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===== १. राजनारायण बसु''' :''' =====
 
===== १. राजनारायण बसु''' :''' =====
ये श्री योगी अरविन्द के मातामह थे। प्रारम्भ में तो वे अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर पूर्ण रूप से युरोपीय शैली में रंगकर उसी प्रकार से जीवनयापन करते थे। परन्तु महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के सम्पर्क में आने पर उनमें स्वदेशी चेतना जाग उठी और समाजजीवन में धार्मिकता पुनः प्रस्थापित होने के लिये उन्हें शिक्षा के धार्मिककरण की आवश्यकता का अनुभव हुआ। उन्होंने स्वयं युरोपीय जीवनशैली का त्याग किया और धार्मिक शिक्षा देने हेतु 'सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ नेशनल फीलींग अमंग दि एजुकेटेड नेटिव्झ ऑफ बंगाल - शिक्षित बंगालियों में राष्ट्रीय भावना संचारिणी संस्था - की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने मातृभाषा का, धार्मिक खानपान, वेशभूषा सहित जीवनशैली का और धार्मिक ज्ञान के सम्पादन का आग्रह शुरू किया।
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ये श्री योगी अरविन्द के मातामह थे। प्रारम्भ में तो वे अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर पूर्ण रूप से युरोपीय शैली में रंगकर उसी प्रकार से जीवनयापन करते थे। परन्तु महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के सम्पर्क में आने पर उनमें स्वदेशी चेतना जाग उठी और समाजजीवन में धार्मिकता पुनः प्रस्थापित होने के लिये उन्हें शिक्षा के धार्मिककरण की आवश्यकता का अनुभव हुआ। उन्होंने स्वयं युरोपीय जीवनशैली का त्याग किया और धार्मिक शिक्षा देने हेतु 'सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ नेशनल फीलींग अमंग दि एजुकेटेड नेटिव्झ ऑफ बंगाल - शिक्षित बंगालियों में राष्ट्रीय भावना संचारिणी संस्था - की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने मातृभाषा का, धार्मिक खानपान, वेशभूषा सहित जीवनशैली का और धार्मिक ज्ञान के सम्पादन का आग्रह आरम्भ किया।
    
कुछ मात्रा में और कुछ समय तक उनका प्रभाव दिखाई दिया।
 
कुछ मात्रा में और कुछ समय तक उनका प्रभाव दिखाई दिया।
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श्री अरविन्द पूर्ण रूप से अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किये हुए व्यक्ति थे । परन्तु योगानुयोग, अथवा जिसे पूर्वजन्म के संस्कार भी कह सकते हैं, उनमें देशभक्ति की भावना प्रबल थी। अतः इंग्लैण्ड से शिक्षा पूर्ण करके वापस भारत आने पर वे बडौदा में महाराजा सयाजीराव गायकवाड के महाविद्यालय में प्राध्यापक और प्रिन्सिपल बने, बाद में कोलकता जाकर वहाँ नेशनल कालेज की स्थापना की । बाद में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की भी स्थापना की जिसके माध्यम से वे देशभर में राष्ट्रीय शिक्षा का प्रयास करना चाहते थे । परिषद के इन प्रयासों को उस समय की कोंग्रेस का भी समर्थन था और महाराष्ट्र से लोकमान्य तिलक और पंजाब से लाला लाजपतराय इस शिक्षापद्धति को समझने हेतु इसकी अखिल धार्मिक बैठक में सहभागी हुए थे । इस प्रकार देश के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शृंखला का प्रारम्भ हुआ।
 
