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लेख सम्पादित किया
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धर्माचार्य और शिक्षक एकदूसरे का स्थान ले सकते है। हम यह भी कह सकते हैं कि शिक्षाक्षेत्र का सर्वोच्च पद धर्माचार्य का ही होगा  हम धर्म और शिक्षा को अलग कर ही नहीं सकते ।
 
धर्माचार्य और शिक्षक एकदूसरे का स्थान ले सकते है। हम यह भी कह सकते हैं कि शिक्षाक्षेत्र का सर्वोच्च पद धर्माचार्य का ही होगा  हम धर्म और शिक्षा को अलग कर ही नहीं सकते ।
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आज हम क्या करें ?
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==== आज हम क्या करें ? ====
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भारत को यदि धर्मनिष्ठ बनाना है तो हमें धर्माचार्यों की आवश्यकता है । वर्तमान में जो धर्माचार्य के नाम से अपने आपको प्रस्तुत करते हैं उन्हें अपनी भूमिका को अधिक व्यापक बनाने की आवश्यकता है । उदाहरण के लिये वर्तमान में धर्मक्षेत्र - आचरण, पूजा, भक्ति, अध्यात्मचर्चा, योग आदि में सीमित बन गया है । अर्थक्षेत्र, राजनीति का क्षेत्र, शिक्षा क्षेत्र आदि व्यष्टि जीवन और समष्टिजीवन का नियमन करने वाले महत्त्वपूर्ण क्षेत्र धर्म के दायरे से बाहर रह गये हैं । दिखाई तो यह देता है कि ये सारी व्यवस्थायें आज के धर्मक्षेत्र को भी नियन्त्रित कर रही हैं। अथवा कहें कि उन्होंने इन व्यवस्थाओं के साथ अनुकूलन बना लिया है। उदाहरण के लिये अनेक धर्माचार्यों के, मठों के, मन्दिरों के आश्रय में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय चलते हैं, देश से बाहर के शिक्षा बोर्ड के साथ संलग्न भी होते हैं, प्लास्टिक का भरपूर प्रयोग वहाँ होता है और सरकारी नियमों से ही वहाँ शिक्षा होती है । इन विद्यालयों में धर्म सिखाने वाली शिक्षा नहीं होती । धर्माचार्यों के प्रश्नय में निःशुल्क शिक्षा भी चलती है परन्तु वह धर्मादाय है, शिक्षा का सम्मान नहीं है । अर्थक्षेत्र को नियमन में लाना वर्तमान धर्मक्षेत्र के दायरे से बाहर ही रह गया है जबकि भारत की प्रथम आवश्यकता अर्थक्षेत्र के नियमन की है ।
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भारत को यदि धर्मनिष्ठ बनाना है तो हमें धर्माचार्यों की आवश्यकता है । वर्तमान में जो धर्माचार्य के नाम से अपने आपको प्रस्तुत करते हैं उन्हें अपनी भूमिका को अधिक व्यापक बनाने की आवश्यकता है । उदाहरण के
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धर्म जीवनव्यापी है, सृष्टिव्यापी है। आज उसे संकुचित बना दिया गया है । धर्म को सर्वव्यापक बनाने की प्रथम आवश्यकता है। उसे ऐसा बनाने वाले धर्माचार्य की आवश्यकता है ।
लिये. वर्तमान में  धर्मक्षेत्र आचरण, पूजा, भक्ति, अध्यात्मचर्चा, योग आदि में सीमित बन गया है । अर्थक्षेत्र, राजनीति का क्षेत्र, शिक्षा क्षेत्र आदि व्यष्टि जीवन और समश्टिजीवन का नियमन करने वाले महत्त्वपूर्ण क्षेत्र धर्म के दायरे से बाहर रह गये हैं । दिखाई तो यह देता है कि ये सारी व्यवस्थायें आज के धर्मक्षेत्र को भी नियन्त्रित कर रही हैं। अथवा कहें कि उन्होंने इन व्यवस्थाओं के साथ अनुकूलन बना लिया है। उदाहरण के लिये अनेक धर्माचार्यों के, मठों के, मन्दिरों के आश्रय में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय चलते हैं, देश से बाहर के शिक्षा बोर्ड के साथ संलग्न भी होते हैं, प्लास्टीक का भरपूर प्रयोग वहाँ होता है और सरकारी नियमों से ही वहाँ शिक्षा होती है । इन विद्यालयों में धर्म सिखाने वाली शिक्षा नहीं होती । धर्माचार्यों के प्रश्नय में निःशुल्क शिक्षा भी चलती है परन्तु वह धर्मादाय है, शिक्षा का सम्मान नहीं है । अर्थक्षेत्र को नियमन में लाना वर्तमान धर्मक्षेत्र के दायरे से बाहर ही रह गया है जबकि भारत की प्रथम आवश्यकता अर्थक्षेत्र के नियमन की है ।
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धर्म जीवनव्यापी है, सृष्टिव्यापी है। आज उसे संकुचित बना दिया गया है । धर्म को सर्वव्यापक बनाने की
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प्रथम आवश्यकता है । उसे ऐसा बनाने वाले धर्माचार्य की आवश्यकता है ।
      
