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अति प्राचीन काल से भौतिक शक्ति का केन्द्रीकरण करना, यूरोप की संस्कृति का मुख्य लक्ष्य रहा है। इसी लक्ष्य के आधार पर सदियों से यूरोप की समग्र रचना बनी है। इसी लक्ष्य के आधार पर मनुष्य से व्यवहार करने की पद्धति का निर्माण हुआ है। जिस प्रकार यूरोप अन्य देशों के साथ व्यवहार करता है वैसा ही व्यवहार उसने अपने देश के नागरिकों के साथ भी किया है। इंग्लैंड में तो ऐसा बहुत ही बड़े पैमाने पर हुआ है। ऐसा व्यवहार अमेरिका की खोज या यूरोप समुद्रमार्ग से एशिया के देशो में पहुँचा उससे पूर्व का है। यूरोप तो बहुत ही प्राचीनकाल से स्वतन्त्रता, बंधुता एवं समानता में यकीन करता है यह उन्नीसवीं शताब्दी में रेडिकल एवं लिबरल हलचलों द्वारा पैदा की गई बहुत बड़ी भ्रान्ति है।
 
अति प्राचीन काल से भौतिक शक्ति का केन्द्रीकरण करना, यूरोप की संस्कृति का मुख्य लक्ष्य रहा है। इसी लक्ष्य के आधार पर सदियों से यूरोप की समग्र रचना बनी है। इसी लक्ष्य के आधार पर मनुष्य से व्यवहार करने की पद्धति का निर्माण हुआ है। जिस प्रकार यूरोप अन्य देशों के साथ व्यवहार करता है वैसा ही व्यवहार उसने अपने देश के नागरिकों के साथ भी किया है। इंग्लैंड में तो ऐसा बहुत ही बड़े पैमाने पर हुआ है। ऐसा व्यवहार अमेरिका की खोज या यूरोप समुद्रमार्ग से एशिया के देशो में पहुँचा उससे पूर्व का है। यूरोप तो बहुत ही प्राचीनकाल से स्वतन्त्रता, बंधुता एवं समानता में यकीन करता है यह उन्नीसवीं शताब्दी में रेडिकल एवं लिबरल हलचलों द्वारा पैदा की गई बहुत बड़ी भ्रान्ति है।
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इतिहास को देखते हुए ऐसा लगता है कि भिन्न भिन्न सभ्यताँए अपनी समकालीन सभ्यताओं से अलिप्त ही रही हैं। केवल अन्य सभ्यताओं की ही नहीं तो अपनी सभ्यता में भी मनुष्य की तो उन्होंने कभी परवाह ही नहीं की है। सैनिकी विजय के फलस्वरूप या अन्य किसी भी रूप में लोगों को गुलाम बनाने की प्रक्रिया सदा से अस्तित्व में रही है।
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इतिहास को देखते हुए ऐसा लगता है कि भिन्न भिन्न सभ्यताँए अपनी समकालीन सभ्यताओं से अलिप्त ही रही हैं। केवल अन्य सभ्यताओं की ही नहीं तो अपनी सभ्यता में भी मनुष्य की तो उन्होंने कभी परवाह ही नहीं की है। सैनिकी विजय के फलस्वरूप या अन्य किसी भी रूप में लोगोंं को गुलाम बनाने की प्रक्रिया सदा से अस्तित्व में रही है।
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बहुत बड़े पैमाने पर मनुष्य को गुलाम बनाने की प्रवृत्ति यूरोपीय सभ्यता का प्रमुख लक्षण है। बहुत ही विशाल पैमाने पर लोगों को गुलाम बनाया जाता था। सोलहवीं, सत्रहवीं, एवं अठाहरवीं शताब्दी में गुलामों का व्यापार होता था, केवल उसी को याद करना पर्याप्त है। इससे भी पूर्व ग्रीक एवं रोमन साम्राज्य के काल में भी इसी प्रकार होता था यह बात समझने की आवश्यकता है। आफ्रिका से गुलाम के रूप में लाखों लोगों को पकड़कर लाया जाता था। उसे 'शाही व्यापार' की संज्ञा फर्नाड ब्रोडेल ने दी है। प्लेटो ने गुलामों के साथ किए जानेवाले कठोर व्यवहार की निंदा की है, परन्तु एक वर्ग के रूप में गुलामों का तिरस्कार भी किया है, एवं गुलामी की व्यवस्था का उसने स्वीकार भी किया है। एथेन्स सहित समग्र ग्रीस में, लोकतांत्रिक ग्रीस में गुलाम ही शारीरिक या कारीगरी की मजदूरी करते थे।
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बहुत बड़े पैमाने पर मनुष्य को गुलाम बनाने की प्रवृत्ति यूरोपीय सभ्यता का प्रमुख लक्षण है। बहुत ही विशाल पैमाने पर लोगोंं को गुलाम बनाया जाता था। सोलहवीं, सत्रहवीं, एवं अठाहरवीं शताब्दी में गुलामों का व्यापार होता था, केवल उसी को याद करना पर्याप्त है। इससे भी पूर्व ग्रीक एवं रोमन साम्राज्य के काल में भी इसी प्रकार होता था यह बात समझने की आवश्यकता है। आफ्रिका से गुलाम के रूप में लाखों लोगोंं को पकड़कर लाया जाता था। उसे 'शाही व्यापार' की संज्ञा फर्नाड ब्रोडेल ने दी है। प्लेटो ने गुलामों के साथ किए जानेवाले कठोर व्यवहार की निंदा की है, परन्तु एक वर्ग के रूप में गुलामों का तिरस्कार भी किया है, एवं गुलामी की व्यवस्था का उसने स्वीकार भी किया है। एथेन्स सहित समग्र ग्रीस में, लोकतांत्रिक ग्रीस में गुलाम ही शारीरिक या कारीगरी की मजदूरी करते थे।
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समय बीतने पर गुलामी निरस्त हुई एवं उमरावशाही ने उसका स्थान लिया। उमरावशाही की जड़ें अनेक हैं, वे सभी विवाद का विषय भी हैं। इंग्लैंड में तो ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य में नोर्मन विजय के बाद उमरावशाही प्रस्थापित हुई। अन्य देशों में उसके प्रस्थापित होने के अनेक कारण हैं। कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एन्जल्स, एवं अन्यों के मतानुसार टेक्नोलोजी में होनेवाला बड़ा परिवर्तन भी एक कारण है। अब तक गुलामों की जो स्थिति थी वही अब सर्फ एवं विलियन्स के रूप में पहचाने जानेवाले विशाल संख्या के लोगों की थी। जिनकी संपत्ति में वृद्धि हुई उनकी सत्ता में भी वृद्धि हुई। सत्ता एवं संपत्ति ने मिलकर यूरोप में विशाल भवन एवं जहाजों का निर्माण करके और अधिक संपत्ति प्राप्त करने का जतन किया।
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समय बीतने पर गुलामी निरस्त हुई एवं उमरावशाही ने उसका स्थान लिया। उमरावशाही की जड़ें अनेक हैं, वे सभी विवाद का विषय भी हैं। इंग्लैंड में तो ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य में नोर्मन विजय के बाद उमरावशाही प्रस्थापित हुई। अन्य देशों में उसके प्रस्थापित होने के अनेक कारण हैं। कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एन्जल्स, एवं अन्यों के मतानुसार टेक्नोलोजी में होनेवाला बड़ा परिवर्तन भी एक कारण है। अब तक गुलामों की जो स्थिति थी वही अब सर्फ एवं विलियन्स के रूप में पहचाने जानेवाले विशाल संख्या के लोगोंं की थी। जिनकी संपत्ति में वृद्धि हुई उनकी सत्ता में भी वृद्धि हुई। सत्ता एवं संपत्ति ने मिलकर यूरोप में विशाल भवन एवं जहाजों का निर्माण करके और अधिक संपत्ति प्राप्त करने का जतन किया।
    