श्री अरविन्द पूर्ण रूप से अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किये हुए व्यक्ति थे । परन्तु योगानुयोग, अथवा जिसे पूर्वजन्म के संस्कार भी कह सकते हैं, उनमें देशभक्ति की भावना प्रबल थी। अतः इंग्लैण्ड से शिक्षा पूर्ण करके वापस भारत आने पर वे बडौदा में महाराजा सयाजीराव गायकवाड के महाविद्यालय में प्राध्यापक और प्रिन्सिपल बने, बाद में कोलकता जाकर वहाँ नेशनल कालेज की स्थापना की । बाद में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की भी स्थापना की जिसके माध्यम से वे देशभर में राष्ट्रीय शिक्षा का प्रयास करना चाहते थे । परिषद के इन प्रयासों को उस समय की कोंग्रेस का भी समर्थन था और महाराष्ट्र से लोकमान्य तिलक और पंजाब से लाला लाजपतराय इस शिक्षापद्धति को समझने हेतु इसकी अखिल धार्मिक बैठक में सहभागी हुए थे । इस प्रकार देश के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शृंखला का प्रारम्भ हुआ।
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परन्तु बहुत जल्दी यह प्रयास सरकारी संस्थाओं की अनुकृति बनकर रह गया। श्री अरविन्द ने इस बात की भर्त्सना की, उसका त्याग किया और नये सिरे से राष्ट्रीय शिक्षा के विषय में चिन्तन शुरू किया। इस चिन्तन के परिपाक रूप उन्होंने 'राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति' शीर्षक से लेख लिखे। शिक्षा के प्रयोगों के साथ साथ वे भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रान्तिकारी आंदोलन में भी सहयोगी थे । इसी दौरान अंग्रेजों के द्वारा होने वाली गिरफ्तारी से बचने हेतु वे पोंडीचेरी चले गये। वहाँ उनके जीवन में बहुत बडा बदलाव आया । वे योगसाधना में रत हो गये । वहाँ उन्होंने श्री माताजी के साथ मिलकर शिक्षा के मौलिक प्रयोग चलाये जो आज भी चल रहे हैं।
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परन्तु बहुत जल्दी यह प्रयास सरकारी संस्थाओं की अनुकृति बनकर रह गया। श्री अरविन्द ने इस बात की भर्त्सना की, उसका त्याग किया और नये सिरे से राष्ट्रीय शिक्षा के विषय में चिन्तन आरम्भ किया। इस चिन्तन के परिपाक रूप उन्होंने 'राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति' शीर्षक से लेख लिखे। शिक्षा के प्रयोगों के साथ साथ वे भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रान्तिकारी आंदोलन में भी सहयोगी थे । इसी दौरान अंग्रेजों के द्वारा होने वाली गिरफ्तारी से बचने हेतु वे पोंडीचेरी चले गये। वहाँ उनके जीवन में बहुत बडा बदलाव आया । वे योगसाधना में रत हो गये । वहाँ उन्होंने श्री माताजी के साथ मिलकर शिक्षा के मौलिक प्रयोग चलाये जो आज भी चल रहे हैं।
    
===== '''४. स्वामी विवेकानन्द और भगिनी निवेदिता''' : =====
 
===== '''४. स्वामी विवेकानन्द और भगिनी निवेदिता''' : =====
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===== '''६. महात्मा गांधी''' : =====
 
===== '''६. महात्मा गांधी''' : =====
बुनियादी शिक्षा अथवा नई तालीम अथवा वर्धा योजना के नाम से ख्यात महात्मा गाँधी के शिक्षा के प्रयोग सर्वाधिक युगानुकूल थे । स्वदेशी तंत्र, ग्रामकेन्द्रित व्यवस्था, उद्योगप्रधान योजना, श्रमनिष्ठा, स्वावलम्बन और सादगीपूर्ण व्यवहार और पूर्ण धार्मिक परिवेशयुक्त विद्यालयों और महाविद्यालयों की शृंखला उत्साहपूर्वक शुरू हुई, सन्निष्ठ प्रयासों से चली और अन्त में सरकारी शिक्षातंत्र में विलीन हो गई। आज भी ये विद्यालय चल रहे हैं।
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बुनियादी शिक्षा अथवा नई तालीम अथवा वर्धा योजना के नाम से ख्यात महात्मा गाँधी के शिक्षा के प्रयोग सर्वाधिक युगानुकूल थे । स्वदेशी तंत्र, ग्रामकेन्द्रित व्यवस्था, उद्योगप्रधान योजना, श्रमनिष्ठा, स्वावलम्बन और सादगीपूर्ण व्यवहार और पूर्ण धार्मिक परिवेशयुक्त विद्यालयों और महाविद्यालयों की शृंखला उत्साहपूर्वक आरम्भ हुई, सन्निष्ठ प्रयासों से चली और अन्त में सरकारी शिक्षातंत्र में विलीन हो गई। आज भी ये विद्यालय चल रहे हैं।
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यहाँ तक के राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास स्वतन्त्रता पूर्व शुरू हुए थे और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी चल रहे हैं।
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यहाँ तक के राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास स्वतन्त्रता पूर्व आरम्भ हुए थे और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी चल रहे हैं।
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स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास शुरू हुए और चल रहे हैं।
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स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास आरम्भ हुए और चल रहे हैं।
    
