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| परन्तु विद्यालयों और विश्वविद्यालयों का पूरा का पूरा समूह अन्य दो संस्थाओं के अधीन है। एक है शासन का प्रशासकीय विभाग और दूसरा है विश्वविद्यालय अनुदान आयोग । अर्थात् शिक्षातंत्र के तीन पक्षों - शैक्षिक, आर्थिक और प्रशासकीय - में प्रशासकीय पक्ष सर्वोपरि है, आर्थिक पक्ष उसके अधीन है और शैक्षिक पक्ष दोनों के अधीन है। | | परन्तु विद्यालयों और विश्वविद्यालयों का पूरा का पूरा समूह अन्य दो संस्थाओं के अधीन है। एक है शासन का प्रशासकीय विभाग और दूसरा है विश्वविद्यालय अनुदान आयोग । अर्थात् शिक्षातंत्र के तीन पक्षों - शैक्षिक, आर्थिक और प्रशासकीय - में प्रशासकीय पक्ष सर्वोपरि है, आर्थिक पक्ष उसके अधीन है और शैक्षिक पक्ष दोनों के अधीन है। |
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− | वास्तव में शिक्षा सबका कल्याण तभी कर सकती है जब वह सत्ता और अर्थ के अधीन न होकर धर्म के अधीन हो। उसे शासन के अधीन कर देने से शासन का भी भला नहीं होता है। परन्तु शिक्षा को धर्म से विमुख कर सत्ता और अर्थ के दायरे में लाने के पीछे पश्चिम की चिन्तन में जडवादी और व्यवहार में साम्राज्यवादी सोच है, जो ब्रिटिश शिक्षातंत्र से हमें विरासत में मिली है और जिसे हमने स्वतंत्रता के पश्चात् भी प्रतिष्ठा का स्थान दिया है । वर्तमान में शासन की मान्यता अनिवार्य बन गई है क्योंकि प्रमाणपत्र, अधिकृतता और अर्थार्जन के अवसर उसीसे उपलब्ध होते हैं। | + | वास्तव में शिक्षा सबका कल्याण तभी कर सकती है जब वह सत्ता और अर्थ के अधीन न होकर धर्म के अधीन हो। उसे शासन के अधीन कर देने से शासन का भी भला नहीं होता है। परन्तु शिक्षा को धर्म से विमुख कर सत्ता और अर्थ के दायरे में लाने के पीछे पश्चिम की चिन्तन में जड़वादी और व्यवहार में साम्राज्यवादी सोच है, जो ब्रिटिश शिक्षातंत्र से हमें विरासत में मिली है और जिसे हमने स्वतंत्रता के पश्चात् भी प्रतिष्ठा का स्थान दिया है । वर्तमान में शासन की मान्यता अनिवार्य बन गई है क्योंकि प्रमाणपत्र, अधिकृतता और अर्थार्जन के अवसर उसीसे उपलब्ध होते हैं। |
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| शासन की मान्यता को नकारना, उसे चुनौती देना, उसे अनिवार्य नहीं मानना आज लगभग सभी को असम्भव लगता है । यह स्थिति अखरना भी बन्द हो गया है । इसके परिणाम स्वरूप शिक्षाविषयक चिन्तन इस स्थिति को स्वीकार कर चलता है। | | शासन की मान्यता को नकारना, उसे चुनौती देना, उसे अनिवार्य नहीं मानना आज लगभग सभी को असम्भव लगता है । यह स्थिति अखरना भी बन्द हो गया है । इसके परिणाम स्वरूप शिक्षाविषयक चिन्तन इस स्थिति को स्वीकार कर चलता है। |
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| ===== '''३. शिक्षा केवल संस्थागत नहीं होती''' ===== | | ===== '''३. शिक्षा केवल संस्थागत नहीं होती''' ===== |
− | शिक्षा को जब हम जीवन्त न मानकर जड़ पदार्थ मानने लगते हैं तब जो समस्यायें निर्माण होती हैं उनमें से एक यह है। शिक्षा सम्पूर्ण जीवन के साथ जुडी हुई है। वह गर्भावस्था में, जन्म के बाद शिशुअवस्था में और बाल, किशोर, तरुण, युवा अवस्थाओं से होते हुए प्रौढावस्था और वृद्धावस्था में भी होती है। विभिन्न अवस्थाओं में उसके कारक तत्त्व, उसके माध्यम, उसके करण और उपकरण, उसके स्थान, उसकी पद्धति और प्रक्रिया अलग अलग होते हैं। शिक्षा के द्वारा व्यक्तित्व विकास होता है उसमें मातापिता, आचार्य, मित्र, समाज, संतमहात्मा, सत्साहित्य आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है । आज हमने शिक्षा को आवश्यकता से अधिक संस्थागत बना दिया है। इस संस्थाकरण - खपीळीींळेपरश्रळरींळेप - से शिक्षा बहुत संकुचित स्वरूप की हो गई है। इससे भी बढकर उसका हानिकारक परिणाम