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मनुस्मृति में और भी कहा है कि स्त्री सदा सुरक्षित रहे यह सुनिश्चित करना चाहिए। कहा है<ref>मनुस्मृति 9.3</ref>:<blockquote>पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।</blockquote><blockquote>पुत्रस्तु स्थविरे भावे न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हती।। 9.3 ।।</blockquote>स्त्री यह समाज की अनमोल धरोहर है। इसे कभी भी अरक्षित न रखा जाए। बचपन में पिता, यौवन में पति, बुढ़ापे में बेटा उसकी सदैव रक्षा करे। ऐसा कहने में स्त्री और पुरुष की प्राकृतिक सहज प्रवृत्तियों, क्षमताओं और आवश्यकताओं की गहरी समझ हमारे पूर्वजों ने बताई है।
 
मनुस्मृति में और भी कहा है कि स्त्री सदा सुरक्षित रहे यह सुनिश्चित करना चाहिए। कहा है<ref>मनुस्मृति 9.3</ref>:<blockquote>पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।</blockquote><blockquote>पुत्रस्तु स्थविरे भावे न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हती।। 9.3 ।।</blockquote>स्त्री यह समाज की अनमोल धरोहर है। इसे कभी भी अरक्षित न रखा जाए। बचपन में पिता, यौवन में पति, बुढ़ापे में बेटा उसकी सदैव रक्षा करे। ऐसा कहने में स्त्री और पुरुष की प्राकृतिक सहज प्रवृत्तियों, क्षमताओं और आवश्यकताओं की गहरी समझ हमारे पूर्वजों ने बताई है।
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आजकल अधिकारों का बोलबाला है। यह समाज में सामाजिकता कम होकर व्यक्तिवादिता यानि स्वार्थ की भावना के बढ़ने के कारण है। सर्वप्रथम हमारे राजनेता यूनेस्को से लाये ‘मानवाधिकार’ फिर लाये ‘स्त्रियों के अधिकार’ फिर लाये ‘बच्चों के अधिकार‘। हमारा संविधान भी मुख्यत: (कर्तव्यों की बहुत कम और) अधिकारों की बात करता है। पूरी कानून व्यवस्था ही अधिकारों की रक्षा के लिए बनाई गई है। जब अधिकारों का बोलबाला होता है तो झगड़े, संघर्ष, अशांति, बलावानों द्वारा अत्याचार तो होते ही हैं। जब सामाजिक संबंधों का आधार कर्तव्य होता है समाज में सुख, शांति, समृद्धि निर्माण होती है। लेकिन अपने पूर्वजों से कुछ सीखने के स्थान पर हम पश्चिम का अन्धानुकरण करने को ही प्रगति मानने लगे हैं।
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आजकल अधिकारों का बोलबाला है। यह समाज में सामाजिकता कम होकर व्यक्तिवादिता यानि स्वार्थ की भावना के बढ़ने के कारण है। सर्वप्रथम हमारे राजनेता यूनेस्को से लाये ‘मानवाधिकार’ फिर लाये ‘स्त्रियों के अधिकार’ फिर लाये ‘बच्चोंं के अधिकार‘। हमारा संविधान भी मुख्यत: (कर्तव्यों की बहुत कम और) अधिकारों की बात करता है। पूरी कानून व्यवस्था ही अधिकारों की रक्षा के लिए बनाई गई है। जब अधिकारों का बोलबाला होता है तो झगड़े, संघर्ष, अशांति, बलावानों द्वारा अत्याचार तो होते ही हैं। जब सामाजिक संबंधों का आधार कर्तव्य होता है समाज में सुख, शांति, समृद्धि निर्माण होती है। लेकिन अपने पूर्वजों से कुछ सीखने के स्थान पर हम पश्चिम का अन्धानुकरण करने को ही प्रगति मानने लगे हैं।
    
मानव की सहज स्वाभाविक सामाजिकता को विघटित कर उसे केवल व्यक्तिवादी बनानेवाले जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान (paradigm) को हम अपनाते जा रहे हैं। ये समस्याएँ तथाकथित प्रगत देशों में भी हैं। लेकिन इस प्रकार के अत्याचार उनके लिए नई बात नहीं है। यह बात तो उन समाजों में स्वाभाविक ही मानी जाती है। स्त्रियाँ भी बहुत बवंडर नहीं मचातीं हैं। यौवनावस्थातक जिसका कौमार्य भंग नहीं हुआ ऐसी लड़कियाँ हीन मानी जातीं हैं। लड़की का विवाह के समय कुंवारी होना अपवाद ही होता है। लेकिन हम धार्मिक (धार्मिक) तो ऐसे नहीं थे। हमारे यहाँ तो घर घर की गृहिणी अपने कर्तव्यों के प्रति, अपने बच्चे को संस्कारयुक्त बनाने की दृष्टि से जागरुक होती थी। अपनी बेटी अपने से भी श्रेष्ठ बने ऐसे संस्कारों से उसे सिंचित करती थी। अपने बेटों को मातृवत परदारेषु के संस्कार कराती थी। अपने श्रेष्ठ व्यवहार से समाज में सम्मान पाती थी। आवश्यकतानुसार परिवार की मुखिया भी हुआ करती थी। वास्तव में हमारी मान्यता के अनुसार तो घर या गृह गृहिणी से ही बनता है। वसुधैव कुटुम्बकम् का आधार ही घर घर की गृहिणी हुआ करती थी।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १३, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
 
