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यहाँ भद्र का अर्थ भी ठीक से समझना होगा। भद्र का अर्थ केवल हमारे हित का है ऐसा नहीं वरन सब के हित का जो है वही भद्र ज्ञान है। और यह सब का हित भी केवल वर्तमान से संबंधित या अल्पावधि के लिये नहीं होकर चिरकाल तक सब के हित का होना आवश्यक है। ऐसे ज्ञान को ही भद्र या शुभ ज्ञान कहा जा सकता है।  ऐसा भी हो सकता है की बाहर से आनेवाला ज्ञान सब के हित का ना हो या सब के हित का होनेपर भी चिरंतन हित का ना हो। ऐसी स्थिति में ऐसे ज्ञान को सुधारकर जब तक हम उसे चिरकाल तक सब के हित का नही बना देते उस ज्ञान का उपयोग वर्जित रखें। वह ज्ञान भले ही हमारे हित का हो लेकिन कम से कम उस ज्ञानसे अन्यों का अहित नही होगा यह सुनिश्चित करनेपर ही वह ज्ञान भद्र कहा जा सकेगा।
 
यहाँ भद्र का अर्थ भी ठीक से समझना होगा। भद्र का अर्थ केवल हमारे हित का है ऐसा नहीं वरन सब के हित का जो है वही भद्र ज्ञान है। और यह सब का हित भी केवल वर्तमान से संबंधित या अल्पावधि के लिये नहीं होकर चिरकाल तक सब के हित का होना आवश्यक है। ऐसे ज्ञान को ही भद्र या शुभ ज्ञान कहा जा सकता है।  ऐसा भी हो सकता है की बाहर से आनेवाला ज्ञान सब के हित का ना हो या सब के हित का होनेपर भी चिरंतन हित का ना हो। ऐसी स्थिति में ऐसे ज्ञान को सुधारकर जब तक हम उसे चिरकाल तक सब के हित का नही बना देते उस ज्ञान का उपयोग वर्जित रखें। वह ज्ञान भले ही हमारे हित का हो लेकिन कम से कम उस ज्ञानसे अन्यों का अहित नही होगा यह सुनिश्चित करनेपर ही वह ज्ञान भद्र कहा जा सकेगा।
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भद्र ज्ञान के विषय में एक और पहलू भी विचार करने योग्य है। कोई तंत्रज्ञान कुछ मात्रा में तो लाभदायी है और कुछ मात्रा में हानि करनेवाला है। ऐसे तंत्रज्ञान को वह जब तक सब के हित में काम करनेवाला है उस सीमा तक ही उपयोग में लाना होगा। उस से आगे उस का उपयोग वर्जित करना होगा। उदाहरण: संगणक को लें। एक सीमा तक तो संगणक बहुत ही लाभदायक तंत्रज्ञान है। किंतु वह जब मानव के अहित के लिये उपयोग में लाया जाएगा तब उस का उपयोग वर्जित होगा। जिस व्यक्ति या संस्था के पास यह शुभ ज्ञान का विवेक नहीं है ऐसे लोगों को संगणक के ज्ञान से वंचित रखने में ही सब की भलाई होगी।  
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भद्र ज्ञान के विषय में एक और पहलू भी विचार करने योग्य है। कोई तंत्रज्ञान कुछ मात्रा में तो लाभदायी है और कुछ मात्रा में हानि करनेवाला है। ऐसे तंत्रज्ञान को वह जब तक सब के हित में काम करनेवाला है उस सीमा तक ही उपयोग में लाना होगा। उस से आगे उस का उपयोग वर्जित करना होगा। उदाहरण: संगणक को लें। एक सीमा तक तो संगणक बहुत ही लाभदायक तंत्रज्ञान है। किंतु वह जब मानव के अहित के लिये उपयोग में लाया जाएगा तब उस का उपयोग वर्जित होगा। जिस व्यक्ति या संस्था के पास यह शुभ ज्ञान का विवेक नहीं है ऐसे लोगोंं को संगणक के ज्ञान से वंचित रखने में ही सब की भलाई होगी।  
    
=== आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref> ===
 
=== आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref> ===
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सत्य एक ही है। किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुद्धि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है। इन साधनों के आधार पर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है। ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है  
 