यूरोप ने विश्वविजय के परिणाम स्वरूप औद्योगिकरण किया। अठारहवीं शताब्दी के अंत में आरम्भ हुआ औद्योगिकरण ऐसे विजय के बिना संभव ही नहीं था। यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि विजय के फलस्वरूप नई खोजें, नई टेक्नोलोजी की आवश्यकता का निर्माण हुआ। जो सदा कहा जाता है कि युद्धों के कारण विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को गति प्राप्त होती है वह यूरोप के अंतिम कुछ शताब्दियों के अनुभवों का ही परिणाम है।
 
यूरोप ने विश्वविजय के परिणाम स्वरूप औद्योगिकरण किया। अठारहवीं शताब्दी के अंत में आरम्भ हुआ औद्योगिकरण ऐसे विजय के बिना संभव ही नहीं था। यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि विजय के फलस्वरूप नई खोजें, नई टेक्नोलोजी की आवश्यकता का निर्माण हुआ। जो सदा कहा जाता है कि युद्धों के कारण विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को गति प्राप्त होती है वह यूरोप के अंतिम कुछ शताब्दियों के अनुभवों का ही परिणाम है।
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पंडित नेहरू समझदार व्यक्ति थे। उनकी देशभक्ति के विषय में सन्देह नहीं किया जा सकता। उन्हें अपने एशियन होने पर गर्व था। उन्हें तीसरे विश्व का नागरिक होने पर भी गर्व था। वे पश्चिम को जानते थे। पाश्चात्य सभ्यता के भयंकर प्रभाव को भी वे जानते थे। फिर भी आधुनिक विज्ञान एवं टेक्नोलोजी की उपजों के प्रति उनका आकर्षण एवं उसकी क्षमता में उनका विश्वास भी अमर्याद थे एवं हम जानते हैं कि इतने मतभेदों के बावजूद भी पंडित नेहरू २४ वर्ष तक महात्मा गाँधी के निकटतम अनुयायी भी थे।
 
पंडित नेहरू समझदार व्यक्ति थे। उनकी देशभक्ति के विषय में सन्देह नहीं किया जा सकता। उन्हें अपने एशियन होने पर गर्व था। उन्हें तीसरे विश्व का नागरिक होने पर भी गर्व था। वे पश्चिम को जानते थे। पाश्चात्य सभ्यता के भयंकर प्रभाव को भी वे जानते थे। फिर भी आधुनिक विज्ञान एवं टेक्नोलोजी की उपजों के प्रति उनका आकर्षण एवं उसकी क्षमता में उनका विश्वास भी अमर्याद थे एवं हम जानते हैं कि इतने मतभेदों के बावजूद भी पंडित नेहरू २४ वर्ष तक महात्मा गाँधी के निकटतम अनुयायी भी थे।
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इस बात से तो सभी सम्मत हैं कि आधुनिक पश्चिमी सभ्यता, उसका राज्यतन्त्र एवं उसके विज्ञान एवं टेक्नोलोजी का गाँधीजी से अधिक कठोर आलोचक और कोई नहीं था। महात्मा गांधी को उनके यूरोप के प्रारम्भिक सम्पर्क के दौरान बेचैन करनेवाला कोई तत्त्व था तो वह था यूरोप, एवं खास कर इंग्लैंड का अपने ही लोगों के साथ किया जानेवाला व्यवहार। इंग्लैंड के शासक जिस तरह से नागरिकों के आत्मगौरव एवं मर्यादा पर आघात करते थे, जिस तरह मनुष्यों को एक व्यवस्था के ढांचे में जकड़ लिया जाता था, उसे देखकर गाँधीजी को अधिक दुःख होता था। अंग्रेज भारत को नुकसान पहुंचा रहे थे इसके दुःख से भी यह दु:ख महत्तर था। देश को होनेवाले नुकसान का तो वे अपनी देशभक्ति से मुकाबला कर सकते थे परन्तु इंग्लैंड के ही लोगों का अपमान तो उनका मानवता के प्रति अपराध था। उसे देखकर ही उन्होंने निश्चय किया कि उनका देश एवं अन्य जो भी कोई उनकी इस भावना से सहमत होगा उनका ऐसी सभ्यता के साथ किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं होगा। परन्तु अपनी यह भावना वे पंडित नेहरू जैसे लोगों में नहीं जगा पाए।
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इस बात से तो सभी सम्मत हैं कि आधुनिक पश्चिमी सभ्यता, उसका राज्यतन्त्र एवं उसके विज्ञान एवं टेक्नोलोजी का गाँधीजी से अधिक कठोर आलोचक और कोई नहीं था। महात्मा गांधी को उनके यूरोप के प्रारम्भिक सम्पर्क के दौरान बेचैन करनेवाला कोई तत्त्व था तो वह था यूरोप, एवं खास कर इंग्लैंड का अपने ही लोगोंं के साथ किया जानेवाला व्यवहार। इंग्लैंड के शासक जिस तरह से नागरिकों के आत्मगौरव एवं मर्यादा पर आघात करते थे, जिस तरह मनुष्यों को एक व्यवस्था के ढांचे में जकड़ लिया जाता था, उसे देखकर गाँधीजी को अधिक दुःख होता था। अंग्रेज भारत को नुकसान पहुंचा रहे थे इसके दुःख से भी यह दु:ख महत्तर था। देश को होनेवाले नुकसान का तो वे अपनी देशभक्ति से मुकाबला कर सकते थे परन्तु इंग्लैंड के ही लोगोंं का अपमान तो उनका मानवता के प्रति अपराध था। उसे देखकर ही उन्होंने निश्चय किया कि उनका देश एवं अन्य जो भी कोई उनकी इस भावना से सहमत होगा उनका ऐसी सभ्यता के साथ किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं होगा। परन्तु अपनी यह भावना वे पंडित नेहरू जैसे लोगोंं में नहीं जगा पाए।
    