मानव की सहज स्वाभाविक सामाजिकता को विघटित कर उसे केवल व्यक्तिवादी बनानेवाले जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान (paradigm) को हम अपनाते जा रहे हैं। ये समस्याएँ तथाकथित प्रगत देशों में भी हैं। लेकिन इस प्रकार के अत्याचार उनके लिए नई बात नहीं है। यह बात तो उन समाजों में स्वाभाविक ही मानी जाती है। स्त्रियाँ भी बहुत बवंडर नहीं मचातीं हैं। यौवनावस्थातक जिसका कौमार्य भंग नहीं हुआ ऐसी लड़कियाँ हीन मानी जातीं हैं। लड़की का विवाह के समय कुंवारी होना अपवाद ही होता है। लेकिन हम धार्मिक (धार्मिक) तो ऐसे नहीं थे। हमारे यहाँ तो घर घर की गृहिणी अपने कर्तव्यों के प्रति, अपने बच्चे को संस्कारयुक्त बनाने की दृष्टि से जागरुक होती थी। अपनी बेटी अपने से भी श्रेष्ठ बने ऐसे संस्कारों से उसे सिंचित करती थी। अपने बेटों को मातृवत परदारेषु के संस्कार कराती थी। अपने श्रेष्ठ व्यवहार से समाज में सम्मान पाती थी। आवश्यकतानुसार परिवार की मुखिया भी हुआ करती थी। वास्तव में हमारी मान्यता के अनुसार तो घर या गृह गृहिणी से ही बनता है। वसुधैव कुटुम्बकम् का आधार ही घर घर की गृहिणी हुआ करती थी।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १३, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
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# धार्मिक (धार्मिक) समाज में असंस्कृत घरों में स्त्री को जो दुय्यम स्थिति प्राप्त हुई है इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं। पहला कारण बौद्ध कालीन है। आदि शंकराचार्य के समयतक भारत में बौद्ध मत अत्यंत प्रभावी बन गया था। राजाओं के आश्रय के कारण और मुक्त यौन संबंधों के कारण बौद्ध विहार व्यभिचार के अड्डे बन गए थे। यौन आकर्षण के कारण जवान लड़कियाँ संघों में शरण ले लेतीं थीं। एक  बार संघ में शरण ले लेने के बाद उसे वहाँ से वापस लाना लगभग असंभव होता था। अतः लड़कियों के माता पिता लड़की के सज्ञान होने से पहले ही अपनी बेटियों के विवाह करा देते थे। अतः बाल विवाह की प्रथा चल पड़ी थी। स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक (धार्मिक) समाज का इस काल में बहुत नुकसान हुआ। फिर हुए बर्बर मुस्लिम आक्रमण। ये आक्रमणकारी शत्रू की स्त्रियों पर बलात्कार, अत्याचार करना अपने मजहब के अनुसार उचित मानते थे। लड़कियों, स्त्रियों को भगाकर ले जाना, दासी बनाना, रखेली बनाना, गुलाम बनाना, बेचना ये सब बातें इनके लिए मजहबी दृष्टि से आवश्यक थीं। प्रत्यक्ष शिवाजी महाराज की चाची को मुसलमान भगा ले गए थे। उसे शिवाजी के पिता शाहजी जैसा उस समय का एक जबरदस्त कद्दावर सेनापति भी वापस नहीं ला सका था। ऐसी परिस्थिति में स्त्री का घर से बाहर निकलना ही बंद हो गया। इसके परिणामस्वरूप भी स्त्री शिक्षा की अपार हानि हुई। अन्यथा शंकराचार्य के काल तक तो मंडन मिश्र की पत्नी भारती जैसी विदुषियों की भारत में उपलब्धता थी।
 
# धार्मिक (धार्मिक) समाज में असंस्कृत घरों में स्त्री को जो दुय्यम स्थिति प्राप्त हुई है इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं। पहला कारण बौद्ध कालीन है। आदि शंकराचार्य के समयतक भारत में बौद्ध मत अत्यंत प्रभावी बन गया था। राजाओं के आश्रय के कारण और मुक्त यौन संबंधों के कारण बौद्ध विहार व्यभिचार के अड्डे बन गए थे। यौन आकर्षण के कारण जवान लड़कियाँ संघों में शरण ले लेतीं थीं। एक  बार संघ में शरण ले लेने के बाद उसे वहाँ से वापस लाना लगभग असंभव होता था। अतः लड़कियों के माता पिता लड़की के सज्ञान होने से पहले ही अपनी बेटियों के विवाह करा देते थे। अतः बाल विवाह की प्रथा चल पड़ी थी। स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक (धार्मिक) समाज का इस काल में बहुत नुकसान हुआ। फिर हुए बर्बर मुस्लिम आक्रमण। ये आक्रमणकारी शत्रू की स्त्रियों पर बलात्कार, अत्याचार करना अपने मजहब के अनुसार उचित मानते थे। लड़कियों, स्त्रियों को भगाकर ले जाना, दासी बनाना, रखेली बनाना, गुलाम बनाना, बेचना ये सब बातें इनके लिए मजहबी दृष्टि से आवश्यक थीं। प्रत्यक्ष शिवाजी महाराज की चाची को मुसलमान भगा ले गए थे। उसे शिवाजी के पिता शाहजी जैसा उस समय का एक जबरदस्त कद्दावर सेनापति भी वापस नहीं ला सका था। ऐसी परिस्थिति में स्त्री का घर से बाहर निकलना ही बंद हो गया। इसके परिणामस्वरूप भी स्त्री शिक्षा की अपार हानि हुई। अन्यथा शंकराचार्य के काल तक तो मंडन मिश्र की पत्नी भारती जैसी विदुषियों की भारत में उपलब्धता थी।
 
