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| === ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा === | | === ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा === |
| ब्राह्मण की शिक्षा के आयाम इस प्रकार हैं: | | ब्राह्मण की शिक्षा के आयाम इस प्रकार हैं: |
− | # ब्राह्मण को सर्वप्रथम निश्चित कर लेना चाहिए कि उसे ब्राह्मण रहना है कि नहीं क्योंकि ब्राह्मण के आचारों का पालन सरल नहीं है। इस बात का उल्लेख इसलिए करना उचित है क्योंकि आज ब्राह्मण बिना आचार का पालन किए ही अपने आपको श्रेष्ठ बताने की चेष्टा करता है । इस अनुचित व्यवहार को ठीक करने के लिए ब्राह्मण की शिक्षा का प्रथम आयाम आचार का होना चाहिए । आचार की शुद्धता और पवित्रता पहली बात है। आहार विहार की शुद्धता और पवित्रता अपेक्षित है। शुद्धता और पवित्रता की व्याख्या करने की बहुत आवश्यकता नहीं है क्योंकि साधारण रूप से वह सबकी जानकारी में होती है। | + | # ब्राह्मण को सर्वप्रथम निश्चित कर लेना चाहिए कि उसे ब्राह्मण रहना है कि नहीं क्योंकि ब्राह्मण के आचारों का पालन सरल नहीं है। इस बात का उल्लेख अतः करना उचित है क्योंकि आज ब्राह्मण बिना आचार का पालन किए ही अपने आपको श्रेष्ठ बताने की चेष्टा करता है । इस अनुचित व्यवहार को ठीक करने के लिए ब्राह्मण की शिक्षा का प्रथम आयाम आचार का होना चाहिए । आचार की शुद्धता और पवित्रता पहली बात है। आहार विहार की शुद्धता और पवित्रता अपेक्षित है। शुद्धता और पवित्रता की व्याख्या करने की बहुत आवश्यकता नहीं है क्योंकि साधारण रूप से वह सबकी जानकारी में होती है। |
| # आहार विहार की शुद्धता और पवित्रता हेतु संयम और तपश्चर्या की आवश्यकता होती है । वह ब्राह्मण ही नहीं जो इन दोनों को नहीं अपनाता है । अत: ये दोनों उसकी शिक्षा के प्रमुख अंग हैं। | | # आहार विहार की शुद्धता और पवित्रता हेतु संयम और तपश्चर्या की आवश्यकता होती है । वह ब्राह्मण ही नहीं जो इन दोनों को नहीं अपनाता है । अत: ये दोनों उसकी शिक्षा के प्रमुख अंग हैं। |
| # शास्त्रों का अध्ययन करना ब्राह्मण का सामाजिक दायित्व है । शास्त्रों की रक्षा करना उसका ज्ञानात्मक दायित्व है । अध्ययन का शास्त्र कहता है कि बुद्धि कि शुद्धता, पवित्रता, तेजस्विता के लिए आहारविहार की शुद्धता आवश्यक होती है। शास्त्रों का अध्ययन करने हेतु शिशु अवस्था, बाल अवस्था और किशोर अवस्था की जो अध्ययन पद्धति है उसे अपनाते हुए शास्त्रग्रंथों का अध्ययन करना है। तात्पर्य यह है कि व्यवहार की शिक्षा तो उसे प्राप्त करनी ही है। | | # शास्त्रों का अध्ययन करना ब्राह्मण का सामाजिक दायित्व है । शास्त्रों की रक्षा करना उसका ज्ञानात्मक दायित्व है । अध्ययन का शास्त्र कहता है कि बुद्धि कि शुद्धता, पवित्रता, तेजस्विता के लिए आहारविहार की शुद्धता आवश्यक होती है। शास्त्रों का अध्ययन करने हेतु शिशु अवस्था, बाल अवस्था और किशोर अवस्था की जो अध्ययन पद्धति है उसे अपनाते हुए शास्त्रग्रंथों का अध्ययन करना है। तात्पर्य यह है कि व्यवहार की शिक्षा तो उसे प्राप्त करनी ही है। |
− | # शास्त्रीय अध्ययन हेतु आवश्यक आचारों की शिक्षा उसे घर में ही प्राप्त होनी चाहिए क्योंकि वह घर में ही प्राप्त हो सकती है । शास्त्रों की शिक्षा उसे गुरुकुल में प्राप्त हो सकती है । गुरुकुल यदि आवासीय है तो वह गुरुगृहवास है इसलिए आचार की शिक्षा उसे वहाँ भी प्राप्त हो सकती है। | + | # शास्त्रीय अध्ययन हेतु आवश्यक आचारों की शिक्षा उसे घर में ही प्राप्त होनी चाहिए क्योंकि वह घर में ही प्राप्त हो सकती है । शास्त्रों की शिक्षा उसे गुरुकुल में प्राप्त हो सकती है । गुरुकुल यदि आवासीय है तो वह गुरुगृहवास है अतः आचार की शिक्षा उसे वहाँ भी प्राप्त हो सकती है। |
