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कोई भी मरना नहीं चाहता। अमर होने की इच्छा सब को होती है। लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। इसके साथ ही उसका बीमार नहीं होना, बूढा नहीं होना, गरीब नहीं होना, सदा सुखी होना आदि शर्तें भी यदि जुडी नहीं हैं तो ऐसे अमर मानव का जीवन नरक से भी भयावह बन जाएगा। और वह शीघ्रातिशीघ्र मरने की इच्छा करने लग जाएगा। इसी तथ्य का ज्ञान तथागत गौतम बुद्ध के जीवन को मोड़ देकर उन्हें संसार से विमुख करनेवाला कारक विचार था।  
 
कोई भी मरना नहीं चाहता। अमर होने की इच्छा सब को होती है। लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। इसके साथ ही उसका बीमार नहीं होना, बूढा नहीं होना, गरीब नहीं होना, सदा सुखी होना आदि शर्तें भी यदि जुडी नहीं हैं तो ऐसे अमर मानव का जीवन नरक से भी भयावह बन जाएगा। और वह शीघ्रातिशीघ्र मरने की इच्छा करने लग जाएगा। इसी तथ्य का ज्ञान तथागत गौतम बुद्ध के जीवन को मोड़ देकर उन्हें संसार से विमुख करनेवाला कारक विचार था।  
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इसलिए अमर या चिरंजीवी बनने के साथ सदा सुखी होने की क्षमता की आवश्यकता उस मानव में होना आवश्यक है। लेकिन जीवन में सुख और दु:ख दोनों होते ही हैं। निर्जीव को सुख और दु:ख दोनों की संवेदनाएं नहीं होतीं। लेकिन मानव तो सजीव होने के साथ ही अत्यंत संवेदनशील जीव भी है। इसलिए किसी भी मानव के लिए वह जब सुख और दु:ख दोनों से परे हो जाएगा तब ही चिरंजीवी बनने में औचित्य होता है। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता है कि सात लोग चिरंजीवी बने हैं। कहा है {{Citation needed}} :
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अतः अमर या चिरंजीवी बनने के साथ सदा सुखी होने की क्षमता की आवश्यकता उस मानव में होना आवश्यक है। लेकिन जीवन में सुख और दु:ख दोनों होते ही हैं। निर्जीव को सुख और दु:ख दोनों की संवेदनाएं नहीं होतीं। लेकिन मानव तो सजीव होने के साथ ही अत्यंत संवेदनशील जीव भी है। अतः किसी भी मानव के लिए वह जब सुख और दु:ख दोनों से परे हो जाएगा तब ही चिरंजीवी बनने में औचित्य होता है। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता है कि सात लोग चिरंजीवी बने हैं। कहा है {{Citation needed}} :
    
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च बिभीषण:  ।
 
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च बिभीषण:  ।
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* सबसे निम्न स्तर होता है इन्द्रियजन्य सुख का। हमारे अनुकूल हमारे ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त जो अनुभव हैं उन्हें सुख कहते हैं।  
 
* सबसे निम्न स्तर होता है इन्द्रियजन्य सुख का। हमारे अनुकूल हमारे ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त जो अनुभव हैं उन्हें सुख कहते हैं।  
 
* मन का सुख इससे श्रेष्ठ होता है। मन की प्रसन्नता के लिए मनुष्य शरीर को याने इन्द्रियों को कष्ट देकर भी पहाड़ चढ़ जाता है।  
 
