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मनुष्य अकेला नहीं रह सकता । अपनी अनेक प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे अन्य मनुष्यों की सहायता की आवश्यकता होती है। मनुष्य की अल्पतम आवश्यकताओं की अर्थात् अन्न, वस्त्र और आवास की ही बात करें तो कोई भी अकेला व्यक्ति अपने लिए अनाज उगाना, वस्त्र बनाना और आवास निर्माण करना स्वयं नहीं कर सकता । फिर मनुष्य की इतनी कम आवश्यकताएँ भी तो नहीं होतीं । इन तीनों के अलावा उसे औषधि चाहिए, वाहन चाहिए, परिवहन चाहिए। जैसे जैसे सभ्यता का विकास होता जाता है उसकी दैनंदिन आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उसे कुछ व्यवस्था बिठानी होती है।
 
मनुष्य अकेला नहीं रह सकता । अपनी अनेक प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे अन्य मनुष्यों की सहायता की आवश्यकता होती है। मनुष्य की अल्पतम आवश्यकताओं की अर्थात् अन्न, वस्त्र और आवास की ही बात करें तो कोई भी अकेला व्यक्ति अपने लिए अनाज उगाना, वस्त्र बनाना और आवास निर्माण करना स्वयं नहीं कर सकता । फिर मनुष्य की इतनी कम आवश्यकताएँ भी तो नहीं होतीं । इन तीनों के अलावा उसे औषधि चाहिए, वाहन चाहिए, परिवहन चाहिए। जैसे जैसे सभ्यता का विकास होता जाता है उसकी दैनंदिन आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उसे कुछ व्यवस्था बिठानी होती है।
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दूसरा भी एक विचार है। कदाचित अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति वह अकेला कर भी ले, अथवा अपनी आवश्यकताएँ इतनी कम कर दे कि उसे अन्य किसीकी सहायता लेने की नौबत ही न आये तो भी वह अकेला नहीं रह सकता । उसे बात करने के लिए, खेलने के लिए,सैर करने के लिए दूसरा व्यक्ति चाहिए । सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा को भी अकेला रहना अच्छा नहीं लगता था इसलिए तो उसने सृष्टि बनाई । जब उसे ही अकेले रहना अच्छा नहीं लगता तो उसके ही प्रतिरूप मनुष्य को कैसे लगेगा ? अतः: केवल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही नहीं तो संवाद के लिए भी मनुष्य को अन्य मनुष्यों की आवश्यकता होती है । इन दोनों बातों का एक साथ विचार कर हमारे आर्षद्रष्टा मनीषियों ने मनुष्यों के लिए एक रचना बनाई । इस रचना को भी हम चार चरण में विभाजित कर समझ सकते हैं ।
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दूसरा भी एक विचार है। कदाचित अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति वह अकेला कर भी ले, अथवा अपनी आवश्यकताएँ इतनी कम कर दे कि उसे अन्य किसीकी सहायता लेने की नौबत ही न आये तो भी वह अकेला नहीं रह सकता । उसे बात करने के लिए, खेलने के लिए,सैर करने के लिए दूसरा व्यक्ति चाहिए । सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा को भी अकेला रहना अच्छा नहीं लगता था अतः तो उसने सृष्टि बनाई । जब उसे ही अकेले रहना अच्छा नहीं लगता तो उसके ही प्रतिरूप मनुष्य को कैसे लगेगा ? अतः: केवल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही नहीं तो संवाद के लिए भी मनुष्य को अन्य मनुष्यों की आवश्यकता होती है । इन दोनों बातों का एक साथ विचार कर हमारे आर्षद्रष्टा मनीषियों ने मनुष्यों के लिए एक रचना बनाई । इस रचना को भी हम चार चरण में विभाजित कर समझ सकते हैं ।
    