# अब स्त्रियों को शिक्षा के द्वार खुल गए हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि मिलने वाली शिक्षा विपरीत शिक्षा है। गुलामी की शिक्षा है। स्त्री को परायों के पास जाने को बाध्य करनेवाली और उनको नौकर बनानेवाली शिक्षा है। असंस्कृत समाज निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री को बरगलाने वाली शिक्षा है। संस्कारों का काम सरकार डंडे की सहायता से करे ऐसी अपेक्षा समाज में निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री-मुक्ति के नाम पर स्त्री का शोषण करने के लिये स्त्री को भोग वस्तु बनानेवाली शिक्षा है। स्त्री को अरक्षित करनेवाले अर्थशास्त्र को सिखाने वाली शिक्षा है। पारिवारिक सुरक्षा कवच को तोड़ने की स्त्री को प्रेरणा देनेवाली शिक्षा है। केवल स्त्री ही नहीं तो पुरुषों को भी कर्तव्यों के स्थानपर अधिकारों के लिए झगडा करने को प्रेरित करने वाली शिक्षा है। अपनी सुरक्षा, अपना स्वार्थ किस में है इसका विवेक नष्ट करनेवाली शिक्षा है।
 
# अब स्त्रियों को शिक्षा के द्वार खुल गए हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि मिलने वाली शिक्षा विपरीत शिक्षा है। गुलामी की शिक्षा है। स्त्री को परायों के पास जाने को बाध्य करनेवाली और उनको नौकर बनानेवाली शिक्षा है। असंस्कृत समाज निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री को बरगलाने वाली शिक्षा है। संस्कारों का काम सरकार डंडे की सहायता से करे ऐसी अपेक्षा समाज में निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री-मुक्ति के नाम पर स्त्री का शोषण करने के लिये स्त्री को भोग वस्तु बनानेवाली शिक्षा है। स्त्री को अरक्षित करनेवाले अर्थशास्त्र को सिखाने वाली शिक्षा है। पारिवारिक सुरक्षा कवच को तोड़ने की स्त्री को प्रेरणा देनेवाली शिक्षा है। केवल स्त्री ही नहीं तो पुरुषों को भी कर्तव्यों के स्थानपर अधिकारों के लिए झगडा करने को प्रेरित करने वाली शिक्षा है। अपनी सुरक्षा, अपना स्वार्थ किस में है इसका विवेक नष्ट करनेवाली शिक्षा है।
# स्वामी विवेकानंद कहते थे कि उनकी माता और पिता ने अच्छे बच्चे की प्राप्ति के लिए बहुत तप किया था। उनके काल में कई घरों में माता पिता श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति के लिए ऐसा तप करते थे। अब हालत यह है कि सामान्यत: बच्चे अपघात से पैदा हो रहे हैं। माता पिता का परिवार नियोजन चल रहा होता है। बच्चे की कोई चाहत होती नहीं है। लेकिन प्रकृति काम करती रहती है। किसी असावधानी के क्षण के कारण गर्भ ठहर जाता है। ऐसे माता पिताओं से और उनके द्वारा अपघात से पैदा हुए बच्चों से संस्कारों की अपेक्षा करना व्यर्थ है।
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# स्वामी विवेकानंद कहते थे कि उनकी माता और पिता ने अच्छे बच्चे की प्राप्ति के लिए बहुत तप किया था। उनके काल में कई घरों में माता पिता श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति के लिए ऐसा तप करते थे। अब हालत यह है कि सामान्यत: बच्चे अपघात से पैदा हो रहे हैं। माता पिता का परिवार नियोजन चल रहा होता है। बच्चे की कोई चाहत होती नहीं है। लेकिन प्रकृति काम करती रहती है। किसी असावधानी के क्षण के कारण गर्भ ठहर जाता है। ऐसे माता पिताओं से और उनके द्वारा अपघात से पैदा हुए बच्चोंं से संस्कारों की अपेक्षा करना व्यर्थ है।
 
# सामाजिक दृष्टि से सम्मान की बात आती है तब भी माता का क्रम सबसे पहले आता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में जो समावर्तन संस्कार के समय दिया जानेवाला उपदेश और आदेश है उसमें कहा गया है: मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव , माता का स्थान पिता से और गुरु से भी ऊपर का माना गया है।   
 
# सामाजिक दृष्टि से सम्मान की बात आती है तब भी माता का क्रम सबसे पहले आता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में जो समावर्तन संस्कार के समय दिया जानेवाला उपदेश और आदेश है उसमें कहा गया है: मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव , माता का स्थान पिता से और गुरु से भी ऊपर का माना गया है।   
 