ऐसे धर्माचार्य कैसे प्राप्त होंगे ?
 
ऐसे धर्माचार्य कैसे प्राप्त होंगे ?
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==== तप के उदाहरण ====
 
==== तप के उदाहरण ====
 
तप कहते ही हमारे सामने अनेक प्राचीन उदाहरण आते हैं ।  
 
तप कहते ही हमारे सामने अनेक प्राचीन उदाहरण आते हैं ।  
* राजा भगीरथने गंगा नदी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिये तप किया |
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* राजा भगीरथ ने गंगा नदी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिये तप किया |
 
* बालक ध्रुव ने अपने पिता का स्नेह प्राप्त करने के लिये तप किया |
 
* बालक ध्रुव ने अपने पिता का स्नेह प्राप्त करने के लिये तप किया |
* अर्जुनने पाशुपतास्त्र प्राप्त करने के लिये तप किया |
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* अर्जुन ने पाशुपतास्त्र प्राप्त करने के लिये तप किया |
 
* पार्वती ने शंकर को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु तप किया ।
 
* पार्वती ने शंकर को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु तप किया ।
* अनेक ऋ्रषिमुनि अपने संकल्प की सिद्धि हेतु तप करते हैं ।
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* अनेक ऋषि मुनि अपने संकल्प की सिद्धि हेतु तप करते हैं ।
* भूगु ने अपने पिता से ब्रह्म क्या है ऐसा पूछा तब पिताने कहा कि तप करो और ब्रह्म को जानो ।
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* भृगु ने अपने पिता से पूछा - ब्रह्म क्या है ? तब पिता ने कहा कि तप करो और ब्रह्म को जानो ।
* विश्वामित्र ने तप किया और राजर्षि से ब्रह्मार्षि है
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* विश्वामित्र ने तप किया और राजर्षि से ब्रह्मार्षि हुए
 
तात्पर्य यह है कि ऐसा कोई काम नहीं है जो तप से सिद्ध नही होता, और ऐसा कोई श्रेष्ठ काम नहीं है जो बिना तप के सिद्ध हो जाता है ।
 
