का पहला पुरूषार्थ काम है। काम का अर्थ कामना है, इच्छा है। इच्छाएँ धर्म के दायरे में रहें इसलिये काम की शिक्षा आवश्यक होती है। इछाएँ मन करता है। इसलिये काम की शिक्षा का अर्थ है मन की शिक्षा। सामान्यत: बुद्धि सत्यानुगामी होती है। मन के विकार ही उसे भटकाते हैं। मन की शिक्षा के लिये पहले मन को ठीक से समझना होगा। मन की शिक्षा का अर्थ है मन को बुद्धि के नियंत्रण में विवेक के नियंत्रण में रखने की शिक्षा। काम की याने मन की शिक्षा के विषय में अधिक जानने के लिये कृपया [[Indian Governance Systems (धार्मिक शासन दृष्टि)|यहाँ]] देखें। |
− | ## अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा : अर्थ से तात्पर्य यहाँ केवल पैसे से नहीं है। कामनाओं की पूर्ति के लिए किये गये प्रयास और साथ में उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन भी अर्थ पुरूषार्थ के हिस्से हैं। जिस प्रकार काम पुरुषार्थ जीवनव्यापी है उसी प्रकार अर्थ पुरूषार्थ भी जीवन व्यापनेवाला है। जब लेने के स्थानपर देनेपर बल दिया जाता है तब समृद्धि व्यवस्था अच्छी चलती है। सर्वहितकारी होती है। दिया तो वही जा सकता है जो अर्जित किया हो या अपने पास पहले से ही हो। अपने पास जो है उस में से सर्वश्रेष्ठ जो है उसे देने की मानसिकता समाज को श्रेष्ठ बनाती है। ऐसी मानसिकतावाले समाज का मनुष्य जो भी करता है वह सर्वश्रेष्ठ बने इसका प्रयास करता है। और ऐसा प्रयास जिस समाज के लोग करेंगे उस समाज का सम्मान तो अन्य समाज करेंगे ही। दान की भी यही संकल्पना है। जो सर्वश्रेष्ठ है उसी का तो दान किया जाता है (नचिकेता की कथा)। अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा के कुछ बिंदु निम्न हैं: | + | ## अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा : अर्थ से तात्पर्य यहाँ केवल पैसे से नहीं है। कामनाओं की पूर्ति के लिए किये गये प्रयास और साथ में उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन भी अर्थ पुरूषार्थ के हिस्से हैं। जिस प्रकार काम पुरुषार्थ जीवनव्यापी है उसी प्रकार अर्थ पुरूषार्थ भी जीवन व्यापनेवाला है। जब लेने के स्थानपर देनेपर बल दिया जाता है तब समृद्धि व्यवस्था अच्छी चलती है। सर्वहितकारी होती है। दिया तो वही जा सकता है जो अर्जित किया हो या अपने पास पहले से ही हो। अपने पास जो है उस में से सर्वश्रेष्ठ जो है उसे देने की मानसिकता समाज को श्रेष्ठ बनाती है। ऐसी मानसिकता वाले समाज का मनुष्य जो भी करता है वह सर्वश्रेष्ठ बने इसका प्रयास करता है। और ऐसा प्रयास जिस समाज के लोग करेंगे उस समाज का सम्मान तो अन्य समाज करेंगे ही। दान की भी यही संकल्पना है। जो सर्वश्रेष्ठ है उसी का तो दान किया जाता है (नचिकेता की कथा)। अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा के कुछ बिंदु निम्न हैं: |
| ##* भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं। | | ##* भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं। |
| ##* खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है। | | ##* खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है। |
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| ##* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है। | | ##* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है। |
| ##* समृद्धि व्यवस्था क्रय विक्रय की नहीं, व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: कुटुम्ब शिक्षा का होता है। विद्या केन्द्र की शिक्षा में इसे दृढ़ किया जाता है। | | ##* समृद्धि व्यवस्था क्रय विक्रय की नहीं, व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: कुटुम्ब शिक्षा का होता है। विद्या केन्द्र की शिक्षा में इसे दृढ़ किया जाता है। |