# प्राचीन धार्मिक (धार्मिक) आख्यायिका के अनुसार मूलत: विवाह का चलन ही स्त्री की सुरक्षा के लिए आरम्भ हुआ था। एक तेजस्वी बालक था। नाम था श्वेतकेतु। उस की माता का विरोध होते हुए भी कुछ बलवान पुरुष उसकी माता का विनय भंग करने लगे। पुत्र से यह देखा नहीं गया। लेकिन वह छोटा था। दुर्बल था। इस स्थिति को बदलने का उसने प्रण किया। उसने सार्वत्रिक जागृति कर विवाह की प्रथा को जन्म दिया। स्त्रियों को यानि समाज के ५० % घटकों को इससे सुरक्षा प्राप्त होने के कारण, सुविधा होने के कारण विवाह संस्था सर्वमान्य हो गई। अभी तक इससे श्रेष्ठ अन्य व्यवस्था कोई निर्माण नहीं कर पाया है।  
 
# प्राचीन धार्मिक (धार्मिक) आख्यायिका के अनुसार मूलत: विवाह का चलन ही स्त्री की सुरक्षा के लिए आरम्भ हुआ था। एक तेजस्वी बालक था। नाम था श्वेतकेतु। उस की माता का विरोध होते हुए भी कुछ बलवान पुरुष उसकी माता का विनय भंग करने लगे। पुत्र से यह देखा नहीं गया। लेकिन वह छोटा था। दुर्बल था। इस स्थिति को बदलने का उसने प्रण किया। उसने सार्वत्रिक जागृति कर विवाह की प्रथा को जन्म दिया। स्त्रियों को यानि समाज के ५० % घटकों को इससे सुरक्षा प्राप्त होने के कारण, सुविधा होने के कारण विवाह संस्था सर्वमान्य हो गई। अभी तक इससे श्रेष्ठ अन्य व्यवस्था कोई निर्माण नहीं कर पाया है।  
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# वर्तमान लोकतंत्र : वर्तमान लोकतंत्र भी सामाजिकता को विघटित कर हर व्यक्ति को एक अलग इन्डिव्हीज्युअल पर्सन (समाज का अन्यों से कटा हुआ घटक) बना देता है। इससे एक ओर तो स्त्री अपने को शारीरिक दृष्टि से बराबर की नहीं होने पर भी पुरुषों के बराबरी की समझने लग जाती है और अपने को खतरनाक स्थिति में झोंक देती है। तो दूसरी ओर अत्याचारी पुरुष को भी अत्याचार का अवसर मिल जाता है। जब अत्याचार का प्रसंग आता है तब कहीं स्त्री को यह भान होता है की वह पुरुष नहीं है, वह एक स्त्री है। वर्तमान लोकतंत्र के कारण और जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के कारण भी समाज में अमर्याद स्वतंत्रता का पुरस्कार होता है। अपने अधिकारों की गुहार लगाई जाती है। अपने लिए तो सभी प्रकार की स्वतंत्रता का अधिकार माना जाता है लेकिन औरों के कर्तव्यों तथा औरों की सुसंस्कृतता के ऊपर प्रश्नचिन्ह खड़े किये जाते हैं। एक बार चुनाव में व्होट डाल दिया कि फिर अपनी अब कोई जिम्मेदारी नहीं है ऐसा सब मानते हैं। परिवारों को, माता पिताओं को, शिक्षकों को अब कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। सरकार ही सब कुछ करेगी ऐसी भावना समाज में व्याप्त हो जाती है। सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक समस्या का हल शासकीय दंड व्यवस्था में ढूंढा जाता है।
 
# वर्तमान लोकतंत्र : वर्तमान लोकतंत्र भी सामाजिकता को विघटित कर हर व्यक्ति को एक अलग इन्डिव्हीज्युअल पर्सन (समाज का अन्यों से कटा हुआ घटक) बना देता है। इससे एक ओर तो स्त्री अपने को शारीरिक दृष्टि से बराबर की नहीं होने पर भी पुरुषों के बराबरी की समझने लग जाती है और अपने को खतरनाक स्थिति में झोंक देती है। तो दूसरी ओर अत्याचारी पुरुष को भी अत्याचार का अवसर मिल जाता है। जब अत्याचार का प्रसंग आता है तब कहीं स्त्री को यह भान होता है की वह पुरुष नहीं है, वह एक स्त्री है। वर्तमान लोकतंत्र के कारण और जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के कारण भी समाज में अमर्याद स्वतंत्रता का पुरस्कार होता है। अपने अधिकारों की गुहार लगाई जाती है। अपने लिए तो सभी प्रकार की स्वतंत्रता का अधिकार माना जाता है लेकिन औरों के कर्तव्यों तथा औरों की सुसंस्कृतता के ऊपर प्रश्नचिन्ह खड़े किये जाते हैं। एक बार चुनाव में व्होट डाल दिया कि फिर अपनी अब कोई जिम्मेदारी नहीं है ऐसा सब मानते हैं। परिवारों को, माता पिताओं को, शिक्षकों को अब कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। सरकार ही सब कुछ करेगी ऐसी भावना समाज में व्याप्त हो जाती है। सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक समस्या का हल शासकीय दंड व्यवस्था में ढूंढा जाता है।
 
