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प्रश्न २ के उत्तर में, विद्यार्थियों की आयु एवं सुविधा को देखते हुए प्रात: ९ बजे से अपराह्क ३े बजे तक का समय रहना चाहिये । अगर विद्यालय, छात्र संख्या अधिक होने के कारण दो पारियों में चलता हैं तो प्रथम पारी का समय प्रातः ७ से १२ बजे तक और द्वितीय पारी का समय १२.३० बजे से ५.३० बजे तक रखना चाहिये ऐसा मत आया है ।
 
प्रश्न २ के उत्तर में, विद्यार्थियों की आयु एवं सुविधा को देखते हुए प्रात: ९ बजे से अपराह्क ३े बजे तक का समय रहना चाहिये । अगर विद्यालय, छात्र संख्या अधिक होने के कारण दो पारियों में चलता हैं तो प्रथम पारी का समय प्रातः ७ से १२ बजे तक और द्वितीय पारी का समय १२.३० बजे से ५.३० बजे तक रखना चाहिये ऐसा मत आया है ।
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समय सारिणी में गणित एवं अंग्रेजी भाषा जैसे कठिन विषय प्रारम्भ के कालांशों में रखे जायें, तथा इन कालांशों का समय ३५ मिनट होना चाहिए । पुनरुत्साह निर्माण एवं आवश्यकता पूर्ति हेतु १०-१० मिनट की दो लघु विश्रान्तियाँ एवं भोजन हेतु ३० मिनट का एक मध्यावकाश होना चाहिए । ऐसा अभिप्रायः लगभग सभी लोगों का है ।
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समय सारिणी में गणित एवं अंग्रेजी भाषा जैसे कठिन विषय प्रारम्भ के कालांशों में रखे जायें, तथा इन कालांशों का समय ३५ मिनट होना चाहिए । पुनरुत्साह निर्माण एवं आवश्यकता पूर्ति हेतु १०-१० मिनट की दो लघु विश्रान्तियाँ एवं भोजन हेतु ३० मिनट का एक मध्यावकाश होना चाहिए । ऐसा अभिप्रायः लगभग सभी लोगोंं का है ।
    
ऋतु अनुसार विद्यालय समय में परिवर्नत करना चाहिए । गर्मी में सुबह के समय एवं सर्दियों में दोपहर के समय विद्यालय चलाना उचित रहता है । इस आशय के उत्तर प्राप्त हुए हैं ।
 
ऋतु अनुसार विद्यालय समय में परिवर्नत करना चाहिए । गर्मी में सुबह के समय एवं सर्दियों में दोपहर के समय विद्यालय चलाना उचित रहता है । इस आशय के उत्तर प्राप्त हुए हैं ।
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# प्रश्न १ के उत्तर में सबने कहा है कि गणवेश केवल आवश्यक ही नहीं तो अनिवार्य है। अनिवार्यता के ये कारण बताये । धनवान और गरीब छात्रों में समानता, एकात्मभाव का निर्माण तथा गणवेश विद्यालय की पहचान का एक साधन है ।
 
# प्रश्न १ के उत्तर में सबने कहा है कि गणवेश केवल आवश्यक ही नहीं तो अनिवार्य है। अनिवार्यता के ये कारण बताये । धनवान और गरीब छात्रों में समानता, एकात्मभाव का निर्माण तथा गणवेश विद्यालय की पहचान का एक साधन है ।
 
# गणवेश के पेटर्न के सम्बन्ध में सभी मौन रहे । परन्तु कपड़े व रंग के बारे में उनका मत है कि गणवेश का कपड़ा सूती व रंग सफेद व नीला होना चाहिये ।
 
# गणवेश के पेटर्न के सम्बन्ध में सभी मौन रहे । परन्तु कपड़े व रंग के बारे में उनका मत है कि गणवेश का कपड़ा सूती व रंग सफेद व नीला होना चाहिये ।
# कुछ लोगों ने बताया कि सप्ताह में एक दिन शारीरिक शिक्षा के लिए गणवेश में बदलाव होना चाहिए ।
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# कुछ लोगोंं ने बताया कि सप्ताह में एक दिन शारीरिक शिक्षा के लिए गणवेश में बदलाव होना चाहिए ।
 
# लगभग सबका यह मत था कि संचालक मंडल को छोड़कर शेष सबका अर्थात्‌ छात्र, शिक्षक, प्रधानाचार्य और सेवक का गणवेश होना चाहिए ।
 
# लगभग सबका यह मत था कि संचालक मंडल को छोड़कर शेष सबका अर्थात्‌ छात्र, शिक्षक, प्रधानाचार्य और सेवक का गणवेश होना चाहिए ।
 