=== परिवार ===
 
=== परिवार ===
मनुष्य का मनुष्य के साथ समायोजन का प्रथम चरण है स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध । स्त्रीधारा और पुरुषधारा इस सृष्टि की मूल दो धाराएँ हैं । इनका ही परस्पर समायोजन होने से शेष के लिए सुविधा होती है । इसलिए सर्वप्रथम दोनों को साथ रहने हेतु विवाह संस्कार की योजना हुई और उन्हें दंपती बनाकर कुटुम्ब का केंद्र बिंदु  बनाया। विवाह के परिणामस्वरूप बच्चों का जन्म हुआ और कुटुम्ब का विस्तार होने लगा । प्रथम चरण में मातापिता और संतानों का सम्बन्ध बना और दूसरे क्रम में सहोदरों का अर्थात भाई बहनों का सम्बन्ध बनता गया । इन दोनों आयामों को लेकर लंब और क्षैतिज दोनों प्रकार के सम्बन्ध बनते गए । पहली बात यह है कि कुटुम्ब रक्तसंबंध से बनता है।  परंतु रक्तसंबंध के साथ साथ भावात्मक सम्बन्ध भी होता है। केवल मनुष्य ही अन्नमय और प्राणमय के साथ साथ मनोमय से आनंदमय तक और उससे भी परे आत्मिक स्तर पर भी पहुँचता है यह हमने विकास के प्रथम आयाम में देखा ही है । अत: स्त्रीपुरुष के वैवाहिक सम्बन्ध को केवल जैविक स्तर पर सीमित न करते हुए आत्मिक स्तर तक पहुंचाने की मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति बनी । पति-पत्नी के सम्बन्ध का आदर्श एकात्म सम्बन्ध बना । सम्बन्ध की इसी एकात्मता का विस्तार सर्वत्र स्थापित किया गया | अपने अंतः:करण को इतना उदार बनाना कि सम्पूर्ण वसुधा एक ही कुटुम्ब लगे, यह मनुष्य का आदर्श बना ।
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मनुष्य का मनुष्य के साथ समायोजन का प्रथम चरण है स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध । स्त्रीधारा और पुरुषधारा इस सृष्टि की मूल दो धाराएँ हैं । इनका ही परस्पर समायोजन होने से शेष के लिए सुविधा होती है । अतः सर्वप्रथम दोनों को साथ रहने हेतु विवाह संस्कार की योजना हुई और उन्हें दंपती बनाकर कुटुम्ब का केंद्र बिंदु  बनाया। विवाह के परिणामस्वरूप बच्चों का जन्म हुआ और कुटुम्ब का विस्तार होने लगा । प्रथम चरण में मातापिता और संतानों का सम्बन्ध बना और दूसरे क्रम में सहोदरों का अर्थात भाई बहनों का सम्बन्ध बनता गया । इन दोनों आयामों को लेकर लंब और क्षैतिज दोनों प्रकार के सम्बन्ध बनते गए । पहली बात यह है कि कुटुम्ब रक्तसंबंध से बनता है।  परंतु रक्तसंबंध के साथ साथ भावात्मक सम्बन्ध भी होता है। केवल मनुष्य ही अन्नमय और प्राणमय के साथ साथ मनोमय से आनंदमय तक और उससे भी परे आत्मिक स्तर पर भी पहुँचता है यह हमने विकास के प्रथम आयाम में देखा ही है । अत: स्त्रीपुरुष के वैवाहिक सम्बन्ध को केवल जैविक स्तर पर सीमित न करते हुए आत्मिक स्तर तक पहुंचाने की मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति बनी । पति-पत्नी के सम्बन्ध का आदर्श एकात्म सम्बन्ध बना । सम्बन्ध की इसी एकात्मता का विस्तार सर्वत्र स्थापित किया गया | अपने अंतः:करण को इतना उदार बनाना कि सम्पूर्ण वसुधा एक ही कुटुम्ब लगे, यह मनुष्य का आदर्श बना ।
    
इस परिवारभावना की नींव पर मनुष्य को संपूर्ण समष्टि और सृष्टि के साथ समायोजन बनाना चाहिए और शिक्षा के द्वारा इस परिवारभावना को सिखाना यह शिक्षा का केन्द्रवर्ती विषय है ।
 
इस परिवारभावना की नींव पर मनुष्य को संपूर्ण समष्टि और सृष्टि के साथ समायोजन बनाना चाहिए और शिक्षा के द्वारा इस परिवारभावना को सिखाना यह शिक्षा का केन्द्रवर्ती विषय है ।
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आर्थिक स्वतन्त्रता, व्यवसाय में स्वामित्वभाव, आर्थिक सुरक्षा जैसे अति मूल्यवान तत्वों की रक्षा समुदायगत समाज व्यवस्था करने में होती है । आज कुटुम्ब को नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई मानने के कारण मनुष्य के लिए आर्थिक क्षेत्र का व्यावहारिक तथा मानसिक संकट निर्माण हो गया है । समुदायगत व्यवस्था ठीक से बैठाने हेतु शिक्षा की विशेष व्यवस्था हमें करनी होगी।
 