स्पष्ट है कि तीसरे विश्व के शासक एवं विद्वान आधुनिक विज्ञान से अभिभूत हो गए हैं,हतप्रभ हो गए हैं। उसकी चमक उनमें आकर्षण पैदा करती है, उसकी शक्ति उन्हें यूरोप के नेताओं एवं उद्योगपतियों का अनुकरण करने के लिए प्रेरित करती है। परन्तु ऐसा मानना कि वे आधुनिक विज्ञान के सभी दावों एवं भ्रमों में भी विश्वास करते हैं उनके साथ अन्याय करना होगा। कदाचित् ४० वर्ष पूर्व उनमें ऐसा विश्वास होगा, परन्तु वर्तमान समय में तो आंतरिक एवं बाह्य कारकों के विरुद्ध उत्पन्न विवशता के कारण एवं स्वंय (अपने) विद्वानों की वैकल्पिक आकर्षक व्यवस्था निर्माण की एवं उसे प्रतिष्ठित करने की अक्षमता के कारण तीसरा विश्व, अपने विद्वान एवं राष्ट्र निर्माताओं सहित आधुनिक विज्ञान एवं तकनीक एवं उससे भी ज्यादा उसके साथ अविनाभाव से संबंधित ढाँचे एवं व्यवस्था के अजगरमुख में धंसता जा रहा है। कम से कम भारत के विषय में तो यह सच ही है।
 
स्पष्ट है कि तीसरे विश्व के शासक एवं विद्वान आधुनिक विज्ञान से अभिभूत हो गए हैं,हतप्रभ हो गए हैं। उसकी चमक उनमें आकर्षण पैदा करती है, उसकी शक्ति उन्हें यूरोप के नेताओं एवं उद्योगपतियों का अनुकरण करने के लिए प्रेरित करती है। परन्तु ऐसा मानना कि वे आधुनिक विज्ञान के सभी दावों एवं भ्रमों में भी विश्वास करते हैं उनके साथ अन्याय करना होगा। कदाचित् ४० वर्ष पूर्व उनमें ऐसा विश्वास होगा, परन्तु वर्तमान समय में तो आंतरिक एवं बाह्य कारकों के विरुद्ध उत्पन्न विवशता के कारण एवं स्वंय (अपने) विद्वानों की वैकल्पिक आकर्षक व्यवस्था निर्माण की एवं उसे प्रतिष्ठित करने की अक्षमता के कारण तीसरा विश्व, अपने विद्वान एवं राष्ट्र निर्माताओं सहित आधुनिक विज्ञान एवं तकनीक एवं उससे भी ज्यादा उसके साथ अविनाभाव से संबंधित ढाँचे एवं व्यवस्था के अजगरमुख में धंसता जा रहा है। कम से कम भारत के विषय में तो यह सच ही है।
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हम आधुनिक विज्ञान के अनिष्टों के विषय में दुःख व्यक्त करते हैं वह आज पश्चिम में उसे लेकर जो प्रश्नचिह्न खड़े हुए हैं उससे सुसंगत होगा, परन्तु जिस प्रकार के प्रश्न उठाए जाते हैं उससे तो आधुनिक विज्ञान अधिक सामर्थ्यवान बनता है। यदि उसके गैरयूरोपीय विकल्पों का निर्माण करना है तो भारत की स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए महात्मा गांधी द्वारा दर्शाए एवं अपनाए गए मार्ग पर चलना होगा।
 
