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सांस्कृतिक दृष्टि से भारत विश्व को एक मानता है। इसलिये भारत सभी बातों का वैश्विक सन्दर्भ में ही विचार करता है। विश्व के सन्दर्भ में भारत के मूल विचार कुछ इस प्रकार हैं..<blockquote>अयं निज परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् । </blockquote><blockquote>उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।। </blockquote>अर्थात्
 
सांस्कृतिक दृष्टि से भारत विश्व को एक मानता है। इसलिये भारत सभी बातों का वैश्विक सन्दर्भ में ही विचार करता है। विश्व के सन्दर्भ में भारत के मूल विचार कुछ इस प्रकार हैं..<blockquote>अयं निज परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् । </blockquote><blockquote>उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।। </blockquote>अर्थात्
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यह अपना है और यह पराया ऐसी सोच छोटे मन वाले लोगों की होती है, जिनका अन्तःकरण उदार है उनके लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी एक कुटुम्ब है।
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यह अपना है और यह पराया ऐसी सोच छोटे मन वाले लोगोंं की होती है, जिनका अन्तःकरण उदार है उनके लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी एक कुटुम्ब है।
    
कुटुम्ब कहते ही आत्मीयता का सम्बन्ध निहित है। अर्थात् भारत सम्पूर्ण विश्व के साथ आत्मीयता से युक्त व्यवहार करता है।<blockquote>यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमभिधीयते । </blockquote>अर्थात् जो भूतमात्र का हित कहता है वही सत्य है।
 
कुटुम्ब कहते ही आत्मीयता का सम्बन्ध निहित है। अर्थात् भारत सम्पूर्ण विश्व के साथ आत्मीयता से युक्त व्यवहार करता है।<blockquote>यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमभिधीयते । </blockquote>अर्थात् जो भूतमात्र का हित कहता है वही सत्य है।
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यह आज की बात नहीं है। दो पीटी पूर्व से स्थिति तो यही है। कुछ वर्ष पूर्व एक वृत्त आया था कि केवल एक न्यूयोर्क में सातसौ डॉक्टर धार्मिक हैं। यही बात इन्जिनीयरों, मैनेजरों, संगणक निष्णातों, व्यापारियों आदि की है। विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में पढे विद्यार्थी क्या देश नहीं चला सकते ? भारत में तो इतनी बड़ी संख्या में यूरोअमेरिकी विश्वविद्यालयों मे पढे लोग डॉक्टर का या अन्य व्यवसाय करते नहीं दिखाई देते ।
 
यह आज की बात नहीं है। दो पीटी पूर्व से स्थिति तो यही है। कुछ वर्ष पूर्व एक वृत्त आया था कि केवल एक न्यूयोर्क में सातसौ डॉक्टर धार्मिक हैं। यही बात इन्जिनीयरों, मैनेजरों, संगणक निष्णातों, व्यापारियों आदि की है। विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में पढे विद्यार्थी क्या देश नहीं चला सकते ? भारत में तो इतनी बड़ी संख्या में यूरोअमेरिकी विश्वविद्यालयों मे पढे लोग डॉक्टर का या अन्य व्यवसाय करते नहीं दिखाई देते ।
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लोग कहते हैं कि भारत तो गरीब देश है। यहां आकर वे क्या कमाई करेंगे ? तो विचार यह करना है कि क्या डॉक्टर या अध्यापक समाज की सेवा करने के लिये बनना है या केवल कमाई करने के लिये ? अमेरिका तो सब कुछ केवल कमाई करने के लिये कर रहा है। तो वह अपने ही लोगों के स्थान पर विदेशियों को कमाई के अवसर क्यों दे रहा है ? केवल इसलिये कि उसके विश्वविद्यालय जनसंख्या और आवश्यकता के अनुपात में पर्याप्त कुशल डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि निर्माण नहीं कर सकते । ऐसे देश के विश्वविद्यालय यदि विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय हैं तो बात विचार करने योग्य बन जाती है। क्या अमेरिका स्वयं के लिये नहीं अपितु अन्य देशों के लिये ही विश्वविद्यालय चलाता है ? यदि हाँ, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिकी ज्ञानविज्ञान के प्रसार से विश्व का अमेरिकीकरण करना चाहता है।
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लोग कहते हैं कि भारत तो गरीब देश है। यहां आकर वे क्या कमाई करेंगे ? तो विचार यह करना है कि क्या डॉक्टर या अध्यापक समाज की सेवा करने के लिये बनना है या केवल कमाई करने के लिये ? अमेरिका तो सब कुछ केवल कमाई करने के लिये कर रहा है। तो वह अपने ही लोगोंं के स्थान पर विदेशियों को कमाई के अवसर क्यों दे रहा है ? केवल इसलिये कि उसके विश्वविद्यालय जनसंख्या और आवश्यकता के अनुपात में पर्याप्त कुशल डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि निर्माण नहीं कर सकते । ऐसे देश के विश्वविद्यालय यदि विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय हैं तो बात विचार करने योग्य बन जाती है। क्या अमेरिका स्वयं के लिये नहीं अपितु अन्य देशों के लिये ही विश्वविद्यालय चलाता है ? यदि हाँ, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिकी ज्ञानविज्ञान के प्रसार से विश्व का अमेरिकीकरण करना चाहता है।
    
२. ज्ञानविज्ञान के प्रसार के माध्यम से विश्व का अमेरिकीकरण करने में भी कोई बुराई नहीं है। श्रेष्ठ ज्ञान का प्रसार होना ही चाहिये । विश्व उससे लाभान्वित होना ही चाहिये । परन्तु कैसा है यह ज्ञानविज्ञान ?
 
