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स्त्री और पुरूष में एक स्वाभाविक आकर्षण होता है। यह आकर्षण उनकी परस्पर पूरकता के कारण होता है। परस्पर की किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति की संभावना के कारण होता है। कोई भी भूख लगा हुआ जीव अन्न की ओर आकर्षित होता है। उसके शरीर में वह, कुछ कमी का अनुभव करता है। इस कमी की पूर्ति अन्न से होनेवाली होती है। इसीलिये वह अन्न की ओर आकर्षित होता है। इसी तरह से पुरूष अपनी किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और स्त्री अपनी उसी प्रकार की कुछ आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। सहजीवन की दोनों को आवश्यकता होती है। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता है कि स्त्री और पुरुष मिलकर पूर्ण बनते हैं। अतः दोनों परस्पर पूरक होते हैं। भारत में अर्ध-नारी-नटेश्वर की संकल्पना इसी के कारण है। उसके माध्यम से स्त्री और पुरूष दोनों के महत्व और परस्पर पूरकता को अभिव्यक्त किया गया है। ऐसी अर्ध-नारी-नटेश्वर की संकल्पना यह हमारी विशेषता है। धार्मिकता की एक पहचान है।
 
स्त्री और पुरूष में एक स्वाभाविक आकर्षण होता है। यह आकर्षण उनकी परस्पर पूरकता के कारण होता है। परस्पर की किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति की संभावना के कारण होता है। कोई भी भूख लगा हुआ जीव अन्न की ओर आकर्षित होता है। उसके शरीर में वह, कुछ कमी का अनुभव करता है। इस कमी की पूर्ति अन्न से होनेवाली होती है। इसीलिये वह अन्न की ओर आकर्षित होता है। इसी तरह से पुरूष अपनी किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और स्त्री अपनी उसी प्रकार की कुछ आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। सहजीवन की दोनों को आवश्यकता होती है। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता है कि स्त्री और पुरुष मिलकर पूर्ण बनते हैं। अतः दोनों परस्पर पूरक होते हैं। भारत में अर्ध-नारी-नटेश्वर की संकल्पना इसी के कारण है। उसके माध्यम से स्त्री और पुरूष दोनों के महत्व और परस्पर पूरकता को अभिव्यक्त किया गया है। ऐसी अर्ध-नारी-नटेश्वर की संकल्पना यह हमारी विशेषता है। धार्मिकता की एक पहचान है।
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स्त्री और पुरूष में यह आकर्षण उनकी यौवनावस्था से निर्माण होता है। यौवनसुलभ वासना के कारण होता है। लेकिन वासना पूर्ति यह तो परस्पर की भिन्न भिन्न आवश्यकताओं में से एक आवश्यकता है। यौवन से लेकर मृत्यू तक की अन्य भी कई आवश्यकताएँ होतीं हैं। समाज बना रहे, वृद्धावस्था भी सुख से गुजरे आदि बातों के कारण नए जीव के निर्माण करना होता है। इस के लिए दोनों का सहभाग अनिवार्य होता है। बच्चे को जन्म देने के बाद उसके संगोपन की आवश्यकता होती है। यह स्त्री अधिक अच्छा कर सकती है। स्त्री शारीरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण उसे वासनांध पुरूषों से बचाने की आवश्यकता होती है। बच्चों का संगोपन, जीवन के विभिन्न कार्यों का विभाजन, वृद्धावस्था के सुख की आश्वस्ति आदि कारणोंसे यह स्त्री पुरूष परस्पर सहयोग आजीवन आवश्यक होता है। इसे अनुशासन में बांधने के लिए विवाह का संस्कार होता है। इसे ध्यान में रखकर ही विवाह को संस्कार कहा गया है। दो भिन्न अस्तित्वों का अति घनिष्ठ बनकर याने एक बनकर जीना ही विवाह संस्कार का प्रयोजन है। इस घनिष्ठता के कारण पति पत्नि में एकात्मता होती है। यह एकात्मता रक्त सम्बन्धों तक और आगे चराचर तक विकसित हो इस दृष्टि से कुटुंब की प्रणाली बनती है।