# गणवेश के अन्तर्गत पदवेश, आभूषण, केश विन्यास आदि के बारे में किसी ने भी अपना मत नहीं रखा ।
 
# गणवेश के अन्तर्गत पदवेश, आभूषण, केश विन्यास आदि के बारे में किसी ने भी अपना मत नहीं रखा ।
इन लोगों के अलावा समाज के अन्य लोगों के साथ गणवेश के सम्बन्ध में जानने का प्रयास किया, जिसमें कुछ नये सुझाव प्राप्त हुए । शिशुकक्षाओं के बच्चों को गणवेश के बन्धन में नहीं बाँधना चाहिए । उन्हें उनकी पसन्द के रंग-बिरंगे कपड़े, फ्रॉंक व निकर कमीज पहनने देना चाहिए । कुछ का मत यह भी था कि ग्रामीण क्षेत्र के विद्यालय में वहाँ का पारम्परिक वेश भी रहे तो अच्छा संस्कार होगा।
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इन लोगोंं के अलावा समाज के अन्य लोगोंं के साथ गणवेश के सम्बन्ध में जानने का प्रयास किया, जिसमें कुछ नये सुझाव प्राप्त हुए । शिशुकक्षाओं के बच्चों को गणवेश के बन्धन में नहीं बाँधना चाहिए । उन्हें उनकी पसन्द के रंग-बिरंगे कपड़े, फ्रॉंक व निकर कमीज पहनने देना चाहिए । कुछ का मत यह भी था कि ग्रामीण क्षेत्र के विद्यालय में वहाँ का पारम्परिक वेश भी रहे तो अच्छा संस्कार होगा।
    
==== अभिमत ====
 
==== अभिमत ====
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# व्यावहारिक दृष्टि से बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में विचार करते समय किन किन बातों का ध्यान रखना चाहिये ?
 
# व्यावहारिक दृष्टि से बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में विचार करते समय किन किन बातों का ध्यान रखना चाहिये ?
 
# बैठक व्यवस्था का संस्कारक्षम वातावरण निर्मिति की दृष्टि से क्या महत्त्व है ?
 
# बैठक व्यवस्था का संस्कारक्षम वातावरण निर्मिति की दृष्टि से क्या महत्त्व है ?
# बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में लोगों की मानसिकता कैसी होती है ?
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# बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में लोगोंं की मानसिकता कैसी होती है ?
 
# क्या कक्षाकक्ष, कार्यालय, पुस्तकालय, प्रयोगशाला आदि विभिन्न कार्यस्थलों के अनुरूप भिन्न भिन्न प्रकार की बैठक व्यवस्था होनी चाहिये ?
 
# क्या कक्षाकक्ष, कार्यालय, पुस्तकालय, प्रयोगशाला आदि विभिन्न कार्यस्थलों के अनुरूप भिन्न भिन्न प्रकार की बैठक व्यवस्था होनी चाहिये ?
 
# बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में छोटी छोटी किन किन बातों का ध्यान करना चाहिये ?
 
# बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में छोटी छोटी किन किन बातों का ध्यान करना चाहिये ?
    
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
विद्यालय की बैठक व्यवस्था से सम्बन्धित आठ प्रश्नों की यह प्रश्नावली महाराष्ट्र के अकोला जिले के १९ शिक्षकों, ५ मुख्याध्यापकों, १५ अभिभावकों एवं ४ संस्था संचालकों अर्थात् कुल ४३ लोगों ने भरकर भेजी है।
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विद्यालय की बैठक व्यवस्था से सम्बन्धित आठ प्रश्नों की यह प्रश्नावली महाराष्ट्र के अकोला जिले के १९ शिक्षकों, ५ मुख्याध्यापकों, १५ अभिभावकों एवं ४ संस्था संचालकों अर्थात् कुल ४३ लोगोंं ने भरकर भेजी है।
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प्रथम प्रश्न के उत्तर से यह तो स्पष्ट ध्यान में आता है कि यह तो सभी जानते हैं कि धार्मिक और अधार्मिक ऐसी दो प्रकार की बैठक व्यवस्था होती है। किन्तु आगे के उपप्रश्नों का उत्तर लिखते समय कुछ वैचारिक संभ्रम दिखाई देता है। धार्मिक बैठक व्यवस्था सस्ती होने के कारण कमजोर आर्थिक स्थिति वाले विद्यालयों के लिए ठीक है ऐसा मानते हैं । शास्त्रीय दृष्टि से बैठक व्यवस्था का विचार किसी भी उत्तर में नहीं मिला । व्यावहारिक दृष्टि से बैठक व्यवस्था का विचार करने वाले बिन्दु और लोगों की मानसिकता इन दोनों प्रश्नों के उत्तर में सब मौन रहे हैं। पाँचवे प्रश्न में संस्कारक्षम वातावरण निर्माण करने हेतु कक्षाकक्ष में चित्र, चार्ट्स, सुविचार आदि लगाने चाहिए ऐसे उत्तर मिले हैं । परन्तु वास्तव में ये सारी सामग्री लगाना तो कक्षा कक्ष का सुशोभन करना मात्र ही है, यह तो केवल बाहरी व्यवस्था ही है । संस्कारक्षम वातावरण का आन्तरिक स्वरूप क्या हो यह किसी के भी ध्यान में नहीं आया । सातवें प्रश्न के उत्तर में पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कार्यालय आदि में धार्मिक बैठक व्यवस्था उचित नहीं ऐसा ही सबका मत था ।  
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प्रथम प्रश्न के उत्तर से यह तो स्पष्ट ध्यान में आता है कि यह तो सभी जानते हैं कि धार्मिक और अधार्मिक ऐसी दो प्रकार की बैठक व्यवस्था होती है। किन्तु आगे के उपप्रश्नों का उत्तर लिखते समय कुछ वैचारिक संभ्रम दिखाई देता है। धार्मिक बैठक व्यवस्था सस्ती होने के कारण कमजोर आर्थिक स्थिति वाले विद्यालयों के लिए ठीक है ऐसा मानते हैं । शास्त्रीय दृष्टि से बैठक व्यवस्था का विचार किसी भी उत्तर में नहीं मिला । व्यावहारिक दृष्टि से बैठक व्यवस्था का विचार करने वाले बिन्दु और लोगोंं की मानसिकता इन दोनों प्रश्नों के उत्तर में सब मौन रहे हैं। पाँचवे प्रश्न में संस्कारक्षम वातावरण निर्माण करने हेतु कक्षाकक्ष में चित्र, चार्ट्स, सुविचार आदि लगाने चाहिए ऐसे उत्तर मिले हैं । परन्तु वास्तव में ये सारी सामग्री लगाना तो कक्षा कक्ष का सुशोभन करना मात्र ही है, यह तो केवल बाहरी व्यवस्था ही है । संस्कारक्षम वातावरण का आन्तरिक स्वरूप क्या हो यह किसी के भी ध्यान में नहीं आया । सातवें प्रश्न के उत्तर में पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कार्यालय आदि में धार्मिक बैठक व्यवस्था उचित नहीं ऐसा ही सबका मत था ।  
    
==== अभिमत ====
 
==== अभिमत ====
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===== दृष्टिकोण का अन्तर =====
 
