Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "लोगो" to "लोगों"
Line 60: Line 60:  
उपर्युक्त संगठन के सूत्रों के आधारपर ही हमारे पूर्वजों ने समाज को संगठित किया था। समाज घटकों की स्वाभाविक आवश्यकताओं पर आधारित रचनाओं के कारण ही ये संगठन दीर्घकाल तक बने रहे।
 
उपर्युक्त संगठन के सूत्रों के आधारपर ही हमारे पूर्वजों ने समाज को संगठित किया था। समाज घटकों की स्वाभाविक आवश्यकताओं पर आधारित रचनाओं के कारण ही ये संगठन दीर्घकाल तक बने रहे।
   −
सामाजिक संगठन की सबसे महत्वपूर्ण इकाई राष्ट्र है। समान जीवन दृष्टि वाले लोगों के सुरक्षित सहजीवन को ही राष्ट्र कहते हैं। हमने पूर्व में जाना है कि राष्ट्र की चार मुख्य प्रणालियाँ होतीं हैं। इन चार प्रणालियों के संगठन को ही वर्णाश्रम धर्म के नाम से जाना जाता था। इनमें से पहली दो प्रणालियाँ वर्ण धर्म में आतीं हैं। और दूसरी दो प्रणालियाँ आश्रम धर्म में आती हैं। इन चारों प्रणालियों का मिलकर वर्णाश्रम धर्म का ताना बाना बनता है। इनका संगठन ही हिन्दू/भारत राष्ट्र का संगठन है।
+
सामाजिक संगठन की सबसे महत्वपूर्ण इकाई राष्ट्र है। समान जीवन दृष्टि वाले लोगोंं के सुरक्षित सहजीवन को ही राष्ट्र कहते हैं। हमने पूर्व में जाना है कि राष्ट्र की चार मुख्य प्रणालियाँ होतीं हैं। इन चार प्रणालियों के संगठन को ही वर्णाश्रम धर्म के नाम से जाना जाता था। इनमें से पहली दो प्रणालियाँ वर्ण धर्म में आतीं हैं। और दूसरी दो प्रणालियाँ आश्रम धर्म में आती हैं। इन चारों प्रणालियों का मिलकर वर्णाश्रम धर्म का ताना बाना बनता है। इनका संगठन ही हिन्दू/भारत राष्ट्र का संगठन है।
    
समान जीवनदृष्टिवाले समाज के घटकों की जीवनशैली समान होती है। आकांक्षाएँ और इच्छाएँ भी समान होतीं हैं। इस कारण समाज में संघर्ष की संभावनाएं बहुत कम होतीं हैं। लेकिन भिन्न जीवनदृष्टि वाले समाज के साथ सहजीवन सहज और सरल नहीं होता। अतः समान जीवनदृष्टि वाले समाज के सहजीवन के लिए भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित भूमि की आवश्यकता होती है।  
 
समान जीवनदृष्टिवाले समाज के घटकों की जीवनशैली समान होती है। आकांक्षाएँ और इच्छाएँ भी समान होतीं हैं। इस कारण समाज में संघर्ष की संभावनाएं बहुत कम होतीं हैं। लेकिन भिन्न जीवनदृष्टि वाले समाज के साथ सहजीवन सहज और सरल नहीं होता। अतः समान जीवनदृष्टि वाले समाज के सहजीवन के लिए भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित भूमि की आवश्यकता होती है।  
Line 111: Line 111:  
हर मनुष्य जन्म के साथ कुछ त्रिगुणों के समुच्चय याने विशिष्ट स्वभाव को लेकर जन्म लेता है। साथ ही में वह अपने माता पिता और पूर्वजों से कुछ कौशल की विधा के बीज लेकर भी जन्म लेत्ता है। स्वभाव और इस कौशल की विधा का ठीक से समायोजन होने से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति भलीभाँति हो जाती है। याने संस्कृति और समृद्धि दोनों का विकास होता जाता है। स्वभाव के अनुसार काम करने से संस्कृति का विकास और जातिगत कौशल के अनुसार व्यवसाय करने से समृद्धि का निर्माण होता है।  
 