आर्थिक स्वतन्त्रता, व्यवसाय में स्वामित्वभाव, आर्थिक सुरक्षा जैसे अति मूल्यवान तत्वों की रक्षा समुदायगत समाज व्यवस्था करने में होती है । आज कुटुम्ब को नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई मानने के कारण मनुष्य के लिए आर्थिक क्षेत्र का व्यावहारिक तथा मानसिक संकट निर्माण हो गया है । समुदायगत व्यवस्था ठीक से बैठाने हेतु शिक्षा की विशेष व्यवस्था हमें करनी होगी।
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श्रेष्ठ समाज अथवा समुदाय के दो लक्षण होते हैं। एक होता है समृद्धि और दूसरा होता है संस्कृति। अर्थात्‌ जिस प्रकार समृद्धि हेतु अर्थकरी शिक्षा की उत्तम व्यवस्था चाहिए तथा उसकी उत्तम शिक्षा चाहिए उसी प्रकार व्यक्तियों को सुसंस्कृत बनाने की शिक्षा भी चाहिए। इस दृष्टि से व्यवसाय का दृष्टिकोण बदलना चाहिए । व्यवसाय केवल अर्थार्जन के लिए ही नहीं होता। व्यवसाय के परिणामस्वरूप उपभोक्ता को आवश्यक वस्तु प्राप्त होती है। अत: उपभोक्ता का विचार करना, उसकी सेवा हेतु व्यवसाय करना यह भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है। जब उपभोक्ता का विचार करके व्यवसाय किया जाता है तब उपभोक्ता की आवश्यकता, उसके लाभ और हानि, उत्पादन की गुणवत्ता आदि का भी ध्यान रखा जाता है। एक ही बात का विचार करने से दृष्टिकोण का मुद्दा समझ में आएगा। किसी भी उत्पादन का विज्ञापन किया जाता है तब उत्पादक अपने उत्पादन की भरपूर प्रशंसा करता है। ऐसा करने का एकमात्र कारण उपभोक्ता को उत्पादन की ओर आकर्षित कर उसे खरीदने के लिए बाध्य करना है। ऐसा करने की आवश्यकता क्यों होती है? केवल इसलिए कि हमने उत्पादित किया वह पदार्थ बिकना चाहिए । इस उद्देश्य से प्रेरित होकर जो नहीं हैं ऐसे गुण बढ़ाचढ़ाकर बताए जाते हैं और उपभोक्ता को चाहिए या नहीं इसका ध्यान कम रखा जाता है, अपना माल बिकना चाहिए इसका अधिक विचार किया जाता है । यह नीतिमत्ता नहीं है । तो भी यह आज भारी मात्रा में किया जाता है क्योंकि उत्पादन केवल अर्थार्जन हेतु ही किया जाता है, उपभोक्ता की सेवा के लिए नहीं । विकसित और शिक्षित समाज में यह दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता होती है। समुदाय को सुसंस्कृत बनाने के लिए यह आवश्यक है।
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श्रेष्ठ समाज अथवा समुदाय के दो लक्षण होते हैं। एक होता है समृद्धि और दूसरा होता है संस्कृति। अर्थात्‌ जिस प्रकार समृद्धि हेतु अर्थकरी शिक्षा की उत्तम व्यवस्था चाहिए तथा उसकी उत्तम शिक्षा चाहिए उसी प्रकार व्यक्तियों को सुसंस्कृत बनाने की शिक्षा भी चाहिए। इस दृष्टि से व्यवसाय का दृष्टिकोण बदलना चाहिए । व्यवसाय केवल अर्थार्जन के लिए ही नहीं होता। व्यवसाय के परिणामस्वरूप उपभोक्ता को आवश्यक वस्तु प्राप्त होती है। अत: उपभोक्ता का विचार करना, उसकी सेवा हेतु व्यवसाय करना यह भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है। जब उपभोक्ता का विचार करके व्यवसाय किया जाता है तब उपभोक्ता की आवश्यकता, उसके लाभ और हानि, उत्पादन की गुणवत्ता आदि का भी ध्यान रखा जाता है। एक ही बात का विचार करने से दृष्टिकोण का मुद्दा समझ में आएगा। किसी भी उत्पादन का विज्ञापन किया जाता है तब उत्पादक अपने उत्पादन की भरपूर प्रशंसा करता है। ऐसा करने का एकमात्र कारण उपभोक्ता को उत्पादन की ओर आकर्षित कर उसे खरीदने के लिए बाध्य करना है। ऐसा करने की आवश्यकता क्यों होती है? केवल अतः कि हमने उत्पादित किया वह पदार्थ बिकना चाहिए । इस उद्देश्य से प्रेरित होकर जो नहीं हैं ऐसे गुण बढ़ाचढ़ाकर बताए जाते हैं और उपभोक्ता को चाहिए या नहीं इसका ध्यान कम रखा जाता है, अपना माल बिकना चाहिए इसका अधिक विचार किया जाता है । यह नीतिमत्ता नहीं है । तो भी यह आज भारी मात्रा में किया जाता है क्योंकि उत्पादन केवल अर्थार्जन हेतु ही किया जाता है, उपभोक्ता की सेवा के लिए नहीं । विकसित और शिक्षित समाज में यह दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता होती है। समुदाय को सुसंस्कृत बनाने के लिए यह आवश्यक है।
    
