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→‎शिक्षा धार्मिक कब होगी ?: लेख सम्पादित किया
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शिक्षा धार्मिक है ऐसा कब कहा जायेगा ? इस विषय की तात्त्विक चर्चा [[:Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 1: संकल्पना एवं स्वरूप|भारतीय शिक्षा संकल्पना एवं स्वरूप]] ग्रंथ में की गई है, उसका पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ व्यावहारिकता के धरातल पर ही विचार करेंगे।
 
शिक्षा धार्मिक है ऐसा कब कहा जायेगा ? इस विषय की तात्त्विक चर्चा [[:Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 1: संकल्पना एवं स्वरूप|भारतीय शिक्षा संकल्पना एवं स्वरूप]] ग्रंथ में की गई है, उसका पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ व्यावहारिकता के धरातल पर ही विचार करेंगे।
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कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...
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कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं:
* धार्मिक शिक्षा निःशुल्क होती है परन्तु निःशुल्क है इसलिये धार्मिक नहीं है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा निःशुल्क ही होती है। परन्तु वह धार्मिक नहीं है।  
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* धार्मिक शिक्षा निःशुल्क होती है परन्तु निःशुल्क है इसलिये धार्मिक होना आवश्नयक नहीं है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा निःशुल्क ही होती है। परन्तु वह धार्मिक नहीं है।  
 
* धार्मिक शिक्षा शिक्षक के अधीन होती है, परन्तु केवल शिक्षक के अधीन है इसलिये वह धार्मिक नहीं हो जाती। आज भी तो शिक्षक ही शिक्षा का सर्व प्रकार का कार्य कर ही रहे हैं।  
 
* धार्मिक शिक्षा शिक्षक के अधीन होती है, परन्तु केवल शिक्षक के अधीन है इसलिये वह धार्मिक नहीं हो जाती। आज भी तो शिक्षक ही शिक्षा का सर्व प्रकार का कार्य कर ही रहे हैं।  
 
* धार्मिक शिक्षा घरों में, विद्यालयों में, मन्दिरों में होती है परन्तु घरों में और मन्दिरों में होती है इसलिये वह धार्मिक नहीं हो जाती। आज भी 'होमस्कुलिंग' के नाम से घरों में शिक्षा देने के प्रयोग हो रहे हैं, आज भी मन्दिरों द्वारा शिक्षासंस्थान चलाये जाते हैं परन्तु वह शिक्षा धार्मिक होने की कोई निश्चिति नहीं है।  
 
* धार्मिक शिक्षा घरों में, विद्यालयों में, मन्दिरों में होती है परन्तु घरों में और मन्दिरों में होती है इसलिये वह धार्मिक नहीं हो जाती। आज भी 'होमस्कुलिंग' के नाम से घरों में शिक्षा देने के प्रयोग हो रहे हैं, आज भी मन्दिरों द्वारा शिक्षासंस्थान चलाये जाते हैं परन्तु वह शिक्षा धार्मिक होने की कोई निश्चिति नहीं है।  
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==== धार्मिक शिक्षा के विचारणीय सूत्र ====
 
==== धार्मिक शिक्षा के विचारणीय सूत्र ====
शिक्षा को लेकर भारत के स्वभाव के अनुरूप और विपरीत क्या है इस का विचार करने पर कुछ सूत्र ध्यान में आते हैं...
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शिक्षा को लेकर भारत के स्वभाव के अनुरूप और विपरीत क्या है इस का विचार करने पर कुछ सूत्र ध्यान में आते हैं:
 
# भारत सबको एक मानता है, अपना मानता है, किसी को पराया नहीं मानता। इसलिये सबका कल्याण हो, सब सुखी हों, किसीका अहित न हो ऐसी कामना करता है और प्रयास भी करता है।  
 
# भारत सबको एक मानता है, अपना मानता है, किसी को पराया नहीं मानता। इसलिये सबका कल्याण हो, सब सुखी हों, किसीका अहित न हो ऐसी कामना करता है और प्रयास भी करता है।  
 
# भारत स्वतन्त्रता को सबसे बडा मूल्य मानता है। भारत अपनी स्वतन्त्रता की तो रक्षा करना चाहता ही है परन्तु और किसी की स्वतन्त्रता छीनना भी नहीं चाहता। वह और किसी को अपनी स्वतन्त्रता छीनने भी नहीं देता।
 
# भारत स्वतन्त्रता को सबसे बडा मूल्य मानता है। भारत अपनी स्वतन्त्रता की तो रक्षा करना चाहता ही है परन्तु और किसी की स्वतन्त्रता छीनना भी नहीं चाहता। वह और किसी को अपनी स्वतन्त्रता छीनने भी नहीं देता।
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* भारत में शिक्षा सार्वत्रिक है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी भूमिका में अपनी अपनी क्षमता और सीखने वाले की आवश्यकता के अनुसार सिखाता है। मातापिता सन्तानों को, व्यवसायी अपने साथियों को, गुरु शिष्य को शिक्षा देता है, भौतिक बदले की अपेक्षा नहीं रखता। अपने को प्राप्त शिक्षा दूसरे को देनी ही चाहिये और शिक्षा का प्रसार करना ही चाहिये ऐसी अपेक्षा कोई व्यक्ति नहीं अपितु धर्म करता है, धर्म की इस अपेक्षा को पूर्ण करने के लिये सब सिद्ध रहते हैं।  
 
* भारत में शिक्षा सार्वत्रिक है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी भूमिका में अपनी अपनी क्षमता और सीखने वाले की आवश्यकता के अनुसार सिखाता है। मातापिता सन्तानों को, व्यवसायी अपने साथियों को, गुरु शिष्य को शिक्षा देता है, भौतिक बदले की अपेक्षा नहीं रखता। अपने को प्राप्त शिक्षा दूसरे को देनी ही चाहिये और शिक्षा का प्रसार करना ही चाहिये ऐसी अपेक्षा कोई व्यक्ति नहीं अपितु धर्म करता है, धर्म की इस अपेक्षा को पूर्ण करने के लिये सब सिद्ध रहते हैं।  
 
* भारत परम्परा का देश है, परम्परा को बनाये रखना, परिष्कृत करना, समृद्ध बनाना शिक्षा का काम है।  
 
* भारत परम्परा का देश है, परम्परा को बनाये रखना, परिष्कृत करना, समृद्ध बनाना शिक्षा का काम है।  
* भारत में अधिसत्ता धर्म की ही है, शिक्षक उसका प्रतिहारी है, शासक, कारीगर, व्यापारी सब उसकेअनुचर हैं, उसकी आज्ञा का पालन करनेवाले और उसके साम्राज्य की रक्षा करने वाले हैं।
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* भारत में अधिसत्ता धर्म की ही है, शिक्षक उसका प्रतिहारी है, शासक, कारीगर, व्यापारी सब उसके अनुचर हैं, उसकी आज्ञा का पालन करनेवाले और उसके साम्राज्य की रक्षा करने वाले हैं।
* शिक्षा मुक्ति देनेवाले ज्ञान का व्यवस्थातन्त्र है वह स्वयं मुक्त होगी तभी ज्ञान की वाहक बन सकेंगी। इसलिये भारत में शासक के द्वारा, व्यापारियों के द्वारा शिक्षा को मुक्त ही रखा गया है और उसे पुष्ट होने हेतु सहयोग और सहायता दी जाती रही है।  
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* शिक्षा मुक्ति देनेवाले ज्ञान का व्यवस्थातन्त्र है। वह स्वयं मुक्त होगी तभी ज्ञान की वाहक बन सकेंगी। इसलिये भारत में शासक के द्वारा, व्यापारियों के द्वारा शिक्षा को मुक्त ही रखा गया है और उसे पुष्ट होने हेतु सहयोग और सहायता दी जाती रही है।  
 
* धार्मिक शिक्षा सदा धर्मसापेक्ष परन्तु अर्थनिरपेक्ष रही है। शिक्षा ग्रहण करने को और देने को पैसे के साथ कभी जोड़ा नहीं गया है।  
 
