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| ##* भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं। | | ##* भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं। |
| ##* खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है। | | ##* खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है। |
− | ##* समृध्दि के लिये प्राकृतिक संसाधन, बुद्धि और कुशलता ऐसी तीन बातों के समायोजन की आवश्यकता होती है। | + | ##* समृद्धि के लिये प्राकृतिक संसाधन, बुद्धि और कुशलता ऐसी तीन बातों के समायोजन की आवश्यकता होती है। |
| ##* जिस में प्राणशक्ति अधिक है वह अधिक कर्मवान है। वह अधिक अच्छी तरह कौशलों का अर्जन कर सकता है। | | ##* जिस में प्राणशक्ति अधिक है वह अधिक कर्मवान है। वह अधिक अच्छी तरह कौशलों का अर्जन कर सकता है। |
| ##* सत्य, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि सांस्कृतिक या धार्मिक बातों को धन से नहीं तोला जा सकता। | | ##* सत्य, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि सांस्कृतिक या धार्मिक बातों को धन से नहीं तोला जा सकता। |
| ##* ये बातें अनमोल होतीं हैं। कहा गया है - अर्थशास्त्रात् बलवत् धर्मशास्त्रात् इति स्मृता:। अर्थशास्त्र धर्मशास्त्र द्वारा नियंत्रित होना चाहिये। | | ##* ये बातें अनमोल होतीं हैं। कहा गया है - अर्थशास्त्रात् बलवत् धर्मशास्त्रात् इति स्मृता:। अर्थशास्त्र धर्मशास्त्र द्वारा नियंत्रित होना चाहिये। |
− | ##* उत्पादक काम तीन प्रकार के होते हैं। उपयोगी, अनुपयोगी और हानिकारक। केवल उपयोगी काम करने से समृध्दि प्राप्त होती है। अनुपयोगी काम करने से आभासी समृध्दि प्राप्त होती है। हानिकारक काम करने से समृध्दि नष्ट हो जाती है। | + | ##* उत्पादक काम तीन प्रकार के होते हैं। उपयोगी, अनुपयोगी और हानिकारक। केवल उपयोगी काम करने से समृद्धि प्राप्त होती है। अनुपयोगी काम करने से आभासी समृद्धि प्राप्त होती है। हानिकारक काम करने से समृद्धि नष्ट हो जाती है। |
| ##* अपने ‘स्व’भाव के अनुसार काम करने से काम में सहजता भी आती है और काम बोझ नहीं बनता। काम में आनंद आता है। छुट्टी की आवश्यकता नहीं होती। वैसे भी प्रकृति में कोई छुट्टी नहीं लेता। फिर मानव क्यों छुट्टी ले ? | | ##* अपने ‘स्व’भाव के अनुसार काम करने से काम में सहजता भी आती है और काम बोझ नहीं बनता। काम में आनंद आता है। छुट्टी की आवश्यकता नहीं होती। वैसे भी प्रकृति में कोई छुट्टी नहीं लेता। फिर मानव क्यों छुट्टी ले ? |
| ##* प्रकृति तो गाँवों में होती है। ग्राम की तुलना में शहर तो अप्राकृतिक ही होते हैं। इसलिये समृद्धि व्यवस्था ग्राम केन्द्रित होनी चाहिये। समृद्धि व्यवस्था को ग्राम केन्द्रित बनाने के लिये सर्वप्रथम सभी प्रकार के विद्या केन्द्र गाँवों में ले जाने होंगे। प्रगत अध्ययन केन्द्र शहरों में चल सकते हैं। | | ##* प्रकृति तो गाँवों में होती है। ग्राम की तुलना में शहर तो अप्राकृतिक ही होते हैं। इसलिये समृद्धि व्यवस्था ग्राम केन्द्रित होनी चाहिये। समृद्धि व्यवस्था को ग्राम केन्द्रित बनाने के लिये सर्वप्रथम सभी प्रकार के विद्या केन्द्र गाँवों में ले जाने होंगे। प्रगत अध्ययन केन्द्र शहरों में चल सकते हैं। |
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| ##* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है। | | ##* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है। |
| ##* समृद्धि व्यवस्था क्रय विक्रय की नहीं, व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: कुटुम्ब शिक्षा का होता है। विद्या केन्द्र की शिक्षा में इसे दृढ़ किया जाता है। | | ##* समृद्धि व्यवस्था क्रय विक्रय की नहीं, व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: कुटुम्ब शिक्षा का होता है। विद्या केन्द्र की शिक्षा में इसे दृढ़ किया जाता है। |
− | ##* संपन्नता और समृध्दि में अन्तर होता है। धन के संस्चय से सम्पन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं होगी तो संपत्ति का उचित वितरण नहीं होगा और समृद्धि नहीं आयेगी। देने की मानसिकता ही व्यक्ति ओर समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। यह लेखक के अपने बचपन में प्रत्यक्ष अनुभव की हुई बात है। | + | ##* संपन्नता और समृद्धि में अन्तर होता है। धन के संस्चय से सम्पन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं होगी तो संपत्ति का उचित वितरण नहीं होगा और समृद्धि नहीं आयेगी। देने की मानसिकता ही व्यक्ति ओर समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। यह लेखक के अपने बचपन में प्रत्यक्ष अनुभव की हुई बात है। |
| ##* जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। अतः जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन की इष्ट गति, इस संकल्पना को हम विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टि के विषय में जानने का प्रयास करेंगे। अर्थ पुरुषार्थ के धन और आर्थिक समृद्धि से जुड़े महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का ज्ञान हम धार्मिक समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि के विषय में प्राप्त करेंगे। | | ##* जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। अतः जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन की इष्ट गति, इस संकल्पना को हम विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टि के विषय में जानने का प्रयास करेंगे। अर्थ पुरुषार्थ के धन और आर्थिक समृद्धि से जुड़े महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का ज्ञान हम धार्मिक समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि के विषय में प्राप्त करेंगे। |
| ## धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं: | | ## धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं: |