# विपरीत शिक्षा : विपरीत शिक्षा भी उपर्युक्त अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान और घटिया लोकतंत्र का पृष्ठपोषण ही करती है। यह शिक्षा मनुष्य को अधिकारों के प्रति एकदम सचेत कर देती है। यह बड़ा सरल होता है। स्वार्थ का व्यवहार सिखाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती। यह तो जन्मजात भावना होती है। बच्चा तो जन्म से ही अपने अधिकारों को ही समझता है। अधिकारों के लिए लड़ना, रोना, चिल्लाना उसे सिखाना नहीं पड़ता। लेकिन कर्तव्यों के प्रति सचेत बनने के लिए बहुत श्रेष्ठ शिक्षा की आवश्यकता होती है। वर्तमान शिक्षा इस दृष्टि से केवल अक्षम ही नहीं विपरीत दिशा में ले जानेवाली है।
 
# विपरीत शिक्षा : विपरीत शिक्षा भी उपर्युक्त अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान और घटिया लोकतंत्र का पृष्ठपोषण ही करती है। यह शिक्षा मनुष्य को अधिकारों के प्रति एकदम सचेत कर देती है। यह बड़ा सरल होता है। स्वार्थ का व्यवहार सिखाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती। यह तो जन्मजात भावना होती है। बच्चा तो जन्म से ही अपने अधिकारों को ही समझता है। अधिकारों के लिए लड़ना, रोना, चिल्लाना उसे सिखाना नहीं पड़ता। लेकिन कर्तव्यों के प्रति सचेत बनने के लिए बहुत श्रेष्ठ शिक्षा की आवश्यकता होती है। वर्तमान शिक्षा इस दृष्टि से केवल अक्षम ही नहीं विपरीत दिशा में ले जानेवाली है।
# परिवारों से पारिवारिक भावना और परिवार तत्व का नष्ट हो जाना : वर्तमान में परिवार रचना तेजी से टूट रही है। परिवारों की ‘फैमिली’ बन गई है। माता, पिता और उनके ऊपर निर्भर संतानें इतने सदस्यों तक ही फैमिली मर्यादित होती है। फिर आजकल विवाह भी समझौता (कोन्ट्रेक्ट) होता है। करार होता है। समझौता या करार यह दो लोगोंं ने अपने अपने स्वार्थ के लिए आपस में किया हुआ शर्तों का सूचीपत्र होता है। अपने अपने स्वार्थों के लिए, मुख्यत: अपनी यौवन सुलभ इच्छाओं की या वासना की पूर्ति के लिए जो स्त्री पुरुष साथ में रहते हें उनसे बच्चों को संस्कारित करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। वे तो बच्चों को स्वार्थ ही सिखाएँगे। अधिकारों के लिए कैसे लड़ना यही सिखाएँगे। परिवार व्यवस्था का निर्माण ही वास्तव में केवल अधिकारों की समझ लेकर जन्म लिए हुए बच्चे को केवल कर्तव्यों के लिये जीने वाला मनुष्य बनाने के लिए किया गया है। घर के मुखिया के केवल कर्तव्य होते हैं। कोई अधिकार नहीं होते। इसी कारण ऐसा कहा जाता है की परिवार यह सामाजिकता की पाठशाला होती है। सामाजिकता का आधार अपने कर्तव्यों और अन्यों के अधिकारों पर बल देने की मानसिकता यही होता है।
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# परिवारों से पारिवारिक भावना और परिवार तत्व का नष्ट हो जाना : वर्तमान में परिवार रचना तेजी से टूट रही है। परिवारों की ‘फैमिली’ बन गई है। माता, पिता और उनके ऊपर निर्भर संतानें इतने सदस्यों तक ही फैमिली मर्यादित होती है। फिर आजकल विवाह भी समझौता (कोन्ट्रेक्ट) होता है। करार होता है। समझौता या करार यह दो लोगोंं ने अपने अपने स्वार्थ के लिए आपस में किया हुआ शर्तों का सूचीपत्र होता है। अपने अपने स्वार्थों के लिए, मुख्यत: अपनी यौवन सुलभ इच्छाओं की या वासना की पूर्ति के लिए जो स्त्री पुरुष साथ में रहते हें उनसे बच्चोंं को संस्कारित करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। वे तो बच्चोंं को स्वार्थ ही सिखाएँगे। अधिकारों के लिए कैसे लड़ना यही सिखाएँगे। परिवार व्यवस्था का निर्माण ही वास्तव में केवल अधिकारों की समझ लेकर जन्म लिए हुए बच्चे को केवल कर्तव्यों के लिये जीने वाला मनुष्य बनाने के लिए किया गया है। घर के मुखिया के केवल कर्तव्य होते हैं। कोई अधिकार नहीं होते। इसी कारण ऐसा कहा जाता है की परिवार यह सामाजिकता की पाठशाला होती है। सामाजिकता का आधार अपने कर्तव्यों और अन्यों के अधिकारों पर बल देने की मानसिकता यही होता है।
 
# माताओं में गुरुत्व का अभाव : माँ के जने बिना कोई बच्चा जन्म नहीं लेता। बच्चे का पोषण माता ही करती है। जिसने जन्म दिया है और जो पोषण करती है उसके प्रति कृतज्ञता की भावना होना मानवता का लक्षण है। ऐसा होने के उपरांत भी बच्चे बिगड़ रहे हैं। स्त्रियों पर अत्याचार कर रहे हैं। अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालयीन शिक्षा होता है। धार्मिक (धार्मिक) माताएं भी ऐसा ही मानने लगीं हैं। वास्तव में बच्चे की ७५ – ८० % घडन तो घर-परिवार में ही होती है।  
 