− | # ब्राह्मण को पौरोहित्य करना होता है । इसलिए मंत्रों का उच्चारण और गान, यज्ञ की विधि, संस्कारों की विधि, विभिन्न पूजाओं की विधि उसे सीखनी है। संस्कारों के सारे कर्मकांड आज की तरह समाज में बिना समझे किए जाते हैं ऐसी स्थिति न रहे इस दृष्टि से उसे अध्ययन करना है और पौरोहित्य करना है। | + | # ब्राह्मण को पौरोहित्य करना होता है । अतः मंत्रों का उच्चारण और गान, यज्ञ की विधि, संस्कारों की विधि, विभिन्न पूजाओं की विधि उसे सीखनी है। संस्कारों के सारे कर्मकांड आज की तरह समाज में बिना समझे किए जाते हैं ऐसी स्थिति न रहे इस दृष्टि से उसे अध्ययन करना है और पौरोहित्य करना है। |
− | # शास्त्रों के अध्ययन के साथ साथ उसे अध्यापन भी करना है इसलिए अध्यापन शास्त्र की शिक्षा भी उसे प्राप्त करनी चाहिए । पारम्परिक रूप में उसे अध्यापन या पौरोहित्य को अर्थार्जन का विषय नहीं बनाना है । यह केवल प्राचीन काल में ही सम्भव था ऐसा नहीं है । आज के समय में भी उसे सम्भव बनाना है । सादगी, संयम और तपश्चर्या विवशता नहीं है, चरित्र का उन्नयन है, यह विश्वास समाज में जागृत करना और प्रतिष्ठित करना उसका काम है । इसके लिए समाज पर भरोसा रखने की आवश्यकता होती है। | + | # शास्त्रों के अध्ययन के साथ साथ उसे अध्यापन भी करना है अतः अध्यापन शास्त्र की शिक्षा भी उसे प्राप्त करनी चाहिए । पारम्परिक रूप में उसे अध्यापन या पौरोहित्य को अर्थार्जन का विषय नहीं बनाना है । यह केवल प्राचीन काल में ही सम्भव था ऐसा नहीं है । आज के समय में भी उसे सम्भव बनाना है । सादगी, संयम और तपश्चर्या विवशता नहीं है, चरित्र का उन्नयन है, यह विश्वास समाज में जागृत करना और प्रतिष्ठित करना उसका काम है । इसके लिए समाज पर भरोसा रखने की आवश्यकता होती है। |
| # शास्त्रों को युगानुकूल बनाने हेतु व्यावहारिक अनुसन्धान करना उसका काम है । यह भी उसकी शिक्षा का प्रमुख हिस्सा है। | | # शास्त्रों को युगानुकूल बनाने हेतु व्यावहारिक अनुसन्धान करना उसका काम है । यह भी उसकी शिक्षा का प्रमुख हिस्सा है। |
| # वर्तमान सन्दर्भ में इसे उच्च शिक्षा कहते हैं । उच्च शिक्षा के दो प्रमुख आयाम तत्त्वचिन्तन और अनुसन्धान हैं । आज ये दोनों बातें कोई भी करता है। केवल ब्राह्मण ही करे इस बात का सार्वत्रिक विरोध होगा । हम कह सकते हैं कि जो भी आचार विचार में, आहार विहार में शुद्धता और पवित्रता रख सकता है, संयम और सादगी अपना सकता है, तपश्चर्या कर सकता है, विद्याप्रीति, ज्ञाननिष्ठा और ज्ञान कि श्रेष्ठता और पवित्रता हेतु कष्ट सह सकता है और अपने निर्वाह के लिए समाज पर भरोसा कर सकता है वही उच्च शिक्षा का अधिकारी है । वह किसी भी वर्ण में जन्मा हो तो भी ब्राह्मण ही है। आज शिक्षाक्षेत्र में ऐसे लोग ही नहीं हैं यही समाज कि दुर्गति का कारण है । स्वाभाविक है कि ऐसे लोग संख्या में कम ही होंगे परन्तु कम संख्या में भी उनका होना अनिवार्य है । अपने आपको ब्राह्मण कहलाने वाले लोगों को सही अर्थ में ब्राह्मण बनना चाहिए | | | # वर्तमान सन्दर्भ में इसे उच्च शिक्षा कहते हैं । उच्च शिक्षा के दो प्रमुख आयाम तत्त्वचिन्तन और अनुसन्धान हैं । आज ये दोनों बातें कोई भी करता है। केवल ब्राह्मण ही करे इस बात का सार्वत्रिक विरोध होगा । हम कह सकते हैं कि जो भी आचार विचार में, आहार विहार में शुद्धता और पवित्रता रख सकता है, संयम और सादगी अपना सकता है, तपश्चर्या कर सकता है, विद्याप्रीति, ज्ञाननिष्ठा और ज्ञान कि श्रेष्ठता और पवित्रता हेतु कष्ट सह सकता है और अपने निर्वाह के लिए समाज पर भरोसा कर सकता है वही उच्च शिक्षा का अधिकारी है । वह किसी भी वर्ण में जन्मा हो तो भी ब्राह्मण ही है। आज शिक्षाक्षेत्र में ऐसे लोग ही नहीं हैं यही समाज कि दुर्गति का कारण है । स्वाभाविक है कि ऐसे लोग संख्या में कम ही होंगे परन्तु कम संख्या में भी उनका होना अनिवार्य है । अपने आपको ब्राह्मण कहलाने वाले लोगों को सही अर्थ में ब्राह्मण बनना चाहिए | |