२. ज्ञानविज्ञान के प्रसार के माध्यम से विश्व का अमेरिकीकरण करने में भी कोई बुराई नहीं है। श्रेष्ठ ज्ञान का प्रसार होना ही चाहिये । विश्व उससे लाभान्वित होना ही चाहिये । परन्तु कैसा है यह ज्ञानविज्ञान ?
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कर्तव्य और दायित्व के सन्दर्भ में भारत सदा अपना विचार करता है जबकि अधिकार और लाभ के सन्दर्भ में सम्पूर्ण विश्व का | विचार और व्यवहार का यह समायोजन भारत की विशाल बुद्धि और दीर्घदृष्टि का परिचय देता है।<blockquote>मनुस्मृति का यह सन्दर्भ देखने योग्य है, एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।</blockquote><blockquote>स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।</blockquote>अर्थात्
 
कर्तव्य और दायित्व के सन्दर्भ में भारत सदा अपना विचार करता है जबकि अधिकार और लाभ के सन्दर्भ में सम्पूर्ण विश्व का | विचार और व्यवहार का यह समायोजन भारत की विशाल बुद्धि और दीर्घदृष्टि का परिचय देता है।<blockquote>मनुस्मृति का यह सन्दर्भ देखने योग्य है, एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।</blockquote><blockquote>स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।</blockquote>अर्थात्
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इस देश में प्रथम जन्मे हुए लोगों से पृथ्वी के सर्व मनुष्य अपने अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें।
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इस देश में प्रथम जन्मे हुए लोगोंं से पृथ्वी के सर्व मनुष्य अपने अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें।
    
वर्तमान सन्दर्भ में भी भारत को इस कथन को स्मरण में रखते हुए अपनी स्थिति को ठीक करने की आवश्यकता है।  
 
वर्तमान सन्दर्भ में भी भारत को इस कथन को स्मरण में रखते हुए अपनी स्थिति को ठीक करने की आवश्यकता है।  
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# वे ऐसे नहीं होने चाहिये जिससे एक देश को दूसरे देश अथवा देशों को दबाने का अवसर मिल सके।  
 
# वे ऐसे नहीं होने चाहिये जिससे एक देश को दूसरे देश अथवा देशों को दबाने का अवसर मिल सके।  
 
# आन्तर्राष्ट्रीय मानक किसी एक देश द्वारा बनाये गये नहीं अपितु सबने मिलकर बनाये हुए होने चाहिये ।  
 
# आन्तर्राष्ट्रीय मानक किसी एक देश द्वारा बनाये गये नहीं अपितु सबने मिलकर बनाये हुए होने चाहिये ।  
# वे ऐसे लोगों के द्वारा बनने चाहिये जो पूरे विश्व को एक मानते हों और स्वयं निःस्वार्थ हो ।  
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# वे ऐसे लोगोंं के द्वारा बनने चाहिये जो पूरे विश्व को एक मानते हों और स्वयं निःस्वार्थ हो ।  
# विद्वान, बुद्धिमान, हृदयवान, पवित्र और करुणापूर्ण अन्तःकरण से बने मानक ही वैश्विक हो सकते हैं। सत्ता या धन के प्रभाव से दबे हुए लोगों द्वारा बनाये गये नहीं।
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# विद्वान, बुद्धिमान, हृदयवान, पवित्र और करुणापूर्ण अन्तःकरण से बने मानक ही वैश्विक हो सकते हैं। सत्ता या धन के प्रभाव से दबे हुए लोगोंं द्वारा बनाये गये नहीं।
    
=== ७. भारत अपने मानक तैयार करे ===
 
=== ७. भारत अपने मानक तैयार करे ===
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जिस देश की शिक्षा दूसरे राष्ट्रों का अहित करने हेतु अपने राज्य और प्रजा को समर्थ बनाती है उसे श्रेष्ठ तो क्या, सही भी नहीं कहा जा सकता। ऐसे देश की शिक्षा को, शिक्षादर्शन को भारत से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। ऐसे देशों को ही भर्तृहरि ने राक्षस की संज्ञा दी है और गीता ने आसुरी सम्पद् युक्त देशों की । हमें गीता के आधार पर उनका मूल्यांकन करने में संकोच नहीं करना चाहिये । उनकी शिक्षा में और जिस जीवनदृष्टि के आधार पर उनकी शिक्षा का विकास हुआ है उस जीवनदृष्टि में एकसौ अस्सी अंश परिवर्तन करने की आवश्यकता है यह स्पष्टतापूर्वक, आग्रहपूर्वक और दृढतापूर्वक बताना चाहिये।  
 