समुदायगत व्यवस्था में विवाह की व्यवस्था भी विचारपूर्वक करनी होती है। उदाहरण के लिए जननशास्त्र का एक सिद्धांत कहता है कि सगोत्र विवाह करने से कुछ ही पीढ़ियों में सम्पूर्ण जाति का नाश होता है। वर्तमान पारसियों का उदाहरण इस दृष्टि से विचारणीय है । वे सगोत्र विवाह करते हैं। इसके परिणामस्वरूप आज उनकी जनसंख्या में भारी गिरावट आई है और एक बुद्धिमान जाति के अस्तित्व पर संकट उतर आया है । सगोत्र विवाह नहीं करना यह वैज्ञानिक नियम है । परन्तु आज किसी को गोत्र मालूम नहीं होता है। यदि मालूम भी होता है तो उसकी चिन्ता नहीं है क्योंकि सिद्धांत का ज्ञान भी नहीं है और उसका पालन करने की आवश्यकता भी नहीं लगती। ऐसे विवाह करने से सम्पूर्ण समाज का सामर्थ्य कम होता जाता है। सामर्थ्यहीन समाज अपना विकास नहीं कर सकता । गोत्र का सिद्धांत तो एक है । ऐसे तो विवाह विषयक कई सिद्धांत हैं। हमारे समाज चिंतकों ने बहुत विचारपूर्वक विवाहशास्त्र की रचना हुई है। आज उसके विषय में घोर अज्ञान और उपेक्षा का व्यवहार होने के कारण समाज पर सांस्कृतिक संकट छाया है। यह विषय स्वतंत्र चर्चा का विषय है, यहाँ केवल इतना ही बताना प्रासंगिक है कि व्यवसाय की तरह विवाह भी सामाजिक संगठन के लिए अत्यंत आवश्यक विषय है। कुल मिलाकर शिक्षा का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
 
समुदायगत व्यवस्था में विवाह की व्यवस्था भी विचारपूर्वक करनी होती है। उदाहरण के लिए जननशास्त्र का एक सिद्धांत कहता है कि सगोत्र विवाह करने से कुछ ही पीढ़ियों में सम्पूर्ण जाति का नाश होता है। वर्तमान पारसियों का उदाहरण इस दृष्टि से विचारणीय है । वे सगोत्र विवाह करते हैं। इसके परिणामस्वरूप आज उनकी जनसंख्या में भारी गिरावट आई है और एक बुद्धिमान जाति के अस्तित्व पर संकट उतर आया है । सगोत्र विवाह नहीं करना यह वैज्ञानिक नियम है । परन्तु आज किसी को गोत्र मालूम नहीं होता है। यदि मालूम भी होता है तो उसकी चिन्ता नहीं है क्योंकि सिद्धांत का ज्ञान भी नहीं है और उसका पालन करने की आवश्यकता भी नहीं लगती। ऐसे विवाह करने से सम्पूर्ण समाज का सामर्थ्य कम होता जाता है। सामर्थ्यहीन समाज अपना विकास नहीं कर सकता । गोत्र का सिद्धांत तो एक है । ऐसे तो विवाह विषयक कई सिद्धांत हैं। हमारे समाज चिंतकों ने बहुत विचारपूर्वक विवाहशास्त्र की रचना हुई है। आज उसके विषय में घोर अज्ञान और उपेक्षा का व्यवहार होने के कारण समाज पर सांस्कृतिक संकट छाया है। यह विषय स्वतंत्र चर्चा का विषय है, यहाँ केवल इतना ही बताना प्रासंगिक है कि व्यवसाय की तरह विवाह भी सामाजिक संगठन के लिए अत्यंत आवश्यक विषय है। कुल मिलाकर शिक्षा का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
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राष्ट्र की अपनी एक जीवनशैली होती है जो उसके जीवनदर्शन के आधार पर विकसित हुई होती है । राष्ट्र के हर सदस्य को उस जीवनशैली को अपनाना होता है । भारत एक राष्ट्र है और उसकी जीवनशैली की स्वाभाविक विशेषतायें इस प्रकार हैं:
 