तात्पर्य यह है कि ऐसा कोई काम नहीं है जो तप से सिद्ध नही होता, और ऐसा कोई श्रेष्ठ काम नहीं है जो बिना तप के सिद्ध हो जाता है ।
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तप कहते ही हमारे सामने बालक श्रुव अरप्य में अकेला एक पैर पर खडा हुआ नारायण का जप करता हुआ दिखाई देता है । पार्वती चारों ओर अग्नि है और मध्य
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तप कहते ही हमारे सामने बालक ध्रुव अरण्य में अकेला एक पैर पर खडा हुआ नारायण का जप करता हुआ दिखाई देता है। पार्वती चारों ओर अग्नि है और मध्य में बैठी है और उपर से प्रखर सूर्य तप रहा है ऐसा पंचाग्नि का ताप सहती हुई निराहार, निर्जला रहती हुई दिखाई देती है । अर्जुन, भगीरथ, विश्वामित्र आदि सब इसी प्रकार की घोर तपश्चर्या करते हैं । यह सब सुनकर और सोचकर ऐसा लगता है कि आज तो ऐसा तप सम्भव ही नहीं है। सम्भव है भी तो कोई करने के लिये अपने आपको प्रस्तुत करे यह सम्भव नहीं है।
में बैठी है और उपर से प्रखर सूर्य तप रहा है ऐसा पंचाग़ि का ताप सहती हुई निराहार, निर्जला रहती हुई दिखाई देती है । अर्जुन, भगीरथ, विश्वामित्र आदि सब इसी प्रकार की घोर तपश्चर्या करते हैं ।
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यह सब सुनकर और सोचकर ऐसा लगता है कि आज तो ऐसा तप सम्भव ही नहीं है। सम्भव है भी तो कोई करने के लिये अपने आपको प्रस्तुत करे यह सम्भव नहीं है ।
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परन्तु इस प्रकार तप को आज के समय में असम्भव है ऐसा मानने से या स्वीकार कर लेने से हमारी समस्या दूर होने वाली नहीं है । समस्या तो दूर करनी ही है । अतः तप नहीं हो सकता ऐसा कहने के स्थान पर तप कैसे हो सकता है इसका विचार करना चाहिये ।
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परन्तु इस प्रकार तप आज के समय में असम्भव है, ऐसा मानने से या स्वीकार कर लेने से हमारी समस्या दूर होने वाली नहीं है । समस्या तो दूर करनी ही है । अतः तप नहीं हो सकता ऐसा कहने के स्थान, पर तप कैसे हो सकता है इसका विचार करना चाहिये ।
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खास बात यह है कि यह कलियुग है । कलियुग में मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्ति भी क्षीण हो जाती हैं । कठोर तप करने की शक्ति भी क्षीण हो जाती है । इसलिये हमें लगता है कि सत्ययुग और त्रेतायुग में अनेक लोगोंं ने जो कठोर तप किये थे वैसे तप आज नहीं हो सकते । यह बात ठीक है परन्तु यह बात भी सत्य है कि उस समय जितना कठोर तप करने पर सिद्धि मिलती थी उतना कठोर तप आज कलियुग में नहीं करना पडता है । उससे बहुत कम तप करने पर भी संकल्प की सिद्धि होती है । यह हमारे लिये बहुत बडा आश्वासन है ।
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खास बात यह है कि यह कलियुग है। कलियुग में मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्ति भी क्षीण हो जाती हैं। कठोर तप करने की शक्ति भी क्षीण हो जाती है । इसलिये हमें लगता है कि सत्ययुग और त्रेतायुग में अनेक लोगोंं ने जो कठोर तप किये थे वैसे तप आज नहीं हो सकते । यह बात ठीक है परन्तु यह बात भी सत्य है कि उस समय जितना कठोर तप करने पर सिद्धि मिलती थी उतना कठोर तप आज कलियुग में नहीं करना पडता है । उससे बहुत कम तप करने पर भी संकल्प की सिद्धि होती है। यह हमारे लिये बहुत बडा आश्वासन है ।
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इन बातों को ध्यान में रखकर हमें धर्माचार्यों और
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इन बातों को ध्यान में रखकर हमें धर्माचार्यों और समाज को तप कैसे करना चाहिये इसका विचार करना है ।
समाज को तप कैसे करना चाहिये इसका विचार करना है ।
      
==== धर्माचार्यों के लिये तप ====
 
==== धर्माचार्यों के लिये तप ====

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