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अब हम धर्म और रिलिजन या मजहब इन शब्दों के वास्तविक अर्थ जानने का प्रयास करेंगे।
 
अब हम धर्म और रिलिजन या मजहब इन शब्दों के वास्तविक अर्थ जानने का प्रयास करेंगे।
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हिन्दुस्तान को किराने की दूकान की उपमा दी जाती है। किराने की दुकान में चीनी, दाल, आटा, तेल, मसाले ऐसे भिन्न भिन्न सैंकड़ों पदार्थ होते हैं लेकिन किराना नाम का कोई पदार्थ नहीं होता है। इसी तरह से हिन्दुस्तान में शैव हैं, बौद्ध हैं, वैष्णव हैं, गाणपत्य हैं, लिंगायत हैं, जैन हैं, सिख हैं, ईसाई हैं, मुस्लिम हैं लेकिन हिन्दू नहीं है। जब संविधान बन रहा था, तब हिन्दू कोड बिल की चर्चा के समय कई पंथों, सम्प्रदायों के लोगों ने माँग की थी कि वे हिन्दू नहीं हैं। उन पर हिन्दू कोड बिल लागू न किया जाए। इसपर काफी बहस हुई थी। अंत में हिन्दू कौन है इसकी स्पष्टता की गयी थी। इस के अनुसार जो पारसी, यहूदी, ईसाई या मुसलमान नहीं है वे सब हिन्दू हैं ऐसा स्पष्ट किया गया था। और सब मान गए थे। इस के लिए हिन्दू में कौन कौन से मत, पंथ या सम्प्रदायों का समावेश होता है इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं समझी गयी थी।  
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हिन्दुस्तान को किराने की दूकान की उपमा दी जाती है। किराने की दुकान में चीनी, दाल, आटा, तेल, मसाले ऐसे भिन्न भिन्न सैंकड़ों पदार्थ होते हैं लेकिन किराना नाम का कोई पदार्थ नहीं होता है। इसी तरह से हिन्दुस्तान में शैव हैं, बौद्ध हैं, वैष्णव हैं, गाणपत्य हैं, लिंगायत हैं, जैन हैं, सिख हैं, ईसाई हैं, मुस्लिम हैं लेकिन हिन्दू नहीं है। जब संविधान बन रहा था, तब हिन्दू कोड बिल की चर्चा के समय कई पंथों, सम्प्रदायों के लोगोंं ने माँग की थी कि वे हिन्दू नहीं हैं। उन पर हिन्दू कोड बिल लागू न किया जाए। इसपर काफी बहस हुई थी। अंत में हिन्दू कौन है इसकी स्पष्टता की गयी थी। इस के अनुसार जो पारसी, यहूदी, ईसाई या मुसलमान नहीं है वे सब हिन्दू हैं ऐसा स्पष्ट किया गया था। और सब मान गए थे। इस के लिए हिन्दू में कौन कौन से मत, पंथ या सम्प्रदायों का समावेश होता है इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं समझी गयी थी।  
    
इससे प्रश्न यह उठता है कि हिन्दू क्या है? पारसी, यहूदी, ईसाई या मुसलमान जिनके नाम लेकर कहा गया था कि इन्हें छोड़कर जो भी हैं वे सब हिन्दू हैं, वे क्या हैं? और शैव, बौद्ध, वैष्णव, गाणपत्य, लिंगायत, जैन, सिख आदि जिन के नाम न लेकर भी जिनका समावेश हिन्दू समाज में किया गया वे क्या हैं?<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ४, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
 
इससे प्रश्न यह उठता है कि हिन्दू क्या है? पारसी, यहूदी, ईसाई या मुसलमान जिनके नाम लेकर कहा गया था कि इन्हें छोड़कर जो भी हैं वे सब हिन्दू हैं, वे क्या हैं? और शैव, बौद्ध, वैष्णव, गाणपत्य, लिंगायत, जैन, सिख आदि जिन के नाम न लेकर भी जिनका समावेश हिन्दू समाज में किया गया वे क्या हैं?<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ४, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
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== धर्म, रिलिजन, मजहब तथा संप्रदाय - एक विवेचना ==
 