* धार्मिक शिक्षा सदा धर्मसापेक्ष परन्तु अर्थनिरपेक्ष रही है। शिक्षा ग्रहण करने को और देने को पैसे के साथ कभी जोड़ा नहीं गया है।  
 
* भारत में शिक्षा राजा और प्रजा का मार्गदर्शन और नियमन करती रही है। उसने कभी शासन नहीं किया, व्यापार नहीं किया, उत्पादन नहीं किया, उसने धर्मसाधना और धर्मरक्षा ही की है।
 
* भारत में शिक्षा राजा और प्रजा का मार्गदर्शन और नियमन करती रही है। उसने कभी शासन नहीं किया, व्यापार नहीं किया, उत्पादन नहीं किया, उसने धर्मसाधना और धर्मरक्षा ही की है।
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आज सामान्य जन भी कह सकता है कि भारत की वर्तमान शिक्षा 'टेकनिकली' धार्मिक होने पर भी स्वभाव से धार्मिक नहीं है।
 
आज सामान्य जन भी कह सकता है कि भारत की वर्तमान शिक्षा 'टेकनिकली' धार्मिक होने पर भी स्वभाव से धार्मिक नहीं है।
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शिक्षा ऊपर बताये गये हैं ऐसे अर्थों में धार्मिक होनी चाहिये कि नहीं ऐसा यदि पूछा जाय तो लोग बडे असमंजस में पड जायेंगे । उत्तर देते नहीं बनेगा।
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शिक्षा ऊपर बताये गये अर्थों में धार्मिक होनी चाहिये कि नहीं, ऐसा यदि पूछा जाय तो लोग बडे असमंजस में पड जायेंगे । उत्तर देते नहीं बनेगा।
    
==== आज के जमाने में यह नहीं चलेगा ====
 
==== आज के जमाने में यह नहीं चलेगा ====
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आज शिक्षक सम्माननीय नहीं रहा है। वह पैसे के लिये ही तो पढाता है। उसे विद्यार्थी की ही चिन्ता नहीं है तो विद्या की या देश की कैसे होगी ? यदि बन्धन नहीं है तो वह पढायेगा ही नहीं। बन्धन हैं तब भी तो वह सही नीयत नहीं रखता, फिर मुक्त कर देने से तो वह क्या नहीं करेगा ? इसलिये सरकारी नियन्त्रण तो अनिवार्य है, नहीं रहा तो सब अराजक हो जायेगा।
 
आज शिक्षक सम्माननीय नहीं रहा है। वह पैसे के लिये ही तो पढाता है। उसे विद्यार्थी की ही चिन्ता नहीं है तो विद्या की या देश की कैसे होगी ? यदि बन्धन नहीं है तो वह पढायेगा ही नहीं। बन्धन हैं तब भी तो वह सही नीयत नहीं रखता, फिर मुक्त कर देने से तो वह क्या नहीं करेगा ? इसलिये सरकारी नियन्त्रण तो अनिवार्य है, नहीं रहा तो सब अराजक हो जायेगा।
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धर्म की और मुक्ति की तो बात ही बेमानी है । धर्म का नाम लेते ही साम्प्रदायिकता का लेबल चिपक जाता है और हजार प्रकार की परेशानियाँ निर्माण हो जाती है। आज के धर्माचार्य, साधु संन्यासी सब भोंदूगीरी ही तो कर रहे हैं। यह जमाना विज्ञान का है। विज्ञान के जमाने में वेद, उपनिषद पढाना बुद्धिमानी नहीं है । दुनिया आगे बढ़ रही है और हम पीछे जाने की बात कर रहे हैं।
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धर्म की और मुक्ति की तो बात ही बेमानी है। धर्म का नाम लेते ही साम्प्रदायिकता का लेबल चिपक जाता है और हजार प्रकार की परेशानियाँ निर्माण हो जाती है। आज के धर्माचार्य, साधु संन्यासी सब भोंदूगीरी ही तो कर रहे हैं। यह जमाना विज्ञान का है। विज्ञान के जमाने में वेद, उपनिषद पढाना बुद्धिमानी नहीं है । दुनिया आगे बढ़ रही है और हम पीछे जाने की बात कर रहे हैं। आज अंग्रेजी सीखनी चाहिये, कम्प्यूटर सीखना चाहिये, मेनेजमेण्ट सिखना चाहिये, टेक्नोलोजी सीखनी चाहिये । भारत को विश्व में स्थान मिलना चाहिये और उसे प्राप्त करने के लिये इन सारे विषयों की आवश्यकता है। वेद, उपनिषद सीखने के लिये संस्कृत सीखनी पडेगी। संस्कृत अब 'आउट ऑफ डेट' है। अंग्रेजी ने विश्वभाषा का स्थान ले लिया है।
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आज अंग्रेजी सीखनी चाहिये, कम्प्यूटर सीखना चाहिये, मेनेजमेण्ट सिखना चाहिये, टेक्नोलोजी सीखनी चाहिये । भारत को विश्व में स्थान मिलना चाहिये और उसे प्राप्त करने के लिये इन सारे विषयों की आवश्यकता है। वेद, उपनिषद सीखने के लिये संस्कृत सीखनी पडेगी। संस्कृत अब 'आउट ऑफ डेट' है। अंग्रेजी ने विश्वभाषा का स्थान ले लिया है।
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भारत को अमेरिका में जाकर अपना स्थान बनाना चाहिये और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी चाहिये । भारत के लोग बुद्धिमान हैं, कर्तृत्ववान हैं, विश्वमानकों पर खरे उतरने वाले हैं। उन्हें इस दिशा में पुरुषार्थ करना चाहिये । इसके लिये अंग्रेजी, विज्ञान तथा कम्प्यूटर पर प्रभुत्व प्राप्त करना चाहिये । हमें आधुनिक बनना चाहिये । अतः धार्मिकता की नहीं, वैश्विकता की आवश्यकता है। प्रयास उसे प्राप्त करने हेतु होने चाहिये । इस प्रकार धार्मिकता के सन्दर्भ में आशंका और अविश्वास का वातावरण चारों और फैला हुआ है। बात बहुत कठिन है, जटिल है।
 
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भारत ने अमेरिका में जाकर अपना स्थान बनाना चाहिये और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी चाहिये । भारत के लोग बुद्धिमान हैं, कर्तृत्ववान हैं, विश्वमानकों पर खरे उतरने वाले हैं। उन्हें इस दिशा में पुरुषार्थ करना चाहिये । इसके लिये अंग्रेजी, विज्ञान तथा कम्प्यूटर पर प्रभुत्व प्राप्त करना चाहिये । हमें आधुनिक बनना चाहिये ।
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अतः धार्मिकता की नहीं, वैश्विकता की आवश्यकता है। प्रयास उसे प्राप्त करने हेतु होने चाहिये ।
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इस प्रकार धार्मिकता के सन्दर्भ में आशंका और अविश्वास का वातावरण चारों और फैला हुआ है। बात बहुत कठिन है, जटिल है।
      
==== पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है । ====
 
==== पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है । ====
 
जो लोग कहते हैं कि यहां बताया गया है वही धार्मिक शिक्षा है तो उसका प्रतिष्ठित होना आज तो असम्भव है और अनावश्यक भी, उनकी बात सर्वथा अनुचित नहीं है। हम उल्टी दिशा में इतने दूर तक निकल गये हैं कि ये बातें आज असम्भव सी लगती हैं। कठिन तो हैं ही। आज के सारे वातावरण से सब इतने सम्भ्रम में पड गये हैं कि सब कुछ असम्भव के साथ साथ सब अव्यावहारिक और अनावश्यक लग रहा है।
 
