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== आधुनिकता की समीक्षा आवश्यक ==
 
== आधुनिकता की समीक्षा आवश्यक ==
वैश्विक संकट का क्या स्रोत है, उसका क्या स्वरूप है और उसका क्या समाधान है ? वस्तुतः यह प्रश्न भारत से नहीं उठ रहा है कि विश्व संकटग्रस्त है । स्वयं पश्चिम में यह प्रश्न उठ रहा है । और यह प्रश्न जब पश्चिम में उठ रहा है तो अतः उठ रहा है, क्योंकि वे अब इस निष्कर्ष पर पहॅुंचे हैं कि पिछले ढाई सौ वर्षों की उनकी जो कमाई, जिसको एक शब्द में कहें तो आधुनिकता (Modernity) ही संदेहास्पद है। अतः आज इस आधुनिकता की जो पुनः समीक्षा हो रही है उसका प्रारम्भ अठारहवीं शताब्दी से हुआ। आधुनिक काल में और अभी तक जिस को हम enlightenment कहते रहे, ज्ञान कहते रहे, प्रबोधन कहते रहे, प्रगति कहते रहे, विकास कहते रहे उस _enlightenment project के बारे में आज यूरोप के ही विद्वान कह रहे हैं कि enlightenment is totallitairalism, ये जो प्रबोधन है ये वस्तुतः सर्वाधिकारवादी है। या ये जो enlightenmen है इसके लिए वो एक phrase इस्तेमाल करते हैं 'it is darkness in the moon' यह ऐसी स्थिति है जैसे कि दोपहर में अन्धकार छा जाय । तो यह प्रश्न उनका है, लेकिन दिक्कत यह है कि जब रूस में साम्यवाद का पतन हुआ तब इसी पश्चिमी जगत के लोगों ने कहा कि अब इतिहास का अन्त हो गया, या विचारधारा का अन्त हो गया। जिससे उनका आशय यह था कि बस अब सब रास्ता साफ हो गया, जो रास्ते के काँटे थे वो दूर हो गये। अब विकास और कल्याणकी एक अनन्त धारा बहेगी। और उस चीज को उन्होंने वैश्विकरण (ग्लोबलाइजेशन) कहा । लेकिन उनकी आशा कैसे दुराशा सिद्ध हुई यह रोष प्रकट हो रहा है।
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वैश्विक संकट का क्या स्रोत है, उसका क्या स्वरूप है और उसका क्या समाधान है ? वस्तुतः यह प्रश्न भारत से नहीं उठ रहा है कि विश्व संकटग्रस्त है । स्वयं पश्चिम में यह प्रश्न उठ रहा है । और यह प्रश्न जब पश्चिम में उठ रहा है तो अतः उठ रहा है, क्योंकि वे अब इस निष्कर्ष पर पहॅुंचे हैं कि पिछले ढाई सौ वर्षों की उनकी जो कमाई, जिसको एक शब्द में कहें तो आधुनिकता (Modernity) ही संदेहास्पद है। अतः आज इस आधुनिकता की जो पुनः समीक्षा हो रही है उसका प्रारम्भ अठारहवीं शताब्दी से हुआ। आधुनिक काल में और अभी तक जिस को हम enlightenment कहते रहे, ज्ञान कहते रहे, प्रबोधन कहते रहे, प्रगति कहते रहे, विकास कहते रहे उस _enlightenment project के बारे में आज यूरोप के ही विद्वान कह रहे हैं कि enlightenment is totallitairalism, ये जो प्रबोधन है ये वस्तुतः सर्वाधिकारवादी है। या ये जो enlightenmen है इसके लिए वो एक phrase इस्तेमाल करते हैं 'it is darkness in the moon' यह ऐसी स्थिति है जैसे कि दोपहर में अन्धकार छा जाय । तो यह प्रश्न उनका है, लेकिन दिक्कत यह है कि जब रूस में साम्यवाद का पतन हुआ तब इसी पश्चिमी जगत के लोगोंं ने कहा कि अब इतिहास का अन्त हो गया, या विचारधारा का अन्त हो गया। जिससे उनका आशय यह था कि बस अब सब रास्ता साफ हो गया, जो रास्ते के काँटे थे वो दूर हो गये। अब विकास और कल्याणकी एक अनन्त धारा बहेगी। और उस चीज को उन्होंने वैश्विकरण (ग्लोबलाइजेशन) कहा । लेकिन उनकी आशा कैसे दुराशा सिद्ध हुई यह रोष प्रकट हो रहा है।
    
== राजनीति में विश्वसनीयता का संकट ==
 
== राजनीति में विश्वसनीयता का संकट ==
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== बुद्धि की विकृति का संकट ==
 
