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६. अर्थात् शिक्षा में सर्वत्र मन को सज्जन बनाने की, व्यक्ति को चरित्रवान बनाने की शिक्षा का अन्तर्भाव होने की अनिवार्यता है यह बात पश्चिम को आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता है। अनुभूति का क्षेत्र पश्चिम में पूर्ण रूप से अनुपस्थित है। इस कारण से पश्चिम के अध्ययन और अनुसन्धान का स्तर बुद्धि प्रामाण्य तक ही पहुँचता है। सब कुछ केवल तर्क पर आधारित है। परन्तु पश्चिम की इस विषय में अपरिहार्य कठिनाई है । जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति को रंगों का, जन्म से बधिर व्यक्ति को वाणी का या सूंघने की शक्ति बिना लिये जन्मे व्यक्ति को गन्ध का अनुभव कल्पना में भी नहीं होता उस प्रकार जिसे अनुभूति जैसा कुछ होता है इसकी कल्पना तक नहीं होती उसके साथ अनुभूति के प्रमाण की चर्चा तक नहीं हो सकती। परन्तु इसका परिणाम यह होता है कि पश्चिम का शास्त्र न तर्कातीत होता है न शाश्वत । बुद्धि के स्तर के अनुसार शास्त्र रचे जाते हैं, कुछ समय तक प्रतिष्ठित और प्रचलित होते हैं, फिर कोई आता है और नये शास्त्र की रचना होती है । थिअरी बदलती रहती हैं। परिवर्तन भारत में भी होता है परन्तु वह केवल परिवर्तनशील बाहरी बातों का होता है, शाश्वत तत्त्वों का नहीं । पश्चिम में शाश्वत और परिवर्तनीय ऐसे दो आयाम हैं ही नहीं, सब कुछ परिवर्तनीय है। हमने कभी हमारी दृष्टि से पश्चिम को देखा ही नहीं है इसलिये उसका अधूरापन हमें समझ में नहीं आता ।
 
६. अर्थात् शिक्षा में सर्वत्र मन को सज्जन बनाने की, व्यक्ति को चरित्रवान बनाने की शिक्षा का अन्तर्भाव होने की अनिवार्यता है यह बात पश्चिम को आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता है। अनुभूति का क्षेत्र पश्चिम में पूर्ण रूप से अनुपस्थित है। इस कारण से पश्चिम के अध्ययन और अनुसन्धान का स्तर बुद्धि प्रामाण्य तक ही पहुँचता है। सब कुछ केवल तर्क पर आधारित है। परन्तु पश्चिम की इस विषय में अपरिहार्य कठिनाई है । जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति को रंगों का, जन्म से बधिर व्यक्ति को वाणी का या सूंघने की शक्ति बिना लिये जन्मे व्यक्ति को गन्ध का अनुभव कल्पना में भी नहीं होता उस प्रकार जिसे अनुभूति जैसा कुछ होता है इसकी कल्पना तक नहीं होती उसके साथ अनुभूति के प्रमाण की चर्चा तक नहीं हो सकती। परन्तु इसका परिणाम यह होता है कि पश्चिम का शास्त्र न तर्कातीत होता है न शाश्वत । बुद्धि के स्तर के अनुसार शास्त्र रचे जाते हैं, कुछ समय तक प्रतिष्ठित और प्रचलित होते हैं, फिर कोई आता है और नये शास्त्र की रचना होती है । थिअरी बदलती रहती हैं। परिवर्तन भारत में भी होता है परन्तु वह केवल परिवर्तनशील बाहरी बातों का होता है, शाश्वत तत्त्वों का नहीं । पश्चिम में शाश्वत और परिवर्तनीय ऐसे दो आयाम हैं ही नहीं, सब कुछ परिवर्तनीय है। हमने कभी हमारी दृष्टि से पश्चिम को देखा ही नहीं है इसलिये उसका अधूरापन हमें समझ में नहीं आता ।
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पश्चिम की स्थिति ऐसी है कि अनुभूति की शिक्षा का अनुभव करने हेतु भी उसे भारत में जन्म लेना पडेगा । पुनर्जन्म में, भाग्य में, जन्मजन्मान्तर में और आत्मतत्त्व की सत्ता में विश्वास करना पडेगा। भारत में जन्म नहीं होता तब तक भारत की चिरंजीविता को विचार में लेकर ज्ञानक्षेत्र के सिद्धान्तों को मानना पड़ेगा।  
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पश्चिम की स्थिति ऐसी है कि अनुभूति की शिक्षा का अनुभव करने हेतु भी उसे भारत में जन्म लेना पड़ेगा । पुनर्जन्म में, भाग्य में, जन्मजन्मान्तर में और आत्मतत्त्व की सत्ता में विश्वास करना पड़ेगा। भारत में जन्म नहीं होता तब तक भारत की चिरंजीविता को विचार में लेकर ज्ञानक्षेत्र के सिद्धान्तों को मानना पड़ेगा।  
    
७. पश्चिम में शिक्षा बाजार के अधीन है क्योंकि उनकी जीवनशैली अर्थनिष्ठ है। भारत में एक अर्थनिष्ठा को उपालम्भ देने वाला सुभाषित है - <blockquote>यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः </blockquote><blockquote>सः पण्डितः सः श्रुतवान गुणज्ञः । </blockquote><blockquote>स एव वक्ता स च दर्शनीयः </blockquote><blockquote>सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते ।। </blockquote>अर्थात्
 
७. पश्चिम में शिक्षा बाजार के अधीन है क्योंकि उनकी जीवनशैली अर्थनिष्ठ है। भारत में एक अर्थनिष्ठा को उपालम्भ देने वाला सुभाषित है - <blockquote>यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः </blockquote><blockquote>सः पण्डितः सः श्रुतवान गुणज्ञः । </blockquote><blockquote>स एव वक्ता स च दर्शनीयः </blockquote><blockquote>सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते ।। </blockquote>अर्थात्

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