हम आधुनिक विज्ञान के अनिष्टों के विषय में दुःख व्यक्त करते हैं वह आज पश्चिम में उसे लेकर जो प्रश्नचिह्न खड़े हुए हैं उससे सुसंगत होगा, परन्तु जिस प्रकार के प्रश्न उठाए जाते हैं उससे तो आधुनिक विज्ञान अधिक सामर्थ्यवान बनता है। यदि उसके गैरयूरोपीय विकल्पों का निर्माण करना है तो भारत की स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए महात्मा गांधी द्वारा दर्शाए एवं अपनाए गए मार्ग पर चलना होगा।
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तीसरा विश्व आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान के स्थान पर जो विकल्प खोजेगा उसका स्वरूप भिन्न भिन्न प्रदेशों में भिन्न भिन्न होगा। भौगोलिक रूप से तीसरा विश्व बहुत ही विशाल है। उसमें भिन्न भिन्न प्रदेशों की जलवायु, वृक्ष, वनस्पति, एवं लोगों में विविधता बहुत बड़े पैमाने पर है। तीसरे विश्व के लोगों में इतिहास के संदर्भ में तो बहुत बड़ा अंतर एवं विविधता पाई जाती है। इतने अधिक विभिन्नता वाले देशों को एक सूत्र में पिरोनेवाला यदि कोई तथ्य है तो वह यह है कि सभी समान रूप से गत १५०० वर्षों से यूरोपीयन सभ्यता के शिकंजे में जकड़े हुए हैं, परन्तु प्रत्येक देश की इस जकडन की अनुभूति भिन्न है। अलग अलग समय में अलग अलग प्रदेश पर अलग अलग मात्रा में इस जकडन का प्रभाव रहा है। इस विषय में भी सभी देशों में एक समानता है तो वह है सामान्य मनुष्य के आत्मगौरव पर बहुत बड़ा आघात हुआ है, उनके व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से कुछ भी कर सकने के सामर्थ्य को कुचल दिया गया है, उनके पर्यावरण की हानि हुई है, उनका उत्पादन एवं अर्थतन्त्र यूरोप के अधीन हो गया है, उनके विद्वान देश के सामान्य जन से विमुख हो गए हैं एवं बड़ी संख्या में लोग गरीब हो गए हैं। अतः हो सकता है कि इन सभी का समान लक्ष्य यह बने कि किस प्रकार इस अभूतपूर्व अस्वस्थता पर विजय प्राप्त करके खोया हुआ संतुलन तथा गौरव वापस प्राप्त किया जा सके एवं इसके बाद वैविध्य एवं भिन्नता होने के बावजूद एक प्रकार के बंधुत्व की स्थापना की जा सके। यह बंधुत्व तीसरे विश्व के साथ हो और वह और ज्यादा मजबूत भी हो। यद्यपि इस प्रक्रिया का स्वरूप प्रत्येक प्रदेश के लिए अलग अलग होगा। परन्तु उसके नमूने के रूप में किसी एक प्रदेश में, उदाहरण के तौर पर भारत में यह प्रक्रिया कैसी होगी इसके विषय में चर्चा की जा सकती है।
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तीसरा विश्व आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान के स्थान पर जो विकल्प खोजेगा उसका स्वरूप भिन्न भिन्न प्रदेशों में भिन्न भिन्न होगा। भौगोलिक रूप से तीसरा विश्व बहुत ही विशाल है। उसमें भिन्न भिन्न प्रदेशों की जलवायु, वृक्ष, वनस्पति, एवं लोगोंं में विविधता बहुत बड़े पैमाने पर है। तीसरे विश्व के लोगोंं में इतिहास के संदर्भ में तो बहुत बड़ा अंतर एवं विविधता पाई जाती है। इतने अधिक विभिन्नता वाले देशों को एक सूत्र में पिरोनेवाला यदि कोई तथ्य है तो वह यह है कि सभी समान रूप से गत १५०० वर्षों से यूरोपीयन सभ्यता के शिकंजे में जकड़े हुए हैं, परन्तु प्रत्येक देश की इस जकडन की अनुभूति भिन्न है। अलग अलग समय में अलग अलग प्रदेश पर अलग अलग मात्रा में इस जकडन का प्रभाव रहा है। इस विषय में भी सभी देशों में एक समानता है तो वह है सामान्य मनुष्य के आत्मगौरव पर बहुत बड़ा आघात हुआ है, उनके व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से कुछ भी कर सकने के सामर्थ्य को कुचल दिया गया है, उनके पर्यावरण की हानि हुई है, उनका उत्पादन एवं अर्थतन्त्र यूरोप के अधीन हो गया है, उनके विद्वान देश के सामान्य जन से विमुख हो गए हैं एवं बड़ी संख्या में लोग गरीब हो गए हैं। अतः हो सकता है कि इन सभी का समान लक्ष्य यह बने कि किस प्रकार इस अभूतपूर्व अस्वस्थता पर विजय प्राप्त करके खोया हुआ संतुलन तथा गौरव वापस प्राप्त किया जा सके एवं इसके बाद वैविध्य एवं भिन्नता होने के बावजूद एक प्रकार के बंधुत्व की स्थापना की जा सके। यह बंधुत्व तीसरे विश्व के साथ हो और वह और ज्यादा मजबूत भी हो। यद्यपि इस प्रक्रिया का स्वरूप प्रत्येक प्रदेश के लिए अलग अलग होगा। परन्तु उसके नमूने के रूप में किसी एक प्रदेश में, उदाहरण के तौर पर भारत में यह प्रक्रिया कैसी होगी इसके विषय में चर्चा की जा सकती है।
    
यूरोपीय आधिपत्य में आने से पूर्व भारत में बहुत ही समृद्ध कृषि एवं विभिन्न प्रकार के अत्यंत विकसित उद्योगक्षेत्र थे। सन् १८०० तक तो भारत की कृषि उपज उस समय के इंग्लैंड की कृषि उपज से तीन गुना थी। औद्योगिक सामर्थ्य का पता इस बात से चलता है कि उस काल में भारत लगभग १,००,००० टन उत्तम प्रकार के इस्पात का निर्माण करता था।  
 
यूरोपीय आधिपत्य में आने से पूर्व भारत में बहुत ही समृद्ध कृषि एवं विभिन्न प्रकार के अत्यंत विकसित उद्योगक्षेत्र थे। सन् १८०० तक तो भारत की कृषि उपज उस समय के इंग्लैंड की कृषि उपज से तीन गुना थी। औद्योगिक सामर्थ्य का पता इस बात से चलता है कि उस काल में भारत लगभग १,००,००० टन उत्तम प्रकार के इस्पात का निर्माण करता था।  
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सन् १७५० से १८०० तक दक्षिण एवं मध्यभारत लगभग स्वतन्त्र था। हमलों का प्रभाव कुछ कम था। अतः वहां की मौलिकता एवं सत्त्व आज भी पर्याप्त मात्रा में सुस्थिति में लगता है। ये क्षेत्र यूरोपीय शैली एवं रीतिरिवाजों से कम प्रभावित हुए लगते हैं। साथ ही स्वत्व बनाए रखकर यूरोपीय ज्ञान एवं विज्ञान का अपने उद्देश्य के अनुरूप उपयोग भी वे कर सकते हैं।
 