== धर्म, रिलिजन, मजहब तथा संप्रदाय - एक विवेचना ==
धर्म और रिलिजन, मजहब तथा संप्रदाय इन शब्दों के अर्थ समझना आवश्यक है। धर्म बुद्धि पर आधारित श्रद्धा है। जबकि रिलिजन, मजहब, मत, पंथ या सम्प्रदाय की सभी अनिवार्य बातें बुद्धियुक्त ही हों यह आवश्यक नहीं होता। धर्म यह पूरी मानवता के हित की संकल्पना है। धर्म मानवता व्यापी है। रिलिजन, मजहब, मत, पन्थ या संप्रदाय उस रिलिजन, मजहब, मत, पंथ या संप्रदाय के लोगों को अन्य मानव समाज से अलग करने वाली संकल्पनाएँ हैं।
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धर्म और रिलिजन, मजहब तथा संप्रदाय इन शब्दों के अर्थ समझना आवश्यक है। धर्म बुद्धि पर आधारित श्रद्धा है। जबकि रिलिजन, मजहब, मत, पंथ या सम्प्रदाय की सभी अनिवार्य बातें बुद्धियुक्त ही हों यह आवश्यक नहीं होता। धर्म यह पूरी मानवता के हित की संकल्पना है। धर्म मानवता व्यापी है। रिलिजन, मजहब, मत, पन्थ या संप्रदाय उस रिलिजन, मजहब, मत, पंथ या संप्रदाय के लोगोंं को अन्य मानव समाज से अलग करने वाली संकल्पनाएँ हैं।
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रिलिजन, मजहब या संप्रदायों का एक प्रेषित होता है। यह प्रेषित भी बुध्दिमान और दूरगामी तथा लोगों की नस जाननेवाला होता है। किन्तु वह भी मनुष्य ही होता है। उस की बुद्धि की सीमाएँ होतीं हैं। धर्म तो विश्व व्यवस्था के नियमों का ही नाम है। धर्म का कोई एक प्रेषित नहीं होता। धर्म यह प्रेषितों जैसे ही, लेकिन जिन्हे आत्मबोध हुवा है ऐसे कई श्रेष्ठ विद्वानों की सामुहिक अनुभव और अनुभूति की उपज होता है।
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रिलिजन, मजहब या संप्रदायों का एक प्रेषित होता है। यह प्रेषित भी बुध्दिमान और दूरगामी तथा लोगोंं की नस जाननेवाला होता है। किन्तु वह भी मनुष्य ही होता है। उस की बुद्धि की सीमाएँ होतीं हैं। धर्म तो विश्व व्यवस्था के नियमों का ही नाम है। धर्म का कोई एक प्रेषित नहीं होता। धर्म यह प्रेषितों जैसे ही, लेकिन जिन्हे आत्मबोध हुवा है ऐसे कई श्रेष्ठ विद्वानों की सामुहिक अनुभव और अनुभूति की उपज होता है।
    
रिलिजन, मजहब या संप्रदाय यह पुस्तकबध्द होते हैं। इन की एक पुस्तक होती है। जैसे पारसियों की झेंद अवेस्ता, यहुदियों की ओल्ड टेस्टामेंट, ईसाईयों की बायबल, मुसलमानों का कुरआन और कम्यूनिस्टों का जर्मन भाषा में ‘दास कॅपिटल’ (अन्ग्रेजी में द कॅपिटल) आदि । रिलिजन, मजहब या संप्रदाय यह पुस्तकबध्द होने के कारण अपरिवर्तनीय होते हैं। इन में लचीलापन नहीं होता। आग्रह से आगे दुराग्रह की सीमा तक यह जाते हैं।
 
रिलिजन, मजहब या संप्रदाय यह पुस्तकबध्द होते हैं। इन की एक पुस्तक होती है। जैसे पारसियों की झेंद अवेस्ता, यहुदियों की ओल्ड टेस्टामेंट, ईसाईयों की बायबल, मुसलमानों का कुरआन और कम्यूनिस्टों का जर्मन भाषा में ‘दास कॅपिटल’ (अन्ग्रेजी में द कॅपिटल) आदि । रिलिजन, मजहब या संप्रदाय यह पुस्तकबध्द होने के कारण अपरिवर्तनीय होते हैं। इन में लचीलापन नहीं होता। आग्रह से आगे दुराग्रह की सीमा तक यह जाते हैं।
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धार्मिक (धार्मिक) सम्प्रदाय सामान्यत: वेद को माननेवाले ही हैं। भारत के हजारों वर्षों के इतिहास में कई ऐसे राजा थे जो किसी सम्प्रदाय को मानते थे। किन्तु एक बौद्ध मत को माननेवाले सम्राट अशोक को छोड़ दें तो उन्होंने कभी भी अपनी प्रजा में सम्प्रदाय के आधार पर किसी को प्रताड़ित नहीं किया। उनके साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया। हिन्दूओं की मान्यता है – एकं सत् विप्र: बहुधा वदन्ति ।   
 