सत्य एक ही है। किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुद्धि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है। इन साधनों के आधार पर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है। ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है  
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भारतीय विचार कहता है, मैं जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है। अन्य लोगों को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है।  भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई। किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया। प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया।  
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भारतीय विचार कहता है, मैं जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है। अन्य लोगोंं को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है।  भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई। किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया। प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया।  
    
भारतीय विचार में अपनी बुद्धि का उपयोग करने को कहा है। आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य कहते हैं{{Citation needed}} कि वेद उपनिषद भी चिल्ला चिल्लाकर कहें की अंगारे से हाथ नही जलेंगे तो भी मै नही मानूंगा, क्योंकि मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भिन्न है।
 
भारतीय विचार में अपनी बुद्धि का उपयोग करने को कहा है। आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य कहते हैं{{Citation needed}} कि वेद उपनिषद भी चिल्ला चिल्लाकर कहें की अंगारे से हाथ नही जलेंगे तो भी मै नही मानूंगा, क्योंकि मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भिन्न है।
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=== पंच ॠण ===
 
=== पंच ॠण ===
ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है। ॠण का अर्थ है कर्जा। किसी द्वारा मेरे ऊपर किये उपकार का बोझ। पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक आदि जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुद्धि का विकास अत्यंत अल्प होता है। इस कारण से इन में ना ही किसी पर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की। इसलिये पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है। मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है। इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है। मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में। अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है। अन्यों की सहायता के बिना वह जी भी नहीं सकता। उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधि बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है। जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का सौभाग्य मिला है। गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगों से कई बातें सीखता है। जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है। माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है। हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है। उपकारों का बोझ बढता जाता है। बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनि या मनुष्य योनि में हीन स्तर को प्राप्त होता है। इन उपकारों को धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने पांच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है। वे निम्न हैं:       
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ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है। ॠण का अर्थ है कर्जा। किसी द्वारा मेरे ऊपर किये उपकार का बोझ। पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक आदि जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुद्धि का विकास अत्यंत अल्प होता है। इस कारण से इन में ना ही किसी पर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की। इसलिये पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है। मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है। इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है। मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में। अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है। अन्यों की सहायता के बिना वह जी भी नहीं सकता। उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधि बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगोंं के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है। जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का सौभाग्य मिला है। गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगोंं से कई बातें सीखता है। जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है। माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है। हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है। उपकारों का बोझ बढता जाता है। बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनि या मनुष्य योनि में हीन स्तर को प्राप्त होता है। इन उपकारों को धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने पांच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है। वे निम्न हैं:       
    
हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम सहायता पाते है। इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है। '''वे हैं भूतॠण, पितृॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण'''।
 
हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम सहायता पाते है। इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है। '''वे हैं भूतॠण, पितृॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण'''।
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==== गुरूॠण / ॠषिॠण ====
 
==== गुरूॠण / ॠषिॠण ====
गुरू या ॠषि का अर्थ है जिन जिन लोगों से हम कुछ भी सीखे है या जिन से हमने ज्ञान प्राप्त किया है वे सब। गर्भ में हमारी जीवात्मा प्रवेश करती है तब से लेकर हमारी मृत्यू तक अन्यों से हम कुछ ना कुछ सीखते ही रहते है। इस अर्थ से ये सब, जिनसे हमने कुछ सीखा होगा हमारे गुरू है। इन के हमारे उपर महति उपकार है।  गुरूॠण से उॠण होने का अर्थ है औरों से प्राप्त ज्ञान को परिष्कृत कर अपने तप-स्वाधाय से उसे बढ़ाकर, अधिक श्रेष्ठ बनाकर अगली पीढ़ी तक पहुँचाना ।   
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गुरू या ॠषि का अर्थ है जिन जिन लोगोंं से हम कुछ भी सीखे है या जिन से हमने ज्ञान प्राप्त किया है वे सब। गर्भ में हमारी जीवात्मा प्रवेश करती है तब से लेकर हमारी मृत्यू तक अन्यों से हम कुछ ना कुछ सीखते ही रहते है। इस अर्थ से ये सब, जिनसे हमने कुछ सीखा होगा हमारे गुरू है। इन के हमारे उपर महति उपकार है।  गुरूॠण से उॠण होने का अर्थ है औरों से प्राप्त ज्ञान को परिष्कृत कर अपने तप-स्वाधाय से उसे बढ़ाकर, अधिक श्रेष्ठ बनाकर अगली पीढ़ी तक पहुँचाना ।   
    
