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६. इतनी कठोर और अनहोनी तुक्केबाजी का कारण यह है कि आज भारतीय शिक्षा को जो भीषण रोग लग गया है उसका निदान और उपचार कर उसे पूर्ण रूप से रोगमुक्त करने का कार्य या तो चमत्कार से या तो कठोर तपश्चर्या से हो सकता है । चमत्कार देवों का काम है, तपश्चर्या मनुष्यों का । कदाचित चमत्कार तपश्चर्या का ही अनुसरण करते हैं । अतः कठोर तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप ही विद्यालयों में भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हो सकती है ।
 
६. इतनी कठोर और अनहोनी तुक्केबाजी का कारण यह है कि आज भारतीय शिक्षा को जो भीषण रोग लग गया है उसका निदान और उपचार कर उसे पूर्ण रूप से रोगमुक्त करने का कार्य या तो चमत्कार से या तो कठोर तपश्चर्या से हो सकता है । चमत्कार देवों का काम है, तपश्चर्या मनुष्यों का । कदाचित चमत्कार तपश्चर्या का ही अनुसरण करते हैं । अतः कठोर तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप ही विद्यालयों में भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हो सकती है ।
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७. कठोर तपश्चर्या के लिये अग्रसर शिक्षकों को ही होना होगा । शिक्षकों के अलावा और किसीने तपश्चर्या की भी तो उसका परिणाम नहीं होगा । शिक्षकों ने तपश्चर्या की तो और लोगों का साथ मिलेगा और नहीं भी मिला तो भी शिक्षक स्वयं ही सबकुछ कर लेंगे ।
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७. कठोर तपश्चर्या के लिये अग्रसर शिक्षकों को ही होना होगा । शिक्षकों के अलावा और किसीने तपश्चर्या की भी तो उसका परिणाम नहीं होगा । शिक्षकों ने तपश्चर्या की तो और लोगोंं का साथ मिलेगा और नहीं भी मिला तो भी शिक्षक स्वयं ही सबकुछ कर लेंगे ।
    
=== शिक्षा की स्वायत्तता ===
 
=== शिक्षा की स्वायत्तता ===
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का कानून, शिक्षासंस्थाओं की मान्यता का कानून अवरोधक न बने । इस दृष्टि से शिक्षक, उद्योजक, विट्रज्जन, धर्माचार्य आदि सब सरकार के साथ बातचीत करें और सर्व प्रकार से आपसी अनुकूलता बनायें । शिक्षा के हित में सबका योगदान हो यह अपेक्षित है ।
 
का कानून, शिक्षासंस्थाओं की मान्यता का कानून अवरोधक न बने । इस दृष्टि से शिक्षक, उद्योजक, विट्रज्जन, धर्माचार्य आदि सब सरकार के साथ बातचीत करें और सर्व प्रकार से आपसी अनुकूलता बनायें । शिक्षा के हित में सबका योगदान हो यह अपेक्षित है ।
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२४. जनसामान्य के दैनन्दिनिजीवन से सम्बन्धित जितनी भी बातें हैं उन सभी बातों के जानकार लोगों ने उन उन बातों की शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी । उदाहरण के लिये वैद्यों से यह अपेक्षा नहीं है कि वे केवल चिकित्सा ही करें । वे लोगों को स्वास्थ्यरक्षा विषयक शिक्षा दें, जनमानस प्रबोधन करें यह अपेक्षित है। साथ ही मातापिताओं के लिये चलनेवाले विद्यालयों में आहारशास्त्र, आरोग्यशास्त्र, स्वच्छताशास्त्र आदि बातों की भी व्यावहारिक शिक्षा दें । इन्हीं विद्यालयों में शिशुसंगोपन की शिक्षा की भी व्यवस्था हो ।
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२४. जनसामान्य के दैनन्दिनिजीवन से सम्बन्धित जितनी भी बातें हैं उन सभी बातों के जानकार लोगोंं ने उन उन बातों की शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी । उदाहरण के लिये वैद्यों से यह अपेक्षा नहीं है कि वे केवल चिकित्सा ही करें । वे लोगोंं को स्वास्थ्यरक्षा विषयक शिक्षा दें, जनमानस प्रबोधन करें यह अपेक्षित है। साथ ही मातापिताओं के लिये चलनेवाले विद्यालयों में आहारशास्त्र, आरोग्यशास्त्र, स्वच्छताशास्त्र आदि बातों की भी व्यावहारिक शिक्षा दें । इन्हीं विद्यालयों में शिशुसंगोपन की शिक्षा की भी व्यवस्था हो ।
    
२५. व्यवसायों से सम्बन्धित विद्यालयों में व्यवसाय का केन्द्रवर्ती विषय होना स्वाभाविक है परन्तु संस्कृति, समाज, देशदुनिया, धर्म आदि की भी शिक्षा देने का प्रावधान अनिवार्य रूप से होना चाहिये । हमें केवल आर्थिक समाज नहीं बनाना है, सुसंस्कृत और ज्ञानी समाज भी बनाना है ।
 
