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== अमूर्त और मूर्त का अन्तर ==
 
== अमूर्त और मूर्त का अन्तर ==
किसी भी पदार्थ, स्थिति या घटना के दो पक्ष होते हैं <ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व १: अध्याय १, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। एक होता है तत्व का और दूसरा व्यवहार का । तत्व अमूर्त है, व्यवहार मूर्त । तत्व संज्ञा के दो भाग हैं । एक है तत् और दूसरा है त्व । तत्  का अर्थ है वह । "वह' क्या होता है ? 'वह' किसी भी पदार्थ, स्थिति या घटना का मूल रूप होता है । वह मूल रूप अव्यक्त होता है । केवल व्यवहार ही व्यक्त होता है । मूर्त स्वरूप हमेशा भौतिक होता है। मूर्त स्वरूप इंद्रियगम्य  होता है । उदाहरण के लिये रोटी का मूर्त स्वरूप दिखाई देता है, उसका स्वाद चखा जाता है । वह गरम है कि ठंडी, यह स्पर्श से जाना जाता है । परन्तु रोटी गेहूँ से बनी है फिर भी जब तक वह रोटी के स्वरूप में है तब तक गेहूँ नहीं दिखाई देता । गेहूँ रोटी का 'वह' है, तत्व है । गेहूँ मूल रूप में पंचमहाभूत है । उसमें पांचों महाभूत हैं परन्तु दिखाई तो देता है केवल पृथ्वी महाभूत । शेष चारों तत्व के स्वरूप में तो गेहूँ में हैं परन्तु मूर्त रूप में नहीं दिखाई देते हैं । उन्हें बुद्धि से तर्क करके ही जानना होता है। उनका वह होना इंद्रियगम्य  नहीं अपितु बुद्धिगम्य है । उसी प्रकार से पंचमहाभूतों का मूल स्वरूप प्रकृति है परन्तु वह अपने मूल स्वरूप में बुद्धिगम्य भी नहीं है । हाँ, बुद्धि से उसके स्वरूप का अनुमान लगा सकते हैं । जगत‌ के किसी भी पदार्थ का मूल रूप केवल प्रकृति ही नहीं, पुरुष भी है जो केवल अनुभूतिगम्य है । उसका मूर्तरूप व्यवहार का ही होता है जो इंद्रिय, मन, बुद्धि से संचालित होता है । तत्व किसी भी पदार्थ या घटना का आध्यात्मिक स्वरूप होता है, व्यवहार भौतिक । यह विश्व व्यवहार रूप में परिचालित होता है ।
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किसी भी पदार्थ, स्थिति या घटना के दो पक्ष होते हैं <ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व १: अध्याय १, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। एक होता है तत्व का और दूसरा व्यवहार का । तत्व अमूर्त है, व्यवहार मूर्त । तत्व संज्ञा के दो भाग हैं । एक है तत् और दूसरा है त्व । तत्  का अर्थ है वह । "वह' क्या होता है ? 'वह' किसी भी पदार्थ, स्थिति या घटना का मूल रूप होता है । वह मूल रूप अव्यक्त होता है । केवल व्यवहार ही व्यक्त होता है । मूर्त स्वरूप सदा भौतिक होता है। मूर्त स्वरूप इंद्रियगम्य  होता है । उदाहरण के लिये रोटी का मूर्त स्वरूप दिखाई देता है, उसका स्वाद चखा जाता है । वह गरम है कि ठंडी, यह स्पर्श से जाना जाता है । परन्तु रोटी गेहूँ से बनी है फिर भी जब तक वह रोटी के स्वरूप में है तब तक गेहूँ नहीं दिखाई देता । गेहूँ रोटी का 'वह' है, तत्व है । गेहूँ मूल रूप में पंचमहाभूत है । उसमें पांचों महाभूत हैं परन्तु दिखाई तो देता है केवल पृथ्वी महाभूत । शेष चारों तत्व के स्वरूप में तो गेहूँ में हैं परन्तु मूर्त रूप में नहीं दिखाई देते हैं । उन्हें बुद्धि से तर्क करके ही जानना होता है। उनका वह होना इंद्रियगम्य  नहीं अपितु बुद्धिगम्य है । उसी प्रकार से पंचमहाभूतों का मूल स्वरूप प्रकृति है परन्तु वह अपने मूल स्वरूप में बुद्धिगम्य भी नहीं है । हाँ, बुद्धि से उसके स्वरूप का अनुमान लगा सकते हैं । जगत‌ के किसी भी पदार्थ का मूल रूप केवल प्रकृति ही नहीं, पुरुष भी है जो केवल अनुभूतिगम्य है । उसका मूर्तरूप व्यवहार का ही होता है जो इंद्रिय, मन, बुद्धि से संचालित होता है । तत्व किसी भी पदार्थ या घटना का आध्यात्मिक स्वरूप होता है, व्यवहार भौतिक । यह विश्व व्यवहार रूप में परिचालित होता है ।
    