==== समाजॠण / नृॠण ====
 
==== समाजॠण / नृॠण ====
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कर्तव्य और अधिकार यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। सिक्के का एक पक्ष है मेरे कर्तव्य लेकिन दूसरा पक्ष मेरे अधिकार नहीं है। वह है अन्यों के अधिकार। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) विचारों में बल कर्तव्यों की पूर्ति के प्रयासों पर है जबकि अधार्मिक (अभारतीय) यूरो अमरीकी विचार में अधिकारों के लिये प्रयास या संघर्ष पर बल दिया गया है। केवल इतने मात्र से प्रत्यक्ष परिणामों में आकाश-पाताल का अंतर आ जाता है।   
 
कर्तव्य और अधिकार यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। सिक्के का एक पक्ष है मेरे कर्तव्य लेकिन दूसरा पक्ष मेरे अधिकार नहीं है। वह है अन्यों के अधिकार। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) विचारों में बल कर्तव्यों की पूर्ति के प्रयासों पर है जबकि अधार्मिक (अभारतीय) यूरो अमरीकी विचार में अधिकारों के लिये प्रयास या संघर्ष पर बल दिया गया है। केवल इतने मात्र से प्रत्यक्ष परिणामों में आकाश-पाताल का अंतर आ जाता है।   
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वास्तव में मानव का समाज में शोषण हो रहा हो तो मानव के कर्तव्यों पर बल देना चाहिये था। स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता हो तो पुरुषों के स्त्री के प्रति कर्तव्यों पर बल देने की आवश्यकता थी। और बच्चों को यथोचित शिक्षा और सम्हाल नहीं मिलती हो, तो माता-पिता का प्रशिक्षण, आर्थिक दृष्टि से सबलीकरण, समाज में सामाजिक कर्तव्यबोध को जगाने के प्रयास होने चाहिये।  जब कोई व्यक्ति अपने हर प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करता है तो अन्य लोगों के अधिकारों की रक्षा तो अपने आप ही होती है। माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर दें तो बच्चों के अधिकारों के लिये हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।  
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वास्तव में मानव का समाज में शोषण हो रहा हो तो मानव के कर्तव्यों पर बल देना चाहिये था। स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता हो तो पुरुषों के स्त्री के प्रति कर्तव्यों पर बल देने की आवश्यकता थी। और बच्चों को यथोचित शिक्षा और सम्हाल नहीं मिलती हो, तो माता-पिता का प्रशिक्षण, आर्थिक दृष्टि से सबलीकरण, समाज में सामाजिक कर्तव्यबोध को जगाने के प्रयास होने चाहिये।  जब कोई व्यक्ति अपने हर प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करता है तो अन्य लोगोंं के अधिकारों की रक्षा तो अपने आप ही होती है। माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर दें तो बच्चों के अधिकारों के लिये हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।  
    
=== वसुधैव कुटुंबकम् ===
 
=== वसुधैव कुटुंबकम् ===
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==== ग्रामकुल ====
 
==== ग्रामकुल ====
अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ग्रामकुल की रचना भी की थी। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी द्वारा लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की धार्मिक (भारतीय) गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुए थे। इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है। मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे परिवार के सभी लोगों को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्थाएं करता था।   
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अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ग्रामकुल की रचना भी की थी। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी द्वारा लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की धार्मिक (भारतीय) गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुए थे। इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है। मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे परिवार के सभी लोगोंं को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्थाएं करता था।   
    
==== वसुधैव कुटुंबकम् ====
 
==== वसुधैव कुटुंबकम् ====
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# सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाडने की, प्रकृति सुसंगत फिर भी अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन  बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है।      
 
# सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाडने की, प्रकृति सुसंगत फिर भी अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन  बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है।      
 
# आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग मनुष्यों और पशुओं में दोनों में एक जैसे ही होते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं का निर्धारण प्राणिक आवेग करते हैं। लेकिन मनुष्य का मन इच्छाएँ भी करता हैं। प्राणिक आवेगों की तृप्ति की सीमा होती है। लेकिन इच्छाओं की और इस कारण से तृप्ति की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन प्रकृति के संसाधन मर्यादित होते हैं। इस विसंगति को दूर करने का एकमात्र उपाय ‘उपभोग संयम’ ही है। उपभोग संयम की शिक्षा के अभाव में हर नया तन्त्रज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढाकर पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि करता है।      
 
# आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग मनुष्यों और पशुओं में दोनों में एक जैसे ही होते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं का निर्धारण प्राणिक आवेग करते हैं। लेकिन मनुष्य का मन इच्छाएँ भी करता हैं। प्राणिक आवेगों की तृप्ति की सीमा होती है। लेकिन इच्छाओं की और इस कारण से तृप्ति की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन प्रकृति के संसाधन मर्यादित होते हैं। इस विसंगति को दूर करने का एकमात्र उपाय ‘उपभोग संयम’ ही है। उपभोग संयम की शिक्षा के अभाव में हर नया तन्त्रज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढाकर पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि करता है।      
# किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगों की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान  के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है।      
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# किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगोंं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगोंं की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान  के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है।      
 
# वर्तमान में उच्च तन्त्रज्ञान की व्याख्या क्या है? उच्च तन्त्रज्ञान वह है जो पुराने तंत्रज्ञान द्वारा निर्माण हुई किसी समस्या को तो दूर करता है और साथ ही में और नई समस्याएँ निर्माण कर और अधिक महंगे तन्त्रज्ञान की आवश्यकता निर्माण करता है। धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से ऐसे उच्च तन्त्रज्ञान का विकास जो समस्याओं का निर्माण करता है या ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विरोधी है, अमान्य है। जैसे एलोपॅथी की प्रतिजैविक दवाईयाँ पुराने रोगों के जन्तुओं को और साथ ही में मनुष्य के लिये स्वास्थ्योपयोगी जन्तुओं को भी मारकर रोग के जन्तुओं की नई प्रजातियों के निर्माण की संभावनाएँ बढाते हैं। यह ठीक नहीं है।      
 
# वर्तमान में उच्च तन्त्रज्ञान की व्याख्या क्या है? उच्च तन्त्रज्ञान वह है जो पुराने तंत्रज्ञान द्वारा निर्माण हुई किसी समस्या को तो दूर करता है और साथ ही में और नई समस्याएँ निर्माण कर और अधिक महंगे तन्त्रज्ञान की आवश्यकता निर्माण करता है। धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से ऐसे उच्च तन्त्रज्ञान का विकास जो समस्याओं का निर्माण करता है या ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विरोधी है, अमान्य है। जैसे एलोपॅथी की प्रतिजैविक दवाईयाँ पुराने रोगों के जन्तुओं को और साथ ही में मनुष्य के लिये स्वास्थ्योपयोगी जन्तुओं को भी मारकर रोग के जन्तुओं की नई प्रजातियों के निर्माण की संभावनाएँ बढाते हैं। यह ठीक नहीं है।      
 
# कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में सभी मालिक होते हैं। जब की बड़े उद्योगों के लिये बननेवाले तन्त्रज्ञान सब को नौकर बना देते हैं। स्वयंचलितीकरण और विशाल उत्पादन करनेवाले वर्तमान तन्त्रज्ञान विश्वभर में नौकरों की मानसिकतावाले लोग निर्माण कर रहे हैं। इसलिये बड़े उद्योगों के लिये बनाया जानेवाले तन्त्रज्ञान का केवल चराचर के हित की दृष्टि से अनिवार्यता से सुपात्र व्यक्ति को ही अंतरण होना चाहिये। साथ ही में तेजी से कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान का विकास करने की आवश्यकता है।      
 
# कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में सभी मालिक होते हैं। जब की बड़े उद्योगों के लिये बननेवाले तन्त्रज्ञान सब को नौकर बना देते हैं। स्वयंचलितीकरण और विशाल उत्पादन करनेवाले वर्तमान तन्त्रज्ञान विश्वभर में नौकरों की मानसिकतावाले लोग निर्माण कर रहे हैं। इसलिये बड़े उद्योगों के लिये बनाया जानेवाले तन्त्रज्ञान का केवल चराचर के हित की दृष्टि से अनिवार्यता से सुपात्र व्यक्ति को ही अंतरण होना चाहिये। साथ ही में तेजी से कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान का विकास करने की आवश्यकता है।      
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# भिन्नता प्रकृति का स्वभाव ही है। लेकिन तन्त्रज्ञान से उत्पादित विशाल मात्राओं के कारण इस विविधता का नष्ट होते जाना।      
 
