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स्पर्धा से संघर्ष और संघर्ष से हिंसा अनिवार्य है। सीधी मारामारी, सशस्त्र संग्राम, खुली लूट आदि से बचने के लिये कुछ उपाय करने की आवश्यकता होती है। सभ्य भी दिखना है । प्राणों की रक्षा भी करनी है । इसलिये पश्चिम ने सामाजिक करार का सिद्धान्त बनाया है। व्यक्ति केन्द्री जीवन होने पर भी व्यक्ति की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति दूसरे व्यक्तियों से ही होती है। इससे एक आपसी लेनदेन का व्यवहार बनता है । लेनदेन के व्यवहार में स्वयं को घाटा न हो इसका ध्यान हर व्यक्ति की चिन्ता का विषय होता है। इस दृष्टि से कानून बनाये जाते हैं, कानून का पालन करना सबके लिये अनिवार्य बनाया जाता है, पालन नहीं करने पर मुकद्दमा चलता है, न्याय होता है और दण्ड दिया जाता है। व्यक्ति के हितों की रक्षा के लिये यह सारी व्यवस्था की जाती है न कि समाजहित के लिये ।।
 
स्पर्धा से संघर्ष और संघर्ष से हिंसा अनिवार्य है। सीधी मारामारी, सशस्त्र संग्राम, खुली लूट आदि से बचने के लिये कुछ उपाय करने की आवश्यकता होती है। सभ्य भी दिखना है । प्राणों की रक्षा भी करनी है । इसलिये पश्चिम ने सामाजिक करार का सिद्धान्त बनाया है। व्यक्ति केन्द्री जीवन होने पर भी व्यक्ति की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति दूसरे व्यक्तियों से ही होती है। इससे एक आपसी लेनदेन का व्यवहार बनता है । लेनदेन के व्यवहार में स्वयं को घाटा न हो इसका ध्यान हर व्यक्ति की चिन्ता का विषय होता है। इस दृष्टि से कानून बनाये जाते हैं, कानून का पालन करना सबके लिये अनिवार्य बनाया जाता है, पालन नहीं करने पर मुकद्दमा चलता है, न्याय होता है और दण्ड दिया जाता है। व्यक्ति के हितों की रक्षा के लिये यह सारी व्यवस्था की जाती है न कि समाजहित के लिये ।।
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लेनदेन का यह व्यवहार तो अनिवार्य है परन्तु इसमें हर व्यक्ति की विशिष्ट मानसिकता बनती है। लेनदेन के व्यवहार में लेना और देना बराबर हो यह न्यायसंगत है, परन्तु हर व्यक्ति चाहता है कि उसे कम से कम देना पडे और अधिक से अधिक मिले । यदि उसका बस चले तो सब कुछ ले और कुछ भी न दे, परन्तु यह तो सम्भव नहीं है । इसलिये कम से कम देने और अधिक से अधिक लेने की युक्तिप्रयुक्ति चलती है। लेनदेन के सौदे यदि घाटे के बनने लगे तो व्यक्ति चाहता है कि करार ही भंग कर दिया जाय, नुकसान भरपाई कर दी जाय और नया करार कर दिया जाय । सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर ही बनते हैं और भंग भी होते हैं। इसमें भावुकता को कदाचित ही कोई स्थान होता है, अतः सम्बन्ध बिगडते नहीं है, केवल भंग होते हैं समाप्त होते हैं।
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लेनदेन का यह व्यवहार तो अनिवार्य है परन्तु इसमें हर व्यक्ति की विशिष्ट मानसिकता बनती है। लेनदेन के व्यवहार में लेना और देना बराबर हो यह न्यायसंगत है, परन्तु हर व्यक्ति चाहता है कि उसे कम से कम देना पड़े और अधिक से अधिक मिले । यदि उसका बस चले तो सब कुछ ले और कुछ भी न दे, परन्तु यह तो सम्भव नहीं है । इसलिये कम से कम देने और अधिक से अधिक लेने की युक्तिप्रयुक्ति चलती है। लेनदेन के सौदे यदि घाटे के बनने लगे तो व्यक्ति चाहता है कि करार ही भंग कर दिया जाय, नुकसान भरपाई कर दी जाय और नया करार कर दिया जाय । सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर ही बनते हैं और भंग भी होते हैं। इसमें भावुकता को कदाचित ही कोई स्थान होता है, अतः सम्बन्ध बिगडते नहीं है, केवल भंग होते हैं समाप्त होते हैं।
    
पतिपत्नी का सम्बन्ध करार है, मातापिता और सन्तानों का सम्बन्ध करार है, शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध करार है, व्यापारी और ग्राहक का सम्बन्ध करार है, मालिक और नौकर का सम्बन्ध करार है तथा शासक और प्रजा का सम्बन्ध भी करार है।
 
पतिपत्नी का सम्बन्ध करार है, मातापिता और सन्तानों का सम्बन्ध करार है, शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध करार है, व्यापारी और ग्राहक का सम्बन्ध करार है, मालिक और नौकर का सम्बन्ध करार है तथा शासक और प्रजा का सम्बन्ध भी करार है।
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# समाजरचना के पश्चिम के सिद्धान्तों का त्याग करना
 
# समाजरचना के पश्चिम के सिद्धान्तों का त्याग करना
 
# स्त्री के सन्दर्भ में पुरुष और पुरष के सन्दर्भ में स्त्री के बारे में पुनर्विचार करना
 
# स्त्री के सन्दर्भ में पुरुष और पुरष के सन्दर्भ में स्त्री के बारे में पुनर्विचार करना
विश्वविद्यालयों के सामाजिक अध्ययन के विभागों में, बौद्धिक समूहों में, धर्मसभाओं में इस विषय का ऊहापोह करना होगा । पश्चिम की संकल्पना को नकारने के लिये जितना बौद्धिक पुरुषार्थ करना पड़ेगा उससे भी अधिक मनोवैज्ञानिक परिश्रम करना पडेगा, जितना पुरुष वर्ग को उतना ही स्त्री वर्ग को चिन्तन करना पड़ेगा । यह मामला मनःस्थिति और परिस्थिति दोनों क्षेत्रों में उलझा हुआ है। उसे सुलझाने के लिये पर्याप्त धैर्य चिन्तन, अपनी परम्परा के गौरव, आत्मविश्वास और हीनताबोध से मुक्ति की आवश्यकता रहेगी।
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विश्वविद्यालयों के सामाजिक अध्ययन के विभागों में, बौद्धिक समूहों में, धर्मसभाओं में इस विषय का ऊहापोह करना होगा । पश्चिम की संकल्पना को नकारने के लिये जितना बौद्धिक पुरुषार्थ करना पड़ेगा उससे भी अधिक मनोवैज्ञानिक परिश्रम करना पड़ेगा, जितना पुरुष वर्ग को उतना ही स्त्री वर्ग को चिन्तन करना पड़ेगा । यह मामला मनःस्थिति और परिस्थिति दोनों क्षेत्रों में उलझा हुआ है। उसे सुलझाने के लिये पर्याप्त धैर्य चिन्तन, अपनी परम्परा के गौरव, आत्मविश्वास और हीनताबोध से मुक्ति की आवश्यकता रहेगी।
    
==References==
 
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