* मन का सुख इससे श्रेष्ठ होता है। मन की प्रसन्नता के लिए मनुष्य शरीर को याने इन्द्रियों को कष्ट देकर भी पहाड़ चढ़ जाता है।  
* बुद्धि का सुख मन के सुख से भी श्रेष्ठ होता है। आर्केमेडीज एक वैज्ञानिक था। वह अपने विचारों में मग्न था। दो भिन्न धातुओं के मिश्रण से बने मिश्र धातु से बनी वस्तु में प्रत्येक धातु के प्रमाण का पता कैसे लगाना, ऐसी एक समस्या से वह चिंतित था। नहा रहा था। और उसे आपेक्षिक घनता और पानी के उत्सर्जन की शक्ति का जब पता चला तब वह क्षण उसके लिए अत्यनत सुख का क्षण था। क्यों कि उसने अपनी समस्या का हल निकाल लिया था। यह समझ में आते ही उससे रहा नहीं गया। वह नंगा ही यूरेका! यूरेका! याने उत्तर मिला गया, उत्तर मिल गया ऐसा चिल्लाता हुआ भागने लगा था। इसलिए तीसरा स्तर बुद्धि के सुख का होता है।  
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* बुद्धि का सुख मन के सुख से भी श्रेष्ठ होता है। आर्केमेडीज एक वैज्ञानिक था। वह अपने विचारों में मग्न था। दो भिन्न धातुओं के मिश्रण से बने मिश्र धातु से बनी वस्तु में प्रत्येक धातु के प्रमाण का पता कैसे लगाना, ऐसी एक समस्या से वह चिंतित था। नहा रहा था। और उसे आपेक्षिक घनता और पानी के उत्सर्जन की शक्ति का जब पता चला तब वह क्षण उसके लिए अत्यनत सुख का क्षण था। क्यों कि उसने अपनी समस्या का हल निकाल लिया था। यह समझ में आते ही उससे रहा नहीं गया। वह नंगा ही यूरेका! यूरेका! याने उत्तर मिला गया, उत्तर मिल गया ऐसा चिल्लाता हुआ भागने लगा था। अतः तीसरा स्तर बुद्धि के सुख का होता है।  
 
* चौथा इससे भी अधिक श्रेष्ठ और उच्च स्तर होता है “आत्मिक सुख” का। अपने सगे सम्बन्धियों को सुख मिलनेपर जिस तरह हम भी सुख अनुभव करते हैं वह सुख आत्मिक सुख होता है। माता ९ मास अपने गर्भ के रक्षण के लिए कष्ट लेती है। जब वह अपनी नवजात संतान को देखती है तब वह अपने सब कष्ट भूलकर अपार सुख का अनुभव करती है। यह आत्मिक सुख ही होता है।  
 
* चौथा इससे भी अधिक श्रेष्ठ और उच्च स्तर होता है “आत्मिक सुख” का। अपने सगे सम्बन्धियों को सुख मिलनेपर जिस तरह हम भी सुख अनुभव करते हैं वह सुख आत्मिक सुख होता है। माता ९ मास अपने गर्भ के रक्षण के लिए कष्ट लेती है। जब वह अपनी नवजात संतान को देखती है तब वह अपने सब कष्ट भूलकर अपार सुख का अनुभव करती है। यह आत्मिक सुख ही होता है।  
 
इन्द्रिय सुख क्षणिक होता है। और आत्मिक सुख स्थाई होता है। जब किसी समाज के इन भिन्न भिन्न स्तरों के सुख के प्रमाण में वृद्धि होती रहती है वह अधिक जीने की इच्छा करने लगता है। सुखों में भी जब आत्मिक सुख के दायरे में और मात्रा में निरंतर वृद्धि होती है तब शाश्वत सुख या परम सुख को प्राप्त करता है। तब वह चिरंजीवी बनने की इच्छा करता है। मन के सुख में मनुष्य इन्द्रिय सुख और दुःख से परे जाता है। बुद्धि के सुख के लिए मनुष्य मनके सुख और दुःख से परे जाता है। आत्मिक सुख मिलाने से वह बुद्धि के सुख और दुःख से परे जाता है। जब वह मर्यादित आत्मिक सुख से अमर्याद आत्मिक सुख प्राप्त करता है तब वह मर्यादित आत्मिक सुख और दुःख से परे चला जाता है। यही चिरंजीविता का लक्षण है।  
 
इन्द्रिय सुख क्षणिक होता है। और आत्मिक सुख स्थाई होता है। जब किसी समाज के इन भिन्न भिन्न स्तरों के सुख के प्रमाण में वृद्धि होती रहती है वह अधिक जीने की इच्छा करने लगता है। सुखों में भी जब आत्मिक सुख के दायरे में और मात्रा में निरंतर वृद्धि होती है तब शाश्वत सुख या परम सुख को प्राप्त करता है। तब वह चिरंजीवी बनने की इच्छा करता है। मन के सुख में मनुष्य इन्द्रिय सुख और दुःख से परे जाता है। बुद्धि के सुख के लिए मनुष्य मनके सुख और दुःख से परे जाता है। आत्मिक सुख मिलाने से वह बुद्धि के सुख और दुःख से परे जाता है। जब वह मर्यादित आत्मिक सुख से अमर्याद आत्मिक सुख प्राप्त करता है तब वह मर्यादित आत्मिक सुख और दुःख से परे चला जाता है। यही चिरंजीविता का लक्षण है।  
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# शांति
 
