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हमारे यहाँ निर्मित प्राचीन रंगशालाएँ जहाँ नाटक मंचित होते थे, उस विशाल सभागार में ध्वनि व्यवस्था ऐसी उत्तम रहती थी कि मंच से बोलने वाले नट की आवाज बिना माइक के ७० फिट तक बैठे हुए दर्शकों को समान रूप से एक जैसी सुनाई देती थी, चाहे वह आगे बैठा है या पीछे ।
 
हमारे यहाँ निर्मित प्राचीन रंगशालाएँ जहाँ नाटक मंचित होते थे, उस विशाल सभागार में ध्वनि व्यवस्था ऐसी उत्तम रहती थी कि मंच से बोलने वाले नट की आवाज बिना माइक के ७० फिट तक बैठे हुए दर्शकों को समान रूप से एक जैसी सुनाई देती थी, चाहे वह आगे बैठा है या पीछे ।
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आज के विद्यालय भवनों में इसका अभाव होने के कारण कक्षा-कक्षों में आचार्य को माइक का सहारा लेना पड़ता है अथवा चिल्लाना पड़ता है। कुछ भवन तो ऐसे  बन जाते हैं जहाँ सदैव बच्चों का हो हल्ला ही गूंजता रहता है मानो वह विद्यालय न होकर मछली बाजार हो । अतः व्यवस्था करते समय ताप नियंत्रण की भाँति ध्वनि नियंत्रण की ओर भी ध्यान देना नितान्त आवश्यक है।
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आज के विद्यालय भवनों में इसका अभाव होने के कारण कक्षा-कक्षों में आचार्य को माइक का सहारा लेना पड़ता है अथवा चिल्लाना पड़ता है। कुछ भवन तो ऐसे  बन जाते हैं जहाँ सदैव बच्चोंं का हो हल्ला ही गूंजता रहता है मानो वह विद्यालय न होकर मछली बाजार हो । अतः व्यवस्था करते समय ताप नियंत्रण की भाँति ध्वनि नियंत्रण की ओर भी ध्यान देना नितान्त आवश्यक है।
    
==== विद्यालय वेश मौसम के अनुसार हो ====
 
==== विद्यालय वेश मौसम के अनुसार हो ====
 
वेश का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के स्वास्थ्य से है।  शरीर रक्षा हेतु वेश होना चाहिए। किन्तु आज प्रमुख बिन्दु हो गया है सुन्दर दिखना अर्थात् फैशन । आज विद्यालयों में वेश का निर्धारण दुकानदार करता है जिसमें उसका व संचालकों का आर्थिक हित जुड़ा रहता है।  
 
वेश का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के स्वास्थ्य से है।  शरीर रक्षा हेतु वेश होना चाहिए। किन्तु आज प्रमुख बिन्दु हो गया है सुन्दर दिखना अर्थात् फैशन । आज विद्यालयों में वेश का निर्धारण दुकानदार करता है जिसमें उसका व संचालकों का आर्थिक हित जुड़ा रहता है।  
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गर्म जलवायु वाले प्रदेश में छोटे-छोटे बच्चों को बूट-मोजों से लेकर टाई से बाँधने की व्यवस्था उनके साथ अन्याय है। अतः वेश सदैव सादा व शरीर रक्षा करने वाला होना चाहिए, अंग्रेज बाबू बनाने वाला नहीं, स्वदेशी भाव जगाने वाला होना चाहिए ।
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गर्म जलवायु वाले प्रदेश में छोटे-छोटे बच्चोंं को बूट-मोजों से लेकर टाई से बाँधने की व्यवस्था उनके साथ अन्याय है। अतः वेश सदैव सादा व शरीर रक्षा करने वाला होना चाहिए, अंग्रेज बाबू बनाने वाला नहीं, स्वदेशी भाव जगाने वाला होना चाहिए ।
    