यह है कि विद्यालय नामक संस्था से बाहर शिक्षा होती ही नहीं है, या होती है तो उसकी कोई मान्यता नहीं है। इसलिये प्रारम्भिक नींवरूप, चरित्रनिर्माण की शिक्षा का केन्द्र घर है और प्रथम और द्वितीय गुरु मातापिता हैं इस बात का विस्मरण हो गया है। धर्मगुरु नैतिक नियंत्रण करने वाले नहीं रह गये हैं। इससे संस्कार और संस्कृति की जो हानि हो रही है उसे दूर करने के लिये शिक्षा को Institutionalization से मुक्त कर व्यापक दायरे में ले जाना होगा, उसे घर तक और समाज तक ले जाना होगा । यांत्रिक स्वरूप बदल कर उसे जीवन्त बनाना होगा। | + | शिक्षा को जब हम जीवन्त न मानकर जड़़ पदार्थ मानने लगते हैं तब जो समस्यायें निर्माण होती हैं उनमें से एक यह है। शिक्षा सम्पूर्ण जीवन के साथ जुडी हुई है। वह गर्भावस्था में, जन्म के बाद शिशुअवस्था में और बाल, किशोर, तरुण, युवा अवस्थाओं से होते हुए प्रौढावस्था और वृद्धावस्था में भी होती है। विभिन्न अवस्थाओं में उसके कारक तत्त्व, उसके माध्यम, उसके करण और उपकरण, उसके स्थान, उसकी पद्धति और प्रक्रिया अलग अलग होते हैं। शिक्षा के द्वारा व्यक्तित्व विकास होता है उसमें मातापिता, आचार्य, मित्र, समाज, संतमहात्मा, सत्साहित्य आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है । आज हमने शिक्षा को आवश्यकता से अधिक संस्थागत बना दिया है। इस संस्थाकरण - खपीळीींळेपरश्रळरींळेप - से शिक्षा बहुत संकुचित स्वरूप की हो गई है। इससे भी बढकर उसका हानिकारक परिणाम यह है कि विद्यालय नामक संस्था से बाहर शिक्षा होती ही नहीं है, या होती है तो उसकी कोई मान्यता नहीं है। इसलिये प्रारम्भिक नींवरूप, चरित्रनिर्माण की शिक्षा का केन्द्र घर है और प्रथम और द्वितीय गुरु मातापिता हैं इस बात का विस्मरण हो गया है। धर्मगुरु नैतिक नियंत्रण करने वाले नहीं रह गये हैं। इससे संस्कार और संस्कृति की जो हानि हो रही है उसे दूर करने के लिये शिक्षा को Institutionalization से मुक्त कर व्यापक दायरे में ले जाना होगा, उसे घर तक और समाज तक ले जाना होगा । यांत्रिक स्वरूप बदल कर उसे जीवन्त बनाना होगा। |
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| ===== '''४. शिक्षा केवल अर्थार्जन के लिये नहीं होती''' ===== | | ===== '''४. शिक्षा केवल अर्थार्जन के लिये नहीं होती''' ===== |
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| ===== '''२. द्वितीय चरण लोकमतपरिष्कार''' ===== | | ===== '''२. द्वितीय चरण लोकमतपरिष्कार''' ===== |
− | शिक्षा सर्वजनसमाज के लिये होती है। सर्वजनसमाज का प्रबोधन करना, उनकी दृष्टि ठीक करना, उनके व्यवहार और विचार को ठीक करना, सुयोग्य व्यवस्थाओं को उनके मानस में बिठाना यह प्रथम आवश्यकता है। शिक्षा के नये प्रतिमान को समाज की स्वीकृति की अपेक्षा रहेगी। रूढि, मान्यता, गतानुगतिकता, अभिनिवेश, कर्मकाण्ड, अन्धश्रद्धा, जडता, मूढता आदि स्वरूप के अवरोध लोकजीवन में बलवान होते हैं। इन सबको परिष्कृत करना शिक्षा का कार्य है। इसलिये लोकमतपरिष्कार अथवा लोकशिक्षा यह दूसरा चरण होगा। | + | शिक्षा सर्वजनसमाज के लिये होती है। सर्वजनसमाज का प्रबोधन करना, उनकी दृष्टि ठीक करना, उनके व्यवहार और विचार को ठीक करना, सुयोग्य व्यवस्थाओं को उनके मानस में बिठाना यह प्रथम आवश्यकता है। शिक्षा के नये प्रतिमान को समाज की स्वीकृति की अपेक्षा रहेगी। रूढि, मान्यता, गतानुगतिकता, अभिनिवेश, कर्मकाण्ड, अन्धश्रद्धा, जड़ता, मूढता आदि स्वरूप के अवरोध लोकजीवन में बलवान होते हैं। इन सबको परिष्कृत करना शिक्षा का कार्य है। इसलिये लोकमतपरिष्कार अथवा लोकशिक्षा यह दूसरा चरण होगा। |
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| ===== '''३. तीसरा चरण परिवारशिक्षा''' ===== | | ===== '''३. तीसरा चरण परिवारशिक्षा''' ===== |