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१७ वीं सदी में भारत में अंग्रेज आए। भारत में चलनेवाली विभिन्न सामाजिक प्रक्रियाओं को समझना उन की समझ से परे था। यहाँ पहले स्नान कौन करेगा इस के लिये झगडते नि:स्वार्थी साधू देखे। मेकॉले को कोई भिखारी दिखाई नही दिया। लोग धर्मशाला बनवाते थे। अन्नछत्र चलाते थे। धर्म का काम करते थे। ऐसा ये लोग क्यों करते हैं ? यह उन की समझ से बाहर था।
 
१७ वीं सदी में भारत में अंग्रेज आए। भारत में चलनेवाली विभिन्न सामाजिक प्रक्रियाओं को समझना उन की समझ से परे था। यहाँ पहले स्नान कौन करेगा इस के लिये झगडते नि:स्वार्थी साधू देखे। मेकॉले को कोई भिखारी दिखाई नही दिया। लोग धर्मशाला बनवाते थे। अन्नछत्र चलाते थे। धर्म का काम करते थे। ऐसा ये लोग क्यों करते हैं ? यह उन की समझ से बाहर था।
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पॉल कैनेडी अपने 'राईज ऍंड फॉल ऑफ ग्रेट नेशन्स ' इस पुस्तक में कुछ सांख्यिकीय जानकारी देता है। इस जानकारी के अनुसार भारत का सन १७५० का औद्योगिक उत्पादन विश्व के उत्पादन का २४.५ प्रतिशत था। अर्थात् भारत विश्व का सब से प्रगत औद्योगिक देश था। एक सामान्य मजदूर दिन का कम से कम ५० ग्रॅम मक्खन खाने की हैसियत रखता था। इतनी भारत के जनजन की माली हालत अच्छी थी। भारत की इस प्रतिभा का रहस्य अंग्रेज जान नही पाए। इस आर्थिक समृध्दि के साथ ही भारत की अर्थव्यवस्था का आकलन भी करने का प्रयास अंग्रेजों ने किया। और उन्हें समझ में आया की भारत में चलन विनिमय से बहुत ही कम व्यवहार होते हैं। किन्तु उपभोग की वस्तुएं तो सभी को प्राप्त होती हैं। इसलिये उन्हे लगा की भारत की अर्थव्यवस्था वस्तू-विनिमय ( बार्टर सिस्टिम ) से चलती है। उन का यह आकलन भी गलत ही था। इस का कारण तो कोई सामान्य समझवाला मनुष्य भी समझ सकता है। थोडा वस्तू विनिमय की पध्दति का विश्लेषण कर के देखें।
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पॉल कैनेडी अपने 'राईज ऍंड फॉल ऑफ ग्रेट नेशन्स ' इस पुस्तक में कुछ सांख्यिकीय जानकारी देता है। इस जानकारी के अनुसार भारत का सन १७५० का औद्योगिक उत्पादन विश्व के उत्पादन का २४.५ प्रतिशत था। अर्थात् भारत विश्व का सब से प्रगत औद्योगिक देश था। एक सामान्य मजदूर दिन का कम से कम ५० ग्रॅम मक्खन खाने की हैसियत रखता था। इतनी भारत के जनजन की माली हालत अच्छी थी। भारत की इस प्रतिभा का रहस्य अंग्रेज जान नही पाए। इस आर्थिक समृद्धि के साथ ही भारत की अर्थव्यवस्था का आकलन भी करने का प्रयास अंग्रेजों ने किया। और उन्हें समझ में आया की भारत में चलन विनिमय से बहुत ही कम व्यवहार होते हैं। किन्तु उपभोग की वस्तुएं तो सभी को प्राप्त होती हैं। इसलिये उन्हे लगा की भारत की अर्थव्यवस्था वस्तू-विनिमय ( बार्टर सिस्टिम ) से चलती है। उन का यह आकलन भी गलत ही था। इस का कारण तो कोई सामान्य समझवाला मनुष्य भी समझ सकता है। थोडा वस्तू विनिमय की पध्दति का विश्लेषण कर के देखें।
    
किसान धान पैदा करता है। कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता है। कुम्हार अपने मिट्टी के बर्तन देकर किसान से धान प्राप्त करता है। यह है वस्तू विनिमय का स्वरूप। किन्तु इसमें कुम्हार धान के बगैर जी नही सकता। जब कि किसान बगैर मिट्टी के बर्तनों के भी जी सकता है। इसलिये जब किसान को मिट्टी के बर्तनों की आवश्यकता नही होगी कुम्हार तो भूखा मर जाएगा। और कोई उदाहरण देख लें। जुलाहा कपड़े बुनता है। सुनार गहने बनाता है। जुलाहे का काम तो गहनों के बिना चल सकता है। किन्तु सुनार का काम वस्त्रों के बिना नही चल सकता। इसलिये जब जुलाहे को गहनों की आवश्यकता नही होगी सुनार के लिये वस्त्रों की आपूर्ति संभव नही होगी। संक्षेप में कहें तो इस तरह की वस्तू-विनिमय की व्यवस्था अत्यंत अव्यावहारिक है।
 
किसान धान पैदा करता है। कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता है। कुम्हार अपने मिट्टी के बर्तन देकर किसान से धान प्राप्त करता है। यह है वस्तू विनिमय का स्वरूप। किन्तु इसमें कुम्हार धान के बगैर जी नही सकता। जब कि किसान बगैर मिट्टी के बर्तनों के भी जी सकता है। इसलिये जब किसान को मिट्टी के बर्तनों की आवश्यकता नही होगी कुम्हार तो भूखा मर जाएगा। और कोई उदाहरण देख लें। जुलाहा कपड़े बुनता है। सुनार गहने बनाता है। जुलाहे का काम तो गहनों के बिना चल सकता है। किन्तु सुनार का काम वस्त्रों के बिना नही चल सकता। इसलिये जब जुलाहे को गहनों की आवश्यकता नही होगी सुनार के लिये वस्त्रों की आपूर्ति संभव नही होगी। संक्षेप में कहें तो इस तरह की वस्तू-विनिमय की व्यवस्था अत्यंत अव्यावहारिक है।

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