# शांति
 
# पौरुष
 
# पौरुष
इन चारों बातों का समष्टीगत होना समाज के सभी व्यक्तियों के सुखी होने के लिए आवश्यक है। जितने प्रमाण में ये समष्टिगत होंगी उतने प्रमाण में ही व्यक्ति को भी सुख मिल सकता है। समाज ऐसी अनगिनत वस्तुएँ है जिनसे हमारा जीवन चलता है। ये हमारे लिए वस्तुएँ बनानेवाले आसपास के लोग दुखी हों तो हम सुख से नहीं जी सकते। इसलिए ये भी सुख से जीयें यह भी हमारे सुख के लिए आवश्यक है। इसीलिये उपर्युक्त सुसाध्य आजीविका, स्वतंत्रता और शान्ति के साथ चौथी बात जो पौरुष है वह सुख को समष्टीगत बनाने के याने समाज के सभी लोगों को सुखी बनाने के प्रयासों को दिया हुआ नाम ही है।
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इन चारों बातों का समष्टीगत होना समाज के सभी व्यक्तियों के सुखी होने के लिए आवश्यक है। जितने प्रमाण में ये समष्टिगत होंगी उतने प्रमाण में ही व्यक्ति को भी सुख मिल सकता है। समाज ऐसी अनगिनत वस्तुएँ है जिनसे हमारा जीवन चलता है। ये हमारे लिए वस्तुएँ बनानेवाले आसपास के लोग दुखी हों तो हम सुख से नहीं जी सकते। अतः ये भी सुख से जीयें यह भी हमारे सुख के लिए आवश्यक है। इसीलिये उपर्युक्त सुसाध्य आजीविका, स्वतंत्रता और शान्ति के साथ चौथी बात जो पौरुष है वह सुख को समष्टीगत बनाने के याने समाज के सभी लोगों को सुखी बनाने के प्रयासों को दिया हुआ नाम ही है।
    
जिस समाज में सुख को समष्टीगत बनाने के लिए समाज के सभी व्यक्ति पौरुष करने के लिए तत्पर होते हैं वह समाज चिरंजीविता की इच्छा करता है।
 
जिस समाज में सुख को समष्टीगत बनाने के लिए समाज के सभी व्यक्ति पौरुष करने के लिए तत्पर होते हैं वह समाज चिरंजीविता की इच्छा करता है।
    
=== नश्वरता और अमरत्व ===
 
=== नश्वरता और अमरत्व ===
नश्वर का अर्थ सामान्यत: “नष्ट होनेवाली” से लिया जाता है। लेकिन अब यह सर्वमान्य तथ्य है कि सृष्टि में कोई भी वस्तु या पदार्थ नष्ट नहीं होता। उसके रूप में परिवर्तन होता है। इसलिए यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि रूप में परिवर्तन को ही नश्वरता कहते हैं। फिर अमरता क्या है?   
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नश्वर का अर्थ सामान्यत: “नष्ट होनेवाली” से लिया जाता है। लेकिन अब यह सर्वमान्य तथ्य है कि सृष्टि में कोई भी वस्तु या पदार्थ नष्ट नहीं होता। उसके रूप में परिवर्तन होता है। अतः यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि रूप में परिवर्तन को ही नश्वरता कहते हैं। फिर अमरता क्या है?   
    