इनमें प्रमुख प्रयास है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रेरित शैक्षिक संगठनों का। विद्याभारती अखिल धार्मिक शिक्षा संस्थान, धार्मिक शिक्षण मण्डल, अखिल धार्मिक विद्यार्थी परिषद, राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ, अखिल धार्मिक इतिहास संकलन योजना, विज्ञान भारती, संस्कृत भारती जैसे कई संगठन शिक्षा के धार्मिककरण का प्रयास कर रहे हैं। ये सारे प्रयास अत्यन्त व्यापक, परिश्रमपूर्ण और निरन्तर चलने वाले हैं। देशभक्ति की भावना और समर्पण के आधार पर चल रहे हैं।
 
इनमें प्रमुख प्रयास है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रेरित शैक्षिक संगठनों का। विद्याभारती अखिल धार्मिक शिक्षा संस्थान, धार्मिक शिक्षण मण्डल, अखिल धार्मिक विद्यार्थी परिषद, राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ, अखिल धार्मिक इतिहास संकलन योजना, विज्ञान भारती, संस्कृत भारती जैसे कई संगठन शिक्षा के धार्मिककरण का प्रयास कर रहे हैं। ये सारे प्रयास अत्यन्त व्यापक, परिश्रमपूर्ण और निरन्तर चलने वाले हैं। देशभक्ति की भावना और समर्पण के आधार पर चल रहे हैं।
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इसके अलावा अनेक सामाजिक सांस्कृतिक संगठन, कई सुलझे हुए व्यक्ति भी अपनी अपनी पद्धति से राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास में लगे हुए हैं।
 
इसके अलावा अनेक सामाजिक सांस्कृतिक संगठन, कई सुलझे हुए व्यक्ति भी अपनी अपनी पद्धति से राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास में लगे हुए हैं।
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इस प्रकार सन् १८६६ में शुरू हुए राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास आज भी चल रहे हैं, परन्तु दुर्भाग्य से इनमें से एक भी भारत में राष्ट्रीय शिक्षा को देश की मुख्य धारा बनाने में सफल नहीं हुआ है। देश में आज भी ब्रिटिश शिक्षा ही अधिकृत रूप से चल रही है।
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इस प्रकार सन् १८६६ में आरम्भ हुए राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास आज भी चल रहे हैं, परन्तु दुर्भाग्य से इनमें से एक भी भारत में राष्ट्रीय शिक्षा को देश की मुख्य धारा बनाने में सफल नहीं हुआ है। देश में आज भी ब्रिटिश शिक्षा ही अधिकृत रूप से चल रही है।
    
आज यदि कोई पुनः राष्ट्रीय शिक्षा की योजना बनाना चाहता है तो उसे धार्मिक शिक्षा के शुद्ध स्वरूप को, ब्रिटिश शिक्षा के मूल स्वरूप को, राष्ट्रीय शिक्षा की पुनःस्थापना के प्रयासों को एवं उनकी विफलताओं के कारणों को सही ढंग से जानना होगा ताकि योजना के क्रियान्वयन के समय उनसे बचा जाय ।
 
आज यदि कोई पुनः राष्ट्रीय शिक्षा की योजना बनाना चाहता है तो उसे धार्मिक शिक्षा के शुद्ध स्वरूप को, ब्रिटिश शिक्षा के मूल स्वरूप को, राष्ट्रीय शिक्षा की पुनःस्थापना के प्रयासों को एवं उनकी विफलताओं के कारणों को सही ढंग से जानना होगा ताकि योजना के क्रियान्वयन के समय उनसे बचा जाय ।
    
===== राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयासों की विफलता के कारण =====
 
===== राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयासों की विफलता के कारण =====
१. सबसे पहला कारण तो यह था कि राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास बहुत विलंब से शुरू हुए। सन १७७३ से धार्मिक शिक्षा के यूरोपीकरण के प्रयास शुरू हए और १८१३ में इण्डिया एज्युकेशन एक्ट, १८३५ में मेकाले की शिक्षानीति और १८५७ में मुंबई, कोलकता और मद्रास विश्वविद्यालयों की स्थापना के चरणों में ब्रिटिश शिक्षा भारत में दृढमूल हो गई, दो तीन पीढियों की शिक्षा उसमें हो गई उसके बाद सन् १८६६ में राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास शुरू हुए। डेढ सौ से भी अधिक वर्षों तक ब्रिटिश शिक्षा को नकारने का कोई प्रयास नहीं हुआ।
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१. सबसे पहला कारण तो यह था कि राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास बहुत विलंब से आरम्भ हुए। सन १७७३ से धार्मिक शिक्षा के यूरोपीकरण के प्रयास आरम्भ हए और १८१३ में इण्डिया एज्युकेशन एक्ट, १८३५ में मेकाले की शिक्षानीति और १८५७ में मुंबई, कोलकता और मद्रास विश्वविद्यालयों की स्थापना के चरणों में ब्रिटिश शिक्षा भारत में दृढमूल हो गई, दो तीन पीढियों की शिक्षा उसमें हो गई उसके बाद सन् १८६६ में राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास आरम्भ हुए। डेढ सौ से भी अधिक वर्षों तक ब्रिटिश शिक्षा को नकारने का कोई प्रयास नहीं हुआ।
    
२. राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयासों को शासन का समर्थन नहीं था, यही नहीं तो शासन का विराध ही उन्हें सहना पडता था । इसलिये सर्वाधिक शक्ति शासन का विरोध सहने में ही खर्च होती थी।
 
२. राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयासों को शासन का समर्थन नहीं था, यही नहीं तो शासन का विराध ही उन्हें सहना पडता था । इसलिये सर्वाधिक शक्ति शासन का विरोध सहने में ही खर्च होती थी।
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शिक्षा के धार्मिककरण की यह प्रक्रिया सरल नहीं है। जल्दी सिद्ध होने वाली भी नहीं है। इतने विविध पहलू इसमें जुड़े हुए हैं कि उन्हें एक एक करके समझने में समय लगेगा। विद्वज्जनों का समन्वित प्रयास, मूलगत (पीपवराशपीरश्र) अनुसन्धान, शास्त्रग्रन्थों का युगानुकूल रूपान्तरण, वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप साहित्य निर्माण, जनमानस प्रबोधन, शासन पर प्रभाव, अर्थव्यवस्था का पुनर्विचार, शिक्षक निर्मिति आदि अनेक पहलू हैं जो पर्याप्त धैर्य और परिश्रम की अपेक्षा करते हैं। अतः इस योजना को फलवती होने के लिये पर्याप्त समय देना चाहिये।
 
शिक्षा के धार्मिककरण की यह प्रक्रिया सरल नहीं है। जल्दी सिद्ध होने वाली भी नहीं है। इतने विविध पहलू इसमें जुड़े हुए हैं कि उन्हें एक एक करके समझने में समय लगेगा। विद्वज्जनों का समन्वित प्रयास, मूलगत (पीपवराशपीरश्र) अनुसन्धान, शास्त्रग्रन्थों का युगानुकूल रूपान्तरण, वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप साहित्य निर्माण, जनमानस प्रबोधन, शासन पर प्रभाव, अर्थव्यवस्था का पुनर्विचार, शिक्षक निर्मिति आदि अनेक पहलू हैं जो पर्याप्त धैर्य और परिश्रम की अपेक्षा करते हैं। अतः इस योजना को फलवती होने के लिये पर्याप्त समय देना चाहिये।
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किसी भी बड़े कार्य को सिद्ध होने में तीन पीढियों का समय लगता है ऐसा हमारा इतिहास दर्शाता है। सुप्रसिद्ध उदाहरण भगवती गंगा को पृथ्वी पर लाने के प्रयास का है। राजा भगीरथ गंगा को पृथ्वी पर ले आये, परन्तु गंगा को पृथ्वी पर लाने हेतु तपश्चर्या भगीरथ के पितामह ने शुरू की थी और पिता ने चालू रखी थी। शिक्षा योजना को भी फलवती होने में तीन पीढियाँ अथवा साठ वर्षों का समय हम कल्पित कर सकते हैं।
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किसी भी बड़े कार्य को सिद्ध होने में तीन पीढियों का समय लगता है ऐसा हमारा इतिहास दर्शाता है। सुप्रसिद्ध उदाहरण भगवती गंगा को पृथ्वी पर लाने के प्रयास का है। राजा भगीरथ गंगा को पृथ्वी पर ले आये, परन्तु गंगा को पृथ्वी पर लाने हेतु तपश्चर्या भगीरथ के पितामह ने आरम्भ की थी और पिता ने चालू रखी थी। शिक्षा योजना को भी फलवती होने में तीन पीढियाँ अथवा साठ वर्षों का समय हम कल्पित कर सकते हैं।
    
