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===== '''३. साहित्यनिर्माण''' =====
 
===== '''३. साहित्यनिर्माण''' =====
तीसरी आवश्यकता है शिक्षा के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित साहित्य विपुल मात्रा में निर्माण करने की। सर्वजनसमाज को, छोटी आयु के छात्रों को, युवाओं को, शिक्षित लोगों को, विद्वज्जनों को, शोधकार्य करने वालों को, विदेशी विद्वानों को ध्यान में रखकर विविध प्रकार की शैली और भाषा में, विविध स्वरूपों में यह साहित्य तैयार करना होगा। यह कार्य सरल नहीं है परन्तु वर्तमान वैश्विक संकटों और हमारी राष्ट्रीय समस्याओं और आवश्यकताओं को देखते हुए इस विषय को लेना अनिवार्य बन जाता है। समाजप्रबोधन, शिक्षकनिर्माण, छात्रशिक्षा और विद्वतचर्चा सब एकसाथ होना आवश्यक है और इसके लिये साहित्य भी विभिन्न स्वरूप का होना चाहिये।
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तीसरी आवश्यकता है शिक्षा के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित साहित्य विपुल मात्रा में निर्माण करने की। सर्वजनसमाज को, छोटी आयु के छात्रों को, युवाओं को, शिक्षित लोगोंं को, विद्वज्जनों को, शोधकार्य करने वालों को, विदेशी विद्वानों को ध्यान में रखकर विविध प्रकार की शैली और भाषा में, विविध स्वरूपों में यह साहित्य तैयार करना होगा। यह कार्य सरल नहीं है परन्तु वर्तमान वैश्विक संकटों और हमारी राष्ट्रीय समस्याओं और आवश्यकताओं को देखते हुए इस विषय को लेना अनिवार्य बन जाता है। समाजप्रबोधन, शिक्षकनिर्माण, छात्रशिक्षा और विद्वतचर्चा सब एकसाथ होना आवश्यक है और इसके लिये साहित्य भी विभिन्न स्वरूप का होना चाहिये।
    
===== '''४. शिक्षा को पुनर्व्याख्यायित करना''' =====
 
===== '''४. शिक्षा को पुनर्व्याख्यायित करना''' =====
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===== '''२. वैचारिक समानसूत्रता''' =====
 
===== '''२. वैचारिक समानसूत्रता''' =====
जैसे पूर्व में उल्लेख हआ है देशभर में अभी व्यक्तिगत रूप से, स्थानीय स्वरूप के, कहीं कहीं संस्थागत स्वरूप में भी शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयास हो रहे हैं। वे सब ज्ञानात्मक, परिश्रमपूर्ण, सन्निष्ठ और प्रामाणिक हैं। परन्तु उनका प्रयास सम्मिलित और संगठित नहीं होने से उनका प्रभाव शासन पर या शासन द्वारा नियन्त्रित शिक्षाक्षेत्र पर नहीं होता । परिणामतः वे कुछ मात्रा में अच्छी शिक्षा तो देते हैं, कुछ लोगों का भला भी करते हैं परन्तु विदेशी शिक्षातन्त्र का ही उपकार करते हैं और सांस्कृतिक गुलामी की बेडियों को और मजबूत बनाते हैं। अतः इन सभी प्रयासों को एक वैचारिक समान सूत्र में पिरोने की ठोस योजना बननी चाहिये।
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जैसे पूर्व में उल्लेख हआ है देशभर में अभी व्यक्तिगत रूप से, स्थानीय स्वरूप के, कहीं कहीं संस्थागत स्वरूप में भी शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयास हो रहे हैं। वे सब ज्ञानात्मक, परिश्रमपूर्ण, सन्निष्ठ और प्रामाणिक हैं। परन्तु उनका प्रयास सम्मिलित और संगठित नहीं होने से उनका प्रभाव शासन पर या शासन द्वारा नियन्त्रित शिक्षाक्षेत्र पर नहीं होता । परिणामतः वे कुछ मात्रा में अच्छी शिक्षा तो देते हैं, कुछ लोगोंं का भला भी करते हैं परन्तु विदेशी शिक्षातन्त्र का ही उपकार करते हैं और सांस्कृतिक गुलामी की बेडियों को और मजबूत बनाते हैं। अतः इन सभी प्रयासों को एक वैचारिक समान सूत्र में पिरोने की ठोस योजना बननी चाहिये।
    