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| === वैश्य वर्ण की शिक्षा === | | === वैश्य वर्ण की शिक्षा === |
| वैश्य वर्ण की शिक्षा के आयाम इस प्रकार हैं: | | वैश्य वर्ण की शिक्षा के आयाम इस प्रकार हैं: |
− | # वैश्य समाज का भरण पोषण करने वाला है। भगवान विष्णु जो जगत के पालक हैं उनके आदर्श हैं। इसलिए समाज को किसी भी प्रकार के अभावों में जीना न पड़े यह देखने की ज़िम्मेदारी वैश्य वर्ण की है। वैश्य वर्ण के कामों का कौशल सिखाने से पूर्व यह मानसिकता निर्माण करना शिक्षा का प्रमुख अंग होना चाहिए । | + | # वैश्य समाज का भरण पोषण करने वाला है। भगवान विष्णु जो जगत के पालक हैं उनके आदर्श हैं। अतः समाज को किसी भी प्रकार के अभावों में जीना न पड़े यह देखने की ज़िम्मेदारी वैश्य वर्ण की है। वैश्य वर्ण के कामों का कौशल सिखाने से पूर्व यह मानसिकता निर्माण करना शिक्षा का प्रमुख अंग होना चाहिए । |
− | # कृषि और गोपालन वैश्य का प्रमुख व्यवसाय है। इसलिए भूमि और गाय के साथ नाता बहुत छोटी आयु से ही जोड़ना चाहिए । ये दोनों परिश्रमपूर्वक करने के काम हैं इसलिए छोटी आयु से ही मिट्टी और गाय के साथ जुड़कर परिश्रम करने में आनन्द आए ऐसी व्यवस्था शिक्षा में करनी चाहिए। | + | # कृषि और गोपालन वैश्य का प्रमुख व्यवसाय है। अतः भूमि और गाय के साथ नाता बहुत छोटी आयु से ही जोड़ना चाहिए । ये दोनों परिश्रमपूर्वक करने के काम हैं अतः छोटी आयु से ही मिट्टी और गाय के साथ जुड़कर परिश्रम करने में आनन्द आए ऐसी व्यवस्था शिक्षा में करनी चाहिए। |
− | # कृषि के साथ साथ वाणिज्य भी वैश्य वर्ण का ही काम है। इसलिए वाणिज्य के साथ संबन्धित शिक्षा की व्यवस्था भी छोटी आयु से होनी चाहिए। | + | # कृषि के साथ साथ वाणिज्य भी वैश्य वर्ण का ही काम है। अतः वाणिज्य के साथ संबन्धित शिक्षा की व्यवस्था भी छोटी आयु से होनी चाहिए। |
| # दान देना, सम्पत्ति का स्वामी होना, वैभव में रहना वैश्य वर्ण का स्वभाव है। | | # दान देना, सम्पत्ति का स्वामी होना, वैभव में रहना वैश्य वर्ण का स्वभाव है। |
| # वैश्य का हाथ लेने के लिए आगे नहीं बढ़ता है और देने की बात आती है तो कभी पीछे नहीं हटता है। देश की आर्थिक समस्या क्या है, प्राकृतिक संसाधनों का जतन किस प्रकार किया जाना चाहिए, यंत्रों का उपयोग करने में किस प्रकार विवेक बरतना चाहिए, लोग बेरोजगार न हों, काम करने के लायक बनें इस दृष्टि से क्या व्यवस्था करनी चाहिए, इसका विचार और योजना करना भी वैश्यों का ही काम है। | | # वैश्य का हाथ लेने के लिए आगे नहीं बढ़ता है और देने की बात आती है तो कभी पीछे नहीं हटता है। देश की आर्थिक समस्या क्या है, प्राकृतिक संसाधनों का जतन किस प्रकार किया जाना चाहिए, यंत्रों का उपयोग करने में किस प्रकार विवेक बरतना चाहिए, लोग बेरोजगार न हों, काम करने के लायक बनें इस दृष्टि से क्या व्यवस्था करनी चाहिए, इसका विचार और योजना करना भी वैश्यों का ही काम है। |
