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अनुलोम विवाह का अर्थ है ब्राह्मण वर्ण का पुरुष क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र स्त्री से विवाह कर सकता है, क्षत्रिय वर्ण का पुरुष वैश्य या शुद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है, वैश्य वर्ण का पुरुष शुद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है। इस सीमित रूप में वर्णव्यवस्था लचीली है। दो भिन्न भिन्न वर्गों के स्त्री और पुरुष की संतानों को वर्णसंकर कहते हैं । महाभारत में ऐसे वर्णसंकरों के अनेक प्रकार बताए गए हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन वर्णसंकरों के भी व्यवसाय आग्रहपूर्वक निश्चित किए गए हैं । यदि मनुष्य व्यवसाय बदल देता है तो उसका वर्ण भी बदल जाता है। आचार छोड़ने की तनिक भी अनुमति नहीं है।
 
अनुलोम विवाह का अर्थ है ब्राह्मण वर्ण का पुरुष क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र स्त्री से विवाह कर सकता है, क्षत्रिय वर्ण का पुरुष वैश्य या शुद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है, वैश्य वर्ण का पुरुष शुद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है। इस सीमित रूप में वर्णव्यवस्था लचीली है। दो भिन्न भिन्न वर्गों के स्त्री और पुरुष की संतानों को वर्णसंकर कहते हैं । महाभारत में ऐसे वर्णसंकरों के अनेक प्रकार बताए गए हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन वर्णसंकरों के भी व्यवसाय आग्रहपूर्वक निश्चित किए गए हैं । यदि मनुष्य व्यवसाय बदल देता है तो उसका वर्ण भी बदल जाता है। आचार छोड़ने की तनिक भी अनुमति नहीं है।
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जो विचारधारा समाज को जीवमान इकाई मानती है और समाज तथा व्यक्ति के बीच अंग और अंगी का सम्बन्ध बताती है वहाँ समाज अंगी होता है और व्यक्ति अंग होता है। व्यक्ति समाज की शाश्वतता, सुस्थिति और सुदृढ़ता के लिए अपने आपको सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ समायोजित करेगा । व्यक्ति अपना जीवन समाज की सेवा के लिए समर्पित करेगा और अपने आपको धन्य मानेगा। ऐसे समाज में ही वर्णव्यवस्था का प्रयोजन रहता है। जिस समाज में व्यक्ति को ही स्वतंत्र और सर्वोपरि मानता है और समाज को केवल करार की व्यवस्था ही माना जाता है वहाँ वर्णव्यवस्था का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। आज भारत में वर्णव्यवस्था की जो उपेक्षा, तिरस्कार और दुरवस्था दिखाई देती है वह व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना के कारण ही है । धार्मिक समाज को एक बार निश्चित हो जाने की आवश्यकता है कि उसे करार वाली जीवनव्यवस्था चाहिए कि कुटुंबभावना वाली। यदि हम कुटुंबभावना वाली समाजव्यवस्था को चाहते हैं तो हमें वर्णव्यवस्था को स्वीकार करना होगा।
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जो विचारधारा समाज को जीवमान इकाई मानती है और समाज तथा व्यक्ति के मध्य अंग और अंगी का सम्बन्ध बताती है वहाँ समाज अंगी होता है और व्यक्ति अंग होता है। व्यक्ति समाज की शाश्वतता, सुस्थिति और सुदृढ़ता के लिए अपने आपको सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ समायोजित करेगा । व्यक्ति अपना जीवन समाज की सेवा के लिए समर्पित करेगा और अपने आपको धन्य मानेगा। ऐसे समाज में ही वर्णव्यवस्था का प्रयोजन रहता है। जिस समाज में व्यक्ति को ही स्वतंत्र और सर्वोपरि मानता है और समाज को केवल करार की व्यवस्था ही माना जाता है वहाँ वर्णव्यवस्था का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। आज भारत में वर्णव्यवस्था की जो उपेक्षा, तिरस्कार और दुरवस्था दिखाई देती है वह व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना के कारण ही है । धार्मिक समाज को एक बार निश्चित हो जाने की आवश्यकता है कि उसे करार वाली जीवनव्यवस्था चाहिए कि कुटुंबभावना वाली। यदि हम कुटुंबभावना वाली समाजव्यवस्था को चाहते हैं तो हमें वर्णव्यवस्था को स्वीकार करना होगा।
    
यहाँ ऐसी समाजव्यवस्था चाहिए, अनेक प्रकार से वह लाभदायी है, ऐसा मानकर ही सारे विषयों का ऊहापोह किया गया है यह स्पष्ट है।
 
यहाँ ऐसी समाजव्यवस्था चाहिए, अनेक प्रकार से वह लाभदायी है, ऐसा मानकर ही सारे विषयों का ऊहापोह किया गया है यह स्पष्ट है।

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