श्रीमद्भगवद्गीता में तीन प्रकार के पुरूषों का वर्णन हैं। क्षर पुरूष, अक्षर पुरूष और उत्तम पुरूष। कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15-16 व 15-17 </ref>: <blockquote>द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थो$क्षर उच्यते । (भ.गी. १५ – १६) </blockquote><blockquote>उत्तम: पुरुषस्त्वन्य परमात्मेत्युदाहृत: । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्य व्यय ईश्वर ।  (भ.गी. १५  - १७) </blockquote><blockquote>अर्थ : इस विश्व में नाशवान और अविनाशी ऐसे दो पुरुष हैं। सभी अस्तित्वों के शरीर नाशवान हैं। नाशवान का अर्थ है जिनमें परिवर्तन होता है। अविनाशी का अर्थ है जिनमें परिवर्तन नहीं होता। दूसरा पुरुष अविनाशी है याने अमर है। याने जो अपना रूप नहीं बदलता। इसे ही धार्मिक (धार्मिक) विचारों में आत्मा कहा गया है। तीसरा पुरुष है वह है उत्तम पुरुष याने परमात्मा। </blockquote>इसी तरह इसी अध्याय के ७वें श्लोक में कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15-7</ref>: <blockquote>ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: । </blockquote><blockquote>याने सभी शरीरों में उपस्थित जीवात्मा मेरा अंश ही है। </blockquote>चिरंजीवी से तात्पर्य इस परिवर्तनशील पुरुष से नहीं है। वह है उस जीवात्मा से जो अविनाशी है। जब हम शरीर के स्तरपर जीते हैं याने मैं शरीर हूँ ऐसी भावना से जीते हैं तब हम नाशवान हो जाते हैं। लेकिन जब हम जीवात्मा जो परमात्मा का ही अंश है, के स्तरपर जीते हैं तब हम अविनाशी याने चिरंजीवी बन जाते हैं। तो चिरंजीवी बनने से तात्पर्य मै अविनाशी हूँ, ऐसी मन की श्रद्धा से है। ऐसी जब किसी समाज की श्रद्धा बन जाती है तब भी वह समाज चिरंजीवी बन जाता है।  
 
श्रीमद्भगवद्गीता में तीन प्रकार के पुरूषों का वर्णन हैं। क्षर पुरूष, अक्षर पुरूष और उत्तम पुरूष। कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15-16 व 15-17 </ref>: <blockquote>द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थो$क्षर उच्यते । (भ.गी. १५ – १६) </blockquote><blockquote>उत्तम: पुरुषस्त्वन्य परमात्मेत्युदाहृत: । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्य व्यय ईश्वर ।  (भ.गी. १५  - १७) </blockquote><blockquote>अर्थ : इस विश्व में नाशवान और अविनाशी ऐसे दो पुरुष हैं। सभी अस्तित्वों के शरीर नाशवान हैं। नाशवान का अर्थ है जिनमें परिवर्तन होता है। अविनाशी का अर्थ है जिनमें परिवर्तन नहीं होता। दूसरा पुरुष अविनाशी है याने अमर है। याने जो अपना रूप नहीं बदलता। इसे ही धार्मिक (धार्मिक) विचारों में आत्मा कहा गया है। तीसरा पुरुष है वह है उत्तम पुरुष याने परमात्मा। </blockquote>इसी तरह इसी अध्याय के ७वें श्लोक में कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15-7</ref>: <blockquote>ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: । </blockquote><blockquote>याने सभी शरीरों में उपस्थित जीवात्मा मेरा अंश ही है। </blockquote>चिरंजीवी से तात्पर्य इस परिवर्तनशील पुरुष से नहीं है। वह है उस जीवात्मा से जो अविनाशी है। जब हम शरीर के स्तरपर जीते हैं याने मैं शरीर हूँ ऐसी भावना से जीते हैं तब हम नाशवान हो जाते हैं। लेकिन जब हम जीवात्मा जो परमात्मा का ही अंश है, के स्तरपर जीते हैं तब हम अविनाशी याने चिरंजीवी बन जाते हैं। तो चिरंजीवी बनने से तात्पर्य मै अविनाशी हूँ, ऐसी मन की श्रद्धा से है। ऐसी जब किसी समाज की श्रद्धा बन जाती है तब भी वह समाज चिरंजीवी बन जाता है।  
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विश्व के हर जीव में लाखो/करोड़ों पेशियाँ होतीं हैं। उनमें से हजारों की संख्या में हर क्षण मरती रहती हैं। मल मूत्र के साथ शरीर के बाहर फेंकी जाती हैं। इसी तरह से शरीर द्वारा ग्रहण किये अन्न, जल और हवा के कारण हर क्षण हजारों पेशियाँ नई निर्माण होती रहती हैं। इसे चयापचय प्रक्रिया कहते हैं। जब तक तो मरनेवाली पेशियों की संख्या निर्माण होनेवाली पेशियों से कम होती है जीव की क्षमताओं में वृद्धि होती है। लेकिन जैसे ही मरनेवाली पेशियों की संख्या निर्माण होनेवाली पेशियों से अधिक हो जाती है वह जीव वृद्धावस्था की ओर आगे बढ़ने लगता है। मृत्यू की ओर आगे बढ़ने लगता है। सामान्यत: मरनेवाली और निर्माण होनेवाली पेशियों की संख्या में संतुलन अधिक दिनों तक बना नहीं रह पाता। प्रकृति के नियम के अनुसार तो वृद्धावस्था की ओर बढ़ना स्वाभाविक ही होता है। योग या संयमित जीवन से यौवन कुछ आगे बढ़ाया जा सकता है। लेकिन वृद्धावस्था को पूरी तरह से टालना तब ही संभव होता है जब “योगविद्या” का सहारा लिया जाता है। (जैसे ज्ञानेश्वर महाराज से जब मिलने आए थे तब चांगदेव १४०० वर्ष की आयु के थे)  
 