# भिन्नता प्रकृति का स्वभाव ही है। लेकिन तन्त्रज्ञान से उत्पादित विशाल मात्राओं के कारण इस विविधता का नष्ट होते जाना।      
 
# मनुष्य की मूलभूत क्षमताओं में वृद्धि या विकास के स्थान पर ह्रास हो रहा है। यंत्रावलंबन बढ रहा है। कौशल नष्ट हो गए हैं या कमजोर हो गए हैं।      
 
# मनुष्य की मूलभूत क्षमताओं में वृद्धि या विकास के स्थान पर ह्रास हो रहा है। यंत्रावलंबन बढ रहा है। कौशल नष्ट हो गए हैं या कमजोर हो गए हैं।      
# पहले स्वचालित यंत्रों से विशाल मात्रा में उत्पादन करना और बाद में उसे अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनबाजी की सहायता से लोगों को लेने के लिये उकसाने के कारण अनावश्यक उपभोग बढता जाता है।  इससे एक ओर तो आदतें बिगडतीं हैं तो दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग होता है। और तीसरा महंगाई भी बढती है।      
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# पहले स्वचालित यंत्रों से विशाल मात्रा में उत्पादन करना और बाद में उसे अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनबाजी की सहायता से लोगोंं को लेने के लिये उकसाने के कारण अनावश्यक उपभोग बढता जाता है।  इससे एक ओर तो आदतें बिगडतीं हैं तो दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग होता है। और तीसरा महंगाई भी बढती है।      
 
# सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाला तन्त्रज्ञान अमान्य है। परस्पर मिलने से, साथ में समय बिताने से, एक दूसरे के सुख दु:ख में सहभागी होने से सामाजिकता में वृद्धि होती है। इनकी संभावनाएँ कम करनेवाले तन्त्रज्ञान अस्वीकार्य हैं। जीवन को अनावश्यक गति देनेवाले, समाज को पगढीला बनाकर संस्कृति को नष्ट करनेवाले तंत्रज्ञानों का सार्वत्रिकीकरण वर्ज्य है।      
 
# सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाला तन्त्रज्ञान अमान्य है। परस्पर मिलने से, साथ में समय बिताने से, एक दूसरे के सुख दु:ख में सहभागी होने से सामाजिकता में वृद्धि होती है। इनकी संभावनाएँ कम करनेवाले तन्त्रज्ञान अस्वीकार्य हैं। जीवन को अनावश्यक गति देनेवाले, समाज को पगढीला बनाकर संस्कृति को नष्ट करनेवाले तंत्रज्ञानों का सार्वत्रिकीकरण वर्ज्य है।      
 
# गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जब मनुष्य का शरीर गतिमान होता है तो उसकी मति मंदगति से चलती है। और जब मनुष्य शांत या मंद गति से जा रहा होता है तब उसकी मति तेज चलती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। वर्तमान तंत्रज्ञान ने जीवन को बेशुमार गति देकर उसे सामान्य मनुष्य के लिये असहनीय बना दिया है। वह आधुनिक तन्त्रज्ञान के साथ समायोजन करने में असमर्थ होने के कारण तन्त्रज्ञान के पीछे छातीफाड़ गति से भी भाग नहीं पा रहा। वह मजबूर है घसीटे जाने के लिये।      
 
# गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जब मनुष्य का शरीर गतिमान होता है तो उसकी मति मंदगति से चलती है। और जब मनुष्य शांत या मंद गति से जा रहा होता है तब उसकी मति तेज चलती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। वर्तमान तंत्रज्ञान ने जीवन को बेशुमार गति देकर उसे सामान्य मनुष्य के लिये असहनीय बना दिया है। वह आधुनिक तन्त्रज्ञान के साथ समायोजन करने में असमर्थ होने के कारण तन्त्रज्ञान के पीछे छातीफाड़ गति से भी भाग नहीं पा रहा। वह मजबूर है घसीटे जाने के लिये।      
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# इसी तरह से नैनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है।      
 