राष्ट्र की अपनी एक जीवनशैली होती है जो उसके जीवनदर्शन के आधार पर विकसित हुई होती है । राष्ट्र के हर सदस्य को उस जीवनशैली को अपनाना होता है । भारत एक राष्ट्र है और उसकी जीवनशैली की स्वाभाविक विशेषतायें इस प्रकार हैं:
* हम इस सृष्टि को एक ही मानते हैं और सब एकात्म सम्बन्ध से जुड़े हैं ऐसा मानते हैं । इसलिए सबको अपना मानते हैं । जिन्हें अपना माना उसका हित चाहते हैं, उसके साथ प्रेम का व्यवहार करते हैं। जिसके लिए प्रेम होता है उसके लिए त्याग करने के लिए उद्यत होते हैं और उसकी सेवा भी करते हैं । हम किसी का शोषण नहीं करते। हम मानते हैं कि चराचर जगत के सभी पदार्थों की स्वतंत्र सत्ता है । इस कारण से सबका सम्मान करना चाहिए, सबकी स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिए। हमारे जीवन के निर्वाह हेतु हमें सबसे कुछ न कुछ लेना पड़ता है। इसके लिए हमें सबके प्रति कृतज्ञता का व्यवहार करना चाहिए। एकात्मता और सबकी स्वतंत्र सत्ता का स्वीकार करने के कारण हम संघर्ष में नहीं अपितु समन्वय में या सामंजस्य में मानते हैं। हम सहअस्तित्व में मानते हैं। हम सबका हित और सबका सुख चाहते हैं,सबके हित और सुख की रक्षा करते हैं।
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* हम इस सृष्टि को एक ही मानते हैं और सब एकात्म सम्बन्ध से जुड़े हैं ऐसा मानते हैं । अतः सबको अपना मानते हैं । जिन्हें अपना माना उसका हित चाहते हैं, उसके साथ प्रेम का व्यवहार करते हैं। जिसके लिए प्रेम होता है उसके लिए त्याग करने के लिए उद्यत होते हैं और उसकी सेवा भी करते हैं । हम किसी का शोषण नहीं करते। हम मानते हैं कि चराचर जगत के सभी पदार्थों की स्वतंत्र सत्ता है । इस कारण से सबका सम्मान करना चाहिए, सबकी स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिए। हमारे जीवन के निर्वाह हेतु हमें सबसे कुछ न कुछ लेना पड़ता है। इसके लिए हमें सबके प्रति कृतज्ञता का व्यवहार करना चाहिए। एकात्मता और सबकी स्वतंत्र सत्ता का स्वीकार करने के कारण हम संघर्ष में नहीं अपितु समन्वय में या सामंजस्य में मानते हैं। हम सहअस्तित्व में मानते हैं। हम सबका हित और सबका सुख चाहते हैं,सबके हित और सुख की रक्षा करते हैं।
* इस सृष्टि के सृजन के साथ साथ उसे धारण करने वाली अर्थात उसका नाश न होने देने वाली व्यवस्था भी बनी है। इस व्यवस्था के कुछ नियम हैं। इन सार्वभौम सनातन विश्वनियम का नाम धर्म है। सृष्टि के चालक, नियामक और नियंत्रक तत्व धर्म को हमने अपने जीवन का भी चालक, नियामक और नियंत्रक तत्व बनाया है । इसलिए हमारे हर व्यवहार, हर व्यवस्था, हर रचना का निकष धर्म है। जो कुछ भी धर्म के अविरोधी है वह स्वीकार्य है, जो भी धर्म के विरोधी है वह त्याज्य है। इसके परिणामस्वरूप हमारा भी नाश नहीं होता और हम किसीके नाश का कारण नहीं बनते।
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* इस सृष्टि के सृजन के साथ साथ उसे धारण करने वाली अर्थात उसका नाश न होने देने वाली व्यवस्था भी बनी है। इस व्यवस्था के कुछ नियम हैं। इन सार्वभौम सनातन विश्वनियम का नाम धर्म है। सृष्टि के चालक, नियामक और नियंत्रक तत्व धर्म को हमने अपने जीवन का भी चालक, नियामक और नियंत्रक तत्व बनाया है । अतः हमारे हर व्यवहार, हर व्यवस्था, हर रचना का निकष धर्म है। जो कुछ भी धर्म के अविरोधी है वह स्वीकार्य है, जो भी धर्म के विरोधी है वह त्याज्य है। इसके परिणामस्वरूप हमारा भी नाश नहीं होता और हम किसीके नाश का कारण नहीं बनते।
 
* कर्तव्य और अधिकार एक सिक्के के दो पहलू हैं। हम कर्तव्य के पहलू को सामने रखकर व्यवहार करते हैं । इसका अर्थ यह है कि हम दूसरों के अधिकार का विचार प्रथम करते हैं। इससे हमारे अधिकार की भी रक्षा अपने आप हो जाती है । हमारा व्यवहार आपसी लेनदेन से चलता है । लेनदेन के व्यवहार में हम देने की ही चिन्ता करते हैं लेने की नहीं । परिणामस्वरूप हमें भी जो चाहिए वह बिना चिन्ता किये मिल जाता है।
 
* कर्तव्य और अधिकार एक सिक्के के दो पहलू हैं। हम कर्तव्य के पहलू को सामने रखकर व्यवहार करते हैं । इसका अर्थ यह है कि हम दूसरों के अधिकार का विचार प्रथम करते हैं। इससे हमारे अधिकार की भी रक्षा अपने आप हो जाती है । हमारा व्यवहार आपसी लेनदेन से चलता है । लेनदेन के व्यवहार में हम देने की ही चिन्ता करते हैं लेने की नहीं । परिणामस्वरूप हमें भी जो चाहिए वह बिना चिन्ता किये मिल जाता है।
 
* प्रेम, आनंद, सौन्दर्य, ज्ञान, सत्य जीवन के मूल आधार हैं । इसके अनुसार व्यवहार करने से किसी एक के नहीं अपितु सबके जीवन में सुख, शान्ति, सौहार्द, समृद्धि और सार्थकता आती है । किसी भी छोटे, क्षुद्र स्वार्थ के लिए इन्हें नहीं छोड़ना यही हमारा सिद्धांत है ।
 
* प्रेम, आनंद, सौन्दर्य, ज्ञान, सत्य जीवन के मूल आधार हैं । इसके अनुसार व्यवहार करने से किसी एक के नहीं अपितु सबके जीवन में सुख, शान्ति, सौहार्द, समृद्धि और सार्थकता आती है । किसी भी छोटे, क्षुद्र स्वार्थ के लिए इन्हें नहीं छोड़ना यही हमारा सिद्धांत है ।
 
