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# गृहस्थ काल यह बल को बनाए रखने के लिए और ज्ञान और कुशलता में वृद्धि करने का काल होता है। इस दृष्टि से चिंतन, निदिध्यासन, प्रयोग, अनुसंधान आदि का काल होता है। ब्रह्मचर्य काल में जो सीखा है उसे प्रयोग करने का, उसे परिष्कृत करने का, उसे अधिक उन्नत करने का काल होता है। इसी के लिए तप होता है, स्वाध्याय होता है। स्वाध्याय की दिशा ही ईश्वर प्रणिधान की होती है। अपने अध्ययन के या व्यवसाय के विषय का ही अध्ययन और विकास इस तरह से करना जिससे मोक्षगामी बन सकें, परमात्मपद को प्राप्त कर सकें।
 
# गृहस्थ काल यह बल को बनाए रखने के लिए और ज्ञान और कुशलता में वृद्धि करने का काल होता है। इस दृष्टि से चिंतन, निदिध्यासन, प्रयोग, अनुसंधान आदि का काल होता है। ब्रह्मचर्य काल में जो सीखा है उसे प्रयोग करने का, उसे परिष्कृत करने का, उसे अधिक उन्नत करने का काल होता है। इसी के लिए तप होता है, स्वाध्याय होता है। स्वाध्याय की दिशा ही ईश्वर प्रणिधान की होती है। अपने अध्ययन के या व्यवसाय के विषय का ही अध्ययन और विकास इस तरह से करना जिससे मोक्षगामी बन सकें, परमात्मपद को प्राप्त कर सकें।
 
# वानप्रस्थ या उत्तर गृहस्थाश्रम में जो उन्नत ज्ञान और कुशलता का विकास किया है उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करने का काल होता है। इस दृष्टि से जो मिले उसमें संतोष रखना होता है। ज्ञान और कौशल के हस्तांतरण के लिए तप करने की आवश्यकता होती है। मृत्यू से पूर्व अपने से भी श्रेष्ठ ज्ञान और/या कुशलता के क्षेत्र में उत्तराधिकारी निर्माण करना होता है। अपने कुटुम्ब में यदि ऐसा उत्तराधिकारी नहीं मिलता तो उसे बाहर समाज में से ढूँढना होता है।
 
# वानप्रस्थ या उत्तर गृहस्थाश्रम में जो उन्नत ज्ञान और कुशलता का विकास किया है उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करने का काल होता है। इस दृष्टि से जो मिले उसमें संतोष रखना होता है। ज्ञान और कौशल के हस्तांतरण के लिए तप करने की आवश्यकता होती है। मृत्यू से पूर्व अपने से भी श्रेष्ठ ज्ञान और/या कुशलता के क्षेत्र में उत्तराधिकारी निर्माण करना होता है। अपने कुटुम्ब में यदि ऐसा उत्तराधिकारी नहीं मिलता तो उसे बाहर समाज में से ढूँढना होता है।
इन में यहाँ हम उपर्युक्त में से हर वर्ण के और हर आश्रम के व्यक्ति के लिए केवल ‘अपने लिए’ जो करणीय और अकरणीय है उसी का याने शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का विचार करेंगे। व्यक्ति से ऊपर की इकाइयों का विचार हम [[Responsibilities at Societal Level (सामाजिक धर्म अनुपालन)|इस]] अध्याय में करेंगे।
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इन में यहाँ हम उपर्युक्त में से हर वर्ण के और हर [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम]] के व्यक्ति के लिए केवल ‘अपने लिए’ जो करणीय और अकरणीय है उसी का याने शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का विचार करेंगे। व्यक्ति से ऊपर की इकाइयों का विचार हम [[Responsibilities at Societal Level (सामाजिक धर्म अनुपालन)|इस]] अध्याय में करेंगे।
    
== सामाजिक घटकों के स्तर और धर्माचरण का अनुपालन ==
 
== सामाजिक घटकों के स्तर और धर्माचरण का अनुपालन ==

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