जो लोग कहते हैं कि यहां बताया गया है वही धार्मिक शिक्षा है तो उसका प्रतिष्ठित होना आज तो असम्भव है और अनावश्यक भी, उनकी बात सर्वथा अनुचित नहीं है। हम उल्टी दिशा में इतने दूर तक निकल गये हैं कि ये बातें आज असम्भव सी लगती हैं। कठिन तो हैं ही। आज के सारे वातावरण से सब इतने सम्भ्रम में पड गये हैं कि सब कुछ असम्भव के साथ साथ सब अव्यावहारिक और अनावश्यक लग रहा है।
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अतः धार्मिक शिक्षा का क्या करना इसकी चर्चा आरम्भ करने से पूर्व दो चार बातों में स्पष्ट हो जाना चाहिये।  
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अतः धार्मिक शिक्षा का क्या करना है, इसकी चर्चा आरम्भ करने से पूर्व दो चार बातों में स्पष्ट हो जाना चाहिये।  
 
# भारत को भारत रहना है तो भारत की शिक्षा धार्मिक होना अनिवार्य है।  
 
# भारत को भारत रहना है तो भारत की शिक्षा धार्मिक होना अनिवार्य है।  
 
# भारत को भारत रहना ही है। भारत भारत रहे यह विश्वकल्याण के लिये अनिवार्य है।  
 
# भारत को भारत रहना ही है। भारत भारत रहे यह विश्वकल्याण के लिये अनिवार्य है।  
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इन गृहीतों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। भारत में सारे काम इस पद्धति से ही होते आये हैं। इस काम के लिये भी यही पद्धति उपयोगी होगी।  
 
इन गृहीतों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। भारत में सारे काम इस पद्धति से ही होते आये हैं। इस काम के लिये भी यही पद्धति उपयोगी होगी।  
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==== धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना के आयाम इस प्रकार हैं... ====
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==== धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना के आयाम इस प्रकार हैं: ====
 
# शैक्षिक पुनर्रचना  
 
# शैक्षिक पुनर्रचना  
 
# आर्थिक पुनर्रचना
 
# आर्थिक पुनर्रचना
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इसे शैक्षिक परिभाषा में पाठ्यक्रम कहते हैं। यह पाठ्यक्रम सभी आयु वर्गों के लिये होता है, सभी व्यवस्थाओं के लिये होता है, जीवन के सभी क्षेत्रों में होता है। इसके आधार पर व्यक्ति का चरित्र बनता है, समाज का और राष्ट्र का चरित्र बनता है। पाठ्यक्रम शिक्षाप्रक्रिया का केन्द्र है और उसके आधार पर व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रीय जीवन चलता है। इसलिये इस विषय की चिन्ता करनी चाहिये।
 
इसे शैक्षिक परिभाषा में पाठ्यक्रम कहते हैं। यह पाठ्यक्रम सभी आयु वर्गों के लिये होता है, सभी व्यवस्थाओं के लिये होता है, जीवन के सभी क्षेत्रों में होता है। इसके आधार पर व्यक्ति का चरित्र बनता है, समाज का और राष्ट्र का चरित्र बनता है। पाठ्यक्रम शिक्षाप्रक्रिया का केन्द्र है और उसके आधार पर व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रीय जीवन चलता है। इसलिये इस विषय की चिन्ता करनी चाहिये।
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यह पाठ्यक्रम आज धार्मिक नहीं है। सर्वत्र जो पढाया जाता है। वह मुख्य रूप से पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित है। यही सारे अनिष्टों और संकटों का मूल है। इसकी तात्त्विक चर्चा अन्यत्र की गई है। अब उसे व्यावहारिक बनाने के लिये क्या करना होगा इसका ही विचार करना आवश्यक है। कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...
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यह पाठ्यक्रम आज धार्मिक नहीं है। सर्वत्र जो पढाया जाता है। वह मुख्य रूप से पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित है। यही सारे अनिष्टों और संकटों का मूल है। इसकी तात्त्विक चर्चा अन्यत्र की गई है। अब उसे व्यावहारिक बनाने के लिये क्या करना होगा इसका ही विचार करना आवश्यक है। कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं:
 