* हम स्वकेन्द्री नहीं हैं, परमात्मकेन्द्री हैं । हमारा अनुभव है कि स्वकेन्द्री होने से किसीको भी सुख नहीं मिलता, किसीका भी हित नहीं होता । स्वकेन्द्री होने से संघर्ष और हिंसा ही फैलते हैं जिसका परिणाम नाश ही है । हम श्रेष्ठ होना चाहते हैं, सर्वश्रेष्ठ नहीं ।
 
* हम स्वकेन्द्री नहीं हैं, परमात्मकेन्द्री हैं । हमारा अनुभव है कि स्वकेन्द्री होने से किसीको भी सुख नहीं मिलता, किसीका भी हित नहीं होता । स्वकेन्द्री होने से संघर्ष और हिंसा ही फैलते हैं जिसका परिणाम नाश ही है । हम श्रेष्ठ होना चाहते हैं, सर्वश्रेष्ठ नहीं ।
* हमारे राष्ट्रीय जीवन के ये आधारभूत तत्व हैं । यहबात सत्य है कि आज इनकी प्रतिष्ठा नहीं है । हम कदाचित इन्हें भूल गए हैं और इन्हें मानते भी नहीं हैं । हमारी सारी व्यवस्थायें और व्यवहार इनसे ठीक उल्टा हो रहा है । परन्तु यह विस्मृति है । युगों से हमारा राष्ट्र इन्हीं आधारों पर चलता आया है । हमारे शास्त्र और धर्मग्रन्थ इनकी ही महिमा बताते हैं । हमारे सन्त महात्मा इनका ही उपदेश देते हैं । हमारा इतिहास इनके ही उदाहरण प्रस्तुत करता है । हमारे अन्तर्मन में इनकी ही प्रतिष्ठा है। इसलिए ये आज ऊपर से दिखाई न देते हों तो भी नींव में तो हैं ही।
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* हमारे राष्ट्रीय जीवन के ये आधारभूत तत्व हैं । यहबात सत्य है कि आज इनकी प्रतिष्ठा नहीं है । हम कदाचित इन्हें भूल गए हैं और इन्हें मानते भी नहीं हैं । हमारी सारी व्यवस्थायें और व्यवहार इनसे ठीक उल्टा हो रहा है । परन्तु यह विस्मृति है । युगों से हमारा राष्ट्र इन्हीं आधारों पर चलता आया है । हमारे शास्त्र और धर्मग्रन्थ इनकी ही महिमा बताते हैं । हमारे सन्त महात्मा इनका ही उपदेश देते हैं । हमारा इतिहास इनके ही उदाहरण प्रस्तुत करता है । हमारे अन्तर्मन में इनकी ही प्रतिष्ठा है। अतः ये आज ऊपर से दिखाई न देते हों तो भी नींव में तो हैं ही।
* शिक्षा के द्वारा इनकी पुनः: प्रतिष्ठा होनी चाहिए । यही उसका मूल प्रयोजन है । शिक्षा की सार्थकता ही उसमें है कि वह धर्म सिखाती है । आज हमने शिक्षा के अधार्मिक प्रतिमान की प्रतिष्ठा कर इन सनातन तत्वों को ही विस्मृत कर दिया है इसलिए सर्वत्र अव्यवस्था फैली हुई है । शिक्षा का धार्मिक प्रतिमान लागू करने से इसका उपाय हो सकता है।
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* शिक्षा के द्वारा इनकी पुनः: प्रतिष्ठा होनी चाहिए । यही उसका मूल प्रयोजन है । शिक्षा की सार्थकता ही उसमें है कि वह धर्म सिखाती है । आज हमने शिक्षा के अधार्मिक प्रतिमान की प्रतिष्ठा कर इन सनातन तत्वों को ही विस्मृत कर दिया है अतः सर्वत्र अव्यवस्था फैली हुई है । शिक्षा का धार्मिक प्रतिमान लागू करने से इसका उपाय हो सकता है।
* और एक बात की स्पष्टता करने की आवश्यकता है । हमने राष्ट्र और देश इन दो संज्ञाओं को एक मान लिया है । ऐसा अँग्रेजी के नेशन शब्द के अनुवाद से हुआ है । वास्तव में देश एक सांविधानिक राजकीय भौगोलिक संकल्पना है जबकि राष्ट्र सांस्कृतिक, आध्यात्मिक। दोनों में कोई विरोध नहीं है । देश राज्यव्यवस्था है, राष्ट्र जीवनदर्शन है। राज्य संविधान के आधार पर चलता है, राष्ट्र धर्म के आधार पर। राष्ट्र राज्य का भी आधार है, राज्य का भी निकष है। हम राज्यव्यवस्था में नागरिक हैं, राष्ट्रव्यवस्था में राष्ट्रीय हैं। आज इस भेद को भी ध्यान में नहीं लिया जाता है इसलिए राष्ट्रीय बनाने की शिक्षा भी नहीं दी जाती है । धार्मिक शिक्षा में इसका समावेश अनिवार्य रूप से होना चाहिए ।
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* और एक बात की स्पष्टता करने की आवश्यकता है । हमने राष्ट्र और देश इन दो संज्ञाओं को एक मान लिया है । ऐसा अँग्रेजी के नेशन शब्द के अनुवाद से हुआ है । वास्तव में देश एक सांविधानिक राजकीय भौगोलिक संकल्पना है जबकि राष्ट्र सांस्कृतिक, आध्यात्मिक। दोनों में कोई विरोध नहीं है । देश राज्यव्यवस्था है, राष्ट्र जीवनदर्शन है। राज्य संविधान के आधार पर चलता है, राष्ट्र धर्म के आधार पर। राष्ट्र राज्य का भी आधार है, राज्य का भी निकष है। हम राज्यव्यवस्था में नागरिक हैं, राष्ट्रव्यवस्था में राष्ट्रीय हैं। आज इस भेद को भी ध्यान में नहीं लिया जाता है अतः राष्ट्रीय बनाने की शिक्षा भी नहीं दी जाती है । धार्मिक शिक्षा में इसका समावेश अनिवार्य रूप से होना चाहिए ।
    