सन् १७५० से १८०० तक दक्षिण एवं मध्यभारत लगभग स्वतन्त्र था। हमलों का प्रभाव कुछ कम था। अतः वहां की मौलिकता एवं सत्त्व आज भी पर्याप्त मात्रा में सुस्थिति में लगता है। ये क्षेत्र यूरोपीय शैली एवं रीतिरिवाजों से कम प्रभावित हुए लगते हैं। साथ ही स्वत्व बनाए रखकर यूरोपीय ज्ञान एवं विज्ञान का अपने उद्देश्य के अनुरूप उपयोग भी वे कर सकते हैं।
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समृद्ध कृषि एवं विशाल औद्योगिक परंपरा के कारण भारत आज भी अपनी अर्थ व्यवस्था अपनी ही पद्धति से समर्थ रूप में कर सकता है। अपनी उत्पादन क्षमता पुनः बढ़ा सकता है। भले ही दो सौ वर्ष अवनति के, विनाश के एवं निराशा के बीते हैं तो भी भारत में पुनः उत्थान की क्षमता है ही। कम से कम दैनन्दिन उपयोग की वस्तुएँ तो विपुल मात्रा में बनाई ही जा सकती हैं। सबसे पहले सामाजिक, पर्यावरणीय एवं तकनीक की दृष्टि से अत्यंत हानिकारक पद्धतियाँ एवं उस से होनेवाला वस्तुओं का उत्पादन सर्वथा बंद कर देना चाहिए। उसी प्रकार बीज, पौधे, एवं अन्य वस्तुएँ, जो भारत पर जबरदस्ती लादी जा रही हैं, उनका भी त्याग करना चाहिए। यह भी पिछले कई दशकों से हो रहा एक प्रकार का आक्रमण ही है। गाँवों एवं शहरों के कस्बों जैसे क्षेत्रों में रहनेवाले लोगों की आवश्यकता के अनुसार वस्तुओं का उत्पादन होना चाहिए, न कि बाजार एवं आन्तरराष्ट्रीय व्यापार की आवश्यकता के अनुसार। इसका अर्थ यह नहीं है कि नगरों एवं महानगरों में रहनेवाले लोगों की आवश्यकताओं की उपेक्षा की जाए, अथवा आंतरराष्ट्रीय व्यापार बंद कर दिया जाए। इसका अर्थ यह है कि हमारी प्राथमिकताओं की पुनर्रचना की जाए। उत्पादन की पद्धति में परिवर्तन के साथ वितरण व्यवस्था में भी परिवर्तन अपेक्षित है। वस्तु का उत्पादन जहाँ होता है उस क्षेत्र का उस वस्तु पर प्रथम अधिकार होना चाहिए। यदि केवल बाजार को ही ध्यान में रखा जाएगा तो वस्तु की हेराफेरी की समस्या निर्माण होगी; दूर तक ले जाना है तो उसका वस्तु की उत्पादन प्रक्रिया पर प्रभाव पड़कर उसका स्वरूप भी बदल जाता है। वस्तु मँहगी होती है एवं जहां उसका उत्पादन होता है वहाँ, एवं जो लोग उसका उत्पादन करते हैं उनके लिए वह वस्तु दुर्लभ बन जाती है। बेची जा सकती हैं ऐसी ही वस्तुओं का उत्पादन होता है, आवश्यक वस्तुओं का नहीं। जहाँ वस्तुओं का उत्पादन नहीं होता है वहाँ या तो उत्पादन होने लगे या उसका कोई बड़ा संग्रह हो जहाँ से उन्हें वे वस्तुएँ मिल सकें। सिद्धांत यह है कि अधिकांश वस्तुओं का उत्पादन एवं उपयोग स्थानीय हो। भारत जैसा घनी आबादीवाला देश अन्न एवं अन्य प्राथमिक आवश्यकता की वस्तुएँ अन्य देशों को मुहैया कराने में असमर्थ है ऐसी कल्पना करना भी हास्यास्पद है। चाय, कपास, कच्चा लोहा, कोयला इत्यादि का निर्यात करना है तो तब विचार करना पडेगा जब वे आवश्यकता से सचमुच अधिक हैं, या इतनी विपुल मात्रा में मिलती हैं कि वे कभी समाप्त नहीं होंगी। उदाहरण के तौर पर पश्चिम यूरोप में वर्तमान समय में डेरी उत्पादनों का निकास हो सकता है क्योंकि यहाँ वे वस्तुएँ वास्तव में आवश्यकता से ज्यादा बनती हैं।
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समृद्ध कृषि एवं विशाल औद्योगिक परंपरा के कारण भारत आज भी अपनी अर्थ व्यवस्था अपनी ही पद्धति से समर्थ रूप में कर सकता है। अपनी उत्पादन क्षमता पुनः बढ़ा सकता है। भले ही दो सौ वर्ष अवनति के, विनाश के एवं निराशा के बीते हैं तो भी भारत में पुनः उत्थान की क्षमता है ही। कम से कम दैनन्दिन उपयोग की वस्तुएँ तो विपुल मात्रा में बनाई ही जा सकती हैं। सबसे पहले सामाजिक, पर्यावरणीय एवं तकनीक की दृष्टि से अत्यंत हानिकारक पद्धतियाँ एवं उस से होनेवाला वस्तुओं का उत्पादन सर्वथा बंद कर देना चाहिए। उसी प्रकार बीज, पौधे, एवं अन्य वस्तुएँ, जो भारत पर जबरदस्ती लादी जा रही हैं, उनका भी त्याग करना चाहिए। यह भी पिछले कई दशकों से हो रहा एक प्रकार का आक्रमण ही है। गाँवों एवं शहरों के कस्बों जैसे क्षेत्रों में रहनेवाले लोगोंं की आवश्यकता के अनुसार वस्तुओं का उत्पादन होना चाहिए, न कि बाजार एवं आन्तरराष्ट्रीय व्यापार की आवश्यकता के अनुसार। इसका अर्थ यह नहीं है कि नगरों एवं महानगरों में रहनेवाले लोगोंं की आवश्यकताओं की उपेक्षा की जाए, अथवा आंतरराष्ट्रीय व्यापार बंद कर दिया जाए। इसका अर्थ यह है कि हमारी प्राथमिकताओं की पुनर्रचना की जाए। उत्पादन की पद्धति में परिवर्तन के साथ वितरण व्यवस्था में भी परिवर्तन अपेक्षित है। वस्तु का उत्पादन जहाँ होता है उस क्षेत्र का उस वस्तु पर प्रथम अधिकार होना चाहिए। यदि केवल बाजार को ही ध्यान में रखा जाएगा तो वस्तु की हेराफेरी की समस्या निर्माण होगी; दूर तक ले जाना है तो उसका वस्तु की उत्पादन प्रक्रिया पर प्रभाव पड़कर उसका स्वरूप भी बदल जाता है। वस्तु मँहगी होती है एवं जहां उसका उत्पादन होता है वहाँ, एवं जो लोग उसका उत्पादन करते हैं उनके लिए वह वस्तु दुर्लभ बन जाती है। बेची जा सकती हैं ऐसी ही वस्तुओं का उत्पादन होता है, आवश्यक वस्तुओं का नहीं। जहाँ वस्तुओं का उत्पादन नहीं होता है वहाँ या तो उत्पादन होने लगे या उसका कोई बड़ा संग्रह हो जहाँ से उन्हें वे वस्तुएँ मिल सकें। सिद्धांत यह है कि अधिकांश वस्तुओं का उत्पादन एवं उपयोग स्थानीय हो। भारत जैसा घनी आबादीवाला देश अन्न एवं अन्य प्राथमिक आवश्यकता की वस्तुएँ अन्य देशों को मुहैया कराने में असमर्थ है ऐसी कल्पना करना भी हास्यास्पद है। चाय, कपास, कच्चा लोहा, कोयला इत्यादि का निर्यात करना है तो तब विचार करना पडेगा जब वे आवश्यकता से सचमुच अधिक हैं, या इतनी विपुल मात्रा में मिलती हैं कि वे कभी समाप्त नहीं होंगी। उदाहरण के तौर पर पश्चिम यूरोप में वर्तमान समय में डेरी उत्पादनों का निकास हो सकता है क्योंकि यहाँ वे वस्तुएँ वास्तव में आवश्यकता से ज्यादा बनती हैं।
    
