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=== शिक्षा की स्वायत्तता ===
 
=== शिक्षा की स्वायत्तता ===
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८. विद्यालय के माध्यम से शिक्षा की पुनर््रतिष्ठा का काम कठिन इसलिये है कि विद्यालय घर की तरह अभी स्वायत्त नहीं रहे हैं । घर अभी भी पर्याप्त मात्रा में स्वायत्त हैं । विवाह का पंजीयन और जन्म मृत्यु का पंजीयन यदि छोड दिया जाय तो शेष सारी बातों में परिवार स्वायत्त हैं । घर का खानपान, वेशभूषा, क्या पढना चिकित्सा कौन सी करना, बच्चों के विवाह किसके साथ करना आदि बातों में सरकार का या अन्य किसी का हस्तक्षेप नहीं होता । घर के लोग मिलकर ही तय करते हैं ।
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८. विद्यालय के माध्यम से शिक्षा की पुनर््रतिष्ठा का काम कठिन इसलिये है कि विद्यालय घर की तरह अभी स्वायत्त नहीं रहे हैं । घर अभी भी पर्याप्त मात्रा में स्वायत्त हैं । विवाह का पंजीयन और जन्म मृत्यु का पंजीयन यदि छोड दिया जाय तो शेष सारी बातों में परिवार स्वायत्त हैं । घर का खानपान, वेशभूषा, क्या पढना चिकित्सा कौन सी करना, बच्चोंं के विवाह किसके साथ करना आदि बातों में सरकार का या अन्य किसी का हस्तक्षेप नहीं होता । घर के लोग मिलकर ही तय करते हैं ।
    
९. परन्तु शिक्षा में ऐसा नहीं है । सब कुछ सरकार की पहल से ही तय होता है और चलता है । घर घरवालों का होता है परन्तु शिक्षा शिक्षावालों की नहीं है । शिक्षावालों से तात्पर्य है शिक्षक और विद्यार्थी । ये दोनों दूसरों द्वारा ही नियन्त्रित होते हैं ।
 
९. परन्तु शिक्षा में ऐसा नहीं है । सब कुछ सरकार की पहल से ही तय होता है और चलता है । घर घरवालों का होता है परन्तु शिक्षा शिक्षावालों की नहीं है । शिक्षावालों से तात्पर्य है शिक्षक और विद्यार्थी । ये दोनों दूसरों द्वारा ही नियन्त्रित होते हैं ।
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१३. हमें एक नये प्रतिमान का, नई व्यवस्था का विचार करना होगा । एक ऐसा प्रतिमान जिसे लागू करने की प्रक्रिया में हम सरलता से कठिनता की ओर जा सकें और शिक्षकों के सूत्रसंचालन में सर्वसामान्य जनों का सहयोग प्राप्त कर सकें, प्रचलित शिक्षाव्यवस्था की निन्‍्दा करने के स्थान पर हम योजना को ही कार्यान्वित कर सर्के ।
 