== बुद्धि की विकृति का संकट ==
अब दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि ये पैदा कैसे हुआ। और इसका जवाब भी हमें नहीं देना है, उसका जवाब वहाँ के एक बड़े विद्वानने ही दिया है। रेनेगेनों के नाम से एक बहुत बड़े ऋषितुल्य विद्वान ने उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अपनी पुस्तक 'ध क्राईसिस ऑफ मॉडर्न सिविलाईझेशन' में कहा कि क्या यह प्रवृत्ति का विचलन (perversion of will) है कि क्रिया की विकृति (perversion of act) है जिससे यह संकट पैदा हुआ है। उन्होंने कहा कि वृत्ति और क्रिया बुद्धि के अधीन होती हैं । जब बुद्धि में विकार पैदा होता है, दोष पैदा होता है तो वृत्ति भी दूषित होती है और क्रिया भी दूषित होती है, तब व्यक्ति और समाज दोनों संकटग्रस्त हो जाते हैं। अतः उन्होंने कहा कि ये बुद्धि की विकृति का संकट है और यह बात सही है । हमारे यहाँ बुद्धि के और ज्ञान के सात धरातल माने गये हैं। हमारी परम्परा में सप्तज्ञान भूमियाँ भी कही गई हैं और सप्तअज्ञान भूमियाँ भी कही गई हैं। और उस दृष्टि से देखें तो या तो हम आखिरी अज्ञान की भूमि पर खडे हैं या ज्ञान की प्रथम भूमि पर खड़े हैं । और प्रथम ज्ञान की भूमि क्या होती है ? देहात्मक, देह ही आत्मा है, देह ही साध्य है, संसार ही साध्य है, हम केवल शरीर हैं। यह देहात्मवाद की दृष्टि का प्रारम्भ यूरोप की आधुनिकता के साथ हुआ। लेकिन जैसे-जैसे उनका राजनैतिक साम्राज्य बढ़ा और साथसाथ विचारों का साम्राज्य भी बढ़ता गया तब वह हमारे यहाँ भी आ गया । हमारी शिक्षा प्रणाली भी उसी तरह की हुई। लोगों ने भी यही मानना आरम्भ कर दिया कि देह ही आत्मा है, शरीर का सुख ही साध्य है, शरीर का कल्याण ही कल्याण है और भौतिक उपलब्धि ही प्रगति और विकास है। अतः यह बुद्धि की विकृति, perversion of intellect, के कारण ही तमाम विचारधारायें पैदा हुई हैं।  
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अब दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि ये पैदा कैसे हुआ। और इसका जवाब भी हमें नहीं देना है, उसका जवाब वहाँ के एक बड़े विद्वानने ही दिया है। रेनेगेनों के नाम से एक बहुत बड़े ऋषितुल्य विद्वान ने उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अपनी पुस्तक 'ध क्राईसिस ऑफ मॉडर्न सिविलाईझेशन' में कहा कि क्या यह प्रवृत्ति का विचलन (perversion of will) है कि क्रिया की विकृति (perversion of act) है जिससे यह संकट पैदा हुआ है। उन्होंने कहा कि वृत्ति और क्रिया बुद्धि के अधीन होती हैं । जब बुद्धि में विकार पैदा होता है, दोष पैदा होता है तो वृत्ति भी दूषित होती है और क्रिया भी दूषित होती है, तब व्यक्ति और समाज दोनों संकटग्रस्त हो जाते हैं। अतः उन्होंने कहा कि ये बुद्धि की विकृति का संकट है और यह बात सही है । हमारे यहाँ बुद्धि के और ज्ञान के सात धरातल माने गये हैं। हमारी परम्परा में सप्तज्ञान भूमियाँ भी कही गई हैं और सप्तअज्ञान भूमियाँ भी कही गई हैं। और उस दृष्टि से देखें तो या तो हम आखिरी अज्ञान की भूमि पर खडे हैं या ज्ञान की प्रथम भूमि पर खड़े हैं । और प्रथम ज्ञान की भूमि क्या होती है ? देहात्मक, देह ही आत्मा है, देह ही साध्य है, संसार ही साध्य है, हम केवल शरीर हैं। यह देहात्मवाद की दृष्टि का प्रारम्भ यूरोप की आधुनिकता के साथ हुआ। लेकिन जैसे-जैसे उनका राजनैतिक साम्राज्य बढ़ा और साथसाथ विचारों का साम्राज्य भी बढ़ता गया तब वह हमारे यहाँ भी आ गया । हमारी शिक्षा प्रणाली भी उसी तरह की हुई। लोगोंं ने भी यही मानना आरम्भ कर दिया कि देह ही आत्मा है, शरीर का सुख ही साध्य है, शरीर का कल्याण ही कल्याण है और भौतिक उपलब्धि ही प्रगति और विकास है। अतः यह बुद्धि की विकृति, perversion of intellect, के कारण ही तमाम विचारधारायें पैदा हुई हैं।  
    