# माताओं में गुरुत्व का अभाव : माँ के जने बिना कोई बच्चा जन्म नहीं लेता। बच्चे का पोषण माता ही करती है। जिसने जन्म दिया है और जो पोषण करती है उसके प्रति कृतज्ञता की भावना होना मानवता का लक्षण है। ऐसा होने के उपरांत भी बच्चे बिगड़ रहे हैं। स्त्रियों पर अत्याचार कर रहे हैं। अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालयीन शिक्षा होता है। धार्मिक (धार्मिक) माताएं भी ऐसा ही मानने लगीं हैं। वास्तव में बच्चे की ७५ – ८० % घडन तो घर-परिवार में ही होती है।  
 
श्रेष्ठ मानव निर्माण के लिए दो बातें आवश्यक होतीं हैं। पहली बात है बीज का शुद्ध होना। दूसरी बात है संस्कार और शिक्षा। बीज में खोट होने से संस्कार और शिक्षा कितने भी श्रेष्ठ हों मायने नहीं रखते। संस्कार और शिक्षा भी उतने ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। बीज को बंजर जमींन में फ़ेंक देने से कितना भी श्रेष्ठ बीज हो वह नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ बीज को जन्म देने का ५० % और श्रेष्ठ संस्कार देने का २५ % काम भी परिवार में ही होता है। शिक्षा की जिम्मेदारी तो बचे हुए महज २५ % की होती है। इसका अर्थ है कि श्रेष्ठ मानव निर्माण की मुख्य जिम्मेदारी परिवार की यानि माता और पिता की होती है।  
 
श्रेष्ठ मानव निर्माण के लिए दो बातें आवश्यक होतीं हैं। पहली बात है बीज का शुद्ध होना। दूसरी बात है संस्कार और शिक्षा। बीज में खोट होने से संस्कार और शिक्षा कितने भी श्रेष्ठ हों मायने नहीं रखते। संस्कार और शिक्षा भी उतने ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। बीज को बंजर जमींन में फ़ेंक देने से कितना भी श्रेष्ठ बीज हो वह नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ बीज को जन्म देने का ५० % और श्रेष्ठ संस्कार देने का २५ % काम भी परिवार में ही होता है। शिक्षा की जिम्मेदारी तो बचे हुए महज २५ % की होती है। इसका अर्थ है कि श्रेष्ठ मानव निर्माण की मुख्य जिम्मेदारी परिवार की यानि माता और पिता की होती है।  
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## जब तक बच्चा दूध पीता होता है उसका स्वास्थ्य पूरी तरह माँ के स्वास्थ्य के साथ जुडा रहता है। अतः इस आयु में भी माँ की आहार विहार की आदतें बच्चे के गुण लक्षणों के विकास की दृष्टि से अनुकूल होना आवश्यक होता है।  
 
## जब तक बच्चा दूध पीता होता है उसका स्वास्थ्य पूरी तरह माँ के स्वास्थ्य के साथ जुडा रहता है। अतः इस आयु में भी माँ की आहार विहार की आदतें बच्चे के गुण लक्षणों के विकास की दृष्टि से अनुकूल होना आवश्यक होता है।  
 
## बच्चे की ५ वर्ष तक की आयु अत्यंत संस्कारक्षम होती है। इस आयु में बच्चे पर संस्कार करना सरल होता है। लेकिन संस्कार क्षमता के साथ ही में उसका मन चंचल होता है। अतः इस आयु में संस्कार करना बहुत कौशल का काम होता है। बच्चे की ठीक से परवरिश हो सके इस लिए माता को उसे अधिक से अधिक समय देना चाहिए। संयुक्त परिवार में यह बहुत सहज और सरल होता है। अतः विवाह करते समय संयुक्त परिवार की बहू बनना उचित होता है। इस से घर के बड़े और अनुभवी लोगोंं से आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन भी प्राप्त होता रहता है।  
 