==== विद्यालय वातावरण संस्कारक्षम हो ====
 
==== विद्यालय वातावरण संस्कारक्षम हो ====
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स्वच्छता और पवित्रता में भी भिन्नता है। जो-जो पवित्र है वह स्वच्छ है। परन्तु जो जो स्वच्छ है, वह पवित्र होगा ही ऐसा आवश्यक नहीं है। विद्यालय में स्वच्छता बनाये रखने हेतु स्थान स्थान पर कूडादान रखने होंगे। सफाई करने के पर्याप्त साधन झाडू, बाल्टियाँ, पुराने कपड़े आदि विद्यालय में कक्षाशः अलग उपलब्ध होने चाहिए। जिस किसी छात्र या आचार्य को एक छोटा सा तिनका भी दिखाई दे वह तुरन्त उस तिनके को उठाकर कूड़ादान में डाले, ऐसी आदत सबकी बनानी चाहिए। कोई भी खिड़की से कचरा बाहर न फेंके, गन्दगी करने वाले छात्रों के नाम बताने के स्थान पर स्वच्छता रखने वाले छात्रों के नाम बताना उनको गौरवान्वित करना अधिक प्रेरणादायी होता है।
 
स्वच्छता और पवित्रता में भी भिन्नता है। जो-जो पवित्र है वह स्वच्छ है। परन्तु जो जो स्वच्छ है, वह पवित्र होगा ही ऐसा आवश्यक नहीं है। विद्यालय में स्वच्छता बनाये रखने हेतु स्थान स्थान पर कूडादान रखने होंगे। सफाई करने के पर्याप्त साधन झाडू, बाल्टियाँ, पुराने कपड़े आदि विद्यालय में कक्षाशः अलग उपलब्ध होने चाहिए। जिस किसी छात्र या आचार्य को एक छोटा सा तिनका भी दिखाई दे वह तुरन्त उस तिनके को उठाकर कूड़ादान में डाले, ऐसी आदत सबकी बनानी चाहिए। कोई भी खिड़की से कचरा बाहर न फेंके, गन्दगी करने वाले छात्रों के नाम बताने के स्थान पर स्वच्छता रखने वाले छात्रों के नाम बताना उनको गौरवान्वित करना अधिक प्रेरणादायी होता है।
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अनेक बार बड़े लोग विदेशों में स्वच्छता व भारत में गन्दगी का तुलनात्मक वर्णन बच्चों के सामने ऐसे शब्दों में बताते हैं कि जैसे धार्मिकों को गन्दगी ही पसन्द है, ये स्वच्छता के बारे में कुछ नहीं जानते । जैसे भारत में स्वच्छता को कोई महत्त्व ही नहीं है । ऐसा बोलने से अपने देश के प्रति हीनता बोध ही पनपता है, जो उचित नहीं है। भारत में तो सदैव से ही स्वच्छता का आचरण व व्यवहार रहा है। एक गृहिणी उठते ही सबसे पहले पूरे घर की सफाई करती है । घर के द्वार पर रंगोली बनाती है, पहले पानी छिड़कती है । ऐसी आदतें जिस देश के घर घर में हो भला वह भारत कभी स्वच्छता की अनदेखी कर सकता है ? केवल घर व शरीर की शुद्धि ही नहीं तो चित्त शुद्धि पर परम पद प्राप्त करने की इच्छा जन जन में थी, आज फिर से उसे जगाने की आवश्यकता है।
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अनेक बार बड़े लोग विदेशों में स्वच्छता व भारत में गन्दगी का तुलनात्मक वर्णन बच्चोंं के सामने ऐसे शब्दों में बताते हैं कि जैसे धार्मिकों को गन्दगी ही पसन्द है, ये स्वच्छता के बारे में कुछ नहीं जानते । जैसे भारत में स्वच्छता को कोई महत्त्व ही नहीं है । ऐसा बोलने से अपने देश के प्रति हीनता बोध ही पनपता है, जो उचित नहीं है। भारत में तो सदैव से ही स्वच्छता का आचरण व व्यवहार रहा है। एक गृहिणी उठते ही सबसे पहले पूरे घर की सफाई करती है । घर के द्वार पर रंगोली बनाती है, पहले पानी छिड़कती है । ऐसी आदतें जिस देश के घर घर में हो भला वह भारत कभी स्वच्छता की अनदेखी कर सकता है ? केवल घर व शरीर की शुद्धि ही नहीं तो चित्त शुद्धि पर परम पद प्राप्त करने की इच्छा जन जन में थी, आज फिर से उसे जगाने की आवश्यकता है।
    