जिस देश की शिक्षा दूसरे राष्ट्रों का अहित करने हेतु अपने राज्य और प्रजा को समर्थ बनाती है उसे श्रेष्ठ तो क्या, सही भी नहीं कहा जा सकता। ऐसे देश की शिक्षा को, शिक्षादर्शन को भारत से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। ऐसे देशों को ही भर्तृहरि ने राक्षस की संज्ञा दी है और गीता ने आसुरी सम्पद् युक्त देशों की । हमें गीता के आधार पर उनका मूल्यांकन करने में संकोच नहीं करना चाहिये । उनकी शिक्षा में और जिस जीवनदृष्टि के आधार पर उनकी शिक्षा का विकास हुआ है उस जीवनदृष्टि में एकसौ अस्सी अंश परिवर्तन करने की आवश्यकता है यह स्पष्टतापूर्वक, आग्रहपूर्वक और दृढतापूर्वक बताना चाहिये।  
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४. जो शिक्षा चरित्रनिर्माण को विषयों के अध्ययन का आधार नहीं बनाती वह निरर्थक ही नहीं तो अनर्थक है। विश्वविद्यालय भौतिक विज्ञान, तन्त्रज्ञान, खगोल, व्यापार आदि विषयों में सर्वश्रेष्ठ अध्ययन और अनुसन्धान कर रहे हैं परन्तु ऐसे विद्वान लोग व्यक्तिगत रूप से और प्रजा के रूप में पंचमहाभूतों का, प्राणियों का, गरीबों का, खियों का नाश करने वाले हैं, क्षुद्र लालसाओं से ग्रस्त हैं और सर्वसामान्य लोगों के स्वास्थ्य का नाश करनेवाले हैं तो उन विश्वविद्यालयों को श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिये भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे किसी रसायण की खोज हुई जिसका उपयोग कर बने शस्त्र आसपास के दोसो कीलोमीटर के क्षेत्र का वातावरण जहरीला बना देते हैं तो वह अनर्थ है। ऐसे रसायण की खोज हो भी जाय तो उसे दुर्घटना समझकर उसका नाश कर देना चाहिये । ऐसे रसायण की विनाशक शक्ति को ध्यान में रखकर ही खोज करना तो अमानवीय ही है। ऐसे वैज्ञानिक की खोज की, अनुसन्धान की क्षमता की कदर करते हुए भी उसे वैज्ञानिक के रूप में काम करने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिये।
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४. जो शिक्षा चरित्रनिर्माण को विषयों के अध्ययन का आधार नहीं बनाती वह निरर्थक ही नहीं तो अनर्थक है। विश्वविद्यालय भौतिक विज्ञान, तन्त्रज्ञान, खगोल, व्यापार आदि विषयों में सर्वश्रेष्ठ अध्ययन और अनुसन्धान कर रहे हैं परन्तु ऐसे विद्वान लोग व्यक्तिगत रूप से और प्रजा के रूप में पंचमहाभूतों का, प्राणियों का, गरीबों का, खियों का नाश करने वाले हैं, क्षुद्र लालसाओं से ग्रस्त हैं और सर्वसामान्य लोगोंं के स्वास्थ्य का नाश करनेवाले हैं तो उन विश्वविद्यालयों को श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिये भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे किसी रसायण की खोज हुई जिसका उपयोग कर बने शस्त्र आसपास के दोसो कीलोमीटर के क्षेत्र का वातावरण जहरीला बना देते हैं तो वह अनर्थ है। ऐसे रसायण की खोज हो भी जाय तो उसे दुर्घटना समझकर उसका नाश कर देना चाहिये । ऐसे रसायण की विनाशक शक्ति को ध्यान में रखकर ही खोज करना तो अमानवीय ही है। ऐसे वैज्ञानिक की खोज की, अनुसन्धान की क्षमता की कदर करते हुए भी उसे वैज्ञानिक के रूप में काम करने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिये।
    
सामाजिकता और वैज्ञानिकता को एकदसरे से पृथक् रखकर केवल वैज्ञानिकता का समर्थन करना खास पश्चिमी दृष्टि है। एक ही यन्त्र की खोज में विज्ञान की दृष्टि से तो बडी सिद्धि है परन्तु स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये घोर हानि होती है तो उसका किस प्रकार मूल्यांकन करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है।
 
सामाजिकता और वैज्ञानिकता को एकदसरे से पृथक् रखकर केवल वैज्ञानिकता का समर्थन करना खास पश्चिमी दृष्टि है। एक ही यन्त्र की खोज में विज्ञान की दृष्टि से तो बडी सिद्धि है परन्तु स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये घोर हानि होती है तो उसका किस प्रकार मूल्यांकन करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है।

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