हर मनुष्य जन्म के साथ कुछ त्रिगुणों के समुच्चय याने विशिष्ट स्वभाव को लेकर जन्म लेता है। साथ ही में वह अपने माता पिता और पूर्वजों से कुछ कौशल की विधा के बीज लेकर भी जन्म लेत्ता है। स्वभाव और इस कौशल की विधा का ठीक से समायोजन होने से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति भलीभाँति हो जाती है। याने संस्कृति और समृद्धि दोनों का विकास होता जाता है। स्वभाव के अनुसार काम करने से संस्कृति का विकास और जातिगत कौशल के अनुसार व्यवसाय करने से समृद्धि का निर्माण होता है।  
   −
कौशल विधा को ही हम जाति के नाम से जानते हैं। जैसे सुनार, लुहार, कसेरा, ऋग्वेदी ब्राह्मण या माध्यन्दिन शाखा का यजुर्वेदी ब्राह्मण आदि। सभी जातियों में चारों प्रकार के स्वभाव के याने वर्णों के लोग होते ही हैं। प्रत्येक जाति में विद्यमान इन चारों स्वभावों के लोगों का उस विधा के पदार्थ के निर्माण और समाज में यथोचित वितरण (उपयोग हेतु) होने से उस कौशल विधा का समायोजन होता है। समाज में आवश्यकता के अनुसार कौशल विधाओं याने जातियों की संख्या के घटने बढ़ने का लचीलापन आवश्यक होता है। इसमें कठोरता आने के कारण समाज में अशांति निर्माण होती है। वर्तमान में यंत्रावलंबन के कारण कौशल नष्ट हो रहे हैं। हेल्पर याने सहायक और मशीन ऑपरेटर याने यंत्र चालक ऐसे दो कौशल बहुत बड़ी संख्या में चलन में हैं। समान जीवनदृष्टि वाले समाज के घटकों की आवश्यकताएं समान होतीं हैं। आवश्यकताएं भी अनेक प्रकार की होती हैं। दैनंदिन आवश्यकताओं से आगे भी अनेक प्रकार की आवश्यकताएं होती हैं। ज्ञान, कला, कौशल, पराई संस्कृति के समाजों से आक्रमणों से सुरक्षा आदि की पूर्ति के सन्दर्भ में अकेला ग्राम स्वावलंबी नहीं हो सकता। अतः अधिक व्यापक व्यवस्था की आवश्यकता होती है।
+
कौशल विधा को ही हम जाति के नाम से जानते हैं। जैसे सुनार, लुहार, कसेरा, ऋग्वेदी ब्राह्मण या माध्यन्दिन शाखा का यजुर्वेदी ब्राह्मण आदि। सभी जातियों में चारों प्रकार के स्वभाव के याने वर्णों के लोग होते ही हैं। प्रत्येक जाति में विद्यमान इन चारों स्वभावों के लोगोंं का उस विधा के पदार्थ के निर्माण और समाज में यथोचित वितरण (उपयोग हेतु) होने से उस कौशल विधा का समायोजन होता है। समाज में आवश्यकता के अनुसार कौशल विधाओं याने जातियों की संख्या के घटने बढ़ने का लचीलापन आवश्यक होता है। इसमें कठोरता आने के कारण समाज में अशांति निर्माण होती है। वर्तमान में यंत्रावलंबन के कारण कौशल नष्ट हो रहे हैं। हेल्पर याने सहायक और मशीन ऑपरेटर याने यंत्र चालक ऐसे दो कौशल बहुत बड़ी संख्या में चलन में हैं। समान जीवनदृष्टि वाले समाज के घटकों की आवश्यकताएं समान होतीं हैं। आवश्यकताएं भी अनेक प्रकार की होती हैं। दैनंदिन आवश्यकताओं से आगे भी अनेक प्रकार की आवश्यकताएं होती हैं। ज्ञान, कला, कौशल, पराई संस्कृति के समाजों से आक्रमणों से सुरक्षा आदि की पूर्ति के सन्दर्भ में अकेला ग्राम स्वावलंबी नहीं हो सकता। अतः अधिक व्यापक व्यवस्था की आवश्यकता होती है।
    