धार्मिक (धार्मिक) सम्प्रदाय सामान्यत: वेद को माननेवाले ही हैं। भारत के हजारों वर्षों के इतिहास में कई ऐसे राजा थे जो किसी सम्प्रदाय को मानते थे। किन्तु एक बौद्ध मत को माननेवाले सम्राट अशोक को छोड़ दें तो उन्होंने कभी भी अपनी प्रजा में सम्प्रदाय के आधार पर किसी को प्रताड़ित नहीं किया। उनके साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया। हिन्दूओं की मान्यता है – एकं सत् विप्र: बहुधा वदन्ति ।   
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सम्प्रदायों के विस्तार का प्रारम्भ बौद्ध मत से आरम्भ हुआ। बौध सम्प्रदाय यह भारत का पहला प्रचारक सम्प्रदाय था। भिन्न विचार तो लोगों के हुआ करते थे। कम अधिक संख्या में उनके अनुयायी भी हुआ करते थे। लेकिन प्रचार के माध्यम से अपने सम्प्रदाय को माननेवालों की संख्या बढाने के प्रयास नहीं होते थे।   
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सम्प्रदायों के विस्तार का प्रारम्भ बौद्ध मत से आरम्भ हुआ। बौध सम्प्रदाय यह भारत का पहला प्रचारक सम्प्रदाय था। भिन्न विचार तो लोगोंं के हुआ करते थे। कम अधिक संख्या में उनके अनुयायी भी हुआ करते थे। लेकिन प्रचार के माध्यम से अपने सम्प्रदाय को माननेवालों की संख्या बढाने के प्रयास नहीं होते थे।   
    
भारत में भी कई मत, पंथ या संप्रदाय हैं। किन्तु सामान्यत: वे असहिष्णू नहीं हैं। इन संप्रदायों ने अपने संप्रदायों के प्रचार प्रसार के लिये सामान्यत: हिंसा का मार्ग नहीं अपनाया। हिन्दू समाज ने कभी भी छल, बल, कपट का उपयोग संख्या बढाने के लिए नहीं किया है। ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ याने पूरे विश्व को आर्य बनाने की अभिलाषा तो हिन्दुओं की भी है। आर्य का सरल अर्थ है ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ (चराचर - सब सुखी हों) में विश्वास रखने वाला और वैसा व्यवहार करनेवाला। लेकिन इस के तरीके के रूप में हिन्दुओं का विश्वास छल, बल, कपट पर नहीं है।   
 
भारत में भी कई मत, पंथ या संप्रदाय हैं। किन्तु सामान्यत: वे असहिष्णू नहीं हैं। इन संप्रदायों ने अपने संप्रदायों के प्रचार प्रसार के लिये सामान्यत: हिंसा का मार्ग नहीं अपनाया। हिन्दू समाज ने कभी भी छल, बल, कपट का उपयोग संख्या बढाने के लिए नहीं किया है। ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ याने पूरे विश्व को आर्य बनाने की अभिलाषा तो हिन्दुओं की भी है। आर्य का सरल अर्थ है ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ (चराचर - सब सुखी हों) में विश्वास रखने वाला और वैसा व्यवहार करनेवाला। लेकिन इस के तरीके के रूप में हिन्दुओं का विश्वास छल, बल, कपट पर नहीं है।   
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उनका विश्वास है ‘स्वं स्वं चरित्रम् शिक्षेरन्’ पर। स्वं स्वं चरित्रम् शिक्षेरन् का अर्थ है अपने श्रेष्ठ व्यवहार से लोगों को इतना प्रभावित करना कि उन्हें लगने लगे कि हिन्दू बनाना गौरव की बात है। हिन्दुओं की समूचे विश्व को आर्य बनाने की आकांक्षा बुद्धियुक्त भी है। यदि केवल हम ही सर्वे भवन्तु सुखिन: में विश्वास रखेंगे और विश्व के अन्य समाज बर्बर और आक्रामक बने रहेंगे तो वे हमें भी सुख से जीने नहीं देंगे। इतिहास बताता है कि कृण्वन्तो विश्वमार्यम् की आकांक्षा हिन्दू समाज में जब तक रही, उस दृष्टि से आर्यत्व के विस्तार के प्रयास होते रहे तब तक भारतभूमि पर कोई आक्रमण नहीं हुए। लेकिन यह आकांक्षा जैसे ही कम हुई या नष्ट हुई भारतभूमि पर बर्बर समाजों ने आक्रमण आरम्भ कर दिए।  
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उनका विश्वास है ‘स्वं स्वं चरित्रम् शिक्षेरन्’ पर। स्वं स्वं चरित्रम् शिक्षेरन् का अर्थ है अपने श्रेष्ठ व्यवहार से लोगोंं को इतना प्रभावित करना कि उन्हें लगने लगे कि हिन्दू बनाना गौरव की बात है। हिन्दुओं की समूचे विश्व को आर्य बनाने की आकांक्षा बुद्धियुक्त भी है। यदि केवल हम ही सर्वे भवन्तु सुखिन: में विश्वास रखेंगे और विश्व के अन्य समाज बर्बर और आक्रामक बने रहेंगे तो वे हमें भी सुख से जीने नहीं देंगे। इतिहास बताता है कि कृण्वन्तो विश्वमार्यम् की आकांक्षा हिन्दू समाज में जब तक रही, उस दृष्टि से आर्यत्व के विस्तार के प्रयास होते रहे तब तक भारतभूमि पर कोई आक्रमण नहीं हुए। लेकिन यह आकांक्षा जैसे ही कम हुई या नष्ट हुई भारतभूमि पर बर्बर समाजों ने आक्रमण आरम्भ कर दिए।  
    