खाद्य पदार्थ, कपड़ा, आवास एवं सार्वजनिक उपयोग के मकान बनाने के लिए उपयोगी सामग्री, जंगल उत्पादन एवं वनस्पति तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुएँ, जो कि भारत की संस्कृति एवं सभ्यता से स्वाभाविक एवं अटूट संबंध रखती हैं उन का अर्थव्यवहार स्थानीय ही हो यह अत्यंत आवश्यक है। उस कारण से कहीं कहीं यदि उत्पादन की मात्रा कम हो तो भी ऐसा ही करना चाहिए; क्योंकि उससे उत्पादन की गुणवत्ता में वृद्धि होगी, भारत के सदियों से संचित सौंदर्यबोध को नवजीवन मिलेगा और मात्रा कम होने पर भी उसका बहुत बड़ा एवं अच्छा मुआवजा मिलेगा।
 
खाद्य पदार्थ, कपड़ा, आवास एवं सार्वजनिक उपयोग के मकान बनाने के लिए उपयोगी सामग्री, जंगल उत्पादन एवं वनस्पति तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुएँ, जो कि भारत की संस्कृति एवं सभ्यता से स्वाभाविक एवं अटूट संबंध रखती हैं उन का अर्थव्यवहार स्थानीय ही हो यह अत्यंत आवश्यक है। उस कारण से कहीं कहीं यदि उत्पादन की मात्रा कम हो तो भी ऐसा ही करना चाहिए; क्योंकि उससे उत्पादन की गुणवत्ता में वृद्धि होगी, भारत के सदियों से संचित सौंदर्यबोध को नवजीवन मिलेगा और मात्रा कम होने पर भी उसका बहुत बड़ा एवं अच्छा मुआवजा मिलेगा।
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इसी प्रकार परिवर्तन करने पर भी पुरानी पद्धति को पकड़कर रखना आवश्यक नहीं है। पुराने स्वरूप को प्रतिष्ठित करने का अर्थ है उसमें निहित संकल्पना को बनाए रखना, उस समय व्यक्ति एवं समाज का जो आंतरिक सहसंबंध था उसे बनाए रखना, ऐसे उत्पादकों के भिन्न-भिन्न समूहों का आंतरसंबंध बनाए रखना। भारतीय राज्यतन्त्र का मर्म ही यह आंतरसंबंध है। भारत की ढाँचागत एवं संस्थागत रचना का हार्द भी वही था। केवल उच्च वर्ग के लोगों को ही नहीं अपितु भारत के सर्वसामान्य समाज को जो रचना उपयोगी एवं मूल्यवान लगती है उसे यदि पुनः अपनाया जाय, युगानुकूल उसमें सामान्य लोगों की सूझबूझ से ही परिवर्तन किया जाय, एकबार वह रचना प्रस्थापित हो जाए उसके बाद ही अपनी आवश्यकता के अनुसार, अपने स्वयं के स्वतन्त्र निर्णय से हम बाहर से वस्तुएँ आयात करें अथवा यंत्रों का उपयोग करें तो नुकसान नहीं होगा। बाहर से आया हुआ होकायंत्र अथवा मुद्रणालय जिस प्रकार यूरोप के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ था उसी प्रकार हमें भी आयात लाभकारी सिद्ध होगा।
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इसी प्रकार परिवर्तन करने पर भी पुरानी पद्धति को पकड़कर रखना आवश्यक नहीं है। पुराने स्वरूप को प्रतिष्ठित करने का अर्थ है उसमें निहित संकल्पना को बनाए रखना, उस समय व्यक्ति एवं समाज का जो आंतरिक सहसंबंध था उसे बनाए रखना, ऐसे उत्पादकों के भिन्न-भिन्न समूहों का आंतरसंबंध बनाए रखना। भारतीय राज्यतन्त्र का मर्म ही यह आंतरसंबंध है। भारत की ढाँचागत एवं संस्थागत रचना का हार्द भी वही था। केवल उच्च वर्ग के लोगोंं को ही नहीं अपितु भारत के सर्वसामान्य समाज को जो रचना उपयोगी एवं मूल्यवान लगती है उसे यदि पुनः अपनाया जाय, युगानुकूल उसमें सामान्य लोगोंं की सूझबूझ से ही परिवर्तन किया जाय, एकबार वह रचना प्रस्थापित हो जाए उसके बाद ही अपनी आवश्यकता के अनुसार, अपने स्वयं के स्वतन्त्र निर्णय से हम बाहर से वस्तुएँ आयात करें अथवा यंत्रों का उपयोग करें तो नुकसान नहीं होगा। बाहर से आया हुआ होकायंत्र अथवा मुद्रणालय जिस प्रकार यूरोप के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ था उसी प्रकार हमें भी आयात लाभकारी सिद्ध होगा।
    
परन्तु अन्न, वस्त्र, आवास भले ही अनिवार्य हों मनुष्य के लिए इतनी ही बात पर्याप्त नहीं होती। उदाहरण के तौर पर अब तो भारत डेढ़ सौ वर्षों से विशाल रेल व्यवहार से जुड़ा हुआ है, डाक एवं तार की व्यवस्था भी उतनी ही पुरानी है, अब टेलिफोन भी आ गया है, समाचारपत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें भी दैनिक आवश्यकताएँ हैं; रेडियो, दूरदर्शन एवं मोटरें भी सामान्य हो गए हैं, हवाई जहाज भी परिचित है। हवाई जहाज के कारण ही तो असंख्य आंतरराष्ट्रीय परिषद्, परिसंवाद, बैठक, यात्राएँ इत्यादि संभव बनते हैं, दुनिया को चलाने का दावा करनेवाले लोग सरलता से एकदूसरे से मिल सकते हैं एवं मुट्ठीभर लोग दुनिया को मुठ्ठी में बांधे रख सकते हैं एवं पूरा विश्व एक छोटा सा गाँव है ऐसा बोलने का साहस होता है। सैद्धांतिक रूप से कदाचित इस प्रकार का वाहनव्यवहार छोड़कर परंपरागत धीमी गति का वाहनव्यवहार अपनाया जा सकता है। उससे व्यक्ति एवं समाज दोनों का लाभ होगा। परन्तु भले ही भारत के दस से बीस प्रतिशत लोग ही इन सभी सुविधाओं का उपयोग करते हों तो भी वाहनव्यवहार एवं सूचना प्रसारण में इतना जलद परिवर्तन करना संभव नहीं है। यद्यपि इन दोनों व्यवस्थाओं का धार्मिक दृष्टिकोण एवं धार्मिक पार्श्वभूमि में मूल्यांकन होना बहुत ही आवश्यक है। ऐसे मूल्यांकन में व्यावहारिक विकल्प एवं उसके क्रियान्वयन की पद्धति का भी समावेश होना चाहिए।
 