१३. हमें एक नये प्रतिमान का, नई व्यवस्था का विचार करना होगा । एक ऐसा प्रतिमान जिसे लागू करने की प्रक्रिया में हम सरलता से कठिनता की ओर जा सकें और शिक्षकों के सूत्रसंचालन में सर्वसामान्य जनों का सहयोग प्राप्त कर सकें, प्रचलित शिक्षाव्यवस्था की निन्‍्दा करने के स्थान पर हम योजना को ही कार्यान्वित कर सर्के ।
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१४. क्रियान्वयन की एक दिशा तो इस प्रकार है । दस वर्ष की आयु तक मातापिता ही अपने बच्चों को आवश्यक शिक्षा दें । इसमें चरिन्ननिर्माण, कार्यकौशल, साक्षरता और व्यावहारिक गणित विज्ञान की शिक्षा का समावेश हो । जिस प्रकार अन्न वस्त्रादि आवश्यकताओं की पूर्ति घर में होती है उसी प्रकार ज्ञानात्मक और संस्कारात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति भी घर में ही हो । जिस प्रकार भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मातापिता को अर्थार्जन करना पडता है और काम करना पडता है उस प्रकार शिक्षा देना भी एक काम है । घर की वृद्ध मण्डली इसमें मूल्यबान सहयोग कर सकती है ।
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१४. क्रियान्वयन की एक दिशा तो इस प्रकार है । दस वर्ष की आयु तक मातापिता ही अपने बच्चोंं को आवश्यक शिक्षा दें । इसमें चरिन्ननिर्माण, कार्यकौशल, साक्षरता और व्यावहारिक गणित विज्ञान की शिक्षा का समावेश हो । जिस प्रकार अन्न वस्त्रादि आवश्यकताओं की पूर्ति घर में होती है उसी प्रकार ज्ञानात्मक और संस्कारात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति भी घर में ही हो । जिस प्रकार भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मातापिता को अर्थार्जन करना पडता है और काम करना पडता है उस प्रकार शिक्षा देना भी एक काम है । घर की वृद्ध मण्डली इसमें मूल्यबान सहयोग कर सकती है ।
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१५. जिन बच्चों के मातापिता अपने बच्चों के चरित्रनिर्माण और साक्षरता की शिक्षा देने की क्षमता नहीं रखते उन्हें सिखाने की व्यवस्था शिक्षकों और धर्माचार्यों को करनी चाहिये । शिक्षित मातापिता भी अपने आसपास के मातापिताओं की सहायता कर सकते हैं ।
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१५. जिन बच्चोंं के मातापिता अपने बच्चोंं के चरित्रनिर्माण और साक्षरता की शिक्षा देने की क्षमता नहीं रखते उन्हें सिखाने की व्यवस्था शिक्षकों और धर्माचार्यों को करनी चाहिये । शिक्षित मातापिता भी अपने आसपास के मातापिताओं की सहायता कर सकते हैं ।
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१६. तात्पर्य यह है कि आज दस वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिये नहीं अपितु उनके मातिपातओं के लिये विद्यालयों की आवश्यकता है । यह कार्य विद्वानों का, अनुभवी वृद्धों का, सन्तों का और संन्यासियों का है । विशष रूप से वानप्रस्थियों का है । गृहस्थी-विद्वानों ने नहीं अपितु वानप्रस्थी-विद्वाननों ने करना उचित है ।
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१६. तात्पर्य यह है कि आज दस वर्ष की आयु तक के बच्चोंं के लिये नहीं अपितु उनके मातिपातओं के लिये विद्यालयों की आवश्यकता है । यह कार्य विद्वानों का, अनुभवी वृद्धों का, सन्तों का और संन्यासियों का है । विशष रूप से वानप्रस्थियों का है । गृहस्थी-विद्वानों ने नहीं अपितु वानप्रस्थी-विद्वाननों ने करना उचित है ।
    
१७. वानप्रस्थी विद्वानों और धर्माचार्यों ने समाजसेवी संस्था के रूप में ऐसे विद्यालय चलाने चाहिये । ये विद्यालय पूर्ण रूप से निःशुल्क, परीक्षाविहीन और अनौपचारिक होने चाहिये । परन्तु उसमें विनय, अनुशासन, नियमपालन और आज्ञापालन का आग्रह अनिवार्य रूप से होना चाहिये ।
 
१७. वानप्रस्थी विद्वानों और धर्माचार्यों ने समाजसेवी संस्था के रूप में ऐसे विद्यालय चलाने चाहिये । ये विद्यालय पूर्ण रूप से निःशुल्क, परीक्षाविहीन और अनौपचारिक होने चाहिये । परन्तु उसमें विनय, अनुशासन, नियमपालन और आज्ञापालन का आग्रह अनिवार्य रूप से होना चाहिये ।
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१९. इन विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने हेतु जाना मातापिताओं के लिये किन्हीं बाहरी नियमों से अनिवार्य नहीं बनाना चाहिये अपितु प्रबोधन के माध्यम से आन्तरिक प्रेरणा ही जगाना चाहिये । जिस प्रकार मन्दिर जाना या कथाश्रवण करना अनिवार्य नहीं होने पर भी लोग जाते हैं उसी प्रकार इन विद्यालयों में जाना भी आवश्यक माना जाना चाहिये ।
 