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(१) प्रथम तो विश्वविद्यालयों को इसका दायित्व लेना चाहिये । विश्वविद्यालय देश की शिक्षा का सर्वप्रकार का निर्देशन करने वाले हों यह अत्यन्त आवश्यक है। देश के सर्व प्रकार के सांस्कृतिक और अन्य संकटों का मूल स्रोत अथवा सांस्कृतिक उन्नति का मुख्य परिचालक विश्वविद्यालय हैं। विश्वविद्यालय का अर्थ है उनके अध्यापक । परन्तु वर्तमान विपरीतता यह है कि विश्वविद्यालय अध्यापकों के नहीं अपितु सरकार के अधीन हैं। सरकार के अधीन रहकर विश्वविद्यालय के अध्यापक यह काम नहीं कर सकते । इसलिये ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना होनी चाहिये जो सरकार के अधीन न हों। देशभर में पचास सौ ऐसे विश्वविद्यालय होने से कार्य का अच्छा प्रारम्भ हो सकता है। इन विश्वविद्यालयों को सरकारी मान्यता नहीं होगी इसलिये इनके द्वारा दिये गये प्रमाणपत्रों से सरकारी या सरकार मान्य संस्थाओं या उद्योगों में नौकरी नहीं मिलेगी। जिन्हें किसी प्रकार की सरकारी मान्यता या आर्थिक सहायता की आवश्यकता नहीं है ऐसी संस्थाओं और उद्योगों में इन्हें अवश्य काम मिल सकता है। सरकार की मान्यता नहीं है ऐसे विश्वविद्यालयों में पढे हुए विद्यार्थी स्वयं ऐसी शिक्षासंस्थायें आरम्भ करें यह एक अच्छा पर्याय है, साथ ही वे उद्योग तथा समाज के लिये उपयोगी अन्य संस्थाओं का प्रारम्भ भी कर सकते हैं। उन संस्थाओं और उद्योगों में अनेक लोगोंं को काम मिल सकता है।
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सरकारी सहायता नहीं होगी तब ये विश्वविद्यालय कैसे चलेंगे ? ये समाज के सहयोग से चलेंगे । धार्मिक समाज ऐसे संस्थानों को सहयोग करने के लिये तत्पर रहता ही है। देश में अनेक धार्मिक - सामाजिक - सांस्कृतिक संगठनों को समाज ही सहयोग करता है। वर्तमान में भी ऐसी बहत बडी व्यवस्था देश में चल ही रही है। ऐसे संगठनों ने इन विश्वविद्यालयों को आर्थिक सहयोग करना चाहिये।
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देशभर में ऐसे पचास विश्वविद्यालय हों तो उनके पाँचसौ या हजार अध्यापकों को एक संगठित समूह की तरह कार्य करना चाहिये । इन सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने मिलकर एक कुलाधिपति का चयन करना चाहिये । सारे अध्यापक मिलकर एक आचार्य परिषद बनेगी। देशभर में
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हजार अध्यापकों की ज्ञानशक्ति कार्य का । प्रारम्भ करने के लिये कम नहीं है।
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अध्यापकों के इस संगठनने एक ओर उद्योजकों, दूसरी ओर प्रशासकों और तीसरी ओर सरकार के मन्त्री परिषद के साथ समायोजन स्थापित करना चाहिये । विश्वविद्यालयों को सरकार से मुक्त रखने का कारण यह नहीं है कि अध्यापक सरकार का विरोध करते हैं, विरोधी विचारधारा वाले हैं या सरकार उनका विरोध करती है। प्रशासन से मुक्त रहना भी विरोध के कारण से नहीं है। मुक्त रहना तो सर्वकल्याणकारी शिक्षा की आवश्यकता है। इसलिये सबका कर्तव्य है। परन्तु मुक्त रहने के बाद भी संवाद, समन्वय और समर्थन तो हो ही सकता है। सरकार प्रजा के लिये है और विश्वविद्यालय सरकार और प्रजा दोनों के लिये हैं । इसलिये संवाद लाभकारी है।
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प्रथम तो विश्वविद्यालयों को इसका दायित्व लेना चाहिये । विश्वविद्यालय देश की शिक्षा का सर्वप्रकार का निर्देशन करने वाले हों यह अत्यन्त आवश्यक है। देश के सर्व प्रकार के सांस्कृतिक और अन्य संकटों का मूल स्रोत अथवा सांस्कृतिक उन्नति का मुख्य परिचालक विश्वविद्यालय हैं। विश्वविद्यालय का अर्थ है उनके अध्यापक । परन्तु वर्तमान विपरीतता यह है कि विश्वविद्यालय अध्यापकों के नहीं अपितु सरकार के अधीन हैं। सरकार के अधीन रहकर विश्वविद्यालय के अध्यापक यह काम नहीं कर सकते। इसलिये ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना होनी चाहिये जो सरकार के अधीन न हों। देशभर में पचास सौ ऐसे विश्वविद्यालय होने से कार्य का अच्छा प्रारम्भ हो सकता है। इन विश्वविद्यालयों को सरकारी मान्यता नहीं होगी इसलिये इनके द्वारा दिये गये प्रमाणपत्रों से सरकारी या सरकार मान्य संस्थाओं या उद्योगों में नौकरी नहीं मिलेगी। जिन्हें किसी प्रकार की सरकारी मान्यता या आर्थिक सहायता की आवश्यकता नहीं है ऐसी संस्थाओं और उद्योगों में इन्हें अवश्य काम मिल सकता है। सरकार की मान्यता नहीं है ऐसे विश्वविद्यालयों में पढे हुए विद्यार्थी स्वयं ऐसी शिक्षासंस्थायें आरम्भ करें यह एक अच्छा पर्याय है, साथ ही वे उद्योग तथा समाज के लिये उपयोगी अन्य संस्थाओं का प्रारम्भ भी कर सकते हैं। उन संस्थाओं और उद्योगों में अनेक लोगोंं को काम मिल सकता है।  
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उद्योजकों के साथ संवाद इसलिये नहीं करना है क्योंकि उनसे धन चाहिये उद्योगकों से संवाद इसलिये चाहिये कि देश की अर्थव्यवस्था ठीक करने में उनका सहयोग प्राप्त हो । उसी प्रकार प्रबोधन की दृष्टि से सामान्य जनसे भी संवाद स्थापित हो यह आवश्यक है। संक्षेप में इन विद्यालयों को समाजाभिमुख होना चाहिये ।
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सरकारी सहायता नहीं होगी तब ये विश्वविद्यालय कैसे चलेंगे ? ये समाज के सहयोग से चलेंगे धार्मिक समाज ऐसे संस्थानों को सहयोग करने के लिये तत्पर रहता ही है। देश में अनेक धार्मिक - सामाजिक - सांस्कृतिक संगठनों को समाज ही सहयोग करता है। वर्तमान में भी ऐसी बहत बडी व्यवस्था देश में चल ही रही है। ऐसे संगठनों ने इन विश्वविद्यालयों को आर्थिक सहयोग करना चाहिये। देशभर में ऐसे पचास विश्वविद्यालय हों तो उनके पाँचसौ या हजार अध्यापकों को एक संगठित समूह की तरह कार्य करना चाहिये । इन सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने मिलकर एक कुलाधिपति का चयन करना चाहिये । सारे अध्यापक मिलकर एक आचार्य परिषद बनेगी। देशभर में हजार अध्यापकों की ज्ञानशक्ति कार्य का । प्रारम्भ करने के लिये कम नहीं है।
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उन्हें अन्य विश्वविद्यालयों के साथ भी विचार विमर्श करने की दृष्टि से संवाद स्थापित करना शिक्षाक्षेत्र के हित की दृष्टि से लाभकारी है।
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अध्यापकों के इस संगठन को एक ओर उद्योजकों, दूसरी ओर प्रशासकों और तीसरी ओर सरकार के मन्त्री परिषद के साथ समायोजन स्थापित करना चाहिये । विश्वविद्यालयों को सरकार से मुक्त रखने का कारण यह नहीं है कि अध्यापक सरकार का विरोध करते हैं, विरोधी विचारधारा वाले हैं या सरकार उनका विरोध करती है। प्रशासन से मुक्त रहना भी विरोध के कारण से नहीं है। मुक्त रहना तो सर्वकल्याणकारी शिक्षा की आवश्यकता है। इसलिये सबका कर्तव्य है। परन्तु मुक्त रहने के बाद भी संवाद, समन्वय और समर्थन तो हो ही सकता है। सरकार प्रजा के लिये है और विश्वविद्यालय सरकार और प्रजा दोनों के लिये हैं । इसलिये संवाद लाभकारी है। उद्योजकों के साथ संवाद इसलिये नहीं करना है क्योंकि उनसे धन चाहिये । उद्योगकों से संवाद इसलिये चाहिये कि देश की अर्थव्यवस्था ठीक करने में उनका सहयोग प्राप्त हो । उसी प्रकार प्रबोधन की दृष्टि से सामान्य जनसे भी संवाद स्थापित हो यह आवश्यक है। संक्षेप में इन विद्यालयों को समाजाभिमुख होना चाहिये । उन्हें अन्य विश्वविद्यालयों के साथ भी विचार विमर्श करने की दृष्टि से संवाद स्थापित करना शिक्षाक्षेत्र के हित की दृष्टि से लाभकारी है।
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(२) इन विश्वविद्यालयों को पहला कार्य देशभर की शिक्षा का एक शैक्षिक प्रारूप तैयार करने का करना चाहिये । ऐसा करने में उन्हें तीन काम करने होंगे...
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इन विश्वविद्यालयों को पहला कार्य देशभर की शिक्षा का एक शैक्षिक प्रारूप तैयार करने का करना चाहिये । ऐसा करने में उन्हें तीन काम करने होंगे:
 
# अध्ययन और अनुसन्धान  
 
# अध्ययन और अनुसन्धान  
 
# पाठ्यक्रम निर्माण  
 
# पाठ्यक्रम निर्माण  
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==== अध्ययन और अनुसन्धान ====
 
==== अध्ययन और अनुसन्धान ====
धार्मिक ज्ञानधारा युगों से प्रवाहित है। द्रष्टा ऋषियों ने अपने हृदय में इस ज्ञान की अनुभूति की है। इस अनुभूति के आधार पर शास्त्रग्रन्थों की रचना हुई है। इन शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन करना पहला काम है। इस अध्ययन का उद्देश्य वर्तमान जीवन को सुस्थिति में लाने का है। अतः वर्तमान सन्दर्भ सहित उसका अध्ययन करना आवश्यक है। वर्तमान जीवन की सर्व व्यवस्थाओं में हमारे शास्त्रग्रन्थों में निरूपित ज्ञान किस प्रकार लागू हो सकता है इस विषय को लेकर व्यावहारिक अनुसन्धान होना चाहिये । उदाहरण के लिये हम वेदों को विश्व का प्रथम ज्ञानग्रन्थ मानते हैं, श्रीमद् भगवद्गीता को सर्व उपनिषदों का सार मानते हैं। तब इन ग्रन्थों में स्थित ज्ञान के आधार पर घर, बाजार, संसद और शिक्षा क्षेत्र चलने चाहिये । यह ज्ञान व्यावहारिक नहीं है ऐसा तो नहीं कह सकते । फिर आज व्यावहारिक क्यों नहीं हो सकता ? पतंजली मुनिने योगसूत्रों की रचना की हैं। योगसूत्र मनोविज्ञान है, अनेक मनीषियों के भाष्यग्रन्थ भी उस विषय में उपलब्ध हैं। भाष्य लिखने वाले सभी श्रेष्ठ विद्वज्जन रहे हैं। यह धार्मिक मनोविज्ञान है। फिर प्रश्न पूछा जाना चाहिये कि विश्वविद्यालय में यह मनोविज्ञान क्यों नहीं पढाया जाता है ? भौतिक विज्ञान के अनेक ग्रन्थ विज्ञान विद्याशाखा में सर्वथा अपरिचित क्यों हैं ? प्राणविज्ञान क्या है, आत्मविज्ञान क्या हैं ? अथर्ववेद तो यन्त्रविज्ञान और तन्त्रशास्त्र का भण्डार है। वर्तमान इन्जिनीयरींग की शाखायें इनसे अनभिज्ञ हैं।
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धार्मिक ज्ञानधारा युगों से प्रवाहित है। द्रष्टा ऋषियों ने अपने हृदय में इस ज्ञान की अनुभूति की है। इस अनुभूति के आधार पर शास्त्रग्रन्थों की रचना हुई है। इन शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन करना पहला काम है। इस अध्ययन का उद्देश्य वर्तमान जीवन को सुस्थिति में लाने का है। अतः वर्तमान सन्दर्भ सहित उसका अध्ययन करना आवश्यक है। वर्तमान जीवन की सर्व व्यवस्थाओं में हमारे शास्त्रग्रन्थों में निरूपित ज्ञान किस प्रकार लागू हो सकता है इस विषय को लेकर व्यावहारिक अनुसन्धान होना चाहिये । उदाहरण के लिये हम वेदों को विश्व का प्रथम ज्ञानग्रन्थ मानते हैं, श्रीमद् भगवद्गीता को सर्व उपनिषदों का सार मानते हैं। तब इन ग्रन्थों में स्थित ज्ञान के आधार पर घर, बाजार, संसद और शिक्षा क्षेत्र चलने चाहिये । यह ज्ञान व्यावहारिक नहीं है ऐसा तो नहीं कह सकते । फिर आज व्यावहारिक क्यों नहीं हो सकता?  
 