विश्व के हर जीव में लाखो/करोड़ों पेशियाँ होतीं हैं। उनमें से हजारों की संख्या में हर क्षण मरती रहती हैं। मल मूत्र के साथ शरीर के बाहर फेंकी जाती हैं। इसी तरह से शरीर द्वारा ग्रहण किये अन्न, जल और हवा के कारण हर क्षण हजारों पेशियाँ नई निर्माण होती रहती हैं। इसे चयापचय प्रक्रिया कहते हैं। जब तक तो मरनेवाली पेशियों की संख्या निर्माण होनेवाली पेशियों से कम होती है जीव की क्षमताओं में वृद्धि होती है। लेकिन जैसे ही मरनेवाली पेशियों की संख्या निर्माण होनेवाली पेशियों से अधिक हो जाती है वह जीव वृद्धावस्था की ओर आगे बढ़ने लगता है। मृत्यू की ओर आगे बढ़ने लगता है। सामान्यत: मरनेवाली और निर्माण होनेवाली पेशियों की संख्या में संतुलन अधिक दिनों तक बना नहीं रह पाता। प्रकृति के नियम के अनुसार तो वृद्धावस्था की ओर बढ़ना स्वाभाविक ही होता है। योग या संयमित जीवन से यौवन कुछ आगे बढ़ाया जा सकता है। लेकिन वृद्धावस्था को पूरी तरह से टालना तब ही संभव होता है जब “योगविद्या” का सहारा लिया जाता है। (जैसे ज्ञानेश्वर महाराज से जब मिलने आए थे तब चांगदेव १४०० वर्ष की आयु के थे)  
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चिरंजीवी बनने का अर्थ है निरंतर (निर्माण होनेवाली अतिरिक्त पेशियों के कारण) वर्धिष्णु रहना। यह तो हुआ मनुष्य के विषय में चिरंजीविता की पूर्वशर्त। समाज या राष्ट्र भी एक जीवंत इकाई होते हैं। इनमें भी ये जबतक बढ़ाते रहते हैं, वर्धिष्णु रहते हैं तबतक जीते हैं। घटना आरम्भ हुआ कि ये नष्ट होने की दिशा में आगे बढ़ने लगते हैं। इसलिए किसी भी जीव की चिरंजीविता की यह आवश्यक शर्त है कि वह बढ़ता रहे, वर्धिष्णु रहे। भारत का इतिहास भी यही बताता है कि भारत जब तक वर्धिष्णु था भारत पर बाहर से आक्रमण नहीं हुए। और जैसे ही भारत ने अपनी वर्धिष्णुता खोई इसका आकुंचन आरम्भ हो गया। भारत अब भी कुछ जीवित है इसका एकमात्र कारण है कि भारत विस्तार करते करते विश्वमय हो गया था इसीलिये अन्य समाजों जैसा यह नष्ट नहीं हो सका। लेकिन यह जिस आकुंचन के दौर में जी रहा है यह उसे मृत्यू की याने नष्ट होने की दिशा में ही ले जा रहा है।   