===== दृष्टिकोण का अन्तर =====
अमेरिका और यूरोप में ऐसी रचना स्वाभाविक है और भारत में अस्वाभाविक है इसका कारण क्या है ? किसी भी बात में दृष्टिकोन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । अमेरिका और भारत में शिक्षा के प्रति देखने की दृष्टि ही अलग है । वहाँ जीवन रचना में अर्थ का स्थान सबसे ऊपर है । जो पैसा देता है वह बड़ा है, उस का अधिकार ज्यादा है और जो पैसा लेता है वह छोटा है और देने वाले के समक्ष नीचा ही स्थान पाता है । अध्ययन-अध्यापन के कार्य में छात्र अथवा छात्र के अभिभावक पैसा देते हैं और अध्यापक पैसा लेता है । अतः खड़े रहकर पढ़ाना उसके लिए बाध्यता है । बैठ कर पढ़ना छात्रों का अधिकार है । अध्यापक का स्थान नीचे होना भी स्वाभाविक है । छात्रों का स्थान ऊपर ही होना स्वाभाविक है । भारत में यह व्यवस्था अमेरिका की अपेक्षा श्रेष्ठ है । भारत में विद्या देने वाला बड़ा है और विद्या लेने वाला छोटा है । अतः वह बैठता है, छात्र भी बैठते हैं क्योंकि अध्ययन और अध्यापन बैठकर ही किया जाता है । परंतु  अध्यापक का स्थान छात्रों से ऊपर ही होता है । भारत में बैठने की इस प्रकार की स्थिति स्वाभाविक है । खड़े-खड़े पढ़ाने हेतु सुविधा होती है ऐसी अनेक लोगों की मान्यता है उनका.  कहना है कि एक शिक्षक को अपनी कक्षा में घूमना भी पड़ता है। उसे छात्रों की गतिविधि पर ध्यान देना होता है । कहीं किसी छात्र को सहायता भी करनी होती है । किसी छात्र का निरीक्षण भी करना होता है । उसे श्याम फलक पर लिखना भी होता है । इस स्थिति में घूमना स्वाभाविक मानना चाहिए,  बात ठीक है परन्तु हम जिस अध्ययन-अध्यापन की बात कर रहें हैं उसमें मन की एकाग्रता और बुद्धि की स्थिरता आवश्यक है । साथ ही उसमें भावना की दृष्टि से विनयशीलता और आदर भी अपेक्षित है, आचार्य को आदर देने के लिए आचार्य खड़े हों तो असुविधा होती है । आचार्य बैठे और भी उच्च आसन पर बैठे यही स्वाभाविक है । पहेली बात में शिक्षक के पक्ष में स्वयं काम करना और करवाना अधिक अपेक्षित है वह भी बैठकर हो सकता है । परंतु शिक्षक के खड़े रहने में हमें आपत्ति नहीं होने के कारण से हम शिक्षक खड़े हो इसमें कक्षा कक्ष की सुविधा देखते हैं । बैठकर अध्ययन-अध्यापन करने का कार्य केवल भावात्मक नहीं है, वह वैज्ञानिक भी है । बैठने की भी एक विशेष स्थिति होती है जो आवश्यक है । शरीर का नीचे का हिस्सा बंद हो जाता है और उर्जा नीचे की ओर प्रवाहित नहीं होती । अध्ययन करते समय अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।
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अमेरिका और यूरोप में ऐसी रचना स्वाभाविक है और भारत में अस्वाभाविक है इसका कारण क्या है ? किसी भी बात में दृष्टिकोन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । अमेरिका और भारत में शिक्षा के प्रति देखने की दृष्टि ही अलग है । वहाँ जीवन रचना में अर्थ का स्थान सबसे ऊपर है । जो पैसा देता है वह बड़ा है, उस का अधिकार ज्यादा है और जो पैसा लेता है वह छोटा है और देने वाले के समक्ष नीचा ही स्थान पाता है । अध्ययन-अध्यापन के कार्य में छात्र अथवा छात्र के अभिभावक पैसा देते हैं और अध्यापक पैसा लेता है । अतः खड़े रहकर पढ़ाना उसके लिए बाध्यता है । बैठ कर पढ़ना छात्रों का अधिकार है । अध्यापक का स्थान नीचे होना भी स्वाभाविक है । छात्रों का स्थान ऊपर ही होना स्वाभाविक है । भारत में यह व्यवस्था अमेरिका की अपेक्षा श्रेष्ठ है । भारत में विद्या देने वाला बड़ा है और विद्या लेने वाला छोटा है । अतः वह बैठता है, छात्र भी बैठते हैं क्योंकि अध्ययन और अध्यापन बैठकर ही किया जाता है । परंतु  अध्यापक का स्थान छात्रों से ऊपर ही होता है । भारत में बैठने की इस प्रकार की स्थिति स्वाभाविक है । खड़े-खड़े पढ़ाने हेतु सुविधा होती है ऐसी अनेक लोगोंं की मान्यता है उनका.  कहना है कि एक शिक्षक को अपनी कक्षा में घूमना भी पड़ता है। उसे छात्रों की गतिविधि पर ध्यान देना होता है । कहीं किसी छात्र को सहायता भी करनी होती है । किसी छात्र का निरीक्षण भी करना होता है । उसे श्याम फलक पर लिखना भी होता है । इस स्थिति में घूमना स्वाभाविक मानना चाहिए,  बात ठीक है परन्तु हम जिस अध्ययन-अध्यापन की बात कर रहें हैं उसमें मन की एकाग्रता और बुद्धि की स्थिरता आवश्यक है । साथ ही उसमें भावना की दृष्टि से विनयशीलता और आदर भी अपेक्षित है, आचार्य को आदर देने के लिए आचार्य खड़े हों तो असुविधा होती है । आचार्य बैठे और भी उच्च आसन पर बैठे यही स्वाभाविक है । पहेली बात में शिक्षक के पक्ष में स्वयं काम करना और करवाना अधिक अपेक्षित है वह भी बैठकर हो सकता है । परंतु शिक्षक के खड़े रहने में हमें आपत्ति नहीं होने के कारण से हम शिक्षक खड़े हो इसमें कक्षा कक्ष की सुविधा देखते हैं । बैठकर अध्ययन-अध्यापन करने का कार्य केवल भावात्मक नहीं है, वह वैज्ञानिक भी है । बैठने की भी एक विशेष स्थिति होती है जो आवश्यक है । शरीर का नीचे का हिस्सा बंद हो जाता है और उर्जा नीचे की ओर प्रवाहित नहीं होती । अध्ययन करते समय अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।
    
===== पैसों से सम्बन्ध जोड़ना =====
 
===== पैसों से सम्बन्ध जोड़ना =====
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सामने जो छात्र बैठे हैं उनकी बैठक व्यवस्था की रचना अध्ययन के स्वरूप के अनुसार भिन्न भिन्न हो सकती है । सर्वसामान्य रचना तती प्रतति में आयताकार बैठने की है। खड़ी पंक्ति को तति कहते हैं और पड़ी प्रतती कहते है।  
 