# इसी तरह से नैनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है।      
 
== अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का अधिष्ठान ==
 
== अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का अधिष्ठान ==
आजकल वर्तमान शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगों को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। भारतीय जीवन दृष्टि के अनुसार कहा गया है 'ना मूलं लिख्यते किंचित'{{Citation needed}}। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। केवल कहीं किसी के कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में लिखे जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता।
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आजकल वर्तमान शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगोंं को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। भारतीय जीवन दृष्टि के अनुसार कहा गया है 'ना मूलं लिख्यते किंचित'{{Citation needed}}। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। केवल कहीं किसी के कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में लिखे जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता।
    
सत्य की व्याख्या की गई है{{Citation needed}} <blockquote>'यदभूत हितं अत्यंत' </blockquote><blockquote>याने जिस में चराचर का हित हो या किसी का भी अहित नहीं हो वही सत्य है। </blockquote>इसी का अर्थ है जिसे चराचर का हित किस या किन बातों में है, यह नहीं समझ में आता वह सत्य को स्वत: नहीं समझ सकता।   
 
सत्य की व्याख्या की गई है{{Citation needed}} <blockquote>'यदभूत हितं अत्यंत' </blockquote><blockquote>याने जिस में चराचर का हित हो या किसी का भी अहित नहीं हो वही सत्य है। </blockquote>इसी का अर्थ है जिसे चराचर का हित किस या किन बातों में है, यह नहीं समझ में आता वह सत्य को स्वत: नहीं समझ सकता।   
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ऐसे लोगों के लिये कहा गया है{{Citation needed}}: <blockquote>'महाजनो येन गत: स पंथ:'। </blockquote><blockquote>ऐसे लोगों को श्रेष्ठ लोगों का अनुकरण करना चाहिये।</blockquote>श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता , 3.21</ref> <blockquote>यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।</blockquote><blockquote>स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।।</blockquote><blockquote>अर्थ: केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता।</blockquote>किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। फिर प्रमाण का क्षेत्र कौन सा है?
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ऐसे लोगोंं के लिये कहा गया है{{Citation needed}}: <blockquote>'महाजनो येन गत: स पंथ:'। </blockquote><blockquote>ऐसे लोगोंं को श्रेष्ठ लोगोंं का अनुकरण करना चाहिये।</blockquote>श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता , 3.21</ref> <blockquote>यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।</blockquote><blockquote>स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।।</blockquote><blockquote>अर्थ: केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता।</blockquote>किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। फिर प्रमाण का क्षेत्र कौन सा है?
 
=== प्रमाण का अभारतीय अधिष्ठान ===
 
=== प्रमाण का अभारतीय अधिष्ठान ===
 
सामान्यत: सत्य जानने के तरीके निम्न माने जाते है:
 
सामान्यत: सत्य जानने के तरीके निम्न माने जाते है:
 
# प्रत्यक्ष प्रमाण : जिस का ऑंख, कान, नाक,जीभ और त्वचा के द्वारा याने ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है।
 
# प्रत्यक्ष प्रमाण : जिस का ऑंख, कान, नाक,जीभ और त्वचा के द्वारा याने ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है।
 
# अनुमान प्रमाण : इस में पूर्व में प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अनुमान से पूर्व अनुभव के साथ तुलना कर उसे सत्य माना जाता है। इस संबंध में यह समझना योग्य होगा की अनुमान कितना सटीक है इस पर सत्य निर्भर हो जाता है। मिथ्या अनुमान जैसे अंधेरे में साँप को रस्सी समझना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता।
 
