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सिद्धान्त वह होता है जो अनुसरण के लिये बनाया गया नियम है । उदाहरण के लिये किसी भौमितिक आकृति का क्षेत्रफल जानने के लिये सूत्र बनाया जाता है । वह अनेक आकृतियों का क्षेत्रफल जानने के बाद निष्कर्ष निकालकर उसके आधार पर बनाया जाता है । पानी हमेशा ऊपर से नीचे की ओर बहता है, इस तथ्य को जानकर पानी का प्रयोग करते समय व्यवहार करना होता है । प्राणियों का और पदार्थों का स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । मनुष्यों का भी स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । साथ ही स्थिति को देखकर आवश्यकताएँ निश्चित होती हैं । उनके अनुसार व्यवहार निश्चित होता है । इन व्यवहारों के लिये मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाये जाते हैं । शास्त्र कहते हैं कि सृष्टि को बनाए रखने के और चलाने के नियम सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उत्पन्न हुए हैं । इन नियमों से जो व्यवस्था बनी है वही धर्म है । धर्म के ये नियम ही सूत्र हैं, सिद्धान्त हैं । ये ही तत्व हैं । जगत में व्यवहार करते समय इन तत्वों को ध्यान में रखना अनिवार्य है । यदि ये नियम ध्यान में नहीं रखे तो सारी व्यवस्था अव्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगी । ऐसी अव्यवस्था में कोई सुरक्षित नहीं रहेगा ।
 