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धार्मिक ज्ञान की वर्तमान ज्ञानविश्व में प्रतिष्ठा हो यह अनुसन्धान कर्ताओं का उद्देश्य होना चाहिये ।
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आज ज्ञानक्षेत्र में जिन शास्त्रों की प्रतिष्ठा है उनका धार्मिक पर्याय बन सकें, उनसे भी अधिक व्यापक और समावेशक शास्त्रग्रन्थों की सम्भावना स्थापित कर सकें इस _प्रकार के अनुसन्धान की आवश्यकता है।
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पतंजलि मुनि ने योगसूत्रों की रचना की हैं। योगसूत्र मनोविज्ञान है, अनेक मनीषियों के भाष्यग्रन्थ भी उस विषय में उपलब्ध हैं। भाष्य लिखने वाले सभी श्रेष्ठ विद्वज्जन रहे हैं। यह धार्मिक मनोविज्ञान है। फिर प्रश्न पूछा जाना चाहिये कि विश्वविद्यालय में यह मनोविज्ञान क्यों नहीं पढाया जाता है? भौतिक विज्ञान के अनेक ग्रन्थ विज्ञान विद्याशाखा में सर्वथा अपरिचित क्यों हैं? प्राणविज्ञान क्या है, आत्मविज्ञान क्या हैं? अथर्ववेद तो यन्त्रविज्ञान और तन्त्रशास्त्र का भण्डार है। वर्तमान इन्जिनीयरींग की शाखायें इनसे अनभिज्ञ हैं।
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देशभर में जहाँ जहाँ ऐसा अनुसन्धान का कार्य हो रहा है वहाँ संवाद भी साथ ही साथ स्थापित करना चाहिये ।
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धार्मिक ज्ञान की वर्तमान ज्ञानविश्व में प्रतिष्ठा हो यह अनुसन्धान कर्ताओं का उद्देश्य होना चाहिये । आज ज्ञानक्षेत्र में जिन शास्त्रों की प्रतिष्ठा है उनका धार्मिक पर्याय बन सकें, उनसे भी अधिक व्यापक और समावेशक शास्त्रग्रन्थों की सम्भावना स्थापित कर सकें इस प्रकार के अनुसन्धान की आवश्यकता है। देशभर में जहाँ जहाँ ऐसा अनुसन्धान का कार्य हो रहा है वहाँ संवाद भी साथ ही साथ स्थापित करना चाहिये ।
    
==== पाठ्यक्रम निर्माण ====
 
==== पाठ्यक्रम निर्माण ====
 
इस अध्ययन और अनुस्धान के आधार पर विभिन्न स्तरों के लिये विभिन्न विषयों के पर्यायी पाठ्यक्रम तैयार करने चाहिये । उदाहरण के लिये
 
इस अध्ययन और अनुस्धान के आधार पर विभिन्न स्तरों के लिये विभिन्न विषयों के पर्यायी पाठ्यक्रम तैयार करने चाहिये । उदाहरण के लिये
 
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# आयु की प्रत्येक अवस्था के लिये सामान्य पाठ्यक्रम । यह सर्वसमावेशक होना चाहिये। अर्थात् गर्भावस्था से वृद्धावस्था तक का पाठ्यक्रम । गृहीत यह है कि शिक्षा आजीवन चलती है। मनुष्य का इस जन्म का जीवन गभाधान से आरम्भ होता है और मृत्यु तक चलता है। मृत्यु के साथ इस जन्म का जीवन पूर्ण होता है। इन दो क्षणों के मध्य जीवन गर्भावस्था, शिशुअवस्था, बालावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढावस्था और वृद्धावस्था से गुजरता है। इन सभी अवस्थाओं में अवस्था के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था होना आवश्यक है। अतः इस शिक्षा के लिये पाठ्यक्रम चाहिये । सामान्य पाठ्यक्रम का अर्थ यह है कि व्यक्ति राजा हो या प्रजा, मालिक हो या नौकर, स्त्री हो या पुरुष, किसान हो या व्यापारी, दर्जी हो या मोची, सब को लागू होने वाला पाठ्यक्रम । उदाहरण के लिये धर्मपरायण होना, सज्जन होना, बलवान होना, बुद्धिमान होना, व्यवहारदक्ष होना, प्रचुर होना, सबके लिये समान रूप से लागू है।
१. आयु की प्रत्येक अवस्था के लिये सामान्य पाठ्यक्रम । यह सर्वसमावेशक होना चाहिये। अर्थात् गर्भावस्था से वृद्धावस्था तक का पाठ्यक्रम । गृहीत यह है कि शिक्षा आजीवन चलती है। मनुष्य का इस जन्म का जीवन गभाधान से आरम्भ होता है और मृत्यु तक चलता है। मृत्यु के साथ इस जन्म का जीवन पूर्ण होता है। इन दो क्षणों के मध्य जीवन गर्भावस्था, शिशुअवस्था, बालावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढावस्था और वृद्धावस्था से गुजरता है। इन सभी अवस्थाओं में अवस्था के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था होना आवश्यक है। अतः इस शिक्षा के लिये पाठ्यक्रम चाहिये । सामान्य पाठ्यक्रम का अर्थ यह है कि व्यक्ति राजा हो या प्रजा, मालिक हो या नौकर, स्त्री हो या पुरुष, किसान हो या व्यापारी, दर्जी हो या मोची, सब को लागू होने वाला पाठ्यक्रम ।
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# सन्दर्भ विशेष के लिये विशेष पाठ्यक्रम । व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं में होता है। कहीं पिता है तो कहीं पुत्र, कहीं शिक्षक है तो कहीं विद्यार्थी, कहीं राजा है तो कहीं अमात्य, आज की भाषा में कहें तो कहीं सांसद या मंत्री है तो कहीं सचिव, तो कहीं प्रजाजन, कहीं उद्योजक है तो कहीं व्यापारी, कहीं कृषक है तो कहीं गोपाल । इन भूमिकाओं के अनुरूप उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये एक गोपाल को गायों की जाति, उनके स्वभाव, उनकी आवश्यकताओं, उसके आहार, उनकी क्षमता, उनकी बिमारी आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही उनकी सन्तति, उनका दूध, दूध की व्यवस्था आदि विषयों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। एक उत्पादक को उत्पादन करने योग्य वस्तुयें, लोगोंं की आवश्यकता, उत्पादन प्रक्रिया, उत्पादन हेतु आवश्यक यन्त्र, स्थान, भवन, उत्पादन में सहभागी होनेवाले मनुष्यों के स्वभाव, क्षमताओं और आवश्यकताओं, उत्पादन से समाज पर और प्रकृति पर होनेवाला प्रभाव, बाजार पर होने वाला प्रभाव आदि के बारे में शिक्षा मिलने की आवश्यकता है। धार्मिक ज्ञानधारा के अनुकूल इन भूमिकाओं के लिये विभिन्न प्रकार के विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम बनना आवश्यक है।
 