== संविधान में पाश्चात्य उदारवादी जीवनदृष्टि ==
 
== संविधान में पाश्चात्य उदारवादी जीवनदृष्टि ==
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== समग्र दृष्टि का अभाव ==
 
== समग्र दृष्टि का अभाव ==
यहाँ पर एक दूसरी बात यह है कि हमारी जो समस्या है, वह यह है कि हमने हरचीज specialist लोगों के हवाले कर रखी है। यह राजनैतिक प्रश्न है इसको राजनीतिज्ञ देखेंगे, संसद देखेंगी। यह आर्थिक प्रश्न है तो अर्थशास्त्री देखेंगे । घर-परिवार का प्रश्न है तो समाजशास्त्री देखेंगे। भारत की यह दृष्टि कभी नहीं थी। हमारे यहाँ इस प्रश्न को पहले तत्त्वशास्त्री को refer किया जाता था । हमारे यहाँ के तत्त्वदर्शी केवल ब्रह्म चिन्तन नहीं करते थे वे विश्व चिन्तन भी करते थे। वे विश्वकल्याण का मार्ग भी बताते थे । तत्त्व चिन्तन हमारे देश में रहा नहीं, ज्ञान खेमों में बँट गया अतः ज्ञान की कोई समग्र दृष्टि रही नहीं । ऐसी स्थिति में बुद्धि में विकार आना स्वाभाविक था और वह आ गया और उससे बचा नहीं जा सकता था।
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यहाँ पर एक दूसरी बात यह है कि हमारी जो समस्या है, वह यह है कि हमने हरचीज specialist लोगोंं के हवाले कर रखी है। यह राजनैतिक प्रश्न है इसको राजनीतिज्ञ देखेंगे, संसद देखेंगी। यह आर्थिक प्रश्न है तो अर्थशास्त्री देखेंगे । घर-परिवार का प्रश्न है तो समाजशास्त्री देखेंगे। भारत की यह दृष्टि कभी नहीं थी। हमारे यहाँ इस प्रश्न को पहले तत्त्वशास्त्री को refer किया जाता था । हमारे यहाँ के तत्त्वदर्शी केवल ब्रह्म चिन्तन नहीं करते थे वे विश्व चिन्तन भी करते थे। वे विश्वकल्याण का मार्ग भी बताते थे । तत्त्व चिन्तन हमारे देश में रहा नहीं, ज्ञान खेमों में बँट गया अतः ज्ञान की कोई समग्र दृष्टि रही नहीं । ऐसी स्थिति में बुद्धि में विकार आना स्वाभाविक था और वह आ गया और उससे बचा नहीं जा सकता था।
    
तो पहली बात तो यह है कि बुद्धि विपर्यय का परिणाम क्या होता है तो धर्मबुद्धि का अभाव होने लगता है। धर्म का क्षय होता है। अब धर्म शब्द को हम ने केवल एक पूजा-उपासना तक केन्द्रित कर दिया है। समस्या भारत के साथ तो यह है । पश्चिम में तो नहीं है, क्योंकि उनके यहाँ धर्म को 'सेक्रेड' और 'प्रोफेन में अलग-अलग बाँट दिया गया है। हमारे यहाँ कुछ भी प्रोफेन नहीं है । हर चीज पवित्र है, हर चीज महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि हर वस्तु में परमात्मा की झलक है। हर वस्तु में परमसत्ता विद्यमान है। अतः भारत की दृष्टि सेक्रेड और प्रोफेन में चीजों को बाँटने में विश्वास नहीं करती। भगवत् चिन्तन, कर्मकाण्ड ये आवश्यक हैं क्यों कि उससे बुद्धि को एक सम्यकरूप में चीजों को देखने की शक्ति आती है। अतः उपासना धर्म का अनिवार्य पक्ष है। लेकिन जिसको हमलोग secular life कहते हैं, ऐसा हमारे यहाँ कुछ नहीं है। कोई भी चीज 'सेकुलर' नहीं है। जबसे यह शब्द वहाँ से हमारे यहाँ आया तब से हमने मानना आरम्भ कर दिया । यह 'रीलिजियस' है और यह 'सेकुलर' है। हमारी दृष्टि उस प्रकार की है नहीं। राजनीति क्या कोई 'सेकुलर' प्रवृत्ति है ? गाँधीजीने एक जगह लिखा कि 'धर्म विहीन राजनीति मोत का फन्दा है (politics bereft of religion is deathtrap) | अगर धर्म से राजनीति स्वतन्त्र हो जायेगी, अर्थशास्त्र स्वतन्त्र हो जायेगा, कला स्वतन्त्र हो जायेगी, साहित्य स्वतन्त्र हो जायेगा तो वे केवल entertainment रह जायेंगे और अन्ततः अनाचार के साधक बनेंगे । अतः भी इनको धर्म से स्वतन्त्र नहीं होना है, तो यह धर्म का वैश्विक पक्ष है । एक धर्म का उपासना परक पक्ष है, पारलौकिक पक्ष है, और एक धर्म का लौकिक पक्ष है। एक उतना ही आवश्यक है जितना कि दूसरा । इसीलिए हमारे यहाँ शब्द ही है नारीधर्म, पुरुषधर्म, अतिथिधर्म, साधारणधर्म, असाधारणधर्म, आपदधर्म, कृषकधर्म, पुत्र धर्म, पिता का धर्म । भारत की तो सारी शब्दावली यही है । कलाकार का क्या धर्म है, संगीतकार का क्या धर्म है। धर्म से कोई स्वतन्त्र नहीं है। क्योंकि धर्म ही तो वह दिशा है, मर्यादा है, जो इन योग्यताओं को, इन क्षमताओं को सम्यक् रखती हैं। अगर वह मर्यादा न रहें तो वे सब चीजें बेलगाम हो जायेंगी, अराजक हो जायेगा और कला के नाम पर अश्लीलता की स्थापना हो जायेगी ।
 