केवल आवश्यकताएं और इच्छाएँ होने से कोई समाज चल नहीं सकता। क्षमताओं के विकास की और क्षमताओं की विविध विधाओं के संतुलन की भी आवश्यकता होती है। क्षमता में बल और ज्ञान के साथ ही विशेष व्यावसायिक कौशल की बहुत आवश्यकता होती है। समाज की बढती घटती आबादी और बदलती आवश्यकताओं का और व्यावसायिक कौशलों का संतुलन अनिवार्य होता है। अन्यथा समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए या तो आक्रामक बन जाता है या फिर अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है। अतः आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था को या व्यवसायिक कौशल की विधाओं को आनुवांशिक बनाना उचित होता है। ऐसी आनुवंशिकता के दर्जनों लाभों के विषय में हम कौशल समायोजन विषय में जानेंगे। कौशल समायोजन के घटक निम्न हैं:
 
केवल आवश्यकताएं और इच्छाएँ होने से कोई समाज चल नहीं सकता। क्षमताओं के विकास की और क्षमताओं की विविध विधाओं के संतुलन की भी आवश्यकता होती है। क्षमता में बल और ज्ञान के साथ ही विशेष व्यावसायिक कौशल की बहुत आवश्यकता होती है। समाज की बढती घटती आबादी और बदलती आवश्यकताओं का और व्यावसायिक कौशलों का संतुलन अनिवार्य होता है। अन्यथा समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए या तो आक्रामक बन जाता है या फिर अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है। अतः आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था को या व्यवसायिक कौशल की विधाओं को आनुवांशिक बनाना उचित होता है। ऐसी आनुवंशिकता के दर्जनों लाभों के विषय में हम कौशल समायोजन विषय में जानेंगे। कौशल समायोजन के घटक निम्न हैं:
Line 139: Line 139:     
=== आश्रम प्रणाली-2: (चार / तीन आश्रम) ===
 
=== आश्रम प्रणाली-2: (चार / तीन आश्रम) ===
आश्रम में ‘श्रम’ शब्द है। इसका अर्थ है आजीवन श्रम। आयु की हर अवस्था में परिश्रम तो करना ही है। जन्म, बाल्य, यौवन, वृद्धावस्था और मृत्यू का चक्र अविरत चलता रहता है। मानव बालक जब जन्म लेता है तो वह पूर्णतया परावलंबी होता है। जब वह यौवनावस्था में होता है तब सामर्थ्यवान होता है। फिर जब वृद्धावस्था की ओर बढ़ता है तब उसकी कई क्षमताओं में कमी आती है। वह क्रमश: परावलंबी बनता जाता है। अतः मानव जीवन को मोटे मोटे चार हिस्सों में बांटना उचित होता है। युवावस्था तक का, यौवन का, प्रौढ़ता का और वृद्धावस्था का ऐसे चार विभाग बनते हैं। यौवनावस्थातक के काल में क्षमताएं बढ़ने और बढाने का काल होता है। इस काल में क्षमताएं बढाने से यौवनावस्था में ,वह यौवनावस्था के पूर्वतक के तथा यौवनावस्था के बाद के काल में जो लोग हैं उनका तथा अपना भी जीवन सुख से बीते इस की आश्वस्ति कर सकता है। इसे अनुशासन में बिठाने से आश्रम रचना बनती है। प्रौढ़ता की आयु में मनुष्य की शारीरिक क्षमताएं घटना आरम्भ हो जाता है लेकिन वह ज्ञान और जीवन के अनुभवों से यौवनावस्था समाप्ति तक की आयु के लोगों से समृद्ध होता है। इसे वानप्रस्थी कहते हैं। इस आयु में वह प्रौढावस्था से कम आयु के लोगों के लिए मार्गदर्शन की भूमिका में होने से जीवन का उन्नयन होता जाता है। इस प्रकार से आश्रम चार बनाते हैं। ये निम्न हैं:
+
आश्रम में ‘श्रम’ शब्द है। इसका अर्थ है आजीवन श्रम। आयु की हर अवस्था में परिश्रम तो करना ही है। जन्म, बाल्य, यौवन, वृद्धावस्था और मृत्यू का चक्र अविरत चलता रहता है। मानव बालक जब जन्म लेता है तो वह पूर्णतया परावलंबी होता है। जब वह यौवनावस्था में होता है तब सामर्थ्यवान होता है। फिर जब वृद्धावस्था की ओर बढ़ता है तब उसकी कई क्षमताओं में कमी आती है। वह क्रमश: परावलंबी बनता जाता है। अतः मानव जीवन को मोटे मोटे चार हिस्सों में बांटना उचित होता है। युवावस्था तक का, यौवन का, प्रौढ़ता का और वृद्धावस्था का ऐसे चार विभाग बनते हैं। यौवनावस्थातक के काल में क्षमताएं बढ़ने और बढाने का काल होता है। इस काल में क्षमताएं बढाने से यौवनावस्था में ,वह यौवनावस्था के पूर्वतक के तथा यौवनावस्था के बाद के काल में जो लोग हैं उनका तथा अपना भी जीवन सुख से बीते इस की आश्वस्ति कर सकता है। इसे अनुशासन में बिठाने से आश्रम रचना बनती है। प्रौढ़ता की आयु में मनुष्य की शारीरिक क्षमताएं घटना आरम्भ हो जाता है लेकिन वह ज्ञान और जीवन के अनुभवों से यौवनावस्था समाप्ति तक की आयु के लोगोंं से समृद्ध होता है। इसे वानप्रस्थी कहते हैं। इस आयु में वह प्रौढावस्था से कम आयु के लोगोंं के लिए मार्गदर्शन की भूमिका में होने से जीवन का उन्नयन होता जाता है। इस प्रकार से आश्रम चार बनाते हैं। ये निम्न हैं:
    