=== विश्व ===
 
=== विश्व ===
विश्व से तात्पर्य है दुनिया के सभी राष्ट्रों का मानव समुदाय। हमारा सामंजस्य विश्व के सभी मानव समुदायों के साथ होना अपेक्षित है । यह सामंजस्य हम कैसे स्थापित कर सकते हैं ? आज कहा जाता है कि संचार माध्यमों के प्रभाव से विश्व बहुत छोटा हो गया है इसलिए अब एक देश की नागरिकता के स्थान पर विश्वनागरिकता का ही विचार करना चाहिए। राष्ट्रवाद संकुचित कल्पना है, अब विश्ववाद को स्वीकार करना चाहिए। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता । एक तो यह समुचित तर्क नहीं है । हम समुदाय के सदस्य होने पर भी परिवार के सदस्य होते ही हैं। परिवार के सदस्य होते हुए भी व्यक्ति होते ही हैं। उसी प्रकार हम विश्व के अंग होने पर भी राष्ट्रीय हो ही सकते हैं। हम अच्छे राष्ट्रीय होने पर ही विश्वनागरिक बन सकते हैं।
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विश्व से तात्पर्य है दुनिया के सभी राष्ट्रों का मानव समुदाय। हमारा सामंजस्य विश्व के सभी मानव समुदायों के साथ होना अपेक्षित है । यह सामंजस्य हम कैसे स्थापित कर सकते हैं ? आज कहा जाता है कि संचार माध्यमों के प्रभाव से विश्व बहुत छोटा हो गया है अतः अब एक देश की नागरिकता के स्थान पर विश्वनागरिकता का ही विचार करना चाहिए। राष्ट्रवाद संकुचित कल्पना है, अब विश्ववाद को स्वीकार करना चाहिए। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता । एक तो यह समुचित तर्क नहीं है । हम समुदाय के सदस्य होने पर भी परिवार के सदस्य होते ही हैं। परिवार के सदस्य होते हुए भी व्यक्ति होते ही हैं। उसी प्रकार हम विश्व के अंग होने पर भी राष्ट्रीय हो ही सकते हैं। हम अच्छे राष्ट्रीय होने पर ही विश्वनागरिक बन सकते हैं।
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सामंजस्य बिठाने का सही तरीका तो यह है कि हम स्वीकार करें कि विश्व के हर राष्ट्र का अपना अपना स्वभाव होता है । विश्व के हर राष्ट्र को विश्वजीवन में विश्वव्यवस्था में अपनी अपनी भूमिका निभानी होती है। भारत की भूमिका धर्मचक्र की गति को अबाधित रखना है। भारत भारत होकर ही यह भूमिका निभा सकता है। सर्वेषामविरोधेन जीवनव्यवस्था कैसे की जाती है इसका उदाहरण भारत को प्रस्तुत करना है ताकि विश्व के अन्य राष्ट्र स्वयं का भी सही सन्दर्भ समझ सकें । भारत विश्व के अन्य राष्ट्रों पर सामरिक अथवा राजकीय विजय प्राप्त कर उन्हें अपना दास बनाने के लिए नहीं है, वह धर्म और संस्कृति के प्रसार और शिक्षा के माध्यम से सबको सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और संस्कार प्राप्त करने हेतु सामर्थ्य प्राप्त करने में सहायता करने के लिए है। इसलिए आवश्यक है कि हम विश्व में गरिमा लिए संचार करें। आज हम धार्मिक होने के लिए हीनताबोध से ग्रस्त हैं और स्वत्व को भुला रहे हैं। दूसरों की नकल करने में ही गौरव का अनुभव कर रहे हैं। शिक्षा सर्वप्रथम इस हीनताबोध को दूर करने के लिए प्रयास करे यह पहली आवश्यकता है। आज संपूर्ण विश्व पर पश्चिम के देश, मुख्य रूप से अमेरिका, छा जाने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी जीवनदृष्टि भौतिकवादी है इसलिए उनका व्यवहार एवं व्यवस्थायें अर्थनिष्ठ है। भारत धर्मनिष्ठ है। स्पष्ट है कि टिकाऊ तो भारत ही है क्योंकि धर्म के अधीन अर्थ की व्यवस्था समृद्धि का साधन है,  जबकि धर्मविहीन अर्थ विनाश के मार्ग पर ले जाने वाला है। भारत को अपनी व्यवस्थाओं में परिवर्तन कर विश्व के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करना है।  
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सामंजस्य बिठाने का सही तरीका तो यह है कि हम स्वीकार करें कि विश्व के हर राष्ट्र का अपना अपना स्वभाव होता है । विश्व के हर राष्ट्र को विश्वजीवन में विश्वव्यवस्था में अपनी अपनी भूमिका निभानी होती है। भारत की भूमिका धर्मचक्र की गति को अबाधित रखना है। भारत भारत होकर ही यह भूमिका निभा सकता है। सर्वेषामविरोधेन जीवनव्यवस्था कैसे की जाती है इसका उदाहरण भारत को प्रस्तुत करना है ताकि विश्व के अन्य राष्ट्र स्वयं का भी सही सन्दर्भ समझ सकें । भारत विश्व के अन्य राष्ट्रों पर सामरिक अथवा राजकीय विजय प्राप्त कर उन्हें अपना दास बनाने के लिए नहीं है, वह धर्म और संस्कृति के प्रसार और शिक्षा के माध्यम से सबको सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और संस्कार प्राप्त करने हेतु सामर्थ्य प्राप्त करने में सहायता करने के लिए है। अतः आवश्यक है कि हम विश्व में गरिमा लिए संचार करें। आज हम धार्मिक होने के लिए हीनताबोध से ग्रस्त हैं और स्वत्व को भुला रहे हैं। दूसरों की नकल करने में ही गौरव का अनुभव कर रहे हैं। शिक्षा सर्वप्रथम इस हीनताबोध को दूर करने के लिए प्रयास करे यह पहली आवश्यकता है। आज संपूर्ण विश्व पर पश्चिम के देश, मुख्य रूप से अमेरिका, छा जाने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी जीवनदृष्टि भौतिकवादी है अतः उनका व्यवहार एवं व्यवस्थायें अर्थनिष्ठ है। भारत धर्मनिष्ठ है। स्पष्ट है कि टिकाऊ तो भारत ही है क्योंकि धर्म के अधीन अर्थ की व्यवस्था समृद्धि का साधन है,  जबकि धर्मविहीन अर्थ विनाश के मार्ग पर ले जाने वाला है। भारत को अपनी व्यवस्थाओं में परिवर्तन कर विश्व के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करना है।  
    