साठ वर्षों का विभाजन कर हम पाँच चरण बना सकते हैं। एक एक चरण बारह वर्षों का होगा। बारह वर्षों को एक तप कहते हैं। एक एक तप का एक चरण होगा । पाँच चरणों में कार्य का क्रम कुछ इस प्रकार बैठ सकता है
 
साठ वर्षों का विभाजन कर हम पाँच चरण बना सकते हैं। एक एक चरण बारह वर्षों का होगा। बारह वर्षों को एक तप कहते हैं। एक एक तप का एक चरण होगा । पाँच चरणों में कार्य का क्रम कुछ इस प्रकार बैठ सकता है
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===== '''३. तीसरा चरण परिवारशिक्षा''' =====
 
===== '''३. तीसरा चरण परिवारशिक्षा''' =====
शिक्षा व्यक्ति के जन्मपूर्व से शुरू होती है । उस समय शिक्षा देने वाले मातापिता होते हैं। इसलिये माता को बालक का प्रथम गुरु कहा गया है। परिवार में संस्कार होते हैं, चरित्रनिर्माण होता है। परिवार में ही अनेक प्रकार के कौशल सीखे जाते हैं। परिवार में जीवन का दृष्टिकोण बनता है। परिवार कुलपरंपरा का, कौशलपरंपरा का, व्यवसायपरंपरा का, वंशपरंपरा का वाहक है। परिवार समाजव्यवस्था की मूल इकाई है। परिवार में ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थाश्रम व्यतीत होते हैं। समाजधारणा के लिये आवश्यक ऐसे दान, यज्ञ, सेवा, शुश्रूषा, परिचर्या आदि परिवार में ही सीखे जाते हैं और वहीं इनका निर्वहण भी होता है। इस परिवारव्यवस्था एवं परिवारभावना को सुदृढ बनाने से ही समाज भी सुदृढ, सुखी और समृद्ध होगा। इस दृष्टि से परिवारशिक्षा की व्यवस्था करना तीसरा चरण होगा।
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शिक्षा व्यक्ति के जन्मपूर्व से आरम्भ होती है । उस समय शिक्षा देने वाले मातापिता होते हैं। इसलिये माता को बालक का प्रथम गुरु कहा गया है। परिवार में संस्कार होते हैं, चरित्रनिर्माण होता है। परिवार में ही अनेक प्रकार के कौशल सीखे जाते हैं। परिवार में जीवन का दृष्टिकोण बनता है। परिवार कुलपरंपरा का, कौशलपरंपरा का, व्यवसायपरंपरा का, वंशपरंपरा का वाहक है। परिवार समाजव्यवस्था की मूल इकाई है। परिवार में ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थाश्रम व्यतीत होते हैं। समाजधारणा के लिये आवश्यक ऐसे दान, यज्ञ, सेवा, शुश्रूषा, परिचर्या आदि परिवार में ही सीखे जाते हैं और वहीं इनका निर्वहण भी होता है। इस परिवारव्यवस्था एवं परिवारभावना को सुदृढ बनाने से ही समाज भी सुदृढ, सुखी और समृद्ध होगा। इस दृष्टि से परिवारशिक्षा की व्यवस्था करना तीसरा चरण होगा।
    
===== '''४. चौथा चरण शिक्षकनिर्माण''' =====
 
===== '''४. चौथा चरण शिक्षकनिर्माण''' =====

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