==== स्वच्छता के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार करना चाहिये: ====
 
==== स्वच्छता के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार करना चाहिये: ====
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सभी उत्तरों को पढने से ऐसा लगा कि हम स्वयं समस्या निर्माण करने वाले हैं और हम ही उनका समर्थन करने वाले हैं। सबसे अच्छी व्यवस्था तो यही है कि जिस आयु का बालक जितनी दूर पैदल जा सकता है, उतनी दूर पर ही उसका विद्यालय होना चाहिए । पैदल जाते समय मित्रों का साथ उन्हें आनन्ददायी लगता है। शारीरिक स्वस्थता एवं स्वावलम्बन दोनों ही सहज में मिलते हैं। आते जाते मार्ग के दृश्य, घटनाएँ बहुत कुछ अनायास ही सिखा देती है। ऐसी अनुकूलता की अनेक बातें छोड़कर हम प्रतिकूल परिस्थिति में जीवन जीते हैं, ऐसा क्यों ? तो ध्यान में आता है कि अपने बालक को केजी से पीजी तक की शिक्षा एक ही अच्छी संस्था में हो वही भेजना ऐसे दुराग्रह रखने से होता है। इसके स्थान पर जो विद्यालय पास में है, उसे ही अच्छा बनाने में सहयोगी होना । ऐसा विचार यदि अभिभावक रखेंगे तो शिक्षा आनन्द दायक व तनावमुक्त होगी। छोटे छोटे गाँवों में बैलगाडी, ऊँटगाडी, घोडागाडी से विद्यालय जाना कितना सुखकर होता था, यह हम भूल गये हैं। इन वाहनों की गति कम होने से दुर्घटना होने की सम्भावना भी कम और मार्ग में निरीक्षण करते जाने का आनन्द अधिक मिलता है। निर्जीव वाहनों में यात्रा करने के स्थान पर जीवित प्राणियों के साथ प्रवास करने से उन प्राणियों के प्रति संवेदना जाग्रत होती है और उनसे आत्मीयता बढती है।
 
सभी उत्तरों को पढने से ऐसा लगा कि हम स्वयं समस्या निर्माण करने वाले हैं और हम ही उनका समर्थन करने वाले हैं। सबसे अच्छी व्यवस्था तो यही है कि जिस आयु का बालक जितनी दूर पैदल जा सकता है, उतनी दूर पर ही उसका विद्यालय होना चाहिए । पैदल जाते समय मित्रों का साथ उन्हें आनन्ददायी लगता है। शारीरिक स्वस्थता एवं स्वावलम्बन दोनों ही सहज में मिलते हैं। आते जाते मार्ग के दृश्य, घटनाएँ बहुत कुछ अनायास ही सिखा देती है। ऐसी अनुकूलता की अनेक बातें छोड़कर हम प्रतिकूल परिस्थिति में जीवन जीते हैं, ऐसा क्यों ? तो ध्यान में आता है कि अपने बालक को केजी से पीजी तक की शिक्षा एक ही अच्छी संस्था में हो वही भेजना ऐसे दुराग्रह रखने से होता है। इसके स्थान पर जो विद्यालय पास में है, उसे ही अच्छा बनाने में सहयोगी होना । ऐसा विचार यदि अभिभावक रखेंगे तो शिक्षा आनन्द दायक व तनावमुक्त होगी। छोटे छोटे गाँवों में बैलगाडी, ऊँटगाडी, घोडागाडी से विद्यालय जाना कितना सुखकर होता था, यह हम भूल गये हैं। इन वाहनों की गति कम होने से दुर्घटना होने की सम्भावना भी कम और मार्ग में निरीक्षण करते जाने का आनन्द अधिक मिलता है। निर्जीव वाहनों में यात्रा करने के स्थान पर जीवित प्राणियों के साथ प्रवास करने से उन प्राणियों के प्रति संवेदना जाग्रत होती है और उनसे आत्मीयता बढती है।
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बच्चों का आनन्द बड़ों की समझ में नहीं आता । हम उन्हें भी अपने जैसा अव्यवहारिक तथा असंवेदनशील बनाते जाते हैं । इसी प्रकार २ किमी से लेकर ५ किमी तक की दूरी है तो साइकिल का उपयोग हर दृष्टि से लाभदायक रहता है। पर्याप्त शारीरिक व्यायाम हो जाता है, किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं होता और साथ ही साथ पैसा व समय दोनों बचते हैं । अतः स्थान स्थान पर अच्छे व छोटे छोटे विद्यालय खड़ें करने चाहिए।
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बच्चोंं का आनन्द बड़ों की समझ में नहीं आता । हम उन्हें भी अपने जैसा अव्यवहारिक तथा असंवेदनशील बनाते जाते हैं । इसी प्रकार २ किमी से लेकर ५ किमी तक की दूरी है तो साइकिल का उपयोग हर दृष्टि से लाभदायक रहता है। पर्याप्त शारीरिक व्यायाम हो जाता है, किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं होता और साथ ही साथ पैसा व समय दोनों बचते हैं । अतः स्थान स्थान पर अच्छे व छोटे छोटे विद्यालय खड़ें करने चाहिए।
    