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ/ उत्तर गृहस्थ, संन्यास
 
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ/ उत्तर गृहस्थ, संन्यास
Line 149: Line 149:     
=== आश्रम प्रणाली-3: ग्राम ===
 
=== आश्रम प्रणाली-3: ग्राम ===
स्वतंत्रता मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य है। परावलंबन से स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है। परस्परावलंबन से स्वतंत्रता की मात्रा कम हो जाती है। लेकिन एक सीमा तक स्वतंत्रता की आश्वस्ति हो जाती है। मानव के अधिकतम संभाव्य सामर्थ्य और उसके जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक सामर्थ्य में बहुत अंतर होता है। इस अंतर को वह केवल कुटुंब के रक्तसम्बंधी लोगों की सहायता के आधार पर कुछ सीमा तक ही पाट सकता है। आगे उसे परस्परावलंबन का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है। परस्परावलंबी कुटुम्बों के समायोजन से एक सीमा तक स्वावलंबन संभव हो सकता है। व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकता। केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी संभव नहीं है। व्यक्ति की कितनी ही दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुंब भी नहीं करा सकता। व्यक्ति और परिवार दोनों को समाज के अन्य घटकों पर निर्भर होना ही पड़ता है। यह जैसे समाज के एक व्यक्ति या एक परिवार के लिए लागू है उसी तरह समाज के सभी व्यक्तियों के लिए और सभी कुटुंबों के लिए भी लागू है। सामाजिक स्तर पर जीवन का लक्ष्य स्वतंत्रता होकर भी व्यक्ति या कुटुंब पूर्णत: स्वतन्त्र नहीं रह सकते। कुछ मात्रा में परावलंबन अनिवार्य होता है। अतः सुख से जीने के लिए मनुष्य को और कुटुंबों को स्वतंत्रता और परावलंबन में संतुलन रखना आवश्यक हो जाता है। केवल परावलंबन से परस्परावलंबन में स्वतंत्रता की मात्रा बढ़ जाती है। अतः कुटुंबों में आपस में परस्परावलंबन होना आवश्यक हो जाता है। जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है परस्परावलंबन कठिन होता जाता है। प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं। अतः न्यूनतम या छोटे से छोटे भूक्षेत्र में रहनेवाले परस्परावलंबी परिवार मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय बनाना उचित होता है। अन्न वस्त्र, मकान, प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य ये मनुष्य की दैनन्दिन आवश्यकताएं हैं।
+
स्वतंत्रता मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य है। परावलंबन से स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है। परस्परावलंबन से स्वतंत्रता की मात्रा कम हो जाती है। लेकिन एक सीमा तक स्वतंत्रता की आश्वस्ति हो जाती है। मानव के अधिकतम संभाव्य सामर्थ्य और उसके जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक सामर्थ्य में बहुत अंतर होता है। इस अंतर को वह केवल कुटुंब के रक्तसम्बंधी लोगोंं की सहायता के आधार पर कुछ सीमा तक ही पाट सकता है। आगे उसे परस्परावलंबन का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है। परस्परावलंबी कुटुम्बों के समायोजन से एक सीमा तक स्वावलंबन संभव हो सकता है। व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकता। केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी संभव नहीं है। व्यक्ति की कितनी ही दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुंब भी नहीं करा सकता। व्यक्ति और परिवार दोनों को समाज के अन्य घटकों पर निर्भर होना ही पड़ता है। यह जैसे समाज के एक व्यक्ति या एक परिवार के लिए लागू है उसी तरह समाज के सभी व्यक्तियों के लिए और सभी कुटुंबों के लिए भी लागू है। सामाजिक स्तर पर जीवन का लक्ष्य स्वतंत्रता होकर भी व्यक्ति या कुटुंब पूर्णत: स्वतन्त्र नहीं रह सकते। कुछ मात्रा में परावलंबन अनिवार्य होता है। अतः सुख से जीने के लिए मनुष्य को और कुटुंबों को स्वतंत्रता और परावलंबन में संतुलन रखना आवश्यक हो जाता है। केवल परावलंबन से परस्परावलंबन में स्वतंत्रता की मात्रा बढ़ जाती है। अतः कुटुंबों में आपस में परस्परावलंबन होना आवश्यक हो जाता है। जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है परस्परावलंबन कठिन होता जाता है। प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं। अतः न्यूनतम या छोटे से छोटे भूक्षेत्र में रहनेवाले परस्परावलंबी परिवार मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय बनाना उचित होता है। अन्न वस्त्र, मकान, प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य ये मनुष्य की दैनन्दिन आवश्यकताएं हैं।
    