== तत्व के अनुसार व्यवहार ==
 
== तत्व के अनुसार व्यवहार ==
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तत्व और व्यवहार का सम्बन्ध ठीक से समझना और उसके अनुसार व्यवहार करना शिक्षा का प्रमुख कार्य है । शिक्षित मनुष्य के लिये यह सहज होता है । जब शिक्षित मनुष्य ऐसा समायोजन ठीक से नहीं कर पाता तब या तो उसकी शिक्षा सही नहीं है या तो वह शिक्षा का उपयोग ठीक से नहीं करता है, ऐसा ही कहा जाएगा ।
 
तत्व और व्यवहार का सम्बन्ध ठीक से समझना और उसके अनुसार व्यवहार करना शिक्षा का प्रमुख कार्य है । शिक्षित मनुष्य के लिये यह सहज होता है । जब शिक्षित मनुष्य ऐसा समायोजन ठीक से नहीं कर पाता तब या तो उसकी शिक्षा सही नहीं है या तो वह शिक्षा का उपयोग ठीक से नहीं करता है, ऐसा ही कहा जाएगा ।
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तत्व और व्यवहार का सामंजस्य बुद्धि, मन और शरीर की क्रियाओं का सामंजस्य है, ज्ञान, भावना और क्रिया का सामंजस्य है । ऐसे सामंजस्य से ही जगत का व्यवहार सम्यक्‌ रूप से चलता है । इसलिये तत्व और व्यवहार हमेशा साथ ही चलने चाहिये ।
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तत्व और व्यवहार का सामंजस्य बुद्धि, मन और शरीर की क्रियाओं का सामंजस्य है, ज्ञान, भावना और क्रिया का सामंजस्य है । ऐसे सामंजस्य से ही जगत का व्यवहार सम्यक्‌ रूप से चलता है । इसलिये तत्व और व्यवहार सदा साथ ही चलने चाहिये ।
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== व्यवहार हमेशा तत्व का अनुसरण करता है । ==
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== व्यवहार सदा तत्व का अनुसरण करता है । ==
 
तत्व अमूर्त है, संकल्पनात्मक है, अव्यक्त है । व्यवहार मूर्त है, प्रकटस्वरूप है, व्यक्त है इसलिये व्यवहार ही तत्व का अनुसरण करेगा, यह स्वाभाविक है । तत्व प्रथम होता है, व्यवहार तत्व को मूर्तस्वरूप देने के लिये ही होता है । अत: तत्व और व्यवहार एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं । इतना ही नहीं तो व्यवहार तत्व के अनुसार ही होता है ।
 
