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| == जीवन एक और अखण्ड है == | | == जीवन एक और अखण्ड है == |
− | भारत की दृष्टि हमेशा समग्रता की रही है। किसी भी घटना या स्थिति के विषय में खण्ड खण्ड में विचार नहीं करना भारत का स्वभाव है। जीवन को भी भारत एक और अखण्ड मानता है। भारत जन्मजन्मान्तर को मानता है। जन्म के साथ जीवन आरम्भ नहीं होता और मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होता। एक के बाद दूसरे जन्म में जीवन अखण्ड चलता रहता है। एक जन्म का और दूसरे जन्म का जीवन भिन्न नहीं होता। अनेक जन्मों में वह एक ही रहता है। केवल जन्मजन्मान्तर में ही नहीं तो जगत में दिखने वाले असंख्य भिन्न भिन्न पदार्थों में भी जीवन एक ही रहता है। | + | भारत की दृष्टि सदा समग्रता की रही है। किसी भी घटना या स्थिति के विषय में खण्ड खण्ड में विचार नहीं करना भारत का स्वभाव है। जीवन को भी भारत एक और अखण्ड मानता है। भारत जन्मजन्मान्तर को मानता है। जन्म के साथ जीवन आरम्भ नहीं होता और मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होता। एक के बाद दूसरे जन्म में जीवन अखण्ड चलता रहता है। एक जन्म का और दूसरे जन्म का जीवन भिन्न नहीं होता। अनेक जन्मों में वह एक ही रहता है। केवल जन्मजन्मान्तर में ही नहीं तो जगत में दिखने वाले असंख्य भिन्न भिन्न पदार्थों में भी जीवन एक ही रहता है। |
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| इसका अर्थ यह हुआ कि एक जन्म का परिणाम दूसरे जन्म पर होता है। हमारा इस जन्म का जीवन पूर्वजन्मों का परिणाम है और इस जन्म के परिणामस्वरूप अगला जन्म होने वाला है। इसमें से कर्म, कर्मफल और भाग्य का कर्मसिद्धान्त बना है। यह सिद्धान्त कहता है कि हम जो कर्म करते हैं उसके फल हमें भुगतने ही होते हैं, कुछ कर्मों का फल तत्काल तो कुछ का फल कुछ समय बाद भुगतना होता है। जब तक भुगत नहीं लेते तब तक वे संस्कारों के रूप में संचित रहते हैं और चित्त में संग्रहीत होते हैं। इस जन्म में नहीं भुगत लिए तो अगले जन्म में भुगतने होते हैं। कर्मफल भुगतते भुगतते नए कर्म बनते जाते हैं। कर्मों के आधार पर पुनर्जन्म होता है। कर्मों के आधार पर जन्मभर में कैसे भोग होंगे यह निश्चित होता है। कर्मसिद्धान्त के साथ ही श्रीमद्धगवद्टीता द्वारा प्रतिपादित निष्काम कर्म, कर्म के फल की अपेक्षा छोड़ देने पर मुक्ति का सिद्धान्त भी समझ जाता है। जीवन की गतिविधियों को समझाने वाला यह जन्म पुनर्जन्म का सिद्धान्त है जो भारतीय जीवनदृष्टि का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। | | इसका अर्थ यह हुआ कि एक जन्म का परिणाम दूसरे जन्म पर होता है। हमारा इस जन्म का जीवन पूर्वजन्मों का परिणाम है और इस जन्म के परिणामस्वरूप अगला जन्म होने वाला है। इसमें से कर्म, कर्मफल और भाग्य का कर्मसिद्धान्त बना है। यह सिद्धान्त कहता है कि हम जो कर्म करते हैं उसके फल हमें भुगतने ही होते हैं, कुछ कर्मों का फल तत्काल तो कुछ का फल कुछ समय बाद भुगतना होता है। जब तक भुगत नहीं लेते तब तक वे संस्कारों के रूप में संचित रहते हैं और चित्त में संग्रहीत होते हैं। इस जन्म में नहीं भुगत लिए तो अगले जन्म में भुगतने होते हैं। कर्मफल भुगतते भुगतते नए कर्म बनते जाते हैं। कर्मों के आधार पर पुनर्जन्म होता है। कर्मों के आधार पर जन्मभर में कैसे भोग होंगे यह निश्चित होता है। कर्मसिद्धान्त के साथ ही श्रीमद्धगवद्टीता द्वारा प्रतिपादित निष्काम कर्म, कर्म के फल की अपेक्षा छोड़ देने पर मुक्ति का सिद्धान्त भी समझ जाता है। जीवन की गतिविधियों को समझाने वाला यह जन्म पुनर्जन्म का सिद्धान्त है जो भारतीय जीवनदृष्टि का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। |
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| == समग्र जीवनदृष्टि == | | == समग्र जीवनदृष्टि == |