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# ज्ञानक्षेत्र की आवश्यकता की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम: ज्ञानक्षेत्र की स्थिति और विकास हेतु विभिन्न प्रकार के प्रयासों की आवश्यकता रहेगी। इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों की आवश्यकता रहेगी। उदाहरण के लिये सामान्य व्यवहार के लिये एक प्रकार के तो प्रगत अध्ययन के लिये अलग प्रकार के पाठ्यक्रम की आवश्यकता रहेगी। इसी प्रकार से उस शास्त्र की शिक्षा हेतु एक प्रकार के और अनुसन्धान हेतु अन्य प्रकार के पाठ्यक्रमों की आवश्यकता रहेगी।
उदाहरण के लिये धर्मपरायण होना, सज्जन होना, बलवान होना, बुद्धिमान होना, व्यवहारदक्ष होना, प्रचुर होना, सबके लिये समान रूप से लागू है।
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२. सन्दर्भ विशेष के लिये विशेष पाठ्यक्रम । व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं में होता है। कहीं पिता है तो कहीं पुत्र, कहीं शिक्षक है तो कहीं विद्यार्थी, कहीं राजा है तो कहीं अमात्य, आज की भाषा में कहें तो कहीं सांसद या मंत्री है तो कहीं सचिव, तो कहीं प्रजाजन, कहीं उद्योजक है तो कहीं व्यापारी, कहीं कृषक है तो कहीं गोपाल । इन भूमिकाओं के अनुरूप उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये एक गोपाल को गायों की जाति, उनके स्वभाव, उनकी आवश्यकताओं, उसके आहार, उनकी क्षमता, उनकी बिमारी आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही उनकी सन्तति, उनका दूध, दूध की व्यवस्था आदि विषयों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। एक उत्पादक को उत्पादन करने योग्य वस्तुयें, लोगोंं की आवश्यकता, उत्पादन प्रक्रिया, उत्पादन हेतु आवश्यक यन्त्र, स्थान, भवन, उत्पादन में सहभागी होनेवाले मनुष्यों के स्वभाव, क्षमताओं और आवश्यकताओं, उत्पादन से समाज पर और प्रकृति पर होनेवाला प्रभाव, बाजार पर होने वाला प्रभाव आदि के बारे में शिक्षा मिलने की आवश्यकता है। धार्मिक ज्ञानधारा के अनुकूल इन भूमिकाओं के लिये विभिन्न प्रकार के विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम बनना आवश्यक है।
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३. ज्ञानक्षेत्र की आवश्यकता की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम  
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ज्ञानक्षेत्र की स्थिति और विकास हेतु विभिन्न प्रकार के प्रयासों की आवश्यकता रहेगी। इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों की आवश्यकता रहेगी। उदाहरण के लिये सामान्य व्यवहार के लिये एक प्रकार के तो प्रगत अध्ययन के लिये अलग प्रकार के पाठ्यक्रम की आवश्यकता रहेगी। इसी प्रकार से उस शास्त्र की शिक्षा हेतु एक प्रकार के और अनुसन्धान हेतु अन्य प्रकार के पाठ्यक्रमों की आवश्यकता रहेगी।
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इस प्रकार से विभिन्न विषयों के, विभिन्न स्तरों के, विभिन्न प्रयोजनों को पूर्ण करने वाले पाठ्यक्रमों की सूची एवं रूपरेखा बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य इन विश्वविद्यालयों को करना चाहिये।
 
इस प्रकार से विभिन्न विषयों के, विभिन्न स्तरों के, विभिन्न प्रयोजनों को पूर्ण करने वाले पाठ्यक्रमों की सूची एवं रूपरेखा बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य इन विश्वविद्यालयों को करना चाहिये।
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तात्पर्य यह है कि पुस्तकें चाहिये । विभिन्न रुचि, क्षमता, आयु के लोगोंं के लिये । विभिन्न शैलियों में पुस्तकें तैयार करने की आवश्यकता रहेगी।
 
तात्पर्य यह है कि पुस्तकें चाहिये । विभिन्न रुचि, क्षमता, आयु के लोगोंं के लिये । विभिन्न शैलियों में पुस्तकें तैयार करने की आवश्यकता रहेगी।
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उदाहरण के लिये पुस्तकों के इतने प्रकार हो सकते हैं...१. सूत्रग्रन्थ, २. भाष्यग्रन्थ, ३. सन्दर्भ ग्रन्थ, ४. निरूपण ग्रन्थ, ५. कथा ग्रन्थ, ६. काव्य ग्रन्थ, ७. संवाद ग्रन्थ, ८. चित्र ग्रन्थ आदि ।
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उदाहरण के लिये पुस्तकों के इतने प्रकार हो सकते हैं: १. सूत्रग्रन्थ, २. भाष्यग्रन्थ, ३. सन्दर्भ ग्रन्थ, ४. निरूपण ग्रन्थ, ५. कथा ग्रन्थ, ६. काव्य ग्रन्थ, ७. संवाद ग्रन्थ, ८. चित्र ग्रन्थ आदि ।
    
ये विभिन्न स्तरों के लिये भी होने की आवश्यकता है जैसे कि शिशुओं के लिये, कम शिक्षित लोगोंं के लिये, शिक्षकों के लिये, विद्वानों के लिये, व्यवसायिओं के लिये आदि।
 
ये विभिन्न स्तरों के लिये भी होने की आवश्यकता है जैसे कि शिशुओं के लिये, कम शिक्षित लोगोंं के लिये, शिक्षकों के लिये, विद्वानों के लिये, व्यवसायिओं के लिये आदि।
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==== शिक्षा के व्यवस्थापक्ष की पुनर्रचना ====
 
==== शिक्षा के व्यवस्थापक्ष की पुनर्रचना ====
शिक्षा के व्यवस्थाकीय पक्ष के मुख्य सूत्र इस प्रकार है.....
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शिक्षा के व्यवस्थाकीय पक्ष के मुख्य सूत्र इस प्रकार हैं:
 
# शिक्षा राज्य और समाज दोनों का मार्गदर्शन करनेवाली है। जो मार्गदर्शन करता है वह मार्गदर्शन प्राप्त करने वाले के अधीन रहे यह दोनों में से एक को भी अनुकूल नहीं है। इसलिये शिक्षाक्षेत्र राज्य और समाज दोनों से उपर, स्वायत्त, स्वाधीन होना चाहिये।  
 
# शिक्षा राज्य और समाज दोनों का मार्गदर्शन करनेवाली है। जो मार्गदर्शन करता है वह मार्गदर्शन प्राप्त करने वाले के अधीन रहे यह दोनों में से एक को भी अनुकूल नहीं है। इसलिये शिक्षाक्षेत्र राज्य और समाज दोनों से उपर, स्वायत्त, स्वाधीन होना चाहिये।  
 
# शिक्षाक्षेत्र शिक्षक के अधीन होना चाहिये । शिक्षक अपने से श्रेष्ठ शिक्षक द्वारा ही नियुक्त होना चाहिये । शिक्षक नहीं है ऐसी कोई सत्ता उसे नियुक्त नहीं करेगी।  
 
# शिक्षाक्षेत्र शिक्षक के अधीन होना चाहिये । शिक्षक अपने से श्रेष्ठ शिक्षक द्वारा ही नियुक्त होना चाहिये । शिक्षक नहीं है ऐसी कोई सत्ता उसे नियुक्त नहीं करेगी।  
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==== किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे हो ====
 
==== किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे हो ====
धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना का एक और आयाम है किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे होगी इसका विचार करना । इसका विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है....
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धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना का एक और आयाम है किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे होगी इसका विचार करना । इसका विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है:
 
# गर्भाधान से लेकर सात वर्ष की आयु तक की शिक्षा घर में ही मातापिता के सान्निध्य में होगी। इसी दृष्टि से माता को बालक की प्रथम गुरु कहा है।  
 
# गर्भाधान से लेकर सात वर्ष की आयु तक की शिक्षा घर में ही मातापिता के सान्निध्य में होगी। इसी दृष्टि से माता को बालक की प्रथम गुरु कहा है।  
 
# इसके बाद पन्द्रह वर्ष तक की शिक्षा तीन केन्द्रों में विभाजित होगी। एक केन्द्र होगा घर जहाँ गृहस्थ बनने की शिक्षा होगी। इस सन्दर्भ में पिता गुरु है और माता उसकी सहायक । दूसरा केन्द्र विद्यालय है जहाँ उसे देशदुनिया का और धर्म का ज्ञान मिलेगा। विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु होंगे। तीसरा केन्द्र होगा उत्पादन का केन्द्र जहाँ वह व्यवसाय सीखेगा। व्यवसाय का मालिक उसका गुरु होगा। तीनों केन्द्रों पर एक विद्यार्थी की तरह ही उसके साथ व्यवहार होगा। यदि उसे शिक्षक, पुरोहित, राज्यकर्ता, अमात्य आदि बनना है तो विद्यालय में ही जायेगा, उत्पादन केन्द्र में जाने की आवश्यकता नहीं।  
 
# इसके बाद पन्द्रह वर्ष तक की शिक्षा तीन केन्द्रों में विभाजित होगी। एक केन्द्र होगा घर जहाँ गृहस्थ बनने की शिक्षा होगी। इस सन्दर्भ में पिता गुरु है और माता उसकी सहायक । दूसरा केन्द्र विद्यालय है जहाँ उसे देशदुनिया का और धर्म का ज्ञान मिलेगा। विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु होंगे। तीसरा केन्द्र होगा उत्पादन का केन्द्र जहाँ वह व्यवसाय सीखेगा। व्यवसाय का मालिक उसका गुरु होगा। तीनों केन्द्रों पर एक विद्यार्थी की तरह ही उसके साथ व्यवहार होगा। यदि उसे शिक्षक, पुरोहित, राज्यकर्ता, अमात्य आदि बनना है तो विद्यालय में ही जायेगा, उत्पादन केन्द्र में जाने की आवश्यकता नहीं।  
 
# पन्द्रह वर्ष से लेकर विवाह करता है तब तक तीनों केन्द्र पर ही रहेगा परन्तु अब उसका विद्यार्थी और शिक्षक दोनों का काम आरम्भ होगा। अर्थात् वह विद्यालय में है तो पढेगा और पढायेगा, व्यवसाय केन्द्र में है तो व्यवसाय सीखेगा और करेगा घर में है तो पिता के साथ गृहस्थी के कामों में सहभागी बनेगा। पिता इस स्थिति में व्यवसाय और गृहस्थी दोनों में गुरु हैं।   
 
# पन्द्रह वर्ष से लेकर विवाह करता है तब तक तीनों केन्द्र पर ही रहेगा परन्तु अब उसका विद्यार्थी और शिक्षक दोनों का काम आरम्भ होगा। अर्थात् वह विद्यालय में है तो पढेगा और पढायेगा, व्यवसाय केन्द्र में है तो व्यवसाय सीखेगा और करेगा घर में है तो पिता के साथ गृहस्थी के कामों में सहभागी बनेगा। पिता इस स्थिति में व्यवसाय और गृहस्थी दोनों में गुरु हैं।   
 
# गृहस्थाश्रम में प्रवेश के साथ उसकी गृहस्थी की शिक्षा आरम्भ होती है। अब वह पिता, शिक्षक या व्यवसाय के मालिक का विद्यार्थी नहीं है। ये सब उसके मार्गदर्शक हैं। अपनी शिक्षा की चिन्ता अब उसे स्वयं करनी है।   
 