तत्व अमूर्त है, संकल्पनात्मक है, अव्यक्त है । व्यवहार मूर्त है, प्रकटस्वरूप है, व्यक्त है इसलिये व्यवहार ही तत्व का अनुसरण करेगा, यह स्वाभाविक है । तत्व प्रथम होता है, व्यवहार तत्व को मूर्तस्वरूप देने के लिये ही होता है । अत: तत्व और व्यवहार एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं । इतना ही नहीं तो व्यवहार तत्व के अनुसार ही होता है ।
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आजकल तत्व को आदर्श माना जाता है और व्यवहार में आदर्श का पालन नहीं किया जा सकता है, ऐसा कई बार कहा जाता है । उदाहरण के लिये सत्य बोलना आदर्श है परन्तु व्यवहार में हमेशा सत्य बोला नहीं जाता, अनेक कारणों से असत्य बोलना ही पड़ता है। पर्यावरण की सुरक्षा करनी चाहिये यह तात्विक दृष्टि से मान्य है, परन्तु आज का जीवन ऐसा हो गया है कि प्लास्टिक का प्रयोग किए बिना चलता ही नहीं है । तात्विक दृष्टि से व्यवहार करना मनुष्य के लिये सम्भव नहीं है । मनुष्य दुर्बल प्राणी है इसलिये उससे प्रमाद हो ही जाता है, यह बात ठीक है, परन्तु उससे भी प्रतिष्ठा तो तत्व की ही होती है । तत्व आदर्श है और व्यवहार का निकष है । तत्व है, इसलिये ही व्यवहार ठीक है कि नहीं, यह नापा जाता है । किसी भी व्यवहार को तत्व के बिना, ठीक है कि नहीं, यह तय करने पर वह व्यक्तिसापेक्ष या घटना सापेक्ष हो जाता है और हमेशा बदलता रहता है । उसे निरपेक्ष बनाने के लिये भी किसी अमूर्त तत्व की ही अपेक्षा रहती है ।
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आजकल तत्व को आदर्श माना जाता है और व्यवहार में आदर्श का पालन नहीं किया जा सकता है, ऐसा कई बार कहा जाता है । उदाहरण के लिये सत्य बोलना आदर्श है परन्तु व्यवहार में सदा सत्य बोला नहीं जाता, अनेक कारणों से असत्य बोलना ही पड़ता है। पर्यावरण की सुरक्षा करनी चाहिये यह तात्विक दृष्टि से मान्य है, परन्तु आज का जीवन ऐसा हो गया है कि प्लास्टिक का प्रयोग किए बिना चलता ही नहीं है । तात्विक दृष्टि से व्यवहार करना मनुष्य के लिये सम्भव नहीं है । मनुष्य दुर्बल प्राणी है इसलिये उससे प्रमाद हो ही जाता है, यह बात ठीक है, परन्तु उससे भी प्रतिष्ठा तो तत्व की ही होती है । तत्व आदर्श है और व्यवहार का निकष है । तत्व है, इसलिये ही व्यवहार ठीक है कि नहीं, यह नापा जाता है । किसी भी व्यवहार को तत्व के बिना, ठीक है कि नहीं, यह तय करने पर वह व्यक्तिसापेक्ष या घटना सापेक्ष हो जाता है और सदा बदलता रहता है । उसे निरपेक्ष बनाने के लिये भी किसी अमूर्त तत्व की ही अपेक्षा रहती है ।
    