− | यह जीवनदृष्टि व्यवहार में विभिन्न स्वरूप धारण करती है। इस दृष्टि पर आधारित समाजव्यवस्था में गृहसंस्था केन्द्रवर्ती है। गृहसंस्था का आधार ही एकात्मता है। गृह में प्रतिष्ठित एकात्मता का विस्तार वसुधैव कुटुम्बकम् तक होता है। सबको अपना मानना क्योंकि सब एक हैं यह व्यवहार और सम्बन्ध का मूल सूत्र बनता है। वेदों का महावाक्य कहता है, '''सर्वं खलु इदं ब्रह्म''' अर्थात् यह सब वास्तव में ब्रह्म ही है। इस वेदवाक्य की प्रतीति हमें सर्वत्र होती है। | इस सृष्टि में ज्ञान है तो अज्ञान भी है, सत्य है तो असत्य भी है, जड़ है तो चेतन भी है, अच्छा है तो बुरा भी है, इष्ट है तो अनिष्ट भी है, प्रकाश है तो अंधकार भी है। अर्थात् सृष्टि का अव्यक्त रूप एक ही है परन्तु व्यक्त रूप द्वन्द्वात्मक है। ये दोनों पक्ष हमेशा एक दूसरे के साथ ही रहते हैं। दो में से एक भी पूर्ण नष्ट नहीं होता। समय समय पर दो में से एक प्रभावी रहता है परन्तु सम्पूर्ण समाप्त नहीं हो जाता। इस तत्व को स्वीकार कर ही जीवन की सभी व्यवस्थायें बनाई गई हैं। | + | यह जीवनदृष्टि व्यवहार में विभिन्न स्वरूप धारण करती है। इस दृष्टि पर आधारित समाजव्यवस्था में गृहसंस्था केन्द्रवर्ती है। गृहसंस्था का आधार ही एकात्मता है। गृह में प्रतिष्ठित एकात्मता का विस्तार वसुधैव कुटुम्बकम् तक होता है। सबको अपना मानना क्योंकि सब एक हैं यह व्यवहार और सम्बन्ध का मूल सूत्र बनता है। वेदों का महावाक्य कहता है, '''सर्वं खलु इदं ब्रह्म''' अर्थात् यह सब वास्तव में ब्रह्म ही है। इस वेदवाक्य की प्रतीति हमें सर्वत्र होती है। | इस सृष्टि में ज्ञान है तो अज्ञान भी है, सत्य है तो असत्य भी है, जड़ है तो चेतन भी है, अच्छा है तो बुरा भी है, इष्ट है तो अनिष्ट भी है, प्रकाश है तो अंधकार भी है। अर्थात् सृष्टि का अव्यक्त रूप एक ही है परन्तु व्यक्त रूप द्वन्द्वात्मक है। ये दोनों पक्ष सदा एक दूसरे के साथ ही रहते हैं। दो में से एक भी पूर्ण नष्ट नहीं होता। समय समय पर दो में से एक प्रभावी रहता है परन्तु सम्पूर्ण समाप्त नहीं हो जाता। इस तत्व को स्वीकार कर ही जीवन की सभी व्यवस्थायें बनाई गई हैं। |
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− | तथापि ज्ञान, सत्य, अच्छाई को ही व्यवहार में आदर्श माना गया है। कोई किसी को असत्य या दुर्जनता का व्यवहार करने को प्रोत्साहित नहीं करेगा। सब अच्छा ही बनना चाहेंगे। ऐसा बनने के लिए ऋषि तप, दान, यज्ञ, साधना, ज्ञान प्राप्ति के लिए हमेशा उपदेश देते हैं। | + | तथापि ज्ञान, सत्य, अच्छाई को ही व्यवहार में आदर्श माना गया है। कोई किसी को असत्य या दुर्जनता का व्यवहार करने को प्रोत्साहित नहीं करेगा। सब अच्छा ही बनना चाहेंगे। ऐसा बनने के लिए ऋषि तप, दान, यज्ञ, साधना, ज्ञान प्राप्ति के लिए सदा उपदेश देते हैं। |
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| समाज जीवन को आध्यात्मिक अधिष्ठान देने के लिए योगसूत्र अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पाँच सार्वभौम महाव्रतों का पालन करने का उपदेश देते हैं अर्थात् भारतीय जीवनदृष्टि में अध्यात्म और भौतिकता एक दूसरे से अलग नहीं रहते। आध्यात्मिकता सभी भौतिक रचनाओं में अनुस्यूत रहती है। तत्व और व्यवहार की एकात्मता इस जीवनदृष्टि का विशिष्ट लक्षण है। इसलिये समाजजीवन के लिए समृद्धि और संस्कृति, अभ्युदय और निःश्रेयस साथ साथ ही रहते हैं। | | समाज जीवन को आध्यात्मिक अधिष्ठान देने के लिए योगसूत्र अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पाँच सार्वभौम महाव्रतों का पालन करने का उपदेश देते हैं अर्थात् भारतीय जीवनदृष्टि में अध्यात्म और भौतिकता एक दूसरे से अलग नहीं रहते। आध्यात्मिकता सभी भौतिक रचनाओं में अनुस्यूत रहती है। तत्व और व्यवहार की एकात्मता इस जीवनदृष्टि का विशिष्ट लक्षण है। इसलिये समाजजीवन के लिए समृद्धि और संस्कृति, अभ्युदय और निःश्रेयस साथ साथ ही रहते हैं। |