# अनुमान प्रमाण : इस में पूर्व में प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अनुमान से पूर्व अनुभव के साथ तुलना कर उसे सत्य माना जाता है। इस संबंध में यह समझना योग्य होगा की अनुमान कितना सटीक है इस पर सत्य निर्भर हो जाता है। मिथ्या अनुमान जैसे अंधेरे में साँप को रस्सी समझना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता।
# शास्त्र या शब्द या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक बात का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कुछ अनुभव तो केवल एक बार ही ले सकता है। जैसे साईनाईड जैसे जहरीले पदार्थ का स्वाद। साईनाईड का सेवन करने वाले की तत्काल मृत्यू हो जाती है। वह दूसरी बार उस का स्वाद लेने के लिये जीवित नहीं रहता। ऐसे अनुभव छोड भी दें तो भी अनंत ऐसी परिस्थितियाँ होतीं है कि हर परिस्थिति का अनुभव लेना केवल प्रत्येक व्यक्ति के लिये ही नहीं तो किसी भी व्यक्ति के लिये संभव नहीं होता। इस लिये ऐसी स्थिति में शास्त्र वचन को ही प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिये शास्त्र वचन प्रमाण होता है। और शास्त्रों के जो जानकार नहीं है ऐसे लोगों के लिये शास्त्र जानने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले लोगों का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे लोगों को ही आप्त कहा गया है।
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# शास्त्र या शब्द या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक बात का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कुछ अनुभव तो केवल एक बार ही ले सकता है। जैसे साईनाईड जैसे जहरीले पदार्थ का स्वाद। साईनाईड का सेवन करने वाले की तत्काल मृत्यू हो जाती है। वह दूसरी बार उस का स्वाद लेने के लिये जीवित नहीं रहता। ऐसे अनुभव छोड भी दें तो भी अनंत ऐसी परिस्थितियाँ होतीं है कि हर परिस्थिति का अनुभव लेना केवल प्रत्येक व्यक्ति के लिये ही नहीं तो किसी भी व्यक्ति के लिये संभव नहीं होता। इस लिये ऐसी स्थिति में शास्त्र वचन को ही प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिये शास्त्र वचन प्रमाण होता है। और शास्त्रों के जो जानकार नहीं है ऐसे लोगोंं के लिये शास्त्र जानने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले लोगोंं का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे लोगोंं को ही आप्त कहा गया है।
 
=== प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान ===
 
=== प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान ===
 
सामान्यत: अभारतीय समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु भारतीय परंपरा में एक और प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अभिप्रेरणा। यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिद्धि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है।  
 
सामान्यत: अभारतीय समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु भारतीय परंपरा में एक और प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अभिप्रेरणा। यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिद्धि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है।  
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समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन होता है।
 
समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन होता है।
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जीवन का धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। अतः समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगों को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की सहायता लेनी होगी।  
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जीवन का धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। अतः समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगोंं को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की सहायता लेनी होगी।  
    
== वर्तमान स्थिति से भारतीय तन्त्रज्ञान नीति तक जाने की प्रक्रिया ==
 
== वर्तमान स्थिति से भारतीय तन्त्रज्ञान नीति तक जाने की प्रक्रिया ==
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# सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तंत्रज्ञानों के व्यावहारिक उपयोजन आदि के बारे में शिक्षा के माध्यम से बच्चों के मन को आकार देना ।
 
# सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तंत्रज्ञानों के व्यावहारिक उपयोजन आदि के बारे में शिक्षा के माध्यम से बच्चों के मन को आकार देना ।
 
# माध्यमिक स्तर पर सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तन्त्रज्ञान के निर्माण की संकल्पना को बच्चों के मनों में स्थापित करना।
 
# माध्यमिक स्तर पर सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तन्त्रज्ञान के निर्माण की संकल्पना को बच्चों के मनों में स्थापित करना।
# दुष्ट वृत्ति के लोगों को कैसे पहचानना, दुष्ट प्रवृत्तियों के हाथों में घातक तन्त्रज्ञान जाने से होने वाले सामाजिक दुष्परिणामों के विषय में जानकारी देना। दुष्टों के हाथ में ऐसा कोई भी घातक तन्त्रज्ञान नहीं जाने देंगे इस बिंदूपर उन्हें संकल्पबद्ध करना।
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# दुष्ट वृत्ति के लोगोंं को कैसे पहचानना, दुष्ट प्रवृत्तियों के हाथों में घातक तन्त्रज्ञान जाने से होने वाले सामाजिक दुष्परिणामों के विषय में जानकारी देना। दुष्टों के हाथ में ऐसा कोई भी घातक तन्त्रज्ञान नहीं जाने देंगे इस बिंदूपर उन्हें संकल्पबद्ध करना।
 
# [[Family Run Businesses (कौटुम्बिक उद्योग)|कुटुम्ब और कौटुम्बिक उद्योग]] यह विषय शिक्षा के हर स्तरपर शक्ति के साथ समाविष्ट करना।
 
# [[Family Run Businesses (कौटुम्बिक उद्योग)|कुटुम्ब और कौटुम्बिक उद्योग]] यह विषय शिक्षा के हर स्तरपर शक्ति के साथ समाविष्ट करना।
 