− | ##* संपन्नता और समृद्धि में अन्तर होता है। धन के संस्चय से सम्पन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं होगी तो संपत्ति का उचित वितरण नहीं होगा और समृद्धि नहीं आयेगी। देने की मानसिकता ही व्यक्ति ओर समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। यह लेखक के अपने बचपन में प्रत्यक्ष अनुभव की हुई बात है। | + | ##* संपन्नता और समृद्धि में अन्तर होता है। धन के संचय से सम्पन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं होगी तो संपत्ति का उचित वितरण नहीं होगा और समृद्धि नहीं आयेगी। देने की मानसिकता ही व्यक्ति ओर समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। यह लेखक के अपने बचपन में प्रत्यक्ष अनुभव की हुई बात है। |
− | ##* जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। अतः जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन की इष्ट गति, इस संकल्पना को हम विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टि के विषय में जानने का प्रयास करेंगे। अर्थ पुरुषार्थ के धन और आर्थिक समृद्धि से जुड़े महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का ज्ञान हम धार्मिक समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि के विषय में प्राप्त करेंगे। | + | ##* जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। अतः जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन की इष्ट गति, इस संकल्पना को हम विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टि के विषय में जानने का प्रयास करेंगे। अर्थ पुरुषार्थ के धन और आर्थिक समृद्धि से जुड़े महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का ज्ञान हम धार्मिक समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि के विषय में प्राप्त करेंगे। |
| ## धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं: | | ## धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं: |
− | ##* अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म , ऐसी भी धर्म की एक अत्यंत सरल व्याख्या की गई है। | + | ##* अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म, ऐसी भी धर्म की एक अत्यंत सरल व्याख्या की गई है। |
| ##* प्रकृति के नियम धर्म हैं। प्रकृति के नियमों का सब के हित में उपयोग करना संकृति है। सामान्य परिस्थितियों में धर्माचरण की समझ निर्माण करने के लिये धर्मशिक्षा होती है। | | ##* प्रकृति के नियम धर्म हैं। प्रकृति के नियमों का सब के हित में उपयोग करना संकृति है। सामान्य परिस्थितियों में धर्माचरण की समझ निर्माण करने के लिये धर्मशिक्षा होती है। |
| ##* इच्छाओं को और प्रयासों को धर्म की सीमा में रखना सिखाना ही धर्म शिक्षा है। इच्छाएँ और उनकी पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन यह सब धर्म के अनुकूल होने चाहिए। धन कमाना और उस धनका विनियोग करना, इन दोनों बातों का नियामक धर्म होना चाहिये। | | ##* इच्छाओं को और प्रयासों को धर्म की सीमा में रखना सिखाना ही धर्म शिक्षा है। इच्छाएँ और उनकी पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन यह सब धर्म के अनुकूल होने चाहिए। धन कमाना और उस धनका विनियोग करना, इन दोनों बातों का नियामक धर्म होना चाहिये। |
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| #* संक्षेप में कहें तो अर्थ पुरूषार्थ की शिक्षा में दिये लगभग सभी बिंदुओं को व्यवहार में लाने के लिये कौटुम्बिक व्यवसाय अनिवार्य ऐसा पहलू है। | | #* संक्षेप में कहें तो अर्थ पुरूषार्थ की शिक्षा में दिये लगभग सभी बिंदुओं को व्यवहार में लाने के लिये कौटुम्बिक व्यवसाय अनिवार्य ऐसा पहलू है। |
| # कौशल समायोजन व्यवस्था : मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत सारी हैं। लेकिन एक मनुष्य की क्षमताएँ मर्यादित हैं। इसलिये परस्परावलंबन अनिवार्य होता है। हर मनुष्य की अपनी विशेषता होती है। इस विशेषता में किसी व्यावसायिक कौशल के विकास की सम्भावना भी आती है। कोई दिखने में सरल और लाभदायक व्यवसाय करने इच्छा होना तो सभी के लिये स्वाभाविक है। लेकिन ऐसा प्रत्यक्ष में होने से एक ओर तो जीवन के कई व्यावसायिक कौशलों की क्षमता होते हुए भी लोग उन का उपयोग नहीं करेंगे। दुसरी बात याने इससे समाज की उन आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं हो पाएगी। तीसरी बात याने किसी एक कौशल के क्षेत्र में अनावश्यक संख्या में लोग आने से स्पर्धा, संघर्ष, नैराश्य, लाचारी, बेरोजगारी आदि अनेक दोष समाज में निर्माण होंगे। समाज के प्रत्येक व्यक्ति की अंगभूत कौशल के विकास की संभावनाओं को समझकर उस व्यक्ति का विकास उस व्यावसायिक कौशल के क्षेत्र में होने से वह व्यक्ति और समाज दोनों लाभान्वित होंगे। | | # कौशल समायोजन व्यवस्था : मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत सारी हैं। लेकिन एक मनुष्य की क्षमताएँ मर्यादित हैं। इसलिये परस्परावलंबन अनिवार्य होता है। हर मनुष्य की अपनी विशेषता होती है। इस विशेषता में किसी व्यावसायिक कौशल के विकास की सम्भावना भी आती है। कोई दिखने में सरल और लाभदायक व्यवसाय करने इच्छा होना तो सभी के लिये स्वाभाविक है। लेकिन ऐसा प्रत्यक्ष में होने से एक ओर तो जीवन के कई व्यावसायिक कौशलों की क्षमता होते हुए भी लोग उन का उपयोग नहीं करेंगे। दुसरी बात याने इससे समाज की उन आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं हो पाएगी। तीसरी बात याने किसी एक कौशल के क्षेत्र में अनावश्यक संख्या में लोग आने से स्पर्धा, संघर्ष, नैराश्य, लाचारी, बेरोजगारी आदि अनेक दोष समाज में निर्माण होंगे। समाज के प्रत्येक व्यक्ति की अंगभूत कौशल के विकास की संभावनाओं को समझकर उस व्यक्ति का विकास उस व्यावसायिक कौशल के क्षेत्र में होने से वह व्यक्ति और समाज दोनों लाभान्वित होंगे। |
− | ## आनुवंशिकता : व्यावसायिक कौशलों का आनुवंशिकता से संबंध होता है। माता पिता (विशेषत: पिता) में यदि एक व्यावसायिक कौशल के विकास की संभावनाएँ या क्षमताएँ हैं तो उनके बच्चोंं में उस व्यावसायिक कुशलता का अवतरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। जब उनके बच्चे वही व्यवसाय अपनाते हैं तब उन्हें काम बोझ नहीं लगता। उन्हें अपने व्यावसायिक काम में आनंद आता है। यह आनंद उनके जीवन में भर जाता है। ऐसे लोग औरों को भी आनंद बाँटते हैं। इस दृष्टि से व्यावसायिक कौशलों के समायोजन के लिये निम्न बिंदुओं का विचार करना आवश्यक होगा। ऐसी व्यावसायिक कौशलों के समायोजन की व्यवस्था के लाभ हमने [[Jaati System ([[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]])|इस]] लेख में जाने हैं। आनुवंशिकता के कुछ लाभ नीचे लिख रहे हैं: | + | ## आनुवंशिकता : व्यावसायिक कौशलों का आनुवंशिकता से संबंध होता है। माता पिता (विशेषत: पिता) में यदि एक व्यावसायिक कौशल के विकास की संभावनाएँ या क्षमताएँ हैं तो उनके बच्चोंं में उस व्यावसायिक कुशलता का अवतरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। जब उनके बच्चे वही व्यवसाय अपनाते हैं तब उन्हें काम बोझ नहीं लगता। उन्हें अपने व्यावसायिक काम में आनंद आता है। यह आनंद उनके जीवन में भर जाता है। ऐसे लोग औरों को भी आनंद बाँटते हैं। इस दृष्टि से व्यावसायिक कौशलों के समायोजन के लिये निम्न बिंदुओं का विचार करना आवश्यक होगा। ऐसी व्यावसायिक कौशलों के समायोजन की व्यवस्था के लाभ हमने [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] लेख में जाने हैं। आनुवंशिकता के कुछ लाभ नीचे लिख रहे हैं: |
| ##* पिता से स्वभाविक रूप में जो कौशल बेटे को प्राप्त हुए हैं उनका सदुपयोग। | | ##* पिता से स्वभाविक रूप में जो कौशल बेटे को प्राप्त हुए हैं उनका सदुपयोग। |
| ##* कौशल की आवश्यकता और उपलब्धता का संतुलन। | | ##* कौशल की आवश्यकता और उपलब्धता का संतुलन। |
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| # नियंत्रण: समृद्धि व्यवस्था पर नियंत्रण का स्वरूप विकेंद्रित होगा। जिस केंद्र से जुडा विषय होगा उस स्तर से ही नियंत्रण किया जाएगा। जैसे: | | # नियंत्रण: समृद्धि व्यवस्था पर नियंत्रण का स्वरूप विकेंद्रित होगा। जिस केंद्र से जुडा विषय होगा उस स्तर से ही नियंत्रण किया जाएगा। जैसे: |
| ## कुटुम्ब | | ## कुटुम्ब |
− | ## ग्राम | + | ## [[Grama Kul (ग्रामकुल)|ग्राम]] |
| ## कौशल विधा | | ## कौशल विधा |
| ## न्यायालय (अंतिम केंद्र) | | ## न्यायालय (अंतिम केंद्र) |