== तत्व सिद्धान्त है, व्यवहार उसका उदाहरण । ==
 
== तत्व सिद्धान्त है, व्यवहार उसका उदाहरण । ==
सिद्धान्त वह होता है जो अनुसरण के लिये बनाया गया नियम है । उदाहरण के लिये किसी भौमितिक आकृति का क्षेत्रफल जानने के लिये सूत्र बनाया जाता है । वह अनेक आकृतियों का क्षेत्रफल जानने के बाद निष्कर्ष निकालकर उसके आधार पर बनाया जाता है । पानी हमेशा ऊपर से नीचे की ओर बहता है, इस तथ्य को जानकर पानी का प्रयोग करते समय व्यवहार करना होता है । प्राणियों का और पदार्थों का स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । मनुष्यों का भी स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । साथ ही स्थिति को देखकर आवश्यकताएँ निश्चित होती हैं । उनके अनुसार व्यवहार निश्चित होता है । इन व्यवहारों के लिये मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाये जाते हैं । शास्त्र कहते हैं कि सृष्टि को बनाए रखने के और चलाने के नियम सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उत्पन्न हुए हैं । इन नियमों से जो व्यवस्था बनी है वही धर्म है । धर्म के ये नियम ही सूत्र हैं, सिद्धान्त हैं । ये ही तत्व हैं । जगत में व्यवहार करते समय इन तत्वों को ध्यान में रखना अनिवार्य है । यदि ये नियम ध्यान में नहीं रखे तो सारी व्यवस्था अव्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगी । ऐसी अव्यवस्था में कोई सुरक्षित नहीं रहेगा ।
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सिद्धान्त वह होता है जो अनुसरण के लिये बनाया गया नियम है । उदाहरण के लिये किसी भौमितिक आकृति का क्षेत्रफल जानने के लिये सूत्र बनाया जाता है । वह अनेक आकृतियों का क्षेत्रफल जानने के बाद निष्कर्ष निकालकर उसके आधार पर बनाया जाता है । पानी सदा ऊपर से नीचे की ओर बहता है, इस तथ्य को जानकर पानी का प्रयोग करते समय व्यवहार करना होता है । प्राणियों का और पदार्थों का स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । मनुष्यों का भी स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । साथ ही स्थिति को देखकर आवश्यकताएँ निश्चित होती हैं । उनके अनुसार व्यवहार निश्चित होता है । इन व्यवहारों के लिये मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाये जाते हैं । शास्त्र कहते हैं कि सृष्टि को बनाए रखने के और चलाने के नियम सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उत्पन्न हुए हैं । इन नियमों से जो व्यवस्था बनी है वही धर्म है । धर्म के ये नियम ही सूत्र हैं, सिद्धान्त हैं । ये ही तत्व हैं । जगत में व्यवहार करते समय इन तत्वों को ध्यान में रखना अनिवार्य है । यदि ये नियम ध्यान में नहीं रखे तो सारी व्यवस्था अव्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगी । ऐसी अव्यवस्था में कोई सुरक्षित नहीं रहेगा ।
    
फिर प्रश्न यह होता है कि धर्म के पालन में अर्थात्‌ तत्व के अनुसार व्यवहार करने में ही सुरक्षा है और सुरक्षा के परिणामस्वरूप निश्चितता और सुख है तो लोग तत्व के अनुसरण को ही व्यावहारिक क्यों नहीं मानते । लोग तत्व और व्यवहार को एक दूसरे से अलग क्यों रखना चाहते हैं ? इसका कारण यह है कि तत्व के अनुसार व्यवहार करना अनेक लोगोंं को कठिन लगता है । इसका प्रमुख कारण यह है कि मन की शिक्षा के अभाव में लोगोंं के मन दुर्बल होते हैं । दुर्बल मन में स्वार्थ, लोभ, मोह आदि विकार प्रबल होते हैं । बुद्धि का विकास ठीक नहीं होने के कारण वह विशाल नहीं होती है और सबके सुख में ही हमारा हित है ऐसा समझ में नहीं आता | अत: दूसरों को न मिले और स्वयं को मिले इसकी ही चिन्ता सबको लगी रहती है । मनोवृत्तियाँ भिन्न भिन्न रहती हैं । ऐसी मनोवृत्तियों का वर्णन कवि भर्तृहरि ने इस प्रकार किया है<ref>नीतिशतक-75, भर्तृहरि</ref>:<blockquote>एते सत्पुरुषा परार्थघटका स्वार्थान्परित्यज्य ये ।</blockquote><blockquote>सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभूता स्वार्थाविरोधेन ये ।</blockquote><blockquote>ते$मी मानुषराक्षसा परहितम्‌ स्वार्थाय निष्नन्ति ये ।</blockquote><blockquote>ये निध्ननन्ति निरर्थकम्‌ परहितम्‌ ते के न जानीमहे ।।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌</blockquote><blockquote>एक तो सज्जन लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ छोड़कर औरों का हित करते हैं । दूसरे सामान्य लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ न छोड़ते हुए दूसरों का हित करते हैं । मनुष्यों का और एक प्रकार ऐसा है जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों के हित का नाश करते हैं । परन्तु जो किसी भी कारण के बिना दूसरों के हित का नाश करते हैं, ऐसे लोगोंं को क्या कहा जाय यह हम नहीं जानते ।</blockquote><blockquote>तात्पर्य यह है कि जगत‌ में तरह तरह के लोग होते हैं, उनकी नीयत भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, उनके स्वार्थ भिन्न-भिन्न होते हैं इसलिये उनका व्यवहार भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है ।</blockquote>अनेक बार ऐसा होता है कि तत्व के अनुसार व्यवहार कैसा होगा, यह ध्यान में ही नहीं आता है । यह नीयत की नहीं अपितु बुद्धि की मर्यादा है । उदाहरण के लिये मन, कर्म, वचन से किसी को दुःख नहीं पहुँचाना अहिंसा है, यह अहिंसा का तत्व है परन्तु दुर्बल को परेशान करने वाले को दण्ड देना हिंसा नहीं है । दुःख तो उसे भी होता है, परन्तु उसका दुःख निर्दोष के दुःख के जैसा नहीं है । यह विवेक मनुष्यों को बहुत दुर्लभ होता है, इसलिये लोग तत्व के अनुसार व्यवहार नहीं करते हैं ।
 