परन्तु अन्न, वस्त्र, आवास भले ही अनिवार्य हों मनुष्य के लिए इतनी ही बात पर्याप्त नहीं होती। उदाहरण के तौर पर अब तो भारत डेढ़ सौ वर्षों से विशाल रेल व्यवहार से जुड़ा हुआ है, डाक एवं तार की व्यवस्था भी उतनी ही पुरानी है, अब टेलिफोन भी आ गया है, समाचारपत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें भी दैनिक आवश्यकताएँ हैं; रेडियो, दूरदर्शन एवं मोटरें भी सामान्य हो गए हैं, हवाई जहाज भी परिचित है। हवाई जहाज के कारण ही तो असंख्य आंतरराष्ट्रीय परिषद्, परिसंवाद, बैठक, यात्राएँ इत्यादि संभव बनते हैं, दुनिया को चलाने का दावा करनेवाले लोग सरलता से एकदूसरे से मिल सकते हैं एवं मुट्ठीभर लोग दुनिया को मुठ्ठी में बांधे रख सकते हैं एवं पूरा विश्व एक छोटा सा गाँव है ऐसा बोलने का साहस होता है। सैद्धांतिक रूप से कदाचित इस प्रकार का वाहनव्यवहार छोड़कर परंपरागत धीमी गति का वाहनव्यवहार अपनाया जा सकता है। उससे व्यक्ति एवं समाज दोनों का लाभ होगा। परन्तु भले ही भारत के दस से बीस प्रतिशत लोग ही इन सभी सुविधाओं का उपयोग करते हों तो भी वाहनव्यवहार एवं सूचना प्रसारण में इतना जलद परिवर्तन करना संभव नहीं है। यद्यपि इन दोनों व्यवस्थाओं का धार्मिक दृष्टिकोण एवं धार्मिक पार्श्वभूमि में मूल्यांकन होना बहुत ही आवश्यक है। ऐसे मूल्यांकन में व्यावहारिक विकल्प एवं उसके क्रियान्वयन की पद्धति का भी समावेश होना चाहिए।
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ऊर्जा के विषय में भी पुर्नविचार की आवश्यकता है। भारत ऊर्जा के क्षेत्र में पशु, कोयला, लकडी एवं लकडी के कोयले जैसी वस्तुओं पर निर्भर है। दिनों दिन ईंधन के लिए ही योग्य लकडी का उपयोग करने के स्थान पर जंगल कटते जा रहे है एवं नीलगिरी जैसे वृक्षों की उपज एवं बुआई बढ़ती जा रही है। देश के ८० से ९० प्रतिशत लोगों को तो ऊर्जा प्राप्त नहीं होती है। उनके लिए सूर्यप्रकाश ही ऊर्जा का स्रोत है। वास्तव में भारत जैसे भरपूर सूर्यप्रकाशवाले देश में ऊर्जा की आवश्यकता कम ही होनी चाहिए, ऊर्जा की अधिक आवश्यकता तो सूर्यप्रकाश के विषय में इतने सद्भागी नहीं है ऐसे देशों को पड़नी चाहिए। परन्तु इतनी बड़ी कृपा का लाभ उठाया जा सके इस प्रकार की लोगों की जीवन शैली एवं स्वाभाविक कुशल रचना भी होनी चाहिए। भारत की जीवनशैली मूलतः ऐसी ही थी, परन्तु अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी से इसमें बहुत विकृति आई है। अब लोगों की जीवनशैली एवं रचना में पुनः परिवर्तन हो तब तक वर्तमान परिस्थिति में भी ऊर्जा का पुनर्वितरण जरुरी है। व्यक्तिगत उपयोग के लिए, बड़े बड़े प्रकल्पों के लिए, योजनाओं के लिए सौर ऊर्जा का अधिक से अधिक उपयोग करने की आवश्यकता है।
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ऊर्जा के विषय में भी पुर्नविचार की आवश्यकता है। भारत ऊर्जा के क्षेत्र में पशु, कोयला, लकडी एवं लकडी के कोयले जैसी वस्तुओं पर निर्भर है। दिनों दिन ईंधन के लिए ही योग्य लकडी का उपयोग करने के स्थान पर जंगल कटते जा रहे है एवं नीलगिरी जैसे वृक्षों की उपज एवं बुआई बढ़ती जा रही है। देश के ८० से ९० प्रतिशत लोगोंं को तो ऊर्जा प्राप्त नहीं होती है। उनके लिए सूर्यप्रकाश ही ऊर्जा का स्रोत है। वास्तव में भारत जैसे भरपूर सूर्यप्रकाशवाले देश में ऊर्जा की आवश्यकता कम ही होनी चाहिए, ऊर्जा की अधिक आवश्यकता तो सूर्यप्रकाश के विषय में इतने सद्भागी नहीं है ऐसे देशों को पड़नी चाहिए। परन्तु इतनी बड़ी कृपा का लाभ उठाया जा सके इस प्रकार की लोगोंं की जीवन शैली एवं स्वाभाविक कुशल रचना भी होनी चाहिए। भारत की जीवनशैली मूलतः ऐसी ही थी, परन्तु अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी से इसमें बहुत विकृति आई है। अब लोगोंं की जीवनशैली एवं रचना में पुनः परिवर्तन हो तब तक वर्तमान परिस्थिति में भी ऊर्जा का पुनर्वितरण जरुरी है। व्यक्तिगत उपयोग के लिए, बड़े बड़े प्रकल्पों के लिए, योजनाओं के लिए सौर ऊर्जा का अधिक से अधिक उपयोग करने की आवश्यकता है।
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जिन जिन क्षेत्रों में तीसरे विश्व के समान भारत को अन्य देशों के व्यवहार को ही केन्द्रस्थान पर रखने की आवश्यकता है वहीं भिन्न रूप से सोचने की भी आवश्यकता है। आज समग्र विश्व में बल का प्रयोग सबसे महत्वपूर्ण कारक माना जाता है। इस विषय में भारत को एक विशेष दृष्टि विकसित करने की आवश्यकता है। महात्मा गांधी ने अहिंसा पर आधारित विश्व रचना की, एवं संयम पर आधारित व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन रचना की बात की थी। विश्व में अनेकानेक लोगों ने इस बात को समझकर अपनाया है।
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जिन जिन क्षेत्रों में तीसरे विश्व के समान भारत को अन्य देशों के व्यवहार को ही केन्द्रस्थान पर रखने की आवश्यकता है वहीं भिन्न रूप से सोचने की भी आवश्यकता है। आज समग्र विश्व में बल का प्रयोग सबसे महत्वपूर्ण कारक माना जाता है। इस विषय में भारत को एक विशेष दृष्टि विकसित करने की आवश्यकता है। महात्मा गांधी ने अहिंसा पर आधारित विश्व रचना की, एवं संयम पर आधारित व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन रचना की बात की थी। विश्व में अनेकानेक लोगोंं ने इस बात को समझकर अपनाया है।
    