पश्चिम के बाजार के आक्रमण से हमें बचना है। इस दृष्टि से हमारी अर्थव्यवस्था तो ठीक होनी ही चाहिए, साथ ही अर्थ विषयक हमारी दृष्टि भी बदलनी चाहिए । बाजार का आक्रमण पश्चिम की ही पद्धति से उत्पादन बढ़ाने का और विश्वव्यापार बढ़ाने की होड में उतरने से हम परावृत नहीं कर सकते है, अपनी पद्धति अपनाने से ही वह संभव है । उसी प्रकार से हमारी समाजव्यवस्था पर, परिवारजीवन पर भी पश्चिम की मान्यतायें हावी हो रही हैं। हमारे हीनताबोध के कारण हम उन्हें आधुनिक कहकर अपना रहे हैं। उससे असंस्कार का साम्राज्य फैल रहा है। हमें परिवारजीवन पुन: सुदृढ़ बनाकर विश्व के अन्य देशों को सामाजिक सुरक्षा का रास्ता बताना है।
 
पश्चिम के बाजार के आक्रमण से हमें बचना है। इस दृष्टि से हमारी अर्थव्यवस्था तो ठीक होनी ही चाहिए, साथ ही अर्थ विषयक हमारी दृष्टि भी बदलनी चाहिए । बाजार का आक्रमण पश्चिम की ही पद्धति से उत्पादन बढ़ाने का और विश्वव्यापार बढ़ाने की होड में उतरने से हम परावृत नहीं कर सकते है, अपनी पद्धति अपनाने से ही वह संभव है । उसी प्रकार से हमारी समाजव्यवस्था पर, परिवारजीवन पर भी पश्चिम की मान्यतायें हावी हो रही हैं। हमारे हीनताबोध के कारण हम उन्हें आधुनिक कहकर अपना रहे हैं। उससे असंस्कार का साम्राज्य फैल रहा है। हमें परिवारजीवन पुन: सुदृढ़ बनाकर विश्व के अन्य देशों को सामाजिक सुरक्षा का रास्ता बताना है।

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