## पहल करना, प्रोत्साहन देना, प्रायोजित करना ऐसे भिन्न भिन्न मार्गों से ‘संयुक्त कुटुम्बों का सुसंस्कृत, समृध्द और शक्तिशाली समाज बनाने में योगदान’ के ऊपर शोध कार्य करवाना। ऐसा सभी ज्ञान, शिक्षा में और समाज में लाना।
 
## पहल करना, प्रोत्साहन देना, प्रायोजित करना ऐसे भिन्न भिन्न मार्गों से ‘संयुक्त कुटुम्बों का सुसंस्कृत, समृध्द और शक्तिशाली समाज बनाने में योगदान’ के ऊपर शोध कार्य करवाना। ऐसा सभी ज्ञान, शिक्षा में और समाज में लाना।
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## जिन तंत्रज्ञानों से किसी को लाभ तो होता है लेकिन हानि किसी की नहीं होती - स्वीकार्य हैं।  
 
## जिन तंत्रज्ञानों से किसी को लाभ तो होता है लेकिन हानि किसी की नहीं होती - स्वीकार्य हैं।  
 
## जिन तंत्रज्ञानों से चराचर सभी की हानि होती है - अस्वीकार्य हैं।  
 
## जिन तंत्रज्ञानों से चराचर सभी की हानि होती है - अस्वीकार्य हैं।  
## जिन के प्रयोग से कुछ लोगों का लाभ होता है और कुछ लोगों की हानि होती है - अस्वीकार्य हैं।  
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## जिन के प्रयोग से कुछ लोगोंं का लाभ होता है और कुछ लोगोंं की हानि होती है - अस्वीकार्य हैं।  
 
# उपर्युक्त में से तीसरे और चौथे प्रकार के तन्त्रज्ञान ही दुनिया भर की तंत्रज्ञानों से निर्मित समस्याओं के मूल कारण हैं। वर्तमान में ऐसे तंत्रज्ञानों का ही बोलबाला है। इसलिये धीरे धीरे लेकिन कठोरता से ऐसे तंत्रज्ञानों का उपयोग और विकास रोकना होगा।  
 
# उपर्युक्त में से तीसरे और चौथे प्रकार के तन्त्रज्ञान ही दुनिया भर की तंत्रज्ञानों से निर्मित समस्याओं के मूल कारण हैं। वर्तमान में ऐसे तंत्रज्ञानों का ही बोलबाला है। इसलिये धीरे धीरे लेकिन कठोरता से ऐसे तंत्रज्ञानों का उपयोग और विकास रोकना होगा।  
 
# कौटुम्बिक उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों के विकास को प्रोत्साहन देना और बड़े उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों को हतोत्साहित करना। कौटुम्बिक उद्योग समाज की आवश्यकताओं के साथ अपने को समायोजित करते हैं। जब की बड़े उद्योग अपने हित के लिये समाज को विज्ञापनबाजी, भ्रष्टाचार आदि के माध्यम से समायोजित करते हैं। कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में धन विकेंद्रित हो जाता है। सम्पत्ति का वितरण लगभग समान होता है। बड़े उद्योगों की अर्थव्यवस्था में अमीर, और अमीर बनते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई बढती जाती है। अर्थ का प्रभाव और अभाव ऐसी दोनों बीमारियों से समाज ग्रस्त हो जाता है। अर्थ का अभाव और प्रभाव निर्माण होकर समाज को अशांत और दु:खी बना देता है।  
 
# कौटुम्बिक उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों के विकास को प्रोत्साहन देना और बड़े उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों को हतोत्साहित करना। कौटुम्बिक उद्योग समाज की आवश्यकताओं के साथ अपने को समायोजित करते हैं। जब की बड़े उद्योग अपने हित के लिये समाज को विज्ञापनबाजी, भ्रष्टाचार आदि के माध्यम से समायोजित करते हैं। कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में धन विकेंद्रित हो जाता है। सम्पत्ति का वितरण लगभग समान होता है। बड़े उद्योगों की अर्थव्यवस्था में अमीर, और अमीर बनते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई बढती जाती है। अर्थ का प्रभाव और अभाव ऐसी दोनों बीमारियों से समाज ग्रस्त हो जाता है। अर्थ का अभाव और प्रभाव निर्माण होकर समाज को अशांत और दु:खी बना देता है।  

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