वास्तव में ऐसे समुदाय को बड़ा कुटुंब भी कहा जा सकता है। ऐसे बड़े कुटुंब को ग्राम कहना उचित होता है। ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है। परस्परावलंबी कुटुम्बों के एकत्र आने से जो स्वावलंबी समुदाय बनता है उसे ग्राम कहते हैं। यह आश्रम प्रणाली का तीसरा हिस्सा है। कौटुम्बिक उद्योगों के आधारपर ग्राम स्वावलंबी बनते हैं। आवश्यकताओं और आपूर्ति का मेल बिठाने के लिए कौटुम्बिक उद्योगों को अनुवांशिक बनाने की आवश्यकता होती है। ज्ञान, कला, कौशल आदि की प्राप्ति के लिए पूरा विश्व ही ग्राम होता है। लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही पूरा विश्व होता है। ऐसी सोच के कारण समाज पगढ़ीला नहीं हो पाता। पगढ़ीले समाज में कोई श्रेष्ठ संस्कृति पनप नहीं पाती। ग्राम की सीमा भी सुबह घर से निकलकर समाज की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति में अपना योगदान देकर शामतक फिर से अपने घर लौट सके इतनी ही होनी चाहिये। ग्राम की विशेषताएँ निम्न कही जा सकतीं हैं:
 
वास्तव में ऐसे समुदाय को बड़ा कुटुंब भी कहा जा सकता है। ऐसे बड़े कुटुंब को ग्राम कहना उचित होता है। ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है। परस्परावलंबी कुटुम्बों के एकत्र आने से जो स्वावलंबी समुदाय बनता है उसे ग्राम कहते हैं। यह आश्रम प्रणाली का तीसरा हिस्सा है। कौटुम्बिक उद्योगों के आधारपर ग्राम स्वावलंबी बनते हैं। आवश्यकताओं और आपूर्ति का मेल बिठाने के लिए कौटुम्बिक उद्योगों को अनुवांशिक बनाने की आवश्यकता होती है। ज्ञान, कला, कौशल आदि की प्राप्ति के लिए पूरा विश्व ही ग्राम होता है। लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही पूरा विश्व होता है। ऐसी सोच के कारण समाज पगढ़ीला नहीं हो पाता। पगढ़ीले समाज में कोई श्रेष्ठ संस्कृति पनप नहीं पाती। ग्राम की सीमा भी सुबह घर से निकलकर समाज की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति में अपना योगदान देकर शामतक फिर से अपने घर लौट सके इतनी ही होनी चाहिये। ग्राम की विशेषताएँ निम्न कही जा सकतीं हैं:

Navigation menu