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चिरंजीवी बनने का अर्थ है निरंतर (निर्माण होनेवाली अतिरिक्त पेशियों के कारण) वर्धिष्णु रहना। यह तो हुआ मनुष्य के विषय में चिरंजीविता की पूर्वशर्त। समाज या राष्ट्र भी एक जीवंत इकाई होते हैं। इनमें भी ये जबतक बढ़ाते रहते हैं, वर्धिष्णु रहते हैं तबतक जीते हैं। घटना आरम्भ हुआ कि ये नष्ट होने की दिशा में आगे बढ़ने लगते हैं। अतः किसी भी जीव की चिरंजीविता की यह आवश्यक शर्त है कि वह बढ़ता रहे, वर्धिष्णु रहे। भारत का इतिहास भी यही बताता है कि भारत जब तक वर्धिष्णु था भारत पर बाहर से आक्रमण नहीं हुए। और जैसे ही भारत ने अपनी वर्धिष्णुता खोई इसका आकुंचन आरम्भ हो गया। भारत अब भी कुछ जीवित है इसका एकमात्र कारण है कि भारत विस्तार करते करते विश्वमय हो गया था इसीलिये अन्य समाजों जैसा यह नष्ट नहीं हो सका। लेकिन यह जिस आकुंचन के दौर में जी रहा है यह उसे मृत्यू की याने नष्ट होने की दिशा में ही ले जा रहा है।   
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वैसे तो भारत की चिरंजीविता को चुनौती कई बार मिली है। लेकिन हमारे पूर्वजों ने उन चुनौतियों पर मात कर भारत को चिरंजीवी बनाए रखा। वर्तमान में जो चुनौती हमारे सम्मुख है वह शायद अभीतक की चुनौतियों में सबसे गंभीर चुनौती है। यह चुनौती जीवन के पूरे प्रतिमान को, जो वर्तमान में अधार्मिक (अधार्मिक) बन गया है, उसे धार्मिक (धार्मिक) बनाने की है। पूरे प्रतिमान को ठीक करने की चुनौती का सामना आज तक कभी भारत ने नहीं किया है। इसलिए इससे निपटने का पूर्वानुभव भी हमारे पास नहीं है।  
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वैसे तो भारत की चिरंजीविता को चुनौती कई बार मिली है। लेकिन हमारे पूर्वजों ने उन चुनौतियों पर मात कर भारत को चिरंजीवी बनाए रखा। वर्तमान में जो चुनौती हमारे सम्मुख है वह शायद अभीतक की चुनौतियों में सबसे गंभीर चुनौती है। यह चुनौती जीवन के पूरे प्रतिमान को, जो वर्तमान में अधार्मिक (अधार्मिक) बन गया है, उसे धार्मिक (धार्मिक) बनाने की है। पूरे प्रतिमान को ठीक करने की चुनौती का सामना आज तक कभी भारत ने नहीं किया है। अतः इससे निपटने का पूर्वानुभव भी हमारे पास नहीं है।  
    