आज भी इन्ही सूत्रों को आधार बनाकर आज के संदर्भ में उसके विभिन्न विकल्पों को छाँटकर उसे व्यावहारिक बनाने की आवश्यकता है। इस विषय में भारत पहल कर सकता है एवं रास्ता भी दिखा सकता है, परन्तु ऐसे प्रयास सफल होने तक भारत को स्वाभाविक रूप से ही अपनी सुरक्षा की ओर ध्यान देना ही पड़ेगा। एवं उसके लिए आवश्यक सभी उपायों का भी आयोजन करना पड़ेगा। इस विषय में भारत को आज विश्व में प्रबल भौतिक संसाधन, अनुसंधान, उपकरण एवं उससे प्राप्त होनेवाला सामर्थ्य भी प्राप्त करना पड़ेगा।
 
आज भी इन्ही सूत्रों को आधार बनाकर आज के संदर्भ में उसके विभिन्न विकल्पों को छाँटकर उसे व्यावहारिक बनाने की आवश्यकता है। इस विषय में भारत पहल कर सकता है एवं रास्ता भी दिखा सकता है, परन्तु ऐसे प्रयास सफल होने तक भारत को स्वाभाविक रूप से ही अपनी सुरक्षा की ओर ध्यान देना ही पड़ेगा। एवं उसके लिए आवश्यक सभी उपायों का भी आयोजन करना पड़ेगा। इस विषय में भारत को आज विश्व में प्रबल भौतिक संसाधन, अनुसंधान, उपकरण एवं उससे प्राप्त होनेवाला सामर्थ्य भी प्राप्त करना पड़ेगा।
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अभी तक तो भारत जैसे देशों ने अपने व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक जीवन में आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिक एवं तांत्रिक ज्ञान को दखल देने से रोके रखा है, या बेमन से कुछ कुछ अपनाया है। इसमें असफलता ही प्राप्त हुई है। भारत की मानसिक एवं आध्यात्मिक स्थिति आज उलझ गई है। यूरोप के सैनिकी, राजनैतिक एवं बौद्धिक आक्रमण का यह परिणाम है। इस स्थिति में विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को उचित रूप से अपनाने में असफलता प्राप्त होना स्वाभाविक है। यूरोप का यह आक्रमण इतना प्रबल है कि महात्मा गाँधी के निकटतम अनुयायी एवं उनकी ही प्रेरणा से कार्य करनेवाली सभी संस्थाएँ अपने शत्रु की ही विचारधारा, व्यवहारप्रणाली एवं पद्धतियों का अनुसरण एवं अनुकरण करते हैं। ब्रिटिश राज्यतन्त्र द्वारा निर्मित ढाँचे, नीतिनियम, पद्धति एवं प्रक्रियाओं को उन्होंने अपना लिया है। उन लोगों को होश ही नहीं है कि उद्देश्य चाहे लोगों का भला करने का ही हो परन्तु होता तो नुकसान ही है।
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अभी तक तो भारत जैसे देशों ने अपने व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक जीवन में आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिक एवं तांत्रिक ज्ञान को दखल देने से रोके रखा है, या बेमन से कुछ कुछ अपनाया है। इसमें असफलता ही प्राप्त हुई है। भारत की मानसिक एवं आध्यात्मिक स्थिति आज उलझ गई है। यूरोप के सैनिकी, राजनैतिक एवं बौद्धिक आक्रमण का यह परिणाम है। इस स्थिति में विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को उचित रूप से अपनाने में असफलता प्राप्त होना स्वाभाविक है। यूरोप का यह आक्रमण इतना प्रबल है कि महात्मा गाँधी के निकटतम अनुयायी एवं उनकी ही प्रेरणा से कार्य करनेवाली सभी संस्थाएँ अपने शत्रु की ही विचारधारा, व्यवहारप्रणाली एवं पद्धतियों का अनुसरण एवं अनुकरण करते हैं। ब्रिटिश राज्यतन्त्र द्वारा निर्मित ढाँचे, नीतिनियम, पद्धति एवं प्रक्रियाओं को उन्होंने अपना लिया है। उन लोगोंं को होश ही नहीं है कि उद्देश्य चाहे लोगोंं का भला करने का ही हो परन्तु होता तो नुकसान ही है।
    
उत्पादन के क्षेत्र में महात्मा गांधी ने स्थानीय कच्चा माल एवं उत्पादन केन्द्र, मनुष्य की मेहनत एवं स्वावलंबन को आधारभूत तत्त्व माना था। आज उनकी संस्थाएँ बातें तो इन्हीं सब की करती हैं परन्तु व्यवहार उसके बिलकुल विपरीत करती हैं। इसका उन्हें होश ही नहीं रहा। पश्चिम की निरर्थक एवं बेकार तकनीक को वैकल्पिक रास्ता कहकर उन्होंने अपना लिया है। इस तरह अपने ही समाज से वे अलग हो गए हैं। मूल हथकरघे के स्थान पर कपड़े की मिलों में उपयोग किए जानेवाले कताईयंत्र की छोटी प्रतिकृति जैसे अंबर चरखे का प्रचलन इस विकृति का एक उदाहरण है।
 
उत्पादन के क्षेत्र में महात्मा गांधी ने स्थानीय कच्चा माल एवं उत्पादन केन्द्र, मनुष्य की मेहनत एवं स्वावलंबन को आधारभूत तत्त्व माना था। आज उनकी संस्थाएँ बातें तो इन्हीं सब की करती हैं परन्तु व्यवहार उसके बिलकुल विपरीत करती हैं। इसका उन्हें होश ही नहीं रहा। पश्चिम की निरर्थक एवं बेकार तकनीक को वैकल्पिक रास्ता कहकर उन्होंने अपना लिया है। इस तरह अपने ही समाज से वे अलग हो गए हैं। मूल हथकरघे के स्थान पर कपड़े की मिलों में उपयोग किए जानेवाले कताईयंत्र की छोटी प्रतिकृति जैसे अंबर चरखे का प्रचलन इस विकृति का एक उदाहरण है।

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