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स्त्री और पुरूष में यह आकर्षण उनकी यौवनावस्था से निर्माण होता है। यौवनसुलभ वासना के कारण होता है। लेकिन वासना पूर्ति यह तो परस्पर की भिन्न भिन्न आवश्यकताओं में से एक आवश्यकता है। यौवन से लेकर मृत्यू तक की अन्य भी कई आवश्यकताएँ होतीं हैं। समाज बना रहे, वृद्धावस्था भी सुख से गुजरे आदि बातों के कारण नए जीव के निर्माण करना होता है। इस के लिए दोनों का सहभाग अनिवार्य होता है। बच्चे को जन्म देने के बाद उसके संगोपन की आवश्यकता होती है। यह स्त्री अधिक अच्छा कर सकती है। स्त्री शारीरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण उसे वासनांध पुरूषों से बचाने की आवश्यकता होती है। बच्चोंं का संगोपन, जीवन के विभिन्न कार्यों का विभाजन, वृद्धावस्था के सुख की आश्वस्ति आदि कारणोंसे यह स्त्री पुरूष परस्पर सहयोग आजीवन आवश्यक होता है। इसे अनुशासन में बांधने के लिए विवाह का संस्कार होता है। इसे ध्यान में रखकर ही विवाह को संस्कार कहा गया है। दो भिन्न अस्तित्वों का अति घनिष्ठ बनकर याने एक बनकर जीना ही विवाह संस्कार का प्रयोजन है। इस घनिष्ठता के कारण पति पत्नि में एकात्मता होती है। यह एकात्मता रक्त सम्बन्धों तक और आगे चराचर तक विकसित हो इस दृष्टि से कुटुंब की प्रणाली बनती है।
    
अन्य किसी भी सामाजिक सम्बन्ध से स्त्री पुरुष जो एक दूसरे के पति पत्नि हैं उनमें अत्यंत निकटता होती है। इस से अधिक निकटता का सम्बन्ध अन्य कोई नहीं है। रक्त सम्बन्ध गाढे होते हैं। विवाह के कारण पति पत्नि में रज और वीर्य के सम्बन्ध स्थापित होते हैं। अन्न से अन्नरस, रक्त, मेद, मांस, मज्जा, अस्थि और रज/वीर्य यह सप्तधातु बनते हैं। आयुर्वेद के अनुसार इनमें ४०:१ का गुणोत्तर होता है। ४० ग्राम अन्नरस से १ ग्राम रक्त बनता है। ४० ग्राम रक्त से १ ग्राम मेद बनता है। इस प्रकार से रज वीर्य का संबंध रक्त संबंधों से १०,२४,००,०००  याने दस करोड़ चौबीस लाख गुना गाढे होते हैं। इसीलिए चराचर में व्याप्त एकात्मता की सबसे तीव्र अनुभूति पति-पत्नि के संबंधों में ही होती है। पति-पत्नि द्वारा अनुभूत एकात्मता को, प्रारंभ बिंदु बनाकर उनके साझे प्रयासों से पैदा की गई संतानों में एकात्मता की भावना स्थापित करने के प्रयास किये जाने चाहिये। इस दृष्टि से पति-पत्नि के सहजीवन के साथ ही संतानों पर एकात्मता के संस्कार किये जाने चाहिए। सामाजिकता की भावना चराचर में निहित एकात्मता का ही छोटा स्तर है। पति-पत्नि और संतानों से मिलकर बने संगठन को जब चराचर की एकात्मता या सर्वे भवन्तु सुखिन: की प्राप्ति के लिए विकसित किया जाता है तब उसे ‘कुटुंब’ कहते हैं। फिर उस कुटुंब में रक्तसम्बन्धी रिश्तेदार तो आते ही हैं, अतिथि, याचक, द्वार-विक्रेता, मित्र-मण्डली, मधुकरी, पशु, पक्षी, चींटियों जैसे प्राणी, धरतीमाता, गंगामाता, गोमाता, बिल्ली मौसी, चुहेदादा, चंदामामा, तुलसीमाता, पेडपौधे, नाग, बरगद, पीपल