हमारे राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम ने एक बार युवकों से प्रश्न पूछा था कि विचार करिए कि हमारे पूर्वजों ने (हिन्दुओं ने) कभी अन्य समाजों पर आक्रमण क्यों नहीं किये? यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि विश्व में जो भी समाज बलवान बने उन्होंने अन्यों पर आक्रमण किये। केवल हिन्दू ही इसके लिए अपवाद है। अब्दुल कलामजी के कहने का तात्पर्य शायद इस सत्य को स्पष्ट करने से रहा होगा कि जो बर्बर, दुष्ट, स्वार्थी, पापी होते हैं वही अन्यों पर आक्रमण करते हैं। सदाचारी एकात्मतावादी कभी किसीपर आक्रमण नहीं करते। यही हमारी परम्परा है। फिर भी यदि कृण्वन्तो विश्वमार्यम् यह हमारा प्रकृति प्रदत्त कर्तव्य है तो यह हम कैसे निभा सकेंगे। इन में तो विरोधाभास दिखाई देता है।
 
हमारे राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम ने एक बार युवकों से प्रश्न पूछा था कि विचार करिए कि हमारे पूर्वजों ने (हिन्दुओं ने) कभी अन्य समाजों पर आक्रमण क्यों नहीं किये? यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि विश्व में जो भी समाज बलवान बने उन्होंने अन्यों पर आक्रमण किये। केवल हिन्दू ही इसके लिए अपवाद है। अब्दुल कलामजी के कहने का तात्पर्य शायद इस सत्य को स्पष्ट करने से रहा होगा कि जो बर्बर, दुष्ट, स्वार्थी, पापी होते हैं वही अन्यों पर आक्रमण करते हैं। सदाचारी एकात्मतावादी कभी किसीपर आक्रमण नहीं करते। यही हमारी परम्परा है। फिर भी यदि कृण्वन्तो विश्वमार्यम् यह हमारा प्रकृति प्रदत्त कर्तव्य है तो यह हम कैसे निभा सकेंगे। इन में तो विरोधाभास दिखाई देता है।
 
इसका उत्तर हमें हमारे पूर्वजों के व्यवहार और भारत के इतिहास में मिलता है।   
 
इसका उत्तर हमें हमारे पूर्वजों के व्यवहार और भारत के इतिहास में मिलता है।   
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कहा है<ref>मनुस्मृति </ref>: <blockquote>एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मना: ।</blockquote><blockquote>स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्या सर्व मानवा: ।।</blockquote>अर्थ : इस देश के सपूत ऐसे होंगे जो अपने श्रेष्ठतम व्यवहार से विश्व के लोगों के दिल जीत लेंगे। सम्पूर्ण मानव जाति के सामने अपने त्याग-तपोमय, पौरुषमय श्रेष्ठ जीवन से ऐसे आदर्श निर्माण करेंगे कि लोग सहज ही उनका अनुसरण करेंगे।   
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कहा है<ref>मनुस्मृति </ref>: <blockquote>एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मना: ।</blockquote><blockquote>स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्या सर्व मानवा: ।।</blockquote>अर्थ : इस देश के सपूत ऐसे होंगे जो अपने श्रेष्ठतम व्यवहार से विश्व के लोगोंं के दिल जीत लेंगे। सम्पूर्ण मानव जाति के सामने अपने त्याग-तपोमय, पौरुषमय श्रेष्ठ जीवन से ऐसे आदर्श निर्माण करेंगे कि लोग सहज ही उनका अनुसरण करेंगे।   
    
==References==
 
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