सामने जो छात्र बैठे हैं उनकी बैठक व्यवस्था की रचना अध्ययन के स्वरूप के अनुसार भिन्न भिन्न हो सकती है । सर्वसामान्य रचना तती प्रतति में आयताकार बैठने की है। खड़ी पंक्ति को तति कहते हैं और पड़ी प्रतती कहते है।  
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छात्रों की कुल संख्या के अनुसार तति और प्रतति संख्या बनती है । तति में प्रतति से अधिक संख्या होना स्वाभाविक है फिर भी कक्षा की आकृति और स्थान के अनुसार प्रतति में अधिक और तति ने कम संख्या बिठाई जा सकती है। उदाहरण के लिए कक्षा में यदि ३० छात्रों की संख्या है तो ६ तति और ५ प्रतति बनेंगे । ३५ संख्या है तो पांच तति और सात प्रतति बनेंगे । तति में और प्रतति में बैठे हुए छात्र एक दूसरे से समानांतर बना कर बैठते हैं तो अपने आप सुंदरता और अनशासन का वातावरण बनता है । अध्ययन-अध्यापन करने वाले लोगों की मानसिकता पर भी इसका परिणाम होता है । यदि योगाभ्यास करना है तो यह रचना बदलेगी या बदल सकती है। प्रथम प्रतति में यदि ५ बैठे है तो दूसरी में चार बैठेंगे और आगे वाले दो के मध्य में एक छात्र बैठेगा । उदाहरण के लिए प्रथम प्रतति में ६ बैठे हैं तो दूसरी में ५ बैठेंगे तीसरी में ६ बैठेंगे चौथी में पाँच । ) इस प्रकार से क्रमशः रचना होगी । इससे इस जगह में अधिक लोग बैठकर योग अभ्यास कर सकते हैं । यदि संगीत का अभ्यास करना है तो अध्यापक के सामने अर्ध मंडल में बैठना सुरुचि पूर्ण और सुविधाजनक लगता है । इसमें भी प्रततियाँ दो के मध्य में एक ऐसी बन सकती है । यदि कहानी सुनना है तो किसी भी प्रकार के अनुशासन वाली रचना नहीं होने से भी असुविधा नहीं होती । यदि बैठक के रूप में चर्चा करना है तो अर्धमंडल में बैठना या मंडल में बैठना सुविधाजनक रहता है क्योंकि इस स्थिति में सभी एक दूसरे के मुँह देख सकते हैं और एक दूसरे से संवाद कर सकते हैं । आजकल अनेक कॉन्फ्रेंसीस में इस प्रकार की रचना देखी जा सकती है । इस प्रकार उद्देश्य के अनुसार विभिन्न प्रकार की व्यवस्था की जा सकती है।
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छात्रों की कुल संख्या के अनुसार तति और प्रतति संख्या बनती है । तति में प्रतति से अधिक संख्या होना स्वाभाविक है फिर भी कक्षा की आकृति और स्थान के अनुसार प्रतति में अधिक और तति ने कम संख्या बिठाई जा सकती है। उदाहरण के लिए कक्षा में यदि ३० छात्रों की संख्या है तो ६ तति और ५ प्रतति बनेंगे । ३५ संख्या है तो पांच तति और सात प्रतति बनेंगे । तति में और प्रतति में बैठे हुए छात्र एक दूसरे से समानांतर बना कर बैठते हैं तो अपने आप सुंदरता और अनशासन का वातावरण बनता है । अध्ययन-अध्यापन करने वाले लोगोंं की मानसिकता पर भी इसका परिणाम होता है । यदि योगाभ्यास करना है तो यह रचना बदलेगी या बदल सकती है। प्रथम प्रतति में यदि ५ बैठे है तो दूसरी में चार बैठेंगे और आगे वाले दो के मध्य में एक छात्र बैठेगा । उदाहरण के लिए प्रथम प्रतति में ६ बैठे हैं तो दूसरी में ५ बैठेंगे तीसरी में ६ बैठेंगे चौथी में पाँच । ) इस प्रकार से क्रमशः रचना होगी । इससे इस जगह में अधिक लोग बैठकर योग अभ्यास कर सकते हैं । यदि संगीत का अभ्यास करना है तो अध्यापक के सामने अर्ध मंडल में बैठना सुरुचि पूर्ण और सुविधाजनक लगता है । इसमें भी प्रततियाँ दो के मध्य में एक ऐसी बन सकती है । यदि कहानी सुनना है तो किसी भी प्रकार के अनुशासन वाली रचना नहीं होने से भी असुविधा नहीं होती । यदि बैठक के रूप में चर्चा करना है तो अर्धमंडल में बैठना या मंडल में बैठना सुविधाजनक रहता है क्योंकि इस स्थिति में सभी एक दूसरे के मुँह देख सकते हैं और एक दूसरे से संवाद कर सकते हैं । आजकल अनेक कॉन्फ्रेंसीस में इस प्रकार की रचना देखी जा सकती है । इस प्रकार उद्देश्य के अनुसार विभिन्न प्रकार की व्यवस्था की जा सकती है।
    