२५. व्यवसायों से सम्बन्धित विद्यालयों में व्यवसाय का केन्द्रवर्ती विषय होना स्वाभाविक है परन्तु संस्कृति, समाज, देशदुनिया, धर्म आदि की भी शिक्षा देने का प्रावधान अनिवार्य रूप से होना चाहिये । हमें केवल आर्थिक समाज नहीं बनाना है, सुसंस्कृत और ज्ञानी समाज भी बनाना है ।
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५०. शिक्षको को हाथ जोडकर, शीश नवाकर, उनके समक्ष घुटने टेककर, उनका अनुनय विनय कर, उनमें विश्वास जता कर उनके सम्बन्ध में बने सभी कानूनों और नियमों को समाप्त कर, उन्हें wea कर ही उन्हें पढाने वाले शिक्षक बनाया जा सकता है । विद्यालय और नकारात्मक दोनों अर्थों में यह सही है । हमारा विनय जितना सही होगा उतना हमें अधिक संख्या में सही शिक्षक मिलेंगे । जितना नकारात्मक होगा उतने ही गैरशिक्षक मिलेंगे ।
 
५०. शिक्षको को हाथ जोडकर, शीश नवाकर, उनके समक्ष घुटने टेककर, उनका अनुनय विनय कर, उनमें विश्वास जता कर उनके सम्बन्ध में बने सभी कानूनों और नियमों को समाप्त कर, उन्हें wea कर ही उन्हें पढाने वाले शिक्षक बनाया जा सकता है । विद्यालय और नकारात्मक दोनों अर्थों में यह सही है । हमारा विनय जितना सही होगा उतना हमें अधिक संख्या में सही शिक्षक मिलेंगे । जितना नकारात्मक होगा उतने ही गैरशिक्षक मिलेंगे ।
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५१. यह बात तो सही है कि समाज प्रार्थना करता है, विनयशील बनता है तभी सही लोगों के मन में कल्याणकारी शिक्षा देने वाले शिक्षक बनने की प्रेरणा जाग्रत होती है ।
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५१. यह बात तो सही है कि समाज प्रार्थना करता है, विनयशील बनता है तभी सही लोगोंं के मन में कल्याणकारी शिक्षा देने वाले शिक्षक बनने की प्रेरणा जाग्रत होती है ।
    
५२. ऐसे सही शिक्षक जिन विद्यालयों में हैं उन विद्यालयों के लिये विचारणीय और करणीय बातें आगे कही गई हैं। शिक्षक स्वयं भी अनेक बातों की कल्पना कर सकते हैं ।
 
५२. ऐसे सही शिक्षक जिन विद्यालयों में हैं उन विद्यालयों के लिये विचारणीय और करणीय बातें आगे कही गई हैं। शिक्षक स्वयं भी अनेक बातों की कल्पना कर सकते हैं ।
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६५. वर्ष प्रतिवर्ष हम शिकायत ही करते रहते हैं और प्रश्न ही पूछते हैं । प्रश्नों का ही विस्तार होता है । प्रश्न की पाश्चभूमि बताते हैं परन्तु उत्तर नहीं देतें । देते हैं तो वे संदिग्ध ही होते हैं । देश में चल रही विद्वचर्या का यही स्वरूप है ।
 
६५. वर्ष प्रतिवर्ष हम शिकायत ही करते रहते हैं और प्रश्न ही पूछते हैं । प्रश्नों का ही विस्तार होता है । प्रश्न की पाश्चभूमि बताते हैं परन्तु उत्तर नहीं देतें । देते हैं तो वे संदिग्ध ही होते हैं । देश में चल रही विद्वचर्या का यही स्वरूप है ।
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६६. स्पष्ट उत्तर यह है कि शिक्षा में परिवर्तन ही प्रथम होगा, बाद में अन्य व्यवस्थाओं का । कारण भी स्पष्ट है। अन्य व्यवस्थाओं में परिवर्तन करने वाले लोगों को भी शिक्षित और दीक्षित करना पडेगा । यह शिक्षा का ही कार्य है । इसलिये प्रारम्भ शिक्षा से होना व्यावहारिक है ।
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६६. स्पष्ट उत्तर यह है कि शिक्षा में परिवर्तन ही प्रथम होगा, बाद में अन्य व्यवस्थाओं का । कारण भी स्पष्ट है। अन्य व्यवस्थाओं में परिवर्तन करने वाले लोगोंं को भी शिक्षित और दीक्षित करना पडेगा । यह शिक्षा का ही कार्य है । इसलिये प्रारम्भ शिक्षा से होना व्यावहारिक है ।
    
६७. शिक्षा तन्त्र के शैक्षिक पक्ष में क्या होना चाहिये और कैसे होना चाहिये इस सम्बन्ध में विपुल साहित्य और मार्गदर्शन उपलब्ध है । प्राचीनतम काल से अवचिीनतम काल तक का यह मार्गदर्शन है । परन्तु इसका कोई उपयोग नहीं है क्योंकि यान्त्रिक परीक्षा सारे प्रयासों को इस प्रकार जकडती है कि किसी मनीषी की कुछ नहीं चलती ।
 
६७. शिक्षा तन्त्र के शैक्षिक पक्ष में क्या होना चाहिये और कैसे होना चाहिये इस सम्बन्ध में विपुल साहित्य और मार्गदर्शन उपलब्ध है । प्राचीनतम काल से अवचिीनतम काल तक का यह मार्गदर्शन है । परन्तु इसका कोई उपयोग नहीं है क्योंकि यान्त्रिक परीक्षा सारे प्रयासों को इस प्रकार जकडती है कि किसी मनीषी की कुछ नहीं चलती ।

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