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| # ऐसा लग सकता है कि आज माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा सबके लिए समान ही है । वह इस स्वरूप की हो सकती है। परन्तु हितकारी यह होगा कि चारों वर्गों की स्वतंत्र शिक्षा कि व्यवस्था हो और ये सारी बातें उसके साथ समरस बनाकर सिखाई जाएँ । ऐसा होने से अपने वर्ण की शिक्षा छोटी आयु से ही प्राप्त हो सकेगी । व्यक्ति के समुचित विकास के लिए यह आवश्यक है। | | # ऐसा लग सकता है कि आज माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा सबके लिए समान ही है । वह इस स्वरूप की हो सकती है। परन्तु हितकारी यह होगा कि चारों वर्गों की स्वतंत्र शिक्षा कि व्यवस्था हो और ये सारी बातें उसके साथ समरस बनाकर सिखाई जाएँ । ऐसा होने से अपने वर्ण की शिक्षा छोटी आयु से ही प्राप्त हो सकेगी । व्यक्ति के समुचित विकास के लिए यह आवश्यक है। |
| # वर्ण के साथ आचार और व्यवसाय जुड़े हुए हैं। किसी भी व्यवसाय के साथ उस व्यवसाय की शिक्षा भी जुड़ी हुई होनी चाहिए। उस शिक्षा का शिशु अवस्था से लेकर उच्च शिक्षा तक की व्यवस्था उस व्यवसाय का ही अंग बननी चाहिए । अनुसन्धान भी उसका अंग होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि हर व्यवसाय के गुरुकुल, या प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के केंद्र एक स्थान पर ही होंगे । इस अर्थ में चारों वर्गों के लोग समान रूप से उच्च शिक्षित हो सकते हैं, अपने विषय का अध्यापन कर सकते हैं और अपने विषय में अनुसन्धान भी कर सकते हैं । | | # वर्ण के साथ आचार और व्यवसाय जुड़े हुए हैं। किसी भी व्यवसाय के साथ उस व्यवसाय की शिक्षा भी जुड़ी हुई होनी चाहिए। उस शिक्षा का शिशु अवस्था से लेकर उच्च शिक्षा तक की व्यवस्था उस व्यवसाय का ही अंग बननी चाहिए । अनुसन्धान भी उसका अंग होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि हर व्यवसाय के गुरुकुल, या प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के केंद्र एक स्थान पर ही होंगे । इस अर्थ में चारों वर्गों के लोग समान रूप से उच्च शिक्षित हो सकते हैं, अपने विषय का अध्यापन कर सकते हैं और अपने विषय में अनुसन्धान भी कर सकते हैं । |
− | # यदि हम जन्म से वर्ण चाहते हैं तो बहुत समस्या नहीं है । परन्तु यदि हम जन्म से वर्ण नहीं चाहते हैं और अपना वर्ण स्वयं निश्चित करना चाहते हैं तो यह कार्य औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व करना चाहिए ताकि प्रारम्भ से ही अपने वर्ण के अनुरूप शिक्षा मिले । ध्यान यह रखना चाहिए कि हम दो वर्गों में एक साथ न रहें। जन्म से हम ब्राह्मण हैं और व्यवसाय हम वैश्य या शूद्र का कर रहे हैं तो दोनों वर्गों के लाभ लेना चाहेंगे और दोनों के बंधनों से मुक्त रहेंगे ऐसा नहीं हो सकता । आज ऐसा ही हो रहा है इसलिए इस बात का विशेष उल्लेख करने की आवश्यकता लगती है। | + | # यदि हम जन्म से वर्ण चाहते हैं तो बहुत समस्या नहीं है । परन्तु यदि हम जन्म से वर्ण नहीं चाहते हैं और अपना वर्ण स्वयं निश्चित करना चाहते हैं तो यह कार्य औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व करना चाहिए ताकि प्रारम्भ से ही अपने वर्ण के अनुरूप शिक्षा मिले । ध्यान यह रखना चाहिए कि हम दो वर्गों में एक साथ न रहें। जन्म से हम ब्राह्मण हैं और व्यवसाय हम वैश्य या शूद्र का कर रहे हैं तो दोनों वर्गों के लाभ लेना चाहेंगे और दोनों के बंधनों से मुक्त रहेंगे ऐसा नहीं हो सकता । आज ऐसा ही हो रहा है अतः इस बात का विशेष उल्लेख करने की आवश्यकता लगती है। |
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| ==References== | | ==References== |