जैसे वृक्ष आदि चराचर के सभी घटकों का समावेश हो जाता है। इन से पारिवारिक सम्बन्ध बनाने के संस्कार और शिक्षा दी जा सकती है। पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, वरुण, वायू आदि सृष्टि के देवताओं के प्रति यानि पर्यावरण के प्रति पवित्रता की भावना निर्माण की जा सकती है। हमारा आदर्श भगवान शंकर का कुटुंब है। बच्चा जन्म लेता है तब उसे केवल अधिकार होते हैं। कोई कर्तव्य नहीं होते। किन्तु समाज को यदि सुख शांतिमय जीवन चाहिए हो तो अपने कर्तव्यों और अन्यों के अधिकारों पर बल देना पड़ता है। केवल अधिकार लेकर जिस बच्चे ने जन्म लिया है उसे केवल कर्तव्य हैं और कोई अधिकार नहीं हैं ऐसा मनुष्य बनाना यह भी कुटुंब का ही काम होता है। परिवार के घटक निम्न होते हैं:
 
अन्य किसी भी सामाजिक सम्बन्ध से स्त्री पुरुष जो एक दूसरे के पति पत्नि हैं उनमें अत्यंत निकटता होती है। इस से अधिक निकटता का सम्बन्ध अन्य कोई नहीं है। रक्त सम्बन्ध गाढे होते हैं। विवाह के कारण पति पत्नि में रज और वीर्य के सम्बन्ध स्थापित होते हैं। अन्न से अन्नरस, रक्त, मेद, मांस, मज्जा, अस्थि और रज/वीर्य यह सप्तधातु बनते हैं। आयुर्वेद के अनुसार इनमें ४०:१ का गुणोत्तर होता है। ४० ग्राम अन्नरस से १ ग्राम रक्त बनता है। ४० ग्राम रक्त से १ ग्राम मेद बनता है। इस प्रकार से रज वीर्य का संबंध रक्त संबंधों से १०,२४,००,०००  याने दस करोड़ चौबीस लाख गुना गाढे होते हैं। इसीलिए चराचर में व्याप्त एकात्मता की सबसे तीव्र अनुभूति पति-पत्नि के संबंधों में ही होती है। पति-पत्नि द्वारा अनुभूत एकात्मता को, प्रारंभ बिंदु बनाकर उनके साझे प्रयासों से पैदा की गई संतानों में एकात्मता की भावना स्थापित करने के प्रयास किये जाने चाहिये। इस दृष्टि से पति-पत्नि के सहजीवन के साथ ही संतानों पर एकात्मता के संस्कार किये जाने चाहिए। सामाजिकता की भावना चराचर में निहित एकात्मता का ही छोटा स्तर है। पति-पत्नि और संतानों से मिलकर बने संगठन को जब चराचर की एकात्मता या सर्वे भवन्तु सुखिन: की प्राप्ति के लिए विकसित किया जाता है तब उसे ‘कुटुंब’ कहते हैं। फिर उस कुटुंब में रक्तसम्बन्धी रिश्तेदार तो आते ही हैं, अतिथि, याचक, द्वार-विक्रेता, मित्र-मण्डली, मधुकरी, पशु, पक्षी, चींटियों जैसे प्राणी, धरतीमाता, गंगामाता, गोमाता, बिल्ली मौसी, चुहेदादा, चंदामामा, तुलसीमाता, पेडपौधे, नाग, बरगद, पीपल जैसे वृक्ष आदि चराचर के सभी घटकों का समावेश हो जाता है। इन से पारिवारिक सम्बन्ध बनाने के संस्कार और शिक्षा दी जा सकती है। पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, वरुण, वायू आदि सृष्टि के देवताओं के प्रति यानि पर्यावरण के प्रति पवित्रता की भावना निर्माण की जा सकती है। हमारा आदर्श भगवान शंकर का कुटुंब है। बच्चा जन्म लेता है तब उसे केवल अधिकार होते हैं। कोई कर्तव्य नहीं होते। किन्तु समाज को यदि सुख शांतिमय जीवन चाहिए हो तो अपने कर्तव्यों और अन्यों के अधिकारों पर बल देना पड़ता है। केवल अधिकार लेकर जिस बच्चे ने जन्म लिया है उसे केवल कर्तव्य हैं और कोई अधिकार नहीं हैं ऐसा मनुष्य बनाना यह भी कुटुंब का ही काम होता है। परिवार के घटक निम्न होते हैं:

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