सिद्धान्त वह होता है जो अनुसरण के लिये बनाया गया नियम है । उदाहरण के लिये किसी भौमितिक आकृति का क्षेत्रफल जानने के लिये सूत्र बनाया जाता है । वह अनेक आकृतियों का क्षेत्रफल जानने के बाद निष्कर्ष निकालकर उसके आधार पर बनाया जाता है । पानी हमेशा ऊपर से नीचे की ओर बहता है, इस तथ्य को जानकर पानी का प्रयोग करते समय व्यवहार करना होता है । प्राणियों का और पदार्थों का स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । मनुष्यों का भी स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । साथ ही स्थिति को देखकर आवश्यकताएँ निश्चित होती हैं । उनके अनुसार व्यवहार निश्चित होता है । इन व्यवहारों के लिये मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाये जाते हैं । शास्त्र कहते हैं कि सृष्टि को बनाए रखने के और चलाने के नियम सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उत्पन्न हुए हैं । इन नियमों से जो व्यवस्था बनी है वही धर्म है । धर्म के ये नियम ही सूत्र हैं, सिद्धान्त हैं । ये ही तत्व हैं । जगत में व्यवहार करते समय इन तत्वों को ध्यान में रखना अनिवार्य है । यदि ये नियम ध्यान में नहीं रखे तो सारी व्यवस्था अव्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगी । ऐसी अव्यवस्था में कोई सुरक्षित नहीं रहेगा ।
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फिर प्रश्न यह होता है कि धर्म के पालन में अर्थात्‌ तत्व के अनुसार व्यवहार करने में ही सुरक्षा है और सुरक्षा के परिणामस्वरूप निश्चितता और सुख है तो लोग तत्व के अनुसरण को ही व्यावहारिक क्यों नहीं मानते । लोग तत्व और व्यवहार को एक दूसरे से अलग क्यों रखना चाहते हैं ? इसका कारण यह है कि तत्व के अनुसार व्यवहार करना अनेक लोगों को कठिन लगता है । इसका प्रमुख कारण यह है कि मन की शिक्षा के अभाव में लोगों के मन दुर्बल होते हैं । दुर्बल मन में स्वार्थ, लोभ, मोह आदि विकार प्रबल होते हैं । बुद्धि का विकास ठीक नहीं होने के कारण वह विशाल नहीं होती है और सबके सुख में ही हमारा हित है ऐसा समझ में नहीं आता | अत: दूसरों को न मिले और स्वयं को मिले इसकी ही चिन्ता सबको लगी रहती है । मनोवृत्तियाँ भिन्न भिन्न रहती हैं । ऐसी मनोवृत्तियों का वर्णन कवि भर्तृहरि ने इस प्रकार किया है<ref>नीतिशतक-75, भर्तृहरि</ref>:<blockquote>एते सत्पुरुषा परार्थघटका स्वार्थान्परित्यज्य ये ।</blockquote><blockquote>सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभूता स्वार्थाविरोधेन ये ।</blockquote><blockquote>ते$मी मानुषराक्षसा परहितम्‌ स्वार्थाय निष्नन्ति ये ।</blockquote><blockquote>ये निध्ननन्ति निरर्थकम्‌ परहितम्‌ ते के न जानीमहे ।।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌</blockquote><blockquote>एक तो सज्जन लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ छोड़कर औरों का हित करते हैं । दूसरे सामान्य लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ न छोड़ते हुए दूसरों का हित करते हैं । मनुष्यों का और एक प्रकार ऐसा है जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों के हित का नाश करते हैं । परन्तु जो किसी भी कारण के बिना दूसरों के हित का नाश करते हैं, ऐसे लोगों को क्या कहा जाय यह हम नहीं जानते ।</blockquote><blockquote>तात्पर्य यह है कि जगत‌ में तरह तरह के लोग होते हैं, उनकी नीयत भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, उनके स्वार्थ भिन्न-भिन्न होते हैं इसलिये उनका व्यवहार भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है ।</blockquote>अनेक बार ऐसा होता है कि तत्व के अनुसार व्यवहार कैसा होगा, यह ध्यान में ही नहीं आता है । यह नीयत की नहीं अपितु बुद्धि की मर्यादा है । उदाहरण के लिये मन, कर्म, वचन से किसी को दुःख नहीं पहुँचाना अहिंसा है, यह अहिंसा का तत्व है परन्तु दुर्बल को परेशान करने वाले को दण्ड देना हिंसा नहीं है । दुःख तो उसे भी होता है, परन्तु उसका दुःख निर्दोष के दुःख के जैसा नहीं है । यह विवेक मनुष्यों को बहुत दुर्लभ होता है, इसलिये लोग तत्व के अनुसार व्यवहार नहीं करते हैं ।
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फिर प्रश्न यह होता है कि धर्म के पालन में अर्थात्‌ तत्व के अनुसार व्यवहार करने में ही सुरक्षा है और सुरक्षा के परिणामस्वरूप निश्चितता और सुख है तो लोग तत्व के अनुसरण को ही व्यावहारिक क्यों नहीं मानते । लोग तत्व और व्यवहार को एक दूसरे से अलग क्यों रखना चाहते हैं ? इसका कारण यह है कि तत्व के अनुसार व्यवहार करना अनेक लोगोंं को कठिन लगता है । इसका प्रमुख कारण यह है कि मन की शिक्षा के अभाव में लोगोंं के मन दुर्बल होते हैं । दुर्बल मन में स्वार्थ, लोभ, मोह आदि विकार प्रबल होते हैं । बुद्धि का विकास ठीक नहीं होने के कारण वह विशाल नहीं होती है और सबके सुख में ही हमारा हित है ऐसा समझ में नहीं आता | अत: दूसरों को न मिले और स्वयं को मिले इसकी ही चिन्ता सबको लगी रहती है । मनोवृत्तियाँ भिन्न भिन्न रहती हैं । ऐसी मनोवृत्तियों का वर्णन कवि भर्तृहरि ने इस प्रकार किया है<ref>नीतिशतक-75, भर्तृहरि</ref>:<blockquote>एते सत्पुरुषा परार्थघटका स्वार्थान्परित्यज्य ये ।</blockquote><blockquote>सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभूता स्वार्थाविरोधेन ये ।</blockquote><blockquote>ते$मी मानुषराक्षसा परहितम्‌ स्वार्थाय निष्नन्ति ये ।</blockquote><blockquote>ये निध्ननन्ति निरर्थकम्‌ परहितम्‌ ते के न जानीमहे ।।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌</blockquote><blockquote>एक तो सज्जन लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ छोड़कर औरों का हित करते हैं । दूसरे सामान्य लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ न छोड़ते हुए दूसरों का हित करते हैं । मनुष्यों का और एक प्रकार ऐसा है जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों के हित का नाश करते हैं । परन्तु जो किसी भी कारण के बिना दूसरों के हित का नाश करते हैं, ऐसे लोगोंं को क्या कहा जाय यह हम नहीं जानते ।</blockquote><blockquote>तात्पर्य यह है कि जगत‌ में तरह तरह के लोग होते हैं, उनकी नीयत भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, उनके स्वार्थ भिन्न-भिन्न होते हैं इसलिये उनका व्यवहार भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है ।</blockquote>अनेक बार ऐसा होता है कि तत्व के अनुसार व्यवहार कैसा होगा, यह ध्यान में ही नहीं आता है । यह नीयत की नहीं अपितु बुद्धि की मर्यादा है । उदाहरण के लिये मन, कर्म, वचन से किसी को दुःख नहीं पहुँचाना अहिंसा है, यह अहिंसा का तत्व है परन्तु दुर्बल को परेशान करने वाले को दण्ड देना हिंसा नहीं है । दुःख तो उसे भी होता है, परन्तु उसका दुःख निर्दोष के दुःख के जैसा नहीं है । यह विवेक मनुष्यों को बहुत दुर्लभ होता है, इसलिये लोग तत्व के अनुसार व्यवहार नहीं करते हैं ।
    
आसक्ति के वशीभूत होकर मनुष्य पक्षपातपूर्ण व्यवहार करता है और तत्व को छोड़ देता है । आसक्ति पदार्थ की, व्यक्ति की, प्रतिष्ठा की, मान की होती है । कभी भय और लालच के वश होकर भी वह तत्व को छोड़कर व्यवहार करता है ।  इस प्रकार अनेक कारणों से मनुष्य जगत में तत्व और व्यवहार एक दूसरे से भिन्न हो जाते हैं ।  
 
आसक्ति के वशीभूत होकर मनुष्य पक्षपातपूर्ण व्यवहार करता है और तत्व को छोड़ देता है । आसक्ति पदार्थ की, व्यक्ति की, प्रतिष्ठा की, मान की होती है । कभी भय और लालच के वश होकर भी वह तत्व को छोड़कर व्यवहार करता है ।  इस प्रकार अनेक कारणों से मनुष्य जगत में तत्व और व्यवहार एक दूसरे से भिन्न हो जाते हैं ।  

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