तो पहली बात तो यह है कि बुद्धि विपर्यय का परिणाम क्या होता है तो धर्मबुद्धि का अभाव होने लगता है। धर्म का क्षय होता है। अब धर्म शब्द को हम ने केवल एक पूजा-उपासना तक केन्द्रित कर दिया है। समस्या भारत के साथ तो यह है । पश्चिम में तो नहीं है, क्योंकि उनके यहाँ धर्म को 'सेक्रेड' और 'प्रोफेन में अलग-अलग बाँट दिया गया है। हमारे यहाँ कुछ भी प्रोफेन नहीं है । हर चीज पवित्र है, हर चीज महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि हर वस्तु में परमात्मा की झलक है। हर वस्तु में परमसत्ता विद्यमान है। अतः भारत की दृष्टि सेक्रेड और प्रोफेन में चीजों को बाँटने में विश्वास नहीं करती। भगवत् चिन्तन, कर्मकाण्ड ये आवश्यक हैं क्यों कि उससे बुद्धि को एक सम्यकरूप में चीजों को देखने की शक्ति आती है। अतः उपासना धर्म का अनिवार्य पक्ष है। लेकिन जिसको हमलोग secular life कहते हैं, ऐसा हमारे यहाँ कुछ नहीं है। कोई भी चीज 'सेकुलर' नहीं है। जबसे यह शब्द वहाँ से हमारे यहाँ आया तब से हमने मानना आरम्भ कर दिया । यह 'रीलिजियस' है और यह 'सेकुलर' है। हमारी दृष्टि उस प्रकार की है नहीं। राजनीति क्या कोई 'सेकुलर' प्रवृत्ति है ? गाँधीजीने एक जगह लिखा कि 'धर्म विहीन राजनीति मोत का फन्दा है (politics bereft of religion is deathtrap) | अगर धर्म से राजनीति स्वतन्त्र हो जायेगी, अर्थशास्त्र स्वतन्त्र हो जायेगा, कला स्वतन्त्र हो जायेगी, साहित्य स्वतन्त्र हो जायेगा तो वे केवल entertainment रह जायेंगे और अन्ततः अनाचार के साधक बनेंगे । अतः भी इनको धर्म से स्वतन्त्र नहीं होना है, तो यह धर्म का वैश्विक पक्ष है । एक धर्म का उपासना परक पक्ष है, पारलौकिक पक्ष है, और एक धर्म का लौकिक पक्ष है। एक उतना ही आवश्यक है जितना कि दूसरा । इसीलिए हमारे यहाँ शब्द ही है नारीधर्म, पुरुषधर्म, अतिथिधर्म, साधारणधर्म, असाधारणधर्म, आपदधर्म, कृषकधर्म, पुत्र धर्म, पिता का धर्म । भारत की तो सारी शब्दावली यही है । कलाकार का क्या धर्म है, संगीतकार का क्या धर्म है। धर्म से कोई स्वतन्त्र नहीं है। क्योंकि धर्म ही तो वह दिशा है, मर्यादा है, जो इन योग्यताओं को, इन क्षमताओं को सम्यक् रखती हैं। अगर वह मर्यादा न रहें तो वे सब चीजें बेलगाम हो जायेंगी, अराजक हो जायेगा और कला के नाम पर अश्लीलता की स्थापना हो जायेगी ।

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