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→‎२. परम्परा गौरव: लेख सम्पादित किया
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# इसी प्रकार से वैज्ञानिकों ने ज्ञान तक पहुँचने हेतु, जगत के सम्यक् परिचय हेतु, व्यवहार को सुकर और समुचित बनाने हेतु प्रक्रियायें निर्धारित की हैं। प्रकृति को, प्राणियों को, मनुष्यों को शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और क्षमताओं की दृष्टि से हानि न हो, उपयोग के लिये अत्यन्त सुकर हो, कहीं भी अत्यन्त सुलभ हो और किसी भी विषय में निपुणता और उत्कृष्टता प्राप्त हो सके ऐसा तन्त्रज्ञान विकसित किया। इस विज्ञान और तन्त्रज्ञान की सार्थकता और इसकी पार्श्वभूमि में स्थित दृष्टि की बराबरी विश्व में कोई नहीं कर सकता।  
 
# इसी प्रकार से वैज्ञानिकों ने ज्ञान तक पहुँचने हेतु, जगत के सम्यक् परिचय हेतु, व्यवहार को सुकर और समुचित बनाने हेतु प्रक्रियायें निर्धारित की हैं। प्रकृति को, प्राणियों को, मनुष्यों को शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और क्षमताओं की दृष्टि से हानि न हो, उपयोग के लिये अत्यन्त सुकर हो, कहीं भी अत्यन्त सुलभ हो और किसी भी विषय में निपुणता और उत्कृष्टता प्राप्त हो सके ऐसा तन्त्रज्ञान विकसित किया। इस विज्ञान और तन्त्रज्ञान की सार्थकता और इसकी पार्श्वभूमि में स्थित दृष्टि की बराबरी विश्व में कोई नहीं कर सकता।  
 
# ज्ञान अपने तात्त्विक रूप में अपरिवर्तित रहता है परन्तु उसका जो व्यावहारिक स्वरूप होता है वह देशकाल-परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तनशील रहता है। यह सत्य हमारे पूर्वजों ने जाना, उसे समझा, तत्त्व और व्यवहार के स्वरूप को जानने का निरक्षीरविवेक विकसित किया और समय समय पर व्यवहार में आवश्यक परिवर्तन करते हए स्मृति ग्रन्थों की रचना की। ऐसे व्यवहारदक्ष पूर्वजों के सम्बन्ध में गौरव का अनुभव करना स्वाभाविक है।  
 
# ज्ञान अपने तात्त्विक रूप में अपरिवर्तित रहता है परन्तु उसका जो व्यावहारिक स्वरूप होता है वह देशकाल-परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तनशील रहता है। यह सत्य हमारे पूर्वजों ने जाना, उसे समझा, तत्त्व और व्यवहार के स्वरूप को जानने का निरक्षीरविवेक विकसित किया और समय समय पर व्यवहार में आवश्यक परिवर्तन करते हए स्मृति ग्रन्थों की रचना की। ऐसे व्यवहारदक्ष पूर्वजों के सम्बन्ध में गौरव का अनुभव करना स्वाभाविक है।  
# हमारे पूर्वजों ने मनुष्य स्वभाव को पहचानकर, उसकी वृत्तिप्रवृत्तियों का आकलन कर, उसके विकास की सम्भावनाओं को परखकर, सामुदायिक जीवन की आवश्यकताओं को समझकर समाजव्यवस्था का निर्माण किया, व्यवस्था के मूल आधार निश्चित किये, कर्तव्य धर्म का निरूपण किया और सब तक उसका ज्ञान पहुँचे ऐसी व्यवस्था की। इसके तहत हमें आश्रमचतुष्टय, पुरुषार्थ चतुष्टय, वर्णचतुष्टय, सोलह संस्कार आदि की व्यवस्था प्राप्त हुई। इन व्यवस्थाओं की महत्ता इस बात में है कि इनके चलते हमारा समाज युगों तक सुस्थिति में बना रहा ।  
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# हमारे पूर्वजों ने मनुष्य स्वभाव को पहचानकर, उसकी वृत्तिप्रवृत्तियों का आकलन कर, उसके विकास की सम्भावनाओं को परखकर, सामुदायिक जीवन की आवश्यकताओं को समझकर समाजव्यवस्था का निर्माण किया, व्यवस्था के मूल आधार निश्चित किये, कर्तव्य धर्म का निरूपण किया और सब तक उसका ज्ञान पहुँचे ऐसी व्यवस्था की। इसके तहत हमें [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमचतुष्टय]], पुरुषार्थ चतुष्टय, वर्णचतुष्टय, सोलह संस्कार आदि की व्यवस्था प्राप्त हुई। इन व्यवस्थाओं की महत्ता इस बात में है कि इनके चलते हमारा समाज युगों तक सुस्थिति में बना रहा ।  
 
# आज यदि इन में से अनेक बातें कालबाह्य हो गई हैं ऐसा लगता है तो इसका कारण यह है कि विगत पाँच से भी अधिक पीढियों में ये खण्डित हुई, इनका प्रवाह अवरुद्ध हुआ, इन्हें विकृत बनाया गया, इनका दुरुपयोग हुआ और इन्हें बदनाम किया गया । इसका संकेत यह है कि इनमें काल और परिस्थिति से सुसंगत परिवर्तन कर, इन्हें परिष्कृत कर आज के युग के लिये उचित रूप में प्रस्तुत किया जाय । अर्थात् आज के युग की एक स्मृति बनाई जाय । यह कार्य आज के मनीषियों को करना होगा।  
 
# आज यदि इन में से अनेक बातें कालबाह्य हो गई हैं ऐसा लगता है तो इसका कारण यह है कि विगत पाँच से भी अधिक पीढियों में ये खण्डित हुई, इनका प्रवाह अवरुद्ध हुआ, इन्हें विकृत बनाया गया, इनका दुरुपयोग हुआ और इन्हें बदनाम किया गया । इसका संकेत यह है कि इनमें काल और परिस्थिति से सुसंगत परिवर्तन कर, इन्हें परिष्कृत कर आज के युग के लिये उचित रूप में प्रस्तुत किया जाय । अर्थात् आज के युग की एक स्मृति बनाई जाय । यह कार्य आज के मनीषियों को करना होगा।  
 
# १६. हमारे पूर्वजों ने उस एक आत्मतत्त्व के अनेकरूपों के एक तत्त्व और पृथक व्यवहार, रुचियों, क्षमताओ, आवश्यकताओं को समझकर विविध सम्प्रदायों का सृजन किया, अनेकविध उपास्यों और उपासना पद्धतियों की रचना की और सबको उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान की साथ ही सर्व प्रकार की भिन्नता मूल में एक ही है ऐसा भी दढतापूर्वक बताया। इस कारण से भारत का समाज साम्प्रदायिक कट्टरता से बच गया, उल्टे सर्वपथसमादर की उदात्त भावना का विकास हुआ।  
 
# १६. हमारे पूर्वजों ने उस एक आत्मतत्त्व के अनेकरूपों के एक तत्त्व और पृथक व्यवहार, रुचियों, क्षमताओ, आवश्यकताओं को समझकर विविध सम्प्रदायों का सृजन किया, अनेकविध उपास्यों और उपासना पद्धतियों की रचना की और सबको उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान की साथ ही सर्व प्रकार की भिन्नता मूल में एक ही है ऐसा भी दढतापूर्वक बताया। इस कारण से भारत का समाज साम्प्रदायिक कट्टरता से बच गया, उल्टे सर्वपथसमादर की उदात्त भावना का विकास हुआ।  

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