=== समाज या राष्ट्र की चिरंजीविता के लिए आवश्यक बिन्दु ===
 
=== समाज या राष्ट्र की चिरंजीविता के लिए आवश्यक बिन्दु ===
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# सुखी जीवन : अपने व्यक्तिगत जीवन में सुख का प्रमाण अधिक होना और दुःख को सहने की सामर्थ्य होना भी चिरंजीवी बनने की इच्छा निर्माण करता है। इसी तरह से राष्ट्र जीवन में भी सुख और दुःख तो होंगे । लेकिन जब दुःख को सहमे की सामर्थ्य और सुख की मात्रा अधिक होती है तब वह राष्ट्र चिरंजीवी बनने की चाहत रखता है। अन्यथा अन्यों का अन्धानुकरण करता हुआ नष्ट हो जाता है।
 
# सुखी जीवन : अपने व्यक्तिगत जीवन में सुख का प्रमाण अधिक होना और दुःख को सहने की सामर्थ्य होना भी चिरंजीवी बनने की इच्छा निर्माण करता है। इसी तरह से राष्ट्र जीवन में भी सुख और दुःख तो होंगे । लेकिन जब दुःख को सहमे की सामर्थ्य और सुख की मात्रा अधिक होती है तब वह राष्ट्र चिरंजीवी बनने की चाहत रखता है। अन्यथा अन्यों का अन्धानुकरण करता हुआ नष्ट हो जाता है।
 
# औसत सुख का स्तर : राष्ट्र के स्तरपर भी सुसाध्य आजीविका, शान्ति और पौरुष यह चार बातें आवश्यक होतीं हैं। यहाँ पौरुष से तात्पर्य है वैश्विक सुख के लिए किये जा रहे प्रयासों से है। जब सभी राष्ट्र वैश्विक सुख के लिए प्रयत्नशील होते हैं तो वैश्विक स्तरपर सारे ही राष्ट्र सुखी होते हैं। विश्व के सभी देशों या राष्ट्रों में सुख का औसत प्रमाण जितना है उसी के अनुपात में सुख भी विश्वगत होता है। इस औसत सुख के एक विशिष्ट स्तर से ऊपर होने से विश्व में शान्ति रहती है। इस औसत सुख में भी आत्मिक सुख का प्रमाण अधिक होता है तब चिरंजीवी बनने की प्रक्रिया अपने आप चलती है।
 
# औसत सुख का स्तर : राष्ट्र के स्तरपर भी सुसाध्य आजीविका, शान्ति और पौरुष यह चार बातें आवश्यक होतीं हैं। यहाँ पौरुष से तात्पर्य है वैश्विक सुख के लिए किये जा रहे प्रयासों से है। जब सभी राष्ट्र वैश्विक सुख के लिए प्रयत्नशील होते हैं तो वैश्विक स्तरपर सारे ही राष्ट्र सुखी होते हैं। विश्व के सभी देशों या राष्ट्रों में सुख का औसत प्रमाण जितना है उसी के अनुपात में सुख भी विश्वगत होता है। इस औसत सुख के एक विशिष्ट स्तर से ऊपर होने से विश्व में शान्ति रहती है। इस औसत सुख में भी आत्मिक सुख का प्रमाण अधिक होता है तब चिरंजीवी बनने की प्रक्रिया अपने आप चलती है।
# प्रकृति सुसंगतता : इन्द्रियजन्य सुख का सम्बन्ध सीधा प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता से होता है। यदि अन्न, वस्त्र, भवन की न्यूनतम आवश्यकताओं को जुटाने में ही मानव को जी जान लगानी पद जाती है तो न तो वह स्वतन्त्र रहता है, न उसे शान्ति मिलती है और न ही वह अन्यों को सुखी बनाने के ही लायक रह जाता है। इसलिए प्रकृति सुसंगत जीवन भी चिरंजीवी बनने के लिए एक अनिवार्य शर्त है। वर्तमान में बलवान देशोंद्वारा गरीब और दुर्बल देशों के प्राकृतिक संसाधन हथियाने के जो प्रयास वैश्वीकरण के नाम से हो रहे हैं वह इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
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# प्रकृति सुसंगतता : इन्द्रियजन्य सुख का सम्बन्ध सीधा प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता से होता है। यदि अन्न, वस्त्र, भवन की न्यूनतम आवश्यकताओं को जुटाने में ही मानव को जी जान लगानी पद जाती है तो न तो वह स्वतन्त्र रहता है, न उसे शान्ति मिलती है और न ही वह अन्यों को सुखी बनाने के ही लायक रह जाता है। अतः प्रकृति सुसंगत जीवन भी चिरंजीवी बनने के लिए एक अनिवार्य शर्त है। वर्तमान में बलवान देशोंद्वारा गरीब और दुर्बल देशों के प्राकृतिक संसाधन हथियाने के जो प्रयास वैश्वीकरण के नाम से हो रहे हैं वह इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
 