१९. इन विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने हेतु जाना मातापिताओं के लिये किन्हीं बाहरी नियमों से अनिवार्य नहीं बनाना चाहिये अपितु प्रबोधन के माध्यम से आन्तरिक प्रेरणा ही जगाना चाहिये । जिस प्रकार मन्दिर जाना या कथाश्रवण करना अनिवार्य नहीं होने पर भी लोग जाते हैं उसी प्रकार इन विद्यालयों में जाना भी आवश्यक माना जाना चाहिये ।
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२०. यदि दस वर्ष की आयु तक प्रतीक्षा नहीं करनी हो तो सात या आठ वर्ष की आयु तक तो बच्चों को विद्यालय में भेजना अक्षम्य ही माना जाना चाहिये ।
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२०. यदि दस वर्ष की आयु तक प्रतीक्षा नहीं करनी हो तो सात या आठ वर्ष की आयु तक तो बच्चोंं को विद्यालय में भेजना अक्षम्य ही माना जाना चाहिये ।
    
२१. दस वर्ष की आयु के बाद के विद्यालय व्यवसायों के आधार पर निश्चित किये जाने चाहिये । दस वर्ष की आयु तक विद्यार्थियों का व्यवसाय निश्चित हो जाना व्यावहारिक दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है । अर्थार्जन व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पहलू है । उसे गम्भीरतापूर्वक लेना चाहिये ।
 
२१. दस वर्ष की आयु के बाद के विद्यालय व्यवसायों के आधार पर निश्चित किये जाने चाहिये । दस वर्ष की आयु तक विद्यार्थियों का व्यवसाय निश्चित हो जाना व्यावहारिक दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है । अर्थार्जन व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पहलू है । उसे गम्भीरतापूर्वक लेना चाहिये ।
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होगी । शिक्षाशास््र के एक विभाग के रूप में गर्भावस्‍था और शिशुअवस्था की शिक्षा का शास्त्र बनाना पड़ेगा और उसके लिये साहित्य भी तैयार करना पड़ेगा ।
 
होगी । शिक्षाशास््र के एक विभाग के रूप में गर्भावस्‍था और शिशुअवस्था की शिक्षा का शास्त्र बनाना पड़ेगा और उसके लिये साहित्य भी तैयार करना पड़ेगा ।
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४५. आज देश में सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर लाखों की संख्या में प्राथमिक विद्यालय चल रहे हैं जिनमें पढ़ने वाले बच्चों की संख्या करोडों में होगी । इन विद्यालयों के सम्बन्ध में पहली ही महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक पढायें । आठ वर्ष की पढाई के बाद भी विद्यार्थियों को यदि पढ़ना लिखना नहीं आता है तो जिम्मेदार शिक्षक ही हैं ।
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४५. आज देश में सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर लाखों की संख्या में प्राथमिक विद्यालय चल रहे हैं जिनमें पढ़ने वाले बच्चोंं की संख्या करोडों में होगी । इन विद्यालयों के सम्बन्ध में पहली ही महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक पढायें । आठ वर्ष की पढाई के बाद भी विद्यार्थियों को यदि पढ़ना लिखना नहीं आता है तो जिम्मेदार शिक्षक ही हैं ।
    
४६. पढाना शिक्षक की इच्छा मात्र पर निर्भर करता है । कोई भी नियम कानून, दबाव, प्रलोभन शिक्षक को पढ़ाने हेतु बाध्य नहीं कर सकता । आज यदि शिक्षक नहीं पढाते हैं तो कोई कुछ नहीं कर सकता । हमें केवल प्रार्थना ही करनी चाहिये के भगवान शिक्षकों के हृदयों में पढाने की इच्छा जाग्रत करे ।
 
४६. पढाना शिक्षक की इच्छा मात्र पर निर्भर करता है । कोई भी नियम कानून, दबाव, प्रलोभन शिक्षक को पढ़ाने हेतु बाध्य नहीं कर सकता । आज यदि शिक्षक नहीं पढाते हैं तो कोई कुछ नहीं कर सकता । हमें केवल प्रार्थना ही करनी चाहिये के भगवान शिक्षकों के हृदयों में पढाने की इच्छा जाग्रत करे ।

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