वर्तमान समय में अनेक भ्रान्त धारणाओं के कारण हमने अपने लिये अनेक समस्याओं को मोल लिया है। उनमें एक वाहन की समस्या है। अपनी सन्तानों को विद्यालय भेजना अथवा बड़े विद्यार्थी हों तो विद्यालय जाना महँगा हो रहा है उसमें एक हिस्सा वाहन का खर्च है।
 
वर्तमान समय में अनेक भ्रान्त धारणाओं के कारण हमने अपने लिये अनेक समस्याओं को मोल लिया है। उनमें एक वाहन की समस्या है। अपनी सन्तानों को विद्यालय भेजना अथवा बड़े विद्यार्थी हों तो विद्यालय जाना महँगा हो रहा है उसमें एक हिस्सा वाहन का खर्च है।
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# हमें मानसिकता बनानी पड़ेगी कि पैदल चलना अच्छा है। उसमें स्वास्थ्य है, खर्च की बचत है, अच्छाई है और इन्हीं कारणों से प्रतिष्ठा भी है।  
 
# हमें मानसिकता बनानी पड़ेगी कि पैदल चलना अच्छा है। उसमें स्वास्थ्य है, खर्च की बचत है, अच्छाई है और इन्हीं कारणों से प्रतिष्ठा भी है।  
 
# यह केवल मानसिकता का ही नहीं तो व्यवस्था का भी विषय है। हमें बहुत व्यावहारिक होकर विचार करना होगा।  
 
# यह केवल मानसिकता का ही नहीं तो व्यवस्था का भी विषय है। हमें बहुत व्यावहारिक होकर विचार करना होगा।  
# विद्यालय घर से इतना दूर नहीं होना चाहिये कि विद्यार्थी पैदल चलकर न जा सकें । शिशुओं के लिये और प्राथमिक विद्यालयों के विद्यार्थियों के लिये तो वह व्यवस्था अनिवार्य है। यहाँ फिर मानसिकता का प्रश्न अवरोध निर्माण करता है । अच्छे विद्यालय की हमारी कल्पनायें इतनी विचित्र हैं कि हम इन समस्याओं का विचार ही नहीं करते । वास्तव में घर के समीप का सरकारी प्राथमिक विद्यालय या कोई भी निजी विद्यालय हमारे लिये अच्छा विद्यालय ही माना जाना चाहिये । अच्छे विद्यालय के सर्वसामान्य नियमों पर जो विद्यालय खरा नहीं उतरता वह अभिभावकों के दबाव से बन्द हो जाना चाहिये । वास्तविक दृश्य यह दिखाई देता है कि अच्छा नहीं है कहकर जिस विद्यालय में आसपास के लोग अपने बच्चों को नहीं भेजते उनमें दूर दूर से बच्चे पढने के लिये आते ही हैं। निःशुल्क सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को अभिभावक ही अच्छा विद्यालय बना सकते हैं। इस सम्भावना को त्याग कर दूर दूर के विद्यालयों में जाना बुद्धिमानी नहीं है ।  
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# विद्यालय घर से इतना दूर नहीं होना चाहिये कि विद्यार्थी पैदल चलकर न जा सकें । शिशुओं के लिये और प्राथमिक विद्यालयों के विद्यार्थियों के लिये तो वह व्यवस्था अनिवार्य है। यहाँ फिर मानसिकता का प्रश्न अवरोध निर्माण करता है । अच्छे विद्यालय की हमारी कल्पनायें इतनी विचित्र हैं कि हम इन समस्याओं का विचार ही नहीं करते । वास्तव में घर के समीप का सरकारी प्राथमिक विद्यालय या कोई भी निजी विद्यालय हमारे लिये अच्छा विद्यालय ही माना जाना चाहिये । अच्छे विद्यालय के सर्वसामान्य नियमों पर जो विद्यालय खरा नहीं उतरता वह अभिभावकों के दबाव से बन्द हो जाना चाहिये । वास्तविक दृश्य यह दिखाई देता है कि अच्छा नहीं है कहकर जिस विद्यालय में आसपास के लोग अपने बच्चोंं को नहीं भेजते उनमें दूर दूर से बच्चे पढने के लिये आते ही हैं। निःशुल्क सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को अभिभावक ही अच्छा विद्यालय बना सकते हैं। इस सम्भावना को त्याग कर दूर दूर के विद्यालयों में जाना बुद्धिमानी नहीं है ।  
 