# संख्याबल और भूगोल के सन्दर्भ में जीवनदृष्टि का वर्धिष्णु होना : अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार यदि जीवन में निरंतरता या चिरंजीविता नहीं है तो राष्ट्र की चिरंजीविता कैसी? राष्ट्र की चयापचय प्रक्रिया में राष्ट्र की जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों की संख्या और प्रतिशत बढ़ना यह नई पेशियाँ निर्माण होने जैसा है। और जीवनदृष्टि के अनुसार न जीनेवाले लोगों की संख्या और जनसंख्या में उनका प्रतिशत यह राष्ट्र को नष्ट करनेवाली पेशियों जैसा है। जब राष्ट्र की जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों की संख्या और प्रतिशत बढ़ते जाने की प्रक्रिया निरंतर चलती है तो राष्ट्र चिरंजीवी बनता है।
 
# संख्याबल और भूगोल के सन्दर्भ में जीवनदृष्टि का वर्धिष्णु होना : अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार यदि जीवन में निरंतरता या चिरंजीविता नहीं है तो राष्ट्र की चिरंजीविता कैसी? राष्ट्र की चयापचय प्रक्रिया में राष्ट्र की जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों की संख्या और प्रतिशत बढ़ना यह नई पेशियाँ निर्माण होने जैसा है। और जीवनदृष्टि के अनुसार न जीनेवाले लोगों की संख्या और जनसंख्या में उनका प्रतिशत यह राष्ट्र को नष्ट करनेवाली पेशियों जैसा है। जब राष्ट्र की जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों की संख्या और प्रतिशत बढ़ते जाने की प्रक्रिया निरंतर चलती है तो राष्ट्र चिरंजीवी बनता है।
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# धार्मिक (धार्मिक) जीवन के प्रतिमान की प्रतिष्ठापना करना। प्रारम्भ शिक्षा क्षेत्र से होगा। अध्ययन अनुसंधान का शक्तिशाली दौर चलाना होगा। जीवन के सभी पहलुओं में प्रातिमानिक परिवर्तन के अर्थ क्या हैं इसकी बुद्धियुक्त प्रस्तुति करनी होगी। जीवन के सभी क्षेत्रों से विद्वानों को पहल करनी होगी। क्यों कि प्रतिमान को खंड खंड में नहीं बदला जा सकता। शिक्षा क्षेत्र के विद्वानों ने की हुई अपने अपने क्षेत्र के प्रातिमानिक परिवर्तन के स्वरूप को समझना और ठीक लगे तो उसे प्रतिष्ठापित करने के लिए प्रयोग करना।  
 
# धार्मिक (धार्मिक) जीवन के प्रतिमान की प्रतिष्ठापना करना। प्रारम्भ शिक्षा क्षेत्र से होगा। अध्ययन अनुसंधान का शक्तिशाली दौर चलाना होगा। जीवन के सभी पहलुओं में प्रातिमानिक परिवर्तन के अर्थ क्या हैं इसकी बुद्धियुक्त प्रस्तुति करनी होगी। जीवन के सभी क्षेत्रों से विद्वानों को पहल करनी होगी। क्यों कि प्रतिमान को खंड खंड में नहीं बदला जा सकता। शिक्षा क्षेत्र के विद्वानों ने की हुई अपने अपने क्षेत्र के प्रातिमानिक परिवर्तन के स्वरूप को समझना और ठीक लगे तो उसे प्रतिष्ठापित करने के लिए प्रयोग करना।  
 
# श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्माण करना। और आग्रहपूर्वक निर्वहन करना।  
 
# श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्माण करना। और आग्रहपूर्वक निर्वहन करना।  
# तत्वज्ञान कितना भी श्रेष्ठ होवे दुर्बल के तत्वज्ञान को कोइ नहीं पूछता। इसलिए विश्व की ज्ञान और सामरिक सामर्थ्य की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में अपना विकास करना। ऐसा होने से ही लोग हामारा अनुसरण करने की इच्छा और प्रयास करेंगे। आपद्धर्म के रूप में ही अपनी सामरिक शक्ति का उपयोग करना।  
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# तत्वज्ञान कितना भी श्रेष्ठ होवे दुर्बल के तत्वज्ञान को कोइ नहीं पूछता। अतः विश्व की ज्ञान और सामरिक सामर्थ्य की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में अपना विकास करना। ऐसा होने से ही लोग हामारा अनुसरण करने की इच्छा और प्रयास करेंगे। आपद्धर्म के रूप में ही अपनी सामरिक शक्ति का उपयोग करना।  
    
==References==
 
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