फिर प्रश्न यह होता है कि धर्म के पालन में अर्थात्‌ तत्व के अनुसार व्यवहार करने में ही सुरक्षा है और सुरक्षा के परिणामस्वरूप निश्चितता और सुख है तो लोग तत्व के अनुसरण को ही व्यावहारिक क्यों नहीं मानते । लोग तत्व और व्यवहार को एक दूसरे से अलग क्यों रखना चाहते हैं ? इसका कारण यह है कि तत्व के अनुसार व्यवहार करना अनेक लोगोंं को कठिन लगता है । इसका प्रमुख कारण यह है कि मन की शिक्षा के अभाव में लोगोंं के मन दुर्बल होते हैं । दुर्बल मन में स्वार्थ, लोभ, मोह आदि विकार प्रबल होते हैं । बुद्धि का विकास ठीक नहीं होने के कारण वह विशाल नहीं होती है और सबके सुख में ही हमारा हित है ऐसा समझ में नहीं आता | अत: दूसरों को न मिले और स्वयं को मिले इसकी ही चिन्ता सबको लगी रहती है । मनोवृत्तियाँ भिन्न भिन्न रहती हैं । ऐसी मनोवृत्तियों का वर्णन कवि भर्तृहरि ने इस प्रकार किया है<ref>नीतिशतक-75, भर्तृहरि</ref>:<blockquote>एते सत्पुरुषा परार्थघटका स्वार्थान्परित्यज्य ये ।</blockquote><blockquote>सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभूता स्वार्थाविरोधेन ये ।</blockquote><blockquote>ते$मी मानुषराक्षसा परहितम्‌ स्वार्थाय निष्नन्ति ये ।</blockquote><blockquote>ये निध्ननन्ति निरर्थकम्‌ परहितम्‌ ते के न जानीमहे ।।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌</blockquote><blockquote>एक तो सज्जन लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ छोड़कर औरों का हित करते हैं । दूसरे सामान्य लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ न छोड़ते हुए दूसरों का हित करते हैं । मनुष्यों का और एक प्रकार ऐसा है जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों के हित का नाश करते हैं । परन्तु जो किसी भी कारण के बिना दूसरों के हित का नाश करते हैं, ऐसे लोगोंं को क्या कहा जाय यह हम नहीं जानते ।</blockquote><blockquote>तात्पर्य यह है कि जगत‌ में तरह तरह के लोग होते हैं, उनकी नीयत भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, उनके स्वार्थ भिन्न-भिन्न होते हैं इसलिये उनका व्यवहार भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है ।</blockquote>अनेक बार ऐसा होता है कि तत्व के अनुसार व्यवहार कैसा होगा, यह ध्यान में ही नहीं आता है । यह नीयत की नहीं अपितु बुद्धि की मर्यादा है । उदाहरण के लिये मन, कर्म, वचन से किसी को दुःख नहीं पहुँचाना अहिंसा है, यह अहिंसा का तत्व है परन्तु दुर्बल को परेशान करने वाले को दण्ड देना हिंसा नहीं है । दुःख तो उसे भी होता है, परन्तु उसका दुःख निर्दोष के दुःख के जैसा नहीं है । यह विवेक मनुष्यों को बहुत दुर्लभ होता है, इसलिये लोग तत्व के अनुसार व्यवहार नहीं करते हैं ।

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