===== '''३. मुक्त संगठन''' =====
 
===== '''३. मुक्त संगठन''' =====
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===== '''१. प्रथम चरण नैमिषारण्य''' =====
 
===== '''१. प्रथम चरण नैमिषारण्य''' =====
महाभारत के युद्ध में दोनों पक्षों को मिलाकर बहत बडा विनाश हुआ था। सर्वत्र अवसाद था। सर्वत्र अनवस्था थी। जनजीवन उध्वस्त हो गया था। उसी समय युगपरिवर्तन हुआ और कलियुग का प्रारम्भ हुआ। युगपरिवर्तन के प्रभाव से लोगों की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का भी ह्रास हुआ। इस अनवस्था को सुव्यवस्था में बदलने के लिये एक महान प्रयास की आवश्यकता थी। ऐसा महान प्रयास नैमिषारण्य में हुआ। नैमिषारण्य में आचार्य शौनक का गुरुकुल था । वे कुलपति थे। उन्होंने भारतवर्ष के कोने कोने से विद्वज्जनों को आमन्त्रित किया । देशभर से अठासी हजार ऋषि उनके गुरुकुल में आये । कुलपति शौनक के संयोजकत्व में बारह वर्ष तक ज्ञानयज्ञ चला । बारह वर्षों में उन विद्वज्जनों ने समस्या पहचानने का, मूल तत्त्वों को समझने का और व्यावहारिक निराकरण के निरूपण का कार्य किया। बाद में वे देश के कोने कोने में फैल गये और लोगों का प्रबोधन और शिक्षण किया और युग के अनुकूल व्यवस्थायें बनीं।
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महाभारत के युद्ध में दोनों पक्षों को मिलाकर बहत बडा विनाश हुआ था। सर्वत्र अवसाद था। सर्वत्र अनवस्था थी। जनजीवन उध्वस्त हो गया था। उसी समय युगपरिवर्तन हुआ और कलियुग का प्रारम्भ हुआ। युगपरिवर्तन के प्रभाव से लोगोंं की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का भी ह्रास हुआ। इस अनवस्था को सुव्यवस्था में बदलने के लिये एक महान प्रयास की आवश्यकता थी। ऐसा महान प्रयास नैमिषारण्य में हुआ। नैमिषारण्य में आचार्य शौनक का गुरुकुल था । वे कुलपति थे। उन्होंने भारतवर्ष के कोने कोने से विद्वज्जनों को आमन्त्रित किया । देशभर से अठासी हजार ऋषि उनके गुरुकुल में आये । कुलपति शौनक के संयोजकत्व में बारह वर्ष तक ज्ञानयज्ञ चला । बारह वर्षों में उन विद्वज्जनों ने समस्या पहचानने का, मूल तत्त्वों को समझने का और व्यावहारिक निराकरण के निरूपण का कार्य किया। बाद में वे देश के कोने कोने में फैल गये और लोगोंं का प्रबोधन और शिक्षण किया और युग के अनुकूल व्यवस्थायें बनीं।
    
आज भी इस प्रकार से असंख्य विद्वज्जनों को सम्मिलित कर ज्ञानयज्ञ करने की । आवश्यकता है। अध्ययन, चिन्तन, मनन, विमर्श, अनुसन्धान आदि कार्य देशभर में चले ऐसा कोई उपाय करने की आवश्यकता है। परा कोटि के तात्त्विक से लेकर छोटी से छोटी व्यावहारिक बातों तक का विमर्श कर वर्तमान सन्दर्भ में उपयुक्त ऐसा धार्मिक शिक्षा का प्रतिमान तैयार करने की आवश्यकता है। बारह वर्षों का यह प्रथम चरण होगा।
 
आज भी इस प्रकार से असंख्य विद्वज्जनों को सम्मिलित कर ज्ञानयज्ञ करने की । आवश्यकता है। अध्ययन, चिन्तन, मनन, विमर्श, अनुसन्धान आदि कार्य देशभर में चले ऐसा कोई उपाय करने की आवश्यकता है। परा कोटि के तात्त्विक से लेकर छोटी से छोटी व्यावहारिक बातों तक का विमर्श कर वर्तमान सन्दर्भ में उपयुक्त ऐसा धार्मिक शिक्षा का प्रतिमान तैयार करने की आवश्यकता है। बारह वर्षों का यह प्रथम चरण होगा।

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