# गृहस्थाश्रम में प्रवेश के साथ उसकी गृहस्थी की शिक्षा आरम्भ होती है। अब वह पिता, शिक्षक या व्यवसाय के मालिक का विद्यार्थी नहीं है। ये सब उसके मार्गदर्शक हैं। अपनी शिक्षा की चिन्ता अब उसे स्वयं करनी है।   
# अब मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु उसके घर में बडे बुझुर्ग हैं। ये तो सदा साथ ही रहते हैं और नित्य उपलब्ध है। विचारविमर्श करने के लिये पत्नी है जिसकी गृहस्थी की शिक्षा उसके समान ही हुई है। क्रियात्मक अनुभव लेने के लिये घर है जहाँ उसे जिम्मेदारीपूर्वक जीना है। उसका मित्रपरिवार है जो उसके समान ही शिक्षा पूर्ण कर अब गृहस्थ बना है । विद्यालय में तथा घर में प्राप्त शिक्षा का स्मरण रखते हुए अब उसे शिक्षा को क्रियात्मक स्वरूप देना है। घर में बच्चों का जन्म होता है। उनका संगोपन करते करते वह अनुभव प्राप्त करता है। अब अपने बच्चों के लिये वह शिक्षक है । जिस प्रकार मार्गदर्शन के लिये अपने मातापिता से परामर्श करता है उसी प्रकार समय समय पर विद्यालय में भी जाता है जहाँ उसका शिक्षक वृन्द है । इस प्रकार उसकी शिक्षा का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है। इस अवस्था की शिक्षा के लिये दो प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिये । एक तो विद्यालय में पूर्व छात्र परिषद बनानी चाहिये जिसके माध्यम से विद्यालय में पढकर गये हुए विद्यार्थी निश्चित किये हुए कार्यक्रमों के माध्यम से विद्यालय में आ सकें । दूसरी समाज में भी शिक्षित लोगोंं की परिषद की रचना करनी चाहिये । यह उनके लिये विश्वविद्यालय का अंग ही होगा जिसमें वे आपस में अनुभवों का आदानप्रदान कर सकते हैं और एकदूसरे से सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। ये परिषदें किसी न किसी स्वरूप में विश्वविद्यालय के साथ जुडी रहेंगी। इन परिषदों का एक काम अपने विश्वविद्यालयों की आर्थिक तथा अन्य प्रकार की चिन्ता करने का भी रहेगा । जिस प्रकार वह अपने परिवारजनों के प्रति अपना दायित्व निभाता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के प्रति दायित्व भी निभायेगा । इनके माध्यम से विद्यालय भी समाज के साथ जुडा रहेगा । विद्यालय के अन्य व्यवस्थात्मक कार्यों जैसे कि सभा सम्मेलनों या परिषद के आयोजनों में वह सहभागी होता रहेगा। विद्यालय के समाज प्रबोधन कार्यक्रम में भी वह सहभागी बनेगा। वह मातापिता का पुत्र और विद्यालय का विद्यार्थी बना ही रहेगा।   
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# अब मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु उसके घर में बडे बुजुर्ग हैं। ये तो सदा साथ ही रहते हैं और नित्य उपलब्ध है। विचारविमर्श करने के लिये पत्नी है जिसकी गृहस्थी की शिक्षा उसके समान ही हुई है। क्रियात्मक अनुभव लेने के लिये घर है जहाँ उसे जिम्मेदारीपूर्वक जीना है। उसका मित्रपरिवार है जो उसके समान ही शिक्षा पूर्ण कर अब गृहस्थ बना है। विद्यालय में तथा घर में प्राप्त शिक्षा का स्मरण रखते हुए अब उसे शिक्षा को क्रियात्मक स्वरूप देना है। घर में बच्चों का जन्म होता है। उनका संगोपन करते करते वह अनुभव प्राप्त करता है। अब अपने बच्चों के लिये वह शिक्षक है । जिस प्रकार मार्गदर्शन के लिये अपने मातापिता से परामर्श करता है उसी प्रकार समय समय पर विद्यालय में भी जाता है जहाँ उसका शिक्षक वृन्द है। इस प्रकार उसकी शिक्षा का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है। इस अवस्था की शिक्षा के लिये दो प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिये। एक तो विद्यालय में पूर्व छात्र परिषद बनानी चाहिये जिसके माध्यम से विद्यालय में पढकर गये हुए विद्यार्थी निश्चित किये हुए कार्यक्रमों के माध्यम से विद्यालय में आ सकें। दूसरी समाज में भी शिक्षित लोगोंं की परिषद की रचना करनी चाहिये । यह उनके लिये विश्वविद्यालय का अंग ही होगा जिसमें वे आपस में अनुभवों का आदानप्रदान कर सकते हैं और एकदूसरे से सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। ये परिषदें किसी न किसी स्वरूप में विश्वविद्यालय के साथ जुडी रहेंगी। इन परिषदों का एक काम अपने विश्वविद्यालयों की आर्थिक तथा अन्य प्रकार की चिन्ता करने का भी रहेगा । जिस प्रकार वह अपने परिवारजनों के प्रति अपना दायित्व निभाता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के प्रति दायित्व भी निभायेगा। इनके माध्यम से विद्यालय भी समाज के साथ जुडा रहेगा। विद्यालय के अन्य व्यवस्थात्मक कार्यों जैसे कि सभा सम्मेलनों या परिषद के आयोजनों में वह सहभागी होता रहेगा। विद्यालय के समाज प्रबोधन कार्यक्रम में भी वह सहभागी बनेगा। वह मातापिता का पुत्र और विद्यालय का विद्यार्थी बना ही रहेगा।   
# वह प्रौढ अवस्था का होता है तब उसके दो प्रकार के शिक्षक होंगे । एक होंगे ग्रन्थ जिनका स्वाध्याय उसे करना है। अब उसके अध्ययन का स्वरूप चिन्तनात्मक रहेगा। घर में, विद्यालय में और समाज में वह विद्यार्थी कम और शिक्षक अधिक रहेगा। वह धीरे धीरे अनुभवी मार्गदर्शक बनेगा। दूसरा शिक्षक है सन्त, कथाकार, तीर्थयात्रा, धार्मिक अनुष्ठान आदि। यह उसका सत्संग है। यहाँ वह विद्यार्थी के रूप में ही जाता है। अब तक प्राप्त की हुई अनुभवात्मक शिक्षा को और अधिक परिपक्व बनाता है। ऐसी शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय के कुलपति और धर्माचार्यों ने मिलकर लोकविद्यालयों की रचना करनी चाहिये । इन विद्यालयों में सत्संग, अनुष्ठान, कथा, प्रवचन आदि के माध्यम से धर्माचर्चा चले । लोकशिक्षा के इन विद्यालयों में जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है ऐसे लोग भी आ सकते हैं और नहीं किया है ऐसे भी लोग आ सकते हैं। दोनों के लिये आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की योजना होगी। आवश्यक नहीं कि इन विद्यालयों में वानप्रस्थी ही विद्यार्थी के रूप में आयें। जो अभी वानप्रस्थी नहीं हुए हैं ऐसे गृहस्थ भी आ सकते हैं। इनमें उपनिषदों और पुराणों का अध्ययन और देशविदेश की जानकारी देने का प्रबन्ध होगा । सम्पूर्ण समाज को देशकाल परिस्थिति के अनुसार शिक्षित करने हेतु ये विद्यालय होंगे। इन विद्यालयों के संचालन का प्रमुख दायित्व धर्माचार्यों का रहेगा जिन्हें शिक्षक सहायता करेंगे। ऐसे लोकविद्यालयों के नाम भिन्न भिन्न हो सकते हैं परन्तु यह विधिवत्लो कशिक्षा की ही योजना के अंग होंगे।  
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# वह प्रौढ अवस्था का होता है तब उसके दो प्रकार के शिक्षक होंगे । एक होंगे ग्रन्थ जिनका स्वाध्याय उसे करना है। अब उसके अध्ययन का स्वरूप चिन्तनात्मक रहेगा। घर में, विद्यालय में और समाज में वह विद्यार्थी कम और शिक्षक अधिक रहेगा। वह धीरे धीरे अनुभवी मार्गदर्शक बनेगा। दूसरा शिक्षक है सन्त, कथाकार, तीर्थयात्रा, धार्मिक अनुष्ठान आदि। यह उसका सत्संग है। यहाँ वह विद्यार्थी के रूप में ही जाता है। अब तक प्राप्त की हुई अनुभवात्मक शिक्षा को और अधिक परिपक्व बनाता है। ऐसी शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय के कुलपति और धर्माचार्यों ने मिलकर लोकविद्यालयों की रचना करनी चाहिये । इन विद्यालयों में सत्संग, अनुष्ठान, कथा, प्रवचन आदि के माध्यम से धर्माचर्चा चले । लोकशिक्षा के इन विद्यालयों में जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है ऐसे लोग भी आ सकते हैं और नहीं किया है ऐसे भी लोग आ सकते हैं। दोनों के लिये आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की योजना होगी। आवश्यक नहीं कि इन विद्यालयों में वानप्रस्थी ही विद्यार्थी के रूप में आयें। जो अभी वानप्रस्थी नहीं हुए हैं ऐसे गृहस्थ भी आ सकते हैं। इनमें उपनिषदों और पुराणों का अध्ययन और देशविदेश की जानकारी देने का प्रबन्ध होगा । सम्पूर्ण समाज को देशकाल परिस्थिति के अनुसार शिक्षित करने हेतु ये विद्यालय होंगे। इन विद्यालयों के संचालन का प्रमुख दायित्व धर्माचार्यों का रहेगा जिन्हें शिक्षक सहायता करेंगे। ऐसे लोकविद्यालयों के नाम भिन्न भिन्न हो सकते हैं परन्तु यह विधिवत लोक शिक्षा की ही योजना के अंग होंगे।  
 
# इसके साथ ही वानप्रस्थों, सन्यासियों के लिये जो विद्यालय होंगे वे आश्रम, मन्दिर, मठ आदि नामों से जाने जायेंगे। ये भी सत्संग और धर्माचर्चा, कथाकीर्तन और प्रवचन के माध्यम से समाजशिक्षा का काम ही करेंगे।  
 
# इसके साथ ही वानप्रस्थों, सन्यासियों के लिये जो विद्यालय होंगे वे आश्रम, मन्दिर, मठ आदि नामों से जाने जायेंगे। ये भी सत्संग और धर्माचर्चा, कथाकीर्तन और प्रवचन के माध्यम से समाजशिक्षा का काम ही करेंगे।  
 
# वानप्रस्थियों के लिये समाजसेवा यह अपेक्षित आचार बनाया जाना चाहिये । समाजेसवा की सारी संस्थायें वानप्रस्थियों के दायित्व में चलेंगी जिनमें वेतन की कोई व्यवस्था नहीं रहेगी। वानप्रस्थियों के निर्वाह का दायित्व उनके परिवार का ही रहेगा। यदि वे घर छोडकर संस्था में ही रहना चाहेंगे तो संस्था निर्वाह कर सकती है परन्तु संस्था में निर्वाह की व्यवस्था हो सके इस उद्देश्य से वे समाजेसवा नहीं करेंगे।  
 
# वानप्रस्थियों के लिये समाजसेवा यह अपेक्षित आचार बनाया जाना चाहिये । समाजेसवा की सारी संस्थायें वानप्रस्थियों के दायित्व में चलेंगी जिनमें वेतन की कोई व्यवस्था नहीं रहेगी। वानप्रस्थियों के निर्वाह का दायित्व उनके परिवार का ही रहेगा। यदि वे घर छोडकर संस्था में ही रहना चाहेंगे तो संस्था निर्वाह कर सकती है परन्तु संस्था में निर्वाह की व्यवस्था हो सके इस उद्देश्य से वे समाजेसवा नहीं करेंगे।  

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