# साइकिल पर आनाजाना सबसे अच्छा उपाय है । वास्तव में विद्यालय को ऐसा नियम बनाना चाहिये कि घर से विद्यालय की दूरी एक किलोमीटर है तो पैदल चलकर ही आना है, साइकिल भी नहीं लाना है और पाँच से सात किलोमीटर है तो साइकिल लेकर ही आना है। विद्यालय में पेट्रोल-डीजल चलित वाहन की अनुमति ही नहीं है। अभिभावक अपने वाहन पर भी छोडने के लिये न आयें।  
 
# साइकिल पर आनाजाना सबसे अच्छा उपाय है । वास्तव में विद्यालय को ऐसा नियम बनाना चाहिये कि घर से विद्यालय की दूरी एक किलोमीटर है तो पैदल चलकर ही आना है, साइकिल भी नहीं लाना है और पाँच से सात किलोमीटर है तो साइकिल लेकर ही आना है। विद्यालय में पेट्रोल-डीजल चलित वाहन की अनुमति ही नहीं है। अभिभावक अपने वाहन पर भी छोडने के लिये न आयें।  
 
# देखा जाता है कि जहाँ ऐसा नियम बनाया जाता है वहाँ विद्यार्थी या अभिभावक पेट्रोल-डिजल चलित वाहन तो लाते हैं, परन्तु उसे कुछ दूरी पर रखते हैं और बाद में पैदल चलकर विद्यालय आते हैं। यह तो इस बात का निदर्शक है कि विद्यार्थी और उनके मातापिता अप्रामाणिक हैं, नियम का पालन करते नहीं हैं इसलिये अनुशासनहीन हैं और विद्यालय के लोग यह जानते हैं तो भी कुछ नहीं कर सकते इतने प्रभावहीन हैं। वास्तव में इस व्यवस्था को सबके मन में स्वीकृत करवाना विद्यालय का प्रथम दायित्व है।  
 
# देखा जाता है कि जहाँ ऐसा नियम बनाया जाता है वहाँ विद्यार्थी या अभिभावक पेट्रोल-डिजल चलित वाहन तो लाते हैं, परन्तु उसे कुछ दूरी पर रखते हैं और बाद में पैदल चलकर विद्यालय आते हैं। यह तो इस बात का निदर्शक है कि विद्यार्थी और उनके मातापिता अप्रामाणिक हैं, नियम का पालन करते नहीं हैं इसलिये अनुशासनहीन हैं और विद्यालय के लोग यह जानते हैं तो भी कुछ नहीं कर सकते इतने प्रभावहीन हैं। वास्तव में इस व्यवस्था को सबके मन में स्वीकृत करवाना विद्यालय का प्रथम दायित्व है।  

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