## बच्चे की ५ वर्ष तक की आयु अत्यंत संस्कारक्षम होती है। इस आयु में बच्चे पर संस्कार करना सरल होता है। लेकिन संस्कार क्षमता के साथ ही में उसका मन चंचल होता है। अतः इस आयु में संस्कार करना बहुत कौशल का काम होता है। बच्चे की ठीक से परवरिश हो सके इस लिए माता को उसे अधिक से अधिक समय देना चाहिए। संयुक्त परिवार में यह बहुत सहज और सरल होता है। अतः विवाह करते समय संयुक्त परिवार की बहू बनना उचित होता है। इस से घर के बड़े और अनुभवी लोगोंं से आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन भी प्राप्त होता रहता है।  
## बड़े लोग अपनी मर्जी से जो चाहे करते हैं। छोटे बच्चों को हर कोई टोकता रहता है। यह बच्चों को रास नहीं आता। अतः हर बच्चे को शीघ्रातिशीघ्र बड़ा बनने की तीव्र इच्छा होती है। वह बड़ों का अनुकरण करता है। इसी को संस्कारक्षमता भी कह सकते हैं। संयुक्त परिवार में भिन्न भिन्न प्रकार के ‘स्व’भाववाले लोग होते हैं। उनमें बच्चे अपना आदर्श ढूँढ लेते हैं। माँ का काम ऐसा आदर्श ढूँढने में बच्चे की सहायता करने का होता है। इसे ध्यान में रखकर बड़ों को भी अपना व्यवहार श्रेष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना चाहिये। माँ ने भी गलत आदर्श के चयन से बच्चे को कुशलता से दूर रखना चाहिए। इस में माँ अपने पति की सहायता ले सकती है।
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## बड़े लोग अपनी मर्जी से जो चाहे करते हैं। छोटे बच्चोंं को हर कोई टोकता रहता है। यह बच्चोंं को रास नहीं आता। अतः हर बच्चे को शीघ्रातिशीघ्र बड़ा बनने की तीव्र इच्छा होती है। वह बड़ों का अनुकरण करता है। इसी को संस्कारक्षमता भी कह सकते हैं। संयुक्त परिवार में भिन्न भिन्न प्रकार के ‘स्व’भाववाले लोग होते हैं। उनमें बच्चे अपना आदर्श ढूँढ लेते हैं। माँ का काम ऐसा आदर्श ढूँढने में बच्चे की सहायता करने का होता है। इसे ध्यान में रखकर बड़ों को भी अपना व्यवहार श्रेष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना चाहिये। माँ ने भी गलत आदर्श के चयन से बच्चे को कुशलता से दूर रखना चाहिए। इस में माँ अपने पति की सहायता ले सकती है।
 
## अपने व्यवहार में संयम, सदाचार, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वछता, स्वावलंबन, नम्रता, विवेक आदि होना आवश्यक है। वैसे तो यह गुण परिवार के सभी बड़े लोगोंं में होंगे ही यह आवश्यक नहीं है। लेकिन जब बच्चे यह देखते हैं की इन गुणों का घर के बड़े लोग सम्मान करते हैं तब वे उन गुणों को ग्रहण करते हैं।  
 
## अपने व्यवहार में संयम, सदाचार, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वछता, स्वावलंबन, नम्रता, विवेक आदि होना आवश्यक है। वैसे तो यह गुण परिवार के सभी बड़े लोगोंं में होंगे ही यह आवश्यक नहीं है। लेकिन जब बच्चे यह देखते हैं की इन गुणों का घर के बड़े लोग सम्मान करते हैं तब वे उन गुणों को ग्रहण करते हैं।  
 
# बच्चे की आयु ५ वर्ष से अधिक होने पर:  
 
# बच्चे की आयु ५ वर्ष से अधिक होने पर:  
## इस आयु से माता द्वितीयो और पिता प्रथमो गुरु: ऐसा भूमिकाओं में परिवर्तन होता है। पिता की जिम्मेदारी प्राथमिक और माता की भूमिका सहायक की हो जाती है। अब बच्चे के स्वभाव को उपयुक्त आकार देने के लिए ताडन की आवश्यकता भी होती है। ताडन का अर्थ मारना पीटना नहीं है। आवश्यकता के अनुसार कठोर व्यवहार से बच्चे को अच्छी आदतें लगाने से है। यह काम कोमल मन की माता, पिता जितना अच्छा नहीं कर सकती। लेकिन पिता अपने व्यवसायिक भागदौड़ में बच्चे को समय नहीं दे सकता यह ध्यान में रखकर ही गुरुकुलों की रचना की गई थी। बच्चा गुरु का मानसपुत्र ही माना गया है। किन्तु गुरुकुलों के अभाव में यह जिम्मेदारी पिता की ही होती है। संयुक्त परिवारों में घर के ज्येष्ठ पुरुष इस भूमिका का निर्वहन करते थे। अब तो स्त्रियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता (स्पेस) की आस और दुराग्रह के कारण घर में अन्य किसी का होना असहनीय हो जाता है। विवाह बढ़ी आयु में होने के कारण भी अन्यों के साथ समायोजन कठिन हो जाता है। किन्तु स्त्री की समस्याओं को सुलझाना हो तो कुछ मात्रा में अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को तिलांजलि देकर भी बच्चों पर संस्कार करने हेतु मार्गदर्शन करने के लिये घर में ज्येष्ठ लोग होंगे ऐसे संयुक्त परिवारों में विवाह करने की प्रथा को फिर से स्थापित करना होगा।  
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## इस आयु से माता द्वितीयो और पिता प्रथमो गुरु: ऐसा भूमिकाओं में परिवर्तन होता है। पिता की जिम्मेदारी प्राथमिक और माता की भूमिका सहायक की हो जाती है। अब बच्चे के स्वभाव को उपयुक्त आकार देने के लिए ताडन की आवश्यकता भी होती है। ताडन का अर्थ मारना पीटना नहीं है। आवश्यकता के अनुसार कठोर व्यवहार से बच्चे को अच्छी आदतें लगाने से है। यह काम कोमल मन की माता, पिता जितना अच्छा नहीं कर सकती। लेकिन पिता अपने व्यवसायिक भागदौड़ में बच्चे को समय नहीं दे सकता यह ध्यान में रखकर ही गुरुकुलों की रचना की गई थी। बच्चा गुरु का मानसपुत्र ही माना गया है। किन्तु गुरुकुलों के अभाव में यह जिम्मेदारी पिता की ही होती है। संयुक्त परिवारों में घर के ज्येष्ठ पुरुष इस भूमिका का निर्वहन करते थे। अब तो स्त्रियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता (स्पेस) की आस और दुराग्रह के कारण घर में अन्य किसी का होना असहनीय हो जाता है। विवाह बढ़ी आयु में होने के कारण भी अन्यों के साथ समायोजन कठिन हो जाता है। किन्तु स्त्री की समस्याओं को सुलझाना हो तो कुछ मात्रा में अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को तिलांजलि देकर भी बच्चोंं पर संस्कार करने हेतु मार्गदर्शन करने के लिये घर में ज्येष्ठ लोग होंगे ऐसे संयुक्त परिवारों में विवाह करने की प्रथा को फिर से स्थापित करना होगा।  
    
== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==
 
उपर्युक्त सभी बिंदु श्रेष्ठ मानव निर्माण की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। महत्व क्रम की दृष्टि से माता की जिम्मेदारी अन्य सभी घटकों द्वारा प्रभावित होती है। उसी प्रकार से माता की जिम्मेदारी अन्य सभी बिन्दुओं को भी प्रभावित करती है। अतः पहले सुधार कहाँ से आरम्भ हो यह समस्या खड़ी हो जाती है। पहले मुर्गी या पहले अंडा जैसी पहेली से भी अधिक यह पहेली बन जाती है। इस पहेली का उत्तर पहले अंडा यह है। मुर्गी को पकड़ना अति कठिन काम है। अंडे को पकड़ना सरल है। अतः बुद्धिमान लोग अंडे से आरम्भ करते हैं। स्त्रियों की दृष्टि से जो काम वे स्वत: कर सकतीं हैं वह उन्हें करना आरम्भ कर देना चाहिए। शासन, पुलिस, अत्याचारी, बलात्कारी आदि अन्यों की ओर उंगली बताना सरल है। योग्य भी है। किन्तु इसकी अपेक्षा तो अपना कर्तव्य निभाने के बाद ही की जा सकती है। विद्वानों का कहना है – उद्धरेदात्मनात्मानम्।  
 
उपर्युक्त सभी बिंदु श्रेष्ठ मानव निर्माण की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। महत्व क्रम की दृष्टि से माता की जिम्मेदारी अन्य सभी घटकों द्वारा प्रभावित होती है। उसी प्रकार से माता की जिम्मेदारी अन्य सभी बिन्दुओं को भी प्रभावित करती है। अतः पहले सुधार कहाँ से आरम्भ हो यह समस्या खड़ी हो जाती है। पहले मुर्गी या पहले अंडा जैसी पहेली से भी अधिक यह पहेली बन जाती है। इस पहेली का उत्तर पहले अंडा यह है। मुर्गी को पकड़ना अति कठिन काम है। अंडे को पकड़ना सरल है। अतः बुद्धिमान लोग अंडे से आरम्भ करते हैं। स्त्रियों की दृष्टि से जो काम वे स्वत: कर सकतीं हैं वह उन्हें करना आरम्भ कर देना चाहिए। शासन, पुलिस, अत्याचारी, बलात्कारी आदि अन्यों की ओर उंगली बताना सरल है। योग्य भी है। किन्तु इसकी अपेक्षा तो अपना कर्तव्य निभाने के बाद ही की जा सकती है। विद्वानों का कहना है – उद्धरेदात्मनात्मानम्।  
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अर्थ है मेरा उद्धार मैं ही कर सकता हूँ कोई अन्य नहीं। जो चाहता है कि उसका उद्धार हो, उसे ही उद्धार के लिए तप करना होता है। वर्तमान में स्त्री ही भुक्तभोगी होने के कारण स्त्री इसमें पहल करे यह उचित होगा। जो चाहता है कि मेरा उद्धार हो, उसे ही उद्धार के लिए पहल और कृति करनी होती है। इस दृष्टि से भी स्त्री को अत्याचारों से छुटकारा पाना है तो पहल और कृति स्त्री करे यह तो स्वाभाविक ही कहा जाएगा। वीरमाता जीजाबाई के देश में ‘मातृवत् परदारेषु’ यानि ‘पराई स्त्री माता के समान होती है’ इसका संस्कार अपने बच्चों पर करना यह कठिन बात नहीं है। बस ! माताएं मन में ठान लें।
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अर्थ है मेरा उद्धार मैं ही कर सकता हूँ कोई अन्य नहीं। जो चाहता है कि उसका उद्धार हो, उसे ही उद्धार के लिए तप करना होता है। वर्तमान में स्त्री ही भुक्तभोगी होने के कारण स्त्री इसमें पहल करे यह उचित होगा। जो चाहता है कि मेरा उद्धार हो, उसे ही उद्धार के लिए पहल और कृति करनी होती है। इस दृष्टि से भी स्त्री को अत्याचारों से छुटकारा पाना है तो पहल और कृति स्त्री करे यह तो स्वाभाविक ही कहा जाएगा। वीरमाता जीजाबाई के देश में ‘मातृवत् परदारेषु’ यानि ‘पराई स्त्री माता के समान होती है’ इसका संस्कार अपने बच्चोंं पर करना यह कठिन बात नहीं है। बस ! माताएं मन में ठान लें।
 
==References==
 
==References==
  

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