=== विद्यालय में पर्यावरण सुरक्षा ===
 
=== विद्यालय में पर्यावरण सुरक्षा ===
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अतः पानी, हवा, भूमि का प्रदूषण करनेवाले डिटर्जेण्ट, प्लास्टिक, पेट्रोल, सिमेण्ट, विभिन्न रसायनों से मुक्ति के साथ
 
अतः पानी, हवा, भूमि का प्रदूषण करनेवाले डिटर्जेण्ट, प्लास्टिक, पेट्रोल, सिमेण्ट, विभिन्न रसायनों से मुक्ति के साथ
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साथ मन, वाणी, विचार, दृष्टिकोण को 2प्रदूषित करने वाले तामसी आहार उच्छृखल व्यवहार, संकुचित विचार, झूठे अहंकार आदि पर नियन्त्रण प्राप्त करने की आवश्यकता है । हमें गणित में अच्छे अंक चाहिये, हमें अपने विद्यार्थी मेडिकल आदि पाठ्यक्रमों में प्रवेश प्राप्त करें, बड़े बड़े वैज्ञानिक, उद्योजक, अधिकारी आदि हों इसकी महत्वाकांक्षा रहती है परन्तु मूल में सज्जन, विचारशील, सदाचारी, सद्बुद्धियुक्त हों इसकी ओर हमारा ध्यान नहीं रहता । व्यक्ति ऐसा कैसे बनेगा इसकी अनेक स्थानों पर अनेक सन्दर्भो में, अनेक लोगों ने बातें कही ही हैं । हम वो नहीं जानते हैं ऐसा भी नहीं है । परन्तु विद्यालय चलाने वाले संचालक, शिक्षक, अभिभावक सब सही रास्ता अपनाने से चूक जाते हैं, डरते हैं, सहम जाते हैं ।  
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साथ मन, वाणी, विचार, दृष्टिकोण को 2प्रदूषित करने वाले तामसी आहार उच्छृखल व्यवहार, संकुचित विचार, झूठे अहंकार आदि पर नियन्त्रण प्राप्त करने की आवश्यकता है । हमें गणित में अच्छे अंक चाहिये, हमें अपने विद्यार्थी मेडिकल आदि पाठ्यक्रमों में प्रवेश प्राप्त करें, बड़े बड़े वैज्ञानिक, उद्योजक, अधिकारी आदि हों इसकी महत्वाकांक्षा रहती है परन्तु मूल में सज्जन, विचारशील, सदाचारी, सद्बुद्धियुक्त हों इसकी ओर हमारा ध्यान नहीं रहता । व्यक्ति ऐसा कैसे बनेगा इसकी अनेक स्थानों पर अनेक सन्दर्भो में, अनेक लोगोंं ने बातें कही ही हैं । हम वो नहीं जानते हैं ऐसा भी नहीं है । परन्तु विद्यालय चलाने वाले संचालक, शिक्षक, अभिभावक सब सही रास्ता अपनाने से चूक जाते हैं, डरते हैं, सहम जाते हैं ।  
    
अतः वास्तव में साहस करने की आवश्यकता है । हमारे पास मार्गदर्शन की कमी नहीं है परन्तु मार्ग पर चलने से ही लक्ष्य समीप आता है और मार्ग पर चलना हमें होता है, अन्य किसी को नहीं ।
 
अतः वास्तव में साहस करने की आवश्यकता है । हमारे पास मार्गदर्शन की कमी नहीं है परन्तु मार्ग पर चलने से ही लक्ष्य समीप आता है और मार्ग पर चलना हमें होता है, अन्य किसी को नहीं ।
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==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
पवित्रता यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं अनुभूति का विषय है । पवित्र क्या है और अपवित्र क्या है इसकी समझ है परन्तु उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। सात प्रश्नों की इस प्रश्नावली के उत्तर सभी शिक्षकों ने विचारपूर्वक और चर्चा करके लिखे हैं, फिर भी वे अपने मतों पर दृढ हैं ऐसा लगता नहीं है।
 
पवित्रता यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं अनुभूति का विषय है । पवित्र क्या है और अपवित्र क्या है इसकी समझ है परन्तु उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। सात प्रश्नों की इस प्रश्नावली के उत्तर सभी शिक्षकों ने विचारपूर्वक और चर्चा करके लिखे हैं, फिर भी वे अपने मतों पर दृढ हैं ऐसा लगता नहीं है।
# विद्यालय में पवित्रता का अर्थ बताते हुए आचार्य, प्रधानाचार्य एवं छात्र तीनों के मध्य आपसी प्रेमपूर्ण, द्वेषरहित सम्बन्ध तथा आन्तरिक एवं बाह्य शुचिता अर्थात् पवित्रता इस प्रकार का अर्थगठन कुछ लोगों ने किया है। विद्यालय में पवित्रता क्यों होनी चाहिए ?  
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# विद्यालय में पवित्रता का अर्थ बताते हुए आचार्य, प्रधानाचार्य एवं छात्र तीनों के मध्य आपसी प्रेमपूर्ण, द्वेषरहित सम्बन्ध तथा आन्तरिक एवं बाह्य शुचिता अर्थात् पवित्रता इस प्रकार का अर्थगठन कुछ लोगोंं ने किया है। विद्यालय में पवित्रता क्यों होनी चाहिए ?  
 
# इन प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि विद्यालय सरस्वती का मन्दिर है अतः पवित्रता आवश्यक है। शैक्षिक कार्य तनाव रहित होने चाहिए, जो पवित्र वातावरण में ही सम्भव है। इस प्रकार के विभिन्न मत प्राप्त हुए ।  
 
# इन प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि विद्यालय सरस्वती का मन्दिर है अतः पवित्रता आवश्यक है। शैक्षिक कार्य तनाव रहित होने चाहिए, जो पवित्र वातावरण में ही सम्भव है। इस प्रकार के विभिन्न मत प्राप्त हुए ।  
 
# एक ने मन की शुद्धता एवं निष्कपटता, इन शब्दों में पवित्रता की मानसिकता का वर्णन किया । अन्य सभी इस प्रश्न पर मौन रहे।  
 
# एक ने मन की शुद्धता एवं निष्कपटता, इन शब्दों में पवित्रता की मानसिकता का वर्णन किया । अन्य सभी इस प्रश्न पर मौन रहे।  
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'''अभिमत :'''
 
'''अभिमत :'''
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यह प्रश्नावली सब लोगों को अन्तर्मुख करने वाली थी। वास्तव में धार्मिकों के रोम रोम में अच्छाई है। पवित्रता स्वभाव में तो हैं परन्तु पाश्चात्य अंधानुकरण एवं अध्ययन में कमी आने के कारण पवित्रता जैसी स्वाभाविक बात आज अव्यवहार्य हो गई है । स्वच्छता का बोलबाला इतना बढ़ गया है कि वह प्रदर्शन की वस्तु बन गई है। पर्यावरण की शुद्धि करने वाली प्रत्येक बात पवित्र है यह भरातीय मान्यता है । ॐ, वेद, ज्ञान, यज्ञ, सेवा, अन्न, गंगा, तुलसी, औषधि, गोमय, गोमाता, पंचमहाभूत, सद्भावना एवं सदाचार पवित्र हैं । विद्यालयों के सन्दर्भ में पवित्रता निर्माण करने हेतु दैनिक अग्निहोत्र, ब्रह्मनाद, सरस्वती वंदना, गीता के श्लोक, मानस की चौपाइयाँ आदि सहजता से कर सकते हैं । कक्षा में जाते समय जूते बाहर उतारना अत्यन्त सहज कार्य होना चाहिए। विद्यालय ज्ञान का केन्द्र है और ज्ञान पवित्रतम है । वास्तव में व्यवसाय और राजनीति अपने अपने स्थान पर उचित है, परन्तु उसे शिक्षा से जोडा गया तो शिक्षा अपवित्र हो जायेगी । इस बात को ध्यान में रखकर व्यवहार करेंगे तो विद्यालय की पवित्रता टिकेगी।
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यह प्रश्नावली सब लोगोंं को अन्तर्मुख करने वाली थी। वास्तव में धार्मिकों के रोम रोम में अच्छाई है। पवित्रता स्वभाव में तो हैं परन्तु पाश्चात्य अंधानुकरण एवं अध्ययन में कमी आने के कारण पवित्रता जैसी स्वाभाविक बात आज अव्यवहार्य हो गई है । स्वच्छता का बोलबाला इतना बढ़ गया है कि वह प्रदर्शन की वस्तु बन गई है। पर्यावरण की शुद्धि करने वाली प्रत्येक बात पवित्र है यह भरातीय मान्यता है । ॐ, वेद, ज्ञान, यज्ञ, सेवा, अन्न, गंगा, तुलसी, औषधि, गोमय, गोमाता, पंचमहाभूत, सद्भावना एवं सदाचार पवित्र हैं । विद्यालयों के सन्दर्भ में पवित्रता निर्माण करने हेतु दैनिक अग्निहोत्र, ब्रह्मनाद, सरस्वती वंदना, गीता के श्लोक, मानस की चौपाइयाँ आदि सहजता से कर सकते हैं । कक्षा में जाते समय जूते बाहर उतारना अत्यन्त सहज कार्य होना चाहिए। विद्यालय ज्ञान का केन्द्र है और ज्ञान पवित्रतम है । वास्तव में व्यवसाय और राजनीति अपने अपने स्थान पर उचित है, परन्तु उसे शिक्षा से जोडा गया तो शिक्षा अपवित्र हो जायेगी । इस बात को ध्यान में रखकर व्यवहार करेंगे तो विद्यालय की पवित्रता टिकेगी।
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वर्तमान समय का संकट यह है कि सामान्य जनों को जो बातें बिना प्रयास से समझ में आती हैं वे विद्वज्जनों को नहीं आतीं, जो बातें अनपढ लोगों को ज्ञात हैं वे पढे लिखें को नहीं । ऐसी अनेक बातों में से एक बात है पवित्रता की । लोगों को स्वच्छता की बात तो समझ में आती है परन्तु पवित्रता की नहीं । जिस प्रकार भोजन में पौष्टिकता तो समझ में आती है सात्त्विकता नहीं उसी प्रकार से स्वच्छता और पवित्रता का है।
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वर्तमान समय का संकट यह है कि सामान्य जनों को जो बातें बिना प्रयास से समझ में आती हैं वे विद्वज्जनों को नहीं आतीं, जो बातें अनपढ लोगोंं को ज्ञात हैं वे पढे लिखें को नहीं । ऐसी अनेक बातों में से एक बात है पवित्रता की । लोगोंं को स्वच्छता की बात तो समझ में आती है परन्तु पवित्रता की नहीं । जिस प्रकार भोजन में पौष्टिकता तो समझ में आती है सात्त्विकता नहीं उसी प्रकार से स्वच्छता और पवित्रता का है।
    
==== विमर्श ====
 
==== विमर्श ====
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==== सूती गणवेश ====
 
==== सूती गणवेश ====
स्वास्थ्य की दृष्टि से सूती गणवेश उत्तम है। सूती वस्त्र पर्यावरण की दृष्टि से भी लाभदायक है । हम जानते हैं कि प्लास्टिक के उपयोग ने पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों का बहुत नुकसान किया है। वैसे तो सभी को सूती वस्त्र पहनने चाहिए। अनपढ़, मन्दबुद्धि, दुष्प्रभाव से अनजान, सभी के प्रति लापरवाह रहने वाले लोग सूती कपड़े भले ही न पहनें, किन्तु समझदार, होशियार और शिक्षित लोगों को तो सूती कपड़े पहनने ही चाहिए। अतः विद्यालयों को अपने छात्रों और शिक्षकों को सूती कपड़े पहनने की प्रेरणा देनी ही चाहिये । परामर्श देने के साथ साथ आग्रह भी करना चाहिए । इस हेतु विद्यालय का गणवेश सूती होना चाहिए । शुरुआत में सूती और क्रमशः खादी का स्वीकार किया जा सकता है।
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स्वास्थ्य की दृष्टि से सूती गणवेश उत्तम है। सूती वस्त्र पर्यावरण की दृष्टि से भी लाभदायक है । हम जानते हैं कि प्लास्टिक के उपयोग ने पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों का बहुत नुकसान किया है। वैसे तो सभी को सूती वस्त्र पहनने चाहिए। अनपढ़, मन्दबुद्धि, दुष्प्रभाव से अनजान, सभी के प्रति लापरवाह रहने वाले लोग सूती कपड़े भले ही न पहनें, किन्तु समझदार, होशियार और शिक्षित लोगोंं को तो सूती कपड़े पहनने ही चाहिए। अतः विद्यालयों को अपने छात्रों और शिक्षकों को सूती कपड़े पहनने की प्रेरणा देनी ही चाहिये । परामर्श देने के साथ साथ आग्रह भी करना चाहिए । इस हेतु विद्यालय का गणवेश सूती होना चाहिए । शुरुआत में सूती और क्रमशः खादी का स्वीकार किया जा सकता है।
    
लेकिन सूती गणवेश अनिवार्य होना ही पर्याप्त नहीं है, उचित भी नहीं है । सूती कपड़े की गुणात्मकता, योग्यता के बारे में समझदारी देनी चाहिए । यह आस्था, आग्रह और स्वैच्छिक रूप से स्वीकृत सिद्धान्त बनना चाहिए ।
 
लेकिन सूती गणवेश अनिवार्य होना ही पर्याप्त नहीं है, उचित भी नहीं है । सूती कपड़े की गुणात्मकता, योग्यता के बारे में समझदारी देनी चाहिए । यह आस्था, आग्रह और स्वैच्छिक रूप